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Showing posts from September, 2016

पितरों का तर्पण और छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस

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-दिवाकर मुक्तिबोध पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के नेतृत्व में गठित छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस प्राय: हर मौके को राजनीतिक दृष्टि से भुनाने की फिराक में रहती है। कह सकते हैं, एक ऐसी राजनीतिक पार्टी जिसे अस्तित्व में आए अभी 6 माह भी नहीं हुई हैं, के लिए यह स्वाभाविक है कि वह जनता के सामने आने का, उनका समर्थन हासिल करने का तथा उनके बीच अपनी पैठ बनाने का कोई भी अवसर हाथ से जाने न दें लेकिन ऐसा करते वक्त एक चिंतनशील राजनेता को यह भी देखने की जरूरत है कि मानवीय संवेदनाओं की आड़ में उनकी राजनीति क्या तर्कसंगत और न्यायोचित कही जाएगी और क्या इस तरह की राजनीति पार्टी के लिए फायदेमंद होगी? यह ठीक है कि अजीत जोगी हर सूरत में वर्ष 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी दमदार उपस्थिति दिखाना चाहते हैं और इसके लिए वे हर किस्म की कवायद के लिए तैयार हैं, आगे-पीछे नहीं सोच रहे हैं।           बीते महीनों के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो तार्किक दृष्टि से राजनीति करने के लिए उचित नहीं ठहराए जा सकते अथवा सवालिया निशान खड़े करते हैं। ताजातरीन दो मामले सामने हैं- राजधानी के सेरीखेड़ी में चार बच्

दलित की मौत और दलित होने का अर्थ

-दिवाकर मुक्तिबोध खुशहाल छत्तीसगढ़, विकास की दौड़ में सबसे तेज छत्तीसगढ़, हमर छत्तीसगढ़ और भी ऐसे कई जुमले जो राज्य सरकार उछालती रहती है, दावे करती है। परन्तु क्या वास्तव में यही पूरा सच है ? क्या सब कुछ व्यवस्थित चल रहा है ? क्या राज्य में अमन चैन है ? क्या शासन-प्रशासन की संवेदनशीलता कायम है ? क्या नक्सल मोर्चे में पर सब कुछ ठीक चल रहा है ? अब कोई फर्जी मुठभेड नहीं ? पुलिस का चेहरा सौम्य और कोमल है तथा वह जनता की सच्चे मायनों में मित्र है। और क्या अब वह थर्ड डिग्री का इस्तेमाल नहीं करती तथा थाने में तलब किए गए निरपराध लोगों के साथ में सलीके से पेश आती है? अब अंतिम प्रश्न-क्या पुलिस हिरासत में मौतों का सिलसिला थम गया है? इन सभी सवालों का एक ही जवाब है- ऐसा कुछ भी नहीं है। न पुलिस का चेहरा बदला है न शासन-प्रशासन का। संवेदनशीलता गायब है तथा क्रूरता चरम पर । इसीलिए पुलिस हिरासत में मौत की घटनाएं भी थमी नहीं है।           बीते वर्षो में घटित पुलिस-पशुता की कितनी घटनाएं याद करें। कवर्धा में पुलिस हिरासत में बलदाऊ कौशिक की मौत, नवागढ़ में भगवन्ता साहू, आरंग में राजेश, ज

राजधानी ही नहीं गांवों की ओर भी झांकिए जनाब

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फोटो कैप्शन : सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री टी.एस.ठाकुर ने 10 सितंबर को राजधानी रायपुर के भारतीय प्रबंध संस्थान (आई.आई.एम.) के प्रेक्षागृह में राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण बिलासपुर द्वारा आदिवासियों के अधिकारों का संरक्षण और प्रवर्तन विषय पर आयोजित देश की पहली कार्यशाला को संबोधित किया। इस कार्यक्रम में मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह भी मौजूद थे। -दिवाकर मुक्तिबोध सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर छत्तीसगढ़ की प्रगति से अभिभूत हैं। हाल  मेंही में वे रायपुर प्रवास पर थे। महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के अलावा उन्होंने नई राजधानी का भी दौरा किया। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी उनके साथ थे। यहां चमचमाती चौड़ी सड़कें, ऊंची-ऊंची खूबसूरत इमारतें, हरे-भरे पेड़-पौधे उन्हें आनंदित करने के लिए काफी थे। यह सब देखकर उनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी-''छत्तीसगढ़ को बाहर के लोग गरीब और पिछड़े राज्य के रूप में देखते हैं पर ऐसा नहीं हैं। राज्य तेजी से प्रगति कर रहा है और इसका श्रेय मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को है।ÓÓ अब अ

इंतजार है जब लोग कहेंगे बैस मजबूरी नहीं, जरुरी है

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- दिवाकर मुक्तिबोध           प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं रायपुर लोकसभा से 7 बार के सांसद रमेश बैस पर अरसे से मेहरबान किस्मत अब रुठती नजर आ रही है। राज्य में मोतीलाल वोरा के बाद बैस को ही किस्मत का सबसे धनी नेता माना जाता है। कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष व कार्यसमिति के सदस्य वयोवृद्ध वोराजी पर किस्मत अभी भी मेहरबान है बल्कि उसमें और चमक पैदा हुई है क्योंकि वे सोनिया गाँधी के सबसे अधिक विश्वासपात्रों में से एक है। पर अब भाजपा में रमेश बैस के साथ ऐसा नहीं है। भाग्य दगा देने लगा है जबकि इसी के भरोसे वे भाजपा की राजनीति में सीढिय़ां चढ़ते रहे हैं। राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को अभी भी अच्छी तरह याद होगा कि अटलजी के जमाने में लोकसभा चुनाव के दौरान छत्तीसगढ़ में एक नारा बुलंद हुआ करता था - 'अटल बिहारी जरुरी है, रमेश बैस मजबूरी है।Ó इस नारे में सारा फलसफा छिपा हुआ है। लेकिन अब नरेंद्र मोदी-अमित शाह के युग में रमेश बैस न तो जरुरी है और न मजबूरी। इसलिए आगामी लोकसभा चुनाव में जो 2019 में होने वाला है, बैस की पतंग कट सकती है बशर्ते उन पर किस्मत फिर फिदा

फिलहाल कितने दूर, कितने पास

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-दिवाकर मुक्तिबोध  हाल ही में सीएम हाउस में आयोजित एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। सीएम डॉ. रमन सिंह के बोलने की जब बारी आई तो उन्होंने अपने प्रारंभिक संबोधन में मंच पर आसीन तमाम हस्तियों मसलन मुख्य सचिव विवेक ढांड, रियो ओलम्पिक में महिला हाकी टीम की सदस्य के रूप में प्रतिनिधित्व करने वाली राजनांदगांव की कल्पना यादव, महापौर प्रमोद दुबे, राज्य के मंत्री राजेश मूणत तथा आयोजन के प्रमुखों का नाम लिया किंतु राज्य के सबसे कद्दावर मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का नाम लेना वे भूल गए। क्या वास्तव में भूल गए या जानबूझकर छोड़ दिया? ऐसा प्राय: होता नहीं है। मुख्यमंत्री मंचस्थों के सम्मान का हमेशा ध्यान रखते हैं। इसलिए मान लेते हैं कि बृजमोहन अनायास छूट गए। पर यदि राजनीति की परतों को एक एक करके खोला जाए तो यह बात पुन: स्पष्ट होती है कि बृजमोहन मुख्यमंत्री के निकटस्थ मंत्रियों में शुमार नहीं है। इसलिए इस घटना से दूरियां दर्शाने वाला एक संदेश तो जाता ही है। सो, वह गया।       दरअसल रमन सिंह मंत्रिमंडल में जो इने-गिने प्रगतिशील विचारों एवं राजनीतिक सूझ-बूझ के मंत्री हैं, उनमें बृजमोहन