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Showing posts from November, 2015

मंत्रियों की पीड़ा, ये कैसे नौकरशाह

- दिवाकर मुक्तिबोध किसी राज्य के मंत्री यदि यह गुहार लगाए कि अधिकारी उनकी सुनते नहीं, उनकी परवाह नहीं करते, उनका काम नहीं करते तो इसे क्या कहा जाए? जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होने और सत्ताधिकार के बावजूद उनकी अपनी कमजोरी, भलमनसाहत, नेतृत्व की अक्षमता या और कुछ? नौकरशाही के अनियंत्रित होने की और क्या वजह हो सकती है? जाहिर सी बात है जब राजनीतिक नेतृत्व कमजोर होगा तो प्रशासनिक पकड़ भी कमजोर होगी और ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है नौकरशाही बेलगाम होगी तथा मंत्री अपनी कमजोरियों के चलते मुख्यमंत्री के सामने उसकी निरंकुषता का रोना रोते रहेंगे। छत्तीसगढ़ में यही हो रहा है, यदि ऐसा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राज्य में सन् 2003 से डा. रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा का शासन है। इस दौरान राज्य के अनेक मंत्री मुख्यमंत्री एवं संगठन की बैठकों में प्रशासनिक अधिकारियों के कामकाज और उनके द्वारा की जा रही उपेक्षा की शिकायतें करते रहे हैं। अभी हाल ही में 24 नवंबर 2015 को मुख्यमंत्री निवास में केबिनेट मीटिंग में, अफसरों को विदा करने के बाद मंत्रियों ने जमकर नौकरशाही पर अपनी भड़ास न

असहिष्णुता, बहस और सत्ता का अहंकार

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- दिवाकर मुक्तिबोध       देश में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में नामचीन साहित्यकारों, फिल्मकारों, संस्कृतिकर्मियों और वैज्ञानिकों द्वारा राष्ट्रीय सम्मान लौटाने की घटनाओं पर राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी की प्रतिक्रिया के बाद कुछ सवाल सहजत खड़े होते हैं। लेकिन इन पर चर्चा के पूर्व राष्ट्रपतिजी के विचारों पर गौर करना होगा जो उन्होंने नई दिल्ली में 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय प्रेस परिषद द्वारा आयोजित कार्यक्रम के दौरान व्यक्त किए। उन्होंने कहा- ''प्रतिष्ठित पुरस्कार व्यक्ति की प्रतिभा, योग्यता और कड़ी मेहनत के सम्मान में दिए जाते हैं। ये राष्ट्रीय आदर के प्रतीक होते हैं। अत: पुरस्कार लेने वालों को इनका महत्व समझते हुए इन पुरस्कारों का सम्मान करना चाहिए। समाज में कुछ घटनाओं के कारण संवेदनशील व्यक्ति कभी-कभी विचलित हो जाते हैं किन्तु भावनाओं को तर्क पर हावी होने नहीं देना चाहिए और असहमति को बहस तथा चर्चा से व्यक्त किया जाना चाहिए।''        राष्ट्रपति के इन विचारों से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय सम्मान लौटाने की घटनाओं को वे ठीक नहीं मानते

यादों में बबनजी

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- दिवाकर मुक्तिबोध        पहले सर्वश्री मायाराम सुरजन फिर रामाश्रय उपाध्याय, मधुकर खेर, सत्येंद्र गुमाश्ता, रम्मू श्रीवास्तव, राजनारायण मिश्र, कमल ठाकुर और अब श्री बबन प्रसाद मिश्र। छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के ये शीर्ष पुरुष एक - एक करके दुनिया से विदा हो गए और अपने पीछे ऐसा शून्य छोड़ गए जिसकी भरपाई मुश्किल नजर आ रही है। यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे इनका सानिंध्य प्राप्त हुआ। अलग - अलग समय में मैंने इनके साथ काम किया, मुझे इनका आर्शीवाद मिला, पत्रकारिता की समझ विकसित हुई, विशेषकर मूल्यपरक एवं ईमानदार पत्रकारिता को आत्मसात करने की प्रेरणा मिली। इन श्रेष्ठ संपादकों में से बबन प्रसाद मिश्र ही ऐसे थे जिनके साथ मैंने सबसे कम अवधि एवं सबसे आखिर में काम किया। वर्ष था सन् 2010 एवं अवधि 8-10 महीने। हालांकि इसके पूर्व सन् 2000 से 2003 तक मेरा उनका साथ रहा लेकिन संस्करण अलग थे, भूमिकाएं अलग थीं और शहर भी अलग। बहरहाल वर्ष 2010 पत्रकारिता में उनका उत्तरार्ध था और कुछ-कुछ मेरा भी। लेकिन इसके बावजूद उनके साथ मेरा संपर्क लगभग 40 वर्षों तक बना रहा। यानी ''युगधर्म''

मुठभेड़ के नाम पर बंद हो सरकारी हिंसा

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- दिवाकर मुक्तिबोध        आत्मसमर्पित नक्सलियों को छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा नौकरी में लेने की पेशकश क्या राज्य में हिंसात्मक नक्सलवाद के ताबूत पर आखिरी कील साबित होगी? शायद हां, पर इसकी पुष्टि के लिए कुछ वक्त लगेगा जब राज्य सरकार की इस योजना पर पूरी गंभीरता एवं ईमानदारी से अमल शुरु होगा। दरअसल बस्तर और सरगुजा संभाग के आदिवासी बाहुल्य गाँवों में युवाओं के पास कोई काम नहीं है। पढ़ाई-लिखाई से भी उनका रिश्ता टूटता -जुड़ता रहा है। साक्षर, असाक्षर, शिक्षित और अशिक्षित या अर्धशिक्षित युवाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में सरकार तो विफल थी ही, निजी क्षेत्रों में भी उनके लिए कोई काम नहीं था अत: उन्होंने एक सुविधाजनक रास्ता चुन लिया जो नक्सलवाद की ओर जाता था। यहाँ रोजगार था, एवज में खर्चे के लिए पैसे मिलते थे, दो जून की रोटी की व्यवस्था थी, गोलियों से भरी हुई बंदूकें हाथ में थी, शिकार की भी स्पष्टता थी, पुलिस के जवानों पर अचानक आक्रमण करने एवं घेरकर गोली मारने के अपने अलग मजे थे और थी जंगल की स्वच्छंदता तथा ऐशो आराम। सजा केवल इतनी थी कि उनका आकाश केवल जंगलों और गाँवों तक सीमि

भ्रष्टाचार का भयावह चेहरा, जान का सौदा

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- दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार के सवाल पर राज्य सरकार की जीरो टाललेंस की नीति है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह एवं सरकार के अन्य नुमाइंदे सरकारी एवं गैरी सरकारी कार्यक्रमों में जीरो टॉलरेंस की नीति का एलान भी करते रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐलान-ए-जंग का खुद नौकरशाही पर कितना क्या असर हुआ है, यह राज्य में घटित अलग- अलग किस्म की घटनाओं से जाहिर है। कही-कहीं रिश्वतखोरों को सरेआम पीटा जा रहा है तो कहीं भ्रष्ट अफसरशाही से त्रस्त होकर आदमी अपनी जान दे रहा है। हाल ही में दो घटनाएँ ऐसी हुई हैं जो इस बात का अहसास कराती है कि भ्रष्ट नौकरशाही पर सरकार का कोई अंकुश नहीं है तथा जीरो टॉलरेंस की सरकारी घोषणा के बावजूद वह बेखौफ है तथा बिना रिश्वत लिए कोई कागज आगे न बढ़ाने या फाइलों को लटकाए रखने की उसकी नीति यथावत है। यानी जीरो टॉलरेंस केवल घोषणाओं तक सीमित है। लिहाजा आम आदमी को कोई राहत नहीं है। किंतु अब पीडि़तों का मरने-मारने पर उतारु होना इस बात का संकेत है कि यदि सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कानूनों का सख्ती से पालन नहीं किया, नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश