tag:blogger.com,1999:blog-12697401094823124872024-02-26T09:33:14.127-08:00दिवाकर मुक्तिबोधदिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.comBlogger178125tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-67545257394847473072023-07-01T05:48:00.003-07:002023-07-01T05:48:20.274-07:00 डिप्टी बनने क्यों राजी हुए सिंहदेव<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space-collapse: preserve;"><b>- दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBZiCtXm9m7df_ynaEOGO51i33sL0BjIemfnORQbrll31NbHCuZ0PWCVBVHyvzr59PUOHhfN43cF3QV9Y7acBA4yt6ElUE1s361GAZc3JRiS9SVb2HvGSRqiK2Ml1cIQD3qwp7MEEyDnGmO5HDQOq6c5n0qqExUaeNgoap3H_8VAd6E2Z1mBcg7sXjsU8U/s1080/357076777_3494604657494458_8673745288771468165_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBZiCtXm9m7df_ynaEOGO51i33sL0BjIemfnORQbrll31NbHCuZ0PWCVBVHyvzr59PUOHhfN43cF3QV9Y7acBA4yt6ElUE1s361GAZc3JRiS9SVb2HvGSRqiK2Ml1cIQD3qwp7MEEyDnGmO5HDQOq6c5n0qqExUaeNgoap3H_8VAd6E2Z1mBcg7sXjsU8U/s320/357076777_3494604657494458_8673745288771468165_n.jpg" width="320" /></a></div>छत्तीसगढ़ कांग्रेस की राजनीति में हाल ही में हुए बदलाव पर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी ने भले ही आलोचना की हो लेकिन मुद्दे की बात यह है कि वह पुनः हताशा की शिकार हो गई है। दरअसल कांग्रेस संगठन व सत्ता के बीच पिछले कुछ समय से जो अंदरूनी खींचतान चल रही थी, उसे देखते हुए पार्टी को अपने लिए कुछ संभावनाएं नज़र आने लगी थी। कांग्रेस में त्रिकोण बन गया था जिसके एक छोर पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, दूसरे पर प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम व तीसरे छोर पर केबिनेट मंत्री टी एस सिंहदेव थे। पार्टी में गुटबाजी सतह पर थी और आंतरिक सर्वे में करीब पचास फीसदी विधायकों का प्रदर्शन निराशाजनक माना गया था। केंद्रीय नेतृत्व के लिए यह चिंता की बात थी। यदि यही स्थिति आगे भी कायम रहती तो इसका फायदा चार महीने बाद होने वाले राज्य विधानसभा के चुनाव में भाजपा को किसी न किसी रूप में मिल सकता था। प्रदेश भाजपा इसी खुशफहमी में थी। लेकिन हालातों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस हाई कमान ने 28 जून को जो निर्णय लिया वह उसका मास्टर स्ट्रोक था और उसने भाजपा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। वरिष्ठ मंत्री टी एस सिंहदेव को उप मुख्यमंत्री बना दिया गया और अगले ही दिन राज्य सरकार ने दो माह पूर्व भाजपा छोडकर कांग्रेस में आए कद्दावर आदिवासी नेता नंद कुमार साय को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देते हुए राज्य औद्योगिक विकास निगम का अध्यक्ष बना दिया। इन अप्रत्याशित कदमों के जरिए कांग्रेस ने अपना घर तो ठीक किया ही, साथ ही भाजपा को अपनी चुनावी रणनीति पर नये सिरे से विचार करने बाध्य भी कर दिया।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी , के सी वेणुगोपाल, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल , टी एस एस सिंहदेव, चरण दास महंत व राज्य के अन्य वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में जो विचार विमर्श हुआ उसके परिप्रेक्ष में कम से कम एक निर्णय अचंभित करनेवाला था - टी एस सिंहदेव को उप मुख्यमंत्री का पद देना। किंतु इससे भी अधिक आश्चर्य की बात थी उनके द्वारा इस पद को स्वीकार किया जाना। जब विधानसभा चुनाव के लिए केवल चंद माह ही शेष रह गए हैं, तब इस पद को स्वीकार करने के पीछे क्या राजनीतिक वजह हो सकती ? क्या हाई कमान की ओर से पुनः उन्हें चुनाव के बाद सत्ता या संगठन में कोई बड़ा पद देने की पेशकश हुई है ? इसकी संभावना से इसलिए इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि बघेल सरकार के साढ़ेचार साल गुज़र जाने के बाद इस पद से नवाजा जाना और टी एस सिंहदेव द्वारा उसे मान्य भी कर लेना राजनीतिक दृष्टि से मामूली घटना नहीं है जबकि टी एस अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार में नंबर दो की पोजीशन का विशेष महत्व नहीं है खासकर तब जब वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे हैं। मुख्यमंत्री के रूप में भूपेश बघेल के ढाई वर्ष पूर्ण होने के बाद उन्हें सत्ता सौंपने का वायदा था जिसे पूरा नहीं किया गया। इस वायदे के अनुसार जिसे अब सिंहदेव मीडिया की हवा बताते हैं, उन्हें जून 2021 में मुख्यमंत्री बना दिया जाना था लेकिन उस दौर के सत्ता संघर्ष में सिंहदेव कमजोर पड़ गए। और बघेल मुख्यमंत्री बने रहे। वादा खिलाफी व नौकरशाही की उपेक्षा से आहत सिंहदेव बाकी समय संकेतों में अपनी व्यथा व्यक्त करते रहे और अपने तरीक़े से दबाव बनाते रहे। यह उनके दबाव का भी परिणाम था और प्रदेश की जमीनी हकीकत भी, चुनाव के नजदीक आने पर हाई कमान को टी एस को संतुष्ट करना जरूरी हो गया था। लिहाज़ा बड़े नेताओं के मध्य विचार मंथन का दौर चला। इस मंथन से अमृत तो निकला पर यह सवाल भी उठा कि सिर्फ चार महीनों के लिए डिप्टी सीएम बनने का प्रस्ताव सिंहदेव ने किस बिना पर राजी कर लिया ? अब टी एस सिंहदेव इतने भी भोले नहीं है कि अपना राजनीतिक भला-बुरा समझ न सकें। अतः हाई कमान के इस फैसले के पीछे कोई न कोई बात जरूर है। वह बात क्या हो सकती है ? क्या अघोषित डील हुई है ? तो इसका खुलासा विधानसभा चुनाव के नतीजे आने एवं कथित तौर पर कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने पर संभव है। वैसे आम चर्चाओं के अनुसार कांग्रेस एक बार पुनः जीत की पायदान पर खड़ी बताई जा रही है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">बहरहाल हाई कमान के इस फैसले के जरिए छत्तीसगढ़ कांग्रेस की राजनीति में मुख्य मंत्री भूपेश बघेल के वर्चस्व को कमतर किया गया है। सरकार के पिछले साढ़ेचार वर्षों के कार्यकाल में वरिष्ठ मंत्री रहने के बावजूद टी एस हाशिए पर ही रहे। सरगुजा सहित प्रदेश में उनके प्रभाव को ध्वस्त करने अमरजीत भगत व बृहस्पत सिंह जैसे सरगुजिहा नेताओं ने कोई कमी नहीं की। चूंकि मुख्यमंत्री ने अपने समर्थक नेताओं की हरकतों को रोकने या उन्हें उनकी ऊलजलूल बयानबाजी के लिए फटकारने की कोशिश नहीं की इसलिए स्वाभाविक रूप से कांग्रेस की राजनीति में संकेत गया कि इसमें मुख्यमंत्री की मौन सहमति है। यह अलग बात है कि विरोधियों की तमाम कोशिशों के बावजूद टी एस सिंहदेव ने धैर्य नहीं खोया तथा शालीन तरीकों से समय-समय पर अपना विरोध जताते रहे। यह उनके संयम का ही परिणाम है कि हाई कमान ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की परवाह न करते हुए सिंहदेव को प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में लगभग बराबरी ला खड़ा कर दिया है। इस एक फैसले से प्रदेश राजनीति की फिज़ां ही बदल गई। चुनावी दृष्टिकोण से पार्टी के लिए अच्छा संकेत है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">इस बदली हुई फिज़ां में भूपेश बघेल व टी एस सिंहदेव एक दूसरे के निकट नज़र आते हैं। यह निकटता कम से कम आगामी नवंबर में होने वाले चुनाव तक बनी रहनी चाहिए। पार्टी का बड़ा सिरदर्द प्रत्याशियों का चयन है जिसमें प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व अब टी एस एस सिंहदेव की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहने वाली है। मेल-मिलाप की असली परीक्षा तभी होगी। फिर भी सिंहदेव के बहाने संगठन में एकजुटता का जो मैसेज गया है ,उससे कुछ समय के लिए गुटीय प्रतिद्वंदिता व आंतरिक कलह पर विराम लगने की संभावना है। इस मायने में कांग्रेस के आला नेतृत्व की यह सफलता है जिसके एक निर्णय से छत्तीसगढ़ कांग्रेस को चुनाव के मोर्चे पर मजबूती के साथ खड़ा कर दिया है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अब एक और सवाल है ,क्या सिंहदेव चुनाव लडेंगे ? इस मुद्दे पर उन्होंने गेंद केंद्रीय नेतृत्व के पाले में डाल दी है। जबकि पूर्व में वे चुनाव नहीं लड़ने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं। अतः संभव है पार्टी उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उनका उपयोग समूचे प्रदेश में चुनाव प्रचार अभियान में करें। अगर ऐसा हुआ तो यह भी विपक्ष के खिलाफ पार्टी का एक और मास्टर स्ट्रोक होगा।</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-79575631294792935162022-10-30T09:13:00.004-07:002022-10-30T09:13:28.000-07:00 घट गया राज्य पुरस्कारों का महत्व<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>- दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><span style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><a style="animation-name: none !important; color: #385898; cursor: pointer; font-family: inherit; transition-property: none !important;" tabindex="-1"></a></span>आगामी एक नवंबर को नये राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ के 22 वर्ष पूर्ण हो जाएंगे। प्रत्येक वर्ष राज्योत्सव में सांस्कृतिक आयोजनों के अलावा किसी न किसी रूप में राज्य के विकास में विशेष योगदान देने वाले विद्वानों को राज्य अलंकरण से पुरस्कृत किया जाता है। प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी के कार्यकाल में 16 पुरस्कार दिए जाते थे जो भाजपा के पंद्रह वर्षों के शासन में बढकर बाइस हुए और अब कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार में इनकी संख्या बढाकर 36 कर दी गई हैं। यानी छत्तीसगढ़ के 36 पुरस्कार। राज्य पुरस्कारों के मामले में जैसी राजनीति व दखलंदाजी प्रायः हर जगह चलती है, उससे छत्तीसगढ़ भी मुक्त नहीं है। इसीलिए दो दशक से अधिक वर्ष बितने के बावजूद इन पुरस्कारों की जो अहमियत, जो गरिमा स्थापित होनी चाहिए थी वह नहीं हुई। एक तरह से ये पुरस्कार सरकार की नजऱ में भी औपचारिक बन कर रह गए हैं और रेवडी की तरह बांटे जाते हैं। इसीलिए बहुत से ऐसे लोग पुरस्कृत होते रहे हैं जो उन पुरस्कारों के योग्य नहीं थे। लिहाजा अपने ही राज्य में इन पुरस्कारों की महत्ता लगभग खत्म हो गई है। राष्ट्रीय स्तर पर भी जो एक दो पुरस्कार हैं , उनकी भी यही स्थिति हैं।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuDYQ1zlkBmEC6KB4Rf0nyd-clgzkwrKsWdRctzQjdwPH6iiRiL8238HXP3D5QAXpMdwMqN2aHKl0QHAdA0XaUFHrTNbuRPuc__UKOSQ5AtLZBZyi2Ryu7i8qrx5GY_zxhTjsdDd1YYQamDgSC6WpTsrGO-P1DUpdU4kuPAO_0AIpv35lNzQOpzvEXEA/s1957/ddddddddd.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="981" data-original-width="1957" height="222" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuDYQ1zlkBmEC6KB4Rf0nyd-clgzkwrKsWdRctzQjdwPH6iiRiL8238HXP3D5QAXpMdwMqN2aHKl0QHAdA0XaUFHrTNbuRPuc__UKOSQ5AtLZBZyi2Ryu7i8qrx5GY_zxhTjsdDd1YYQamDgSC6WpTsrGO-P1DUpdU4kuPAO_0AIpv35lNzQOpzvEXEA/w444-h222/ddddddddd.png" width="444" /></a></div>एक ऐसा राज्य जो विकास की दौड़ में बहुत तेजी से आगे बढ रहा है और जिसका सांस्कृतिक परिदृश्य बहुत गहरा व लुभावना है और जिसके मुख्यमंत्री भूपेश बघेल स्वयं इसे बढावा दे रहे हैं, इसमें रचे-बसे हैं, तब राज्य पुरस्कारों की बंदरबांट आहत करती है। यद्यपि बीते वर्षों में विभिन्न क्षेत्रों के योग्य व्यक्ति भी चुने गए हैं पर उनकी संख्या न्यून है। दरअसल इन पुरस्कारों पर माफिया का कब्जा हो गया है जो विभिन्न तरीकों से नौकरशाही व चयन समिति को प्रभावित करता हैं। पुरस्कारों के चयन के लिए सरकार द्वारा निर्धारित पद्धति यद्यपि पारदर्शी है लेकिन दीवारें इस कदर कच्ची हैं कि पुरस्कार के भूखे लोग इसमें सेंध लगा देते हैं और उनकी घेरेबंदी शुरू हो जाती है। अनेक दफे इस घेरेबंदी की चपेट में नौकरशाही व ज्यूरी भी आ जाती हैं।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">राज्य अलंकरण सरकार का बहुत महत्वपूर्ण और जरूरी कार्य है। इसके जरिए केवल प्रतिभा का ही सम्मान नहीं होता, राज्य का भी गौरव बढ़ता है। इसलिए इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि सभी पुरस्कारों के लिए चयन ऐसे ही व्यक्तियों का होना चाहिए जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में अप्रतिम कार्य किया हो, बडी उपलब्धियां हासिल की हो और जिनकी जनप्रतिष्ठा हो। लेकिन चयन की दोषपूर्ण पद्धति की वजह से ऐसे लोग भी चुन लिए जाते हैं जो पुरस्कार सम्मान के काबिल नहीं होते। इसमें राजनीति, लाबिंग, व्यक्तिगत पसंदगी का पुट तो रहता ही है लेकिन बडी वजह है आवेदनों की अत्यल्प प्रविष्टियां। यह सचमुच निराशाजनक है कि प्रदेश में एक से बढकर एक प्रतिभाओं की मौजूदगी के बावजूद पुरस्कारों के लिए औसतन 7-8 ही आवेदन सरकार के पास पहुंचते हैं। आवेदनों की अल्पता के बावजूद इन प्रविष्टियों में से किसी एक का पुरस्कार के लिए चयन करना कठिन नहीं है बशर्ते उनका कार्य उच्च स्तर का हो। पर ऐसा होता नहीं है। इस स्थिति में अति सामान्य में से सामान्य को चुन लिया जाता है। यह दुर्भाग्यजनक स्थिति है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">कहने के लिए सरकार अपना पल्ला यह कहकर झाड़ सकती है कि पुरस्कारों के लिए चयन ज्यूरी करती है जिसके सदस्य विभिन्न क्षेत्रों के नामी गिरामी लोग रहते हैं। सरकार का काम केवल चयन समिति गठित करना है , शेष काम ज्यूरी मेम्बरों का है। उन्हें अधिकार है कि पर्याप्त आवेदन न मिलने की स्थिति में वे बाहर से चयन कर सकते हैं। या उस वर्ष के लिए उस पुरस्कार को रद्द भी कर सकते है। यह बात ठीक है लेकिन ज्यूरी की समस्या यह है कि विभागीय अधिकारियों की मौजूदगी में सिर्फ एक बैठक में आवेदनों पर विचार करना होता है। यदि अनावेदकों में चयन करने की आवश्यकता हो तो ऐसा कोई सिस्टम नहीं है कि जिससे संबंधितों के बारे में जानकारी हासिल की जा सके। आवेदकों पर भी निर्णय उनके द्वारा संलग्न दस्तावेजों के आधार पर लेना पडता है। यहां भी कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है कि भौतिक रूप से उनका सत्यापन किया जा सके हालांकि आवदेन कलेक्टर की संस्तुति से सरकार को प्रेषित होते हैं। लेकिन यहां भी केवल औपचारिकता पूरी की जाती है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">इन स्थितियों में जिसमें आवेदकों की संख्या अत्यल्प हो बेहतर का चयन मुश्किल है। आमतौर पर ज्यूरी उनमें से किसी एक को उसके कथित कार्यों के आधार पर चुन लेती है। ऐसे में उन लोगों को मौका मिल जाता है जो पुरस्कार को हस्तगत करने सकल प्रयत्न करते हैं , सिफारिशें करते हैं, करवाते हैं, लाबिंग करते हैं और इसमें वे सफल भी हो जाते हैं। पिछले वर्षों की सूचियां उठाकर देख लें ,अनेक ऐसे लोग राज्य अलंकरण से अंलकृत हुए हैं जिनका समाज में कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं रहा हैं फिर भी वे पुरस्कार पा गए। यह स्थिति वर्षों से बनी हुई है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">इन पुरस्कारों की यदि गरिमा स्थापित करनी हो तो प्रक्रिया में कुछ परिवर्तन करने होंगे। यद्यपि पुरस्कारों की संख्या काफी अधिक है लेकिन यदि योग्य का चयन हो तो संख्या कोई मायने नहीं रखती। सरकार विज्ञापनों के माध्यम से आवेदन आमंत्रित करती है। सरकारी वेबसाइट पर भी ये विज्ञापित होती हैं। किंतु इसके बावजूद अच्छी संख्या में लोग एप्लाई क्यों नहीं करते इस पर विचार करना होगा। जाहिर है खाली आवेदन पत्र आमंत्रित करने से काम नहीं चलेगा। प्रख्यात व स्वाभिमानी व्यक्ति से आप उम्मीद नहीं कर सकते कि पुरस्कार के लिए वह अपनी रिपोर्ट कार्ड भेजेगा। वह आवेदन नहीं करेगा। अतः समाज के ऐसे लोगों को पुरस्कृत करने स्वयं सरकार को आगे आना होगा। अखबारों में विज्ञापन के अलावा पुरस्कारों के लिए व्यक्ति विशेष के समर्थन में आम लोगों से भी आन लाइन प्रस्ताव आमंत्रित किए जाने चाहिए। इसके लिए एक अलग वेबसाइट बनानी होगी। पद्म पुरस्कारों के लिए केंद्र सरकार यह कर रही है। राज्य सरकारों की सिफारिशों के अलावा उसकी आन लाइन व्यवस्था भी चल रही है जहां कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद का नाम प्रस्तावित कर सकता है। नागरिकों को पुरस्कार-प्रक्रिया से जोडने से फलक बडा और अधिक पारदर्शिता हो जाता है। अपने पुरस्कारों का मान सम्मान कायम रखने छत्तीसगढ़ सरकार भी चाहे तो आन लाइन व्यवस्था शुरू कर सकती है। इसके अतिरिक्त यह भी तय होना चाहिए कि जिस व्यक्ति या संस्था को एक बार किसी भी वर्ग में पुरस्कृत किया जा चुका हो तो उसे दुबारा पुरस्कार न दिया जाए। ऐसे उदाहरण है जब अलग अलग वर्षों में एक ही व्यक्ति या संस्था ने दो-दो , तीन-तीन पुरस्कार हासिल कर लिए।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">प्रक्रिया में सुधार की दृष्टि से यह और भी बेहतर होगा यदि जिला कलेक्टरों पर यह जिम्मेदारी डाली जाए कि उन्हें अपने जिले में उन लोगों के बारे में जानकारियां हासिल करना है जो समाज सेवा या अन्य क्षेत्रों में बिना किसी प्रचार प्रसार या अपेक्षा के अच्छा कार्य कर रहे हैं। वैसे भी अब जिलों का दायरा काफी छोटा हो गया है अतः अनुकरणीय कार्य करने वाले व्यक्तियों की तलाश करना मुश्किल नहीं है। इस व्यवस्था से उन लोगों के नाम सामने आएंगे जो वास्तव में पुरस्कृत होने के काबिल हैं।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">इस संदर्भ में यह आश्चर्यजनक है कि कोरोना महामारी के दौरान अपने प्राणों की बाजी लगाकर लोगों की जान बचाने में तथा उनके परिवारों को मदद पहुंचाने वाली संस्थाओं अथवा व्यक्तियों की राज्य अलंकरण के मामले में उपेक्षा की गई। समाज सेवा के क्षेत्र में उन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिए था। एक उदाहरण है भाटापारा के दिवंगत डाक्टर युवा शैलेंद्र साहू का जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करके कोरोना पीडितों की सहायता की, उनकी सेवा सुऋषा की। न दिन देखा न रात। जन सेवा का अपना दायित्व निभाते हुए सेवाभावी डाक्टर खुद कोरोना का शिकार हुआ और अंततः चल बसा। पीडितों की सेवा में प्राण का बलिदान करने वाले शैलेंद्र की मृत्यु से पूरे जिले में शोक का जो माहौल बना वह कभी न भूलने वाला है। इस वर्ष ज्यूरी ने एक राय होकर समाज सेवा के लिए रविशंकर शुक्ल पुरस्कार मरणोपरांत डाक्टर शैलेंद्र साहू को देने का निर्णय लिया था लेकिन उसे बदलकर अन्य को दे दिया गया। यह क्यों हुआ, कैसे हुआ ? अनुमान लगाना कठिन नहीं है।</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-64753316562088367842022-10-30T09:12:00.002-07:002022-10-30T09:12:13.527-07:00 जसम सम्मेलन के बहाने कुछ बातें<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;"><b>- दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhc27X50bWsmoU--Bpgbmjbbc9fv8y41QWsI2I1AQbQ9tLRRbfBYMbnAKZv0-EFlsQilMGT17gnEurOyCWe44JlBrB7NAb0ERWbYrCjNgrcAhV2SS55aqASQtp_D6edZGMdk-u3GoweEwbqPBUSb_Z2LWk0Gm59d-JeTSNmALoE8gdUaueA7BJ7SRRpgw/s1600/311506008_3307778669510392_491449908632169636_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="719" data-original-width="1600" height="274" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhc27X50bWsmoU--Bpgbmjbbc9fv8y41QWsI2I1AQbQ9tLRRbfBYMbnAKZv0-EFlsQilMGT17gnEurOyCWe44JlBrB7NAb0ERWbYrCjNgrcAhV2SS55aqASQtp_D6edZGMdk-u3GoweEwbqPBUSb_Z2LWk0Gm59d-JeTSNmALoE8gdUaueA7BJ7SRRpgw/w610-h274/311506008_3307778669510392_491449908632169636_n.jpg" width="610" /></a><div><br style="animation-name: none !important; background-color: white; transition-property: none !important;" /><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;">बस्तर के आदिवासियों के हितों के लिए वर्षों से संघर्षरत सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में जो विचार व्यक्त किए हैं, वे फासीवाद के मुद्दे पर बौद्धिक तबके की कथित सक्रियता पर सवाल खडे करते हैं। उन्होंने कहा-फासीवाद का सबसे पहले हमला आदिवासियों पर होता है। वे उसका सामना करते हैं। बाद में किसान व मजदूर मुकाबला करते हैं। गरीब व निम्न वर्ग पर जब हमला होता है तो वह अपने तरीक़े से उसके खिलाफ संघर्ष करता है लेकिन हम और आप यानी मध्यम व निम्न मध्यम वर्ग के लोग फासीवाद के खिलाफ अभियान को समर्थन तो देते हैं पर सक्रिय हस्तक्षेप नहीं करते। उनकी लडाई में शामिल नहीं होते।</span><br style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; transition-property: none !important;" /><br style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; transition-property: none !important;" /><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;">हिमांशु कुमार के ये विचार लोकतांत्रिक संगठनों व संस्थाओं को अपनी गतिविधियों तथा कार्यक्रमों पर नये सिरे से विचार करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण व जरूरी मुद्दा देते हैं। देश में बढती अराजकता, असहिष्णुता, लोकतांत्रिक अधिकारों का अपहरण, व्यवस्था के खिलाफ बोलने की आजादी पर प्रहार, फासिस्ट ताकतों का उभार व साम्प्रदायिकता के नाद पर गंभीर विमर्श के लिए जन संस्कृति मंच ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 8-9 अक्टूबर को अपना राष्ट्रीय अधिवेशन किया जिसमें मंच के केन्द्रीय पदाधिकारियों जो देश के जाने माने लेखक, विचारक व संस्कृति कर्मी हैं, के अलावा विभिन्न राज्यों के करीब दो सौ प्रतिनिधि मौजूद थे। सम्मेलन की मेजबानी रायपुर इकाई ने की जिसका गठन चंद माह पूर्व ही हुआ है। सम्मेलन में देश में दिनों दिन मजबूत होती फासिस्ट ताकतों को लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बताते हुए प्रेरक व्याख्यानों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए जमकर हल्ला बोला गया। हिमांशु कुमार ने उदघाटन भाषण दिया। इसका लब्बोलुआब यही है कि फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में जन संस्कृति मंच को निचले तबके के लोगों को साथ में लेना चाहिए। उनका साथ देना चाहिए। यह भी स्पष्ट था कि केवल मंच को ही नहीं बल्कि तमाम जनवादी संगठनों को अपने कामकाज पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। खासकर ऐसे समय जब सत्ता निरंकुश हो तथा नागरिक आजादी पर भीषण प्रहार किए जा रहे हों।</span><br style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; transition-property: none !important;" /><br style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; transition-property: none !important;" /><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;">इसमें दो राय नहीं है कि लोकतंत्र के नाम पर देश में अभी जो कुछ बचा हुआ है वह उन्हीं संस्थाओं की वजह से है जो अपने-अपने स्तर पर तमाम तरह के फासीवाद का मुकाबला कर रही हैं । किंतु यकीनन यह काफी नहीं है। लोकतांत्रिक संस्थाएं इन साम्प्रदायिक ताकतों को पराभूत करने निश्चित रूप से माहौल बनाती हैं, विचार विमर्श करती हैं, शहरों में सम्मेलन किए जाते हैं, बौद्धिक विमर्श होता है, सांस्कृतिक आंदोलन किए जाते है लेकिन यह सब कुछ प्रायः बंद कमरों में होता है, 'बंद' शहरों में होता है जिसकी धमक दूर तक नहीं जा पाती। इसलिए विचार व व्यवहार में भी अंतर रहता है। संस्थाओं की यह कवायद ठीक उस उच्च नौकरशाही की तरह है जिसके नुमाइंदे अपने आलीशान दफ्तर के एसी कक्ष में बैठकर शहरों, गांव देहातों व गरीब गुरबों की समस्याओं व जरूरतों को जाने बिना बडी-बडी योजनाएं बनाती हैं। ये अव्यावहारिक होने के साथ ही जमीनी हकीकत से परे रहती हैं। शहरी बौद्धिक गतिविधियों का भी लगभग यही आलम है। विचार दूर तक, ग्रामीण जनों तक इसलिए नहीं जा पाते क्योंकि माध्यमों की सक्रियता बेहद क्षीण है।</span><br style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; transition-property: none !important;" /><br style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; transition-property: none !important;" /><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;">बकौल हिमांशु कुमार फासीवाद व साम्प्रदायिकता के विरुद्ध दमदार लडाई लडने तमाम जनवादी संगठनों व संस्थानों को अपने शहरी दायरे को आगे बढाते हुए गांव कस्बों तक जाना होगा। उन्हें भी अपना कार्यक्षेत्र बनाना होगा जहां आदिवासी, किसान, मजदूर व गरीब तबका अपने हिसाब से इस लडाई को लड रहा है। उन्हें ताकत देना होगी, उनकी लडाई में शामिल होना होगा। लगभग यही विचार लेखक भंवर मेघवंशी के भी थे। उनका कहना था केवल राजनीतिक प्रतिरोध से फासीवाद का विरोध नहीं होगा। सांस्कृतिक संगठन ही इसका मुकाबला कर सकते हैं। उन्होंने कहा - हमें घेरे से बाहर निकलने की जरूरत है।</span><br style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; transition-property: none !important;" /><br style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; transition-property: none !important;" /><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;">दरअसल अधिनायकवादी व्यवस्था में फासीवाद जिस ताकत के साथ अपने डैने फैलाता हैं, उनकी तुलना में जनवाद का प्रतिरोध क्षीण होता है। पिछले आठ वर्षों से ,जब से केंद्र में दक्षिणपंथी सरकार सत्ता पर काबिज है, लोकतंत्र का क्षरण होता जा रहा है। इसे रोकने के लिए जनवादी संस्थाओं के प्रयत्न आधे-अधूरे रहे हैं। समय-समय पर प्रतिरोध की मशालें जलती हैं लेकिन बिना व्यापक असर दिखाए ठंडी पड जाती हैं। केवल किसान आंदोलन ही ऐसा उदाहरण है जिसकी जबरदस्त ताकत के सामने अंततः केंद्र सरकार को झुकना पड गया और विवादित कृषि कानून वापस लेने पडे। लेकिन यह विशुद्ध रूप से किसानों का आंदोलन था, जनवादी संगठनों का नहीं हालांकि इस आंदोलन को उन्होंने भरपूर समर्थन दिया था। फासीवाद को कुचलने के लिए ऐसे ही जन आंदोलन की आवश्यकता है। इस संदर्भ में भारतीय जन नाट्य संंघ इप्टा की देश भर में चली सांस्कृतिक यात्रा को भी याद कर सकते हैं जिसने माहौल बनाने की कोशिश की। उसकी यात्रा नौ अप्रैल को रायपुर से प्रारंभ हुई थी और 22 मई को इंदौर में समाप्त हुई। कहना न होगा फासीवाद के खिलाफ जनमत तैयार करने सांस्कृतिक यात्राएं सबसे प्रभावी माध्यम है।</span><br style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; transition-property: none !important;" /><br style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; transition-property: none !important;" /><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;">अभी होता क्या है ? आमतौर पर वाम आंदोलनों में चाहे वे साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से संबंधित ही क्यों न हो, जन की भागीदारी नगण्य रहती है। किसी भी शहर को देख लें, प्रायः विभिन्न कार्यक्रमों में एक जैसे चेहरे नजर आते हैं। नये लोग जुडते नहीं हैं और न ही उन्हें जोडने की कोशिश की जाती है। राजनीतिक पार्टियों के लाखों करोड़ों सदस्य बन जाते हैं पर राष्ट्रीय स्तर की जनवादी संस्थाएं कुछ सौ तक सिमट कर रह जाती हैं। विचारों का प्रवाह व विस्तार इसीलिये नहीं हो पाता। वह क्षेत्र विशेष तक सीमित रहता है। यानी कोई संगठन असहिष्णुता, साम्प्रदायिकता, कुटिल राज व्यवस्था इत्यादि के खिलाफ रणनीति तय करता है, बौद्धिक विमर्श करता है , कुछ संकल्प लेता है तो उसका प्रभाव सम्मेलन की अवधि तक सीमित रहता है, उसे दूर तक, बौद्धिक जमात तथा आम जनता तक ले जाने के जोरदार प्रयत्न नहीं हो पाते। जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अधिवेशन में अतिथि वक्ताओं ने इसी कमी की ओर ध्यान आकर्षित किया है। संकेत स्पष्ट है कि यदि फासिस्ट ताकतों तथा फासीवादी विचारों को पस्त करना है तो जिस सांस्कृतिक जनक्रांति की बात की जाती है वह सभी वर्गों के लोगों को, सभी मेहनतकशों को शामिल किए बिना सफल नहीं हो सकती। क्या लोकवादी संस्थाएं व संगठन इसके लिए तैयार है ? अगर नहीं तो ऐसे सम्मेलनों का महत्व कागजी ही माना जाएगा। दुर्भाग्य से यही होता रहा है।</span><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-30700536903903690302021-11-06T06:56:00.004-07:002021-11-06T06:56:42.859-07:00 कुछ यादें, कुछ बातें - 27<div style="font-family: inherit;"><div class="" dir="auto" style="font-family: inherit;"><div class="ecm0bbzt hv4rvrfc e5nlhep0 dati1w0a" data-ad-comet-preview="message" data-ad-preview="message" id="jsc_c_146" style="font-family: inherit; padding: 4px 16px;"><div class="j83agx80 cbu4d94t ew0dbk1b irj2b8pg" style="display: flex; flex-direction: column; font-family: inherit; margin-bottom: -5px; margin-top: -5px;"><div class="qzhwtbm6 knvmm38d" style="font-family: inherit; margin-bottom: 5px; margin-top: 5px;"><span class="d2edcug0 hpfvmrgz qv66sw1b c1et5uql lr9zc1uh a8c37x1j keod5gw0 nxhoafnm aigsh9s9 d3f4x2em fe6kdd0r mau55g9w c8b282yb iv3no6db jq4qci2q a3bd9o3v b1v8xokw oo9gr5id hzawbc8m" dir="auto" style="color: var(--primary-text); display: block; font-family: inherit; font-size: 0.9375rem; line-height: 1.3333; max-width: 100%; min-width: 0px; overflow-wrap: break-word; word-break: break-word;"><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>- दिवाकर मुक्तिबोध</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">-----------------------</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><span style="font-family: inherit;"><a class="oajrlxb2 g5ia77u1 qu0x051f esr5mh6w e9989ue4 r7d6kgcz rq0escxv nhd2j8a9 nc684nl6 p7hjln8o kvgmc6g5 cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x jb3vyjys rz4wbd8a qt6c0cv9 a8nywdso i1ao9s8h esuyzwwr f1sip0of lzcic4wl q66pz984 gpro0wi8 b1v8xokw" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%97%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0?__eep__=6&__cft__[0]=AZXCj_FW-6NkjSfXSH6PYRDVLp5dVDzSyTUJ_eqpnYq0LBOkg9CuP5MQjW6qDAsvhFQbHlvsAUNqYnkV4QZ9Ls9GVBBv6YpRftiSQAE5K1Op_SB3OH0m2wf_s3q7E8G1X-4&__tn__=*NK-R" role="link" style="-webkit-tap-highlight-color: transparent; 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margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">गिरिजा बहुमुखी प्रतिभा के धनी है। उनकी सबसे बड़ी खूबी है उनकी वाचालता। खूब बातें करना। बेपर की हांकना नहीं, तार्किक व प्रभावशाली बातें। तर्कशक्ति के आधार पर वह विभिन्न विषयों पर दमखम के साथ अपनी बात इस तरह रखते हैं कि सामने वाले के पास उन्हें स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। उनके प्रति लोगों के आकर्षण की खास वजह में यह प्रमुख है। खूब पढते हैं, अच्छा लिखते हैं। नाटकों में, रंग कर्म में विशेष रूचि है। जीवन बीमा निगम की नौकरी के दौरान और बाद में भी उन्होंने अनेक नाटकों का मंचन किया, चर्चाएं आयोजित कीं। और तो और उन्होंने प्रकाशन के व्यवसाय में भी हाथ आजमाया। रविन्द्र कालिया, तेजिंदर गगन जैसे ख्यातिप्राप्त साहित्यकारों की किताबें छापीं हालांकि यह व्यवसाय अधिक नहीं चल सका। बंद करना पडा। इसमें वह जरूर असफल रहे पर राष्ट्रीय व प्रादेशिक पत्रकारिता में उन्होंने अच्छा नाम कमाया। ख्याति अर्जित की।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">देशबंधु के रिपोर्टर के रूप में गिरिजाशंकर अपने समय में अपने तमाम हमपेशेवरों , प्रतिद्वंद्वियों पर भारी थे। देशबंधु चूंकि प्रयोगधर्मी अखबार था इसलिए सामान्य घटना प्रधान समाचारों के विस्तृत कव्हरेज के अलावा खबरों को खंगालने तथा विश्लेषण करने का कार्य प्राथमिकता से किया जाता था। फिर वह नगर निगम के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के कामकाज का श्रृंखलाबद्ध लेखा जोखा हो या सत्ता व मौकापरस्त राजनीति व राजनेताओं को आईना दिखाना हो अथवा अपार संकटों का सामना करने वाले दीनहीन ग्रामीणों के जीवन संघर्ष का मामला हो। विशेष रिपोर्टिंग में गिरिजा आगे रहे। औरों से काफी आगे। उन्होंने नगर के समाचारों को बेहतर ढंग से कव्हर करने के साथ ही सामाजिक सरोकारों व सांस्कृतिक परिदृश्य पर भी खूब लिखा। अपनी ग्रामीण रिपोर्टिंग के लिए देशबन्धु के जिन पत्रकारों को स्टेट्समैन का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला , उनमें एक गिरिजाशंकर भी हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">गिरिजा की एक और खासियत है कि वह बहुत आसानी से नितांत अपरिचितों को भी बहुत जल्दी अपना करीबी दोस्त बना लेते हैं। उन दिनों छत्तीसगढ़ की राजनीति व नौकरशाही को उन्होंने कुछ इस तरह साध रखा था कि हर बडा नेता, हर बडा अधिकारी व छोटे से छोटा कर्मचारी भी उनसे आत्मीयता महसूस करता था। किसी पत्रकार के लिए विश्वास का ऐसा वातावरण बनाना हरगिज आसान नहीं है। पर जो ऐसा कर लेता है , वह यकीनन बडा पत्रकार कहलाता है। इस अर्थ में गिरिजा हमारी पीढी के बडे पत्रकार हैं। साथी पत्रकार जानते हैं, अनेक चश्मदीद गवाह भी हैं कि तब शहर के खास नेताओं व अफसरों के घरों में, उनके अंदरखाने तक जैसी गिरिजाशंकर की पहुंच थी, वैसी और किसी की नहीं थी। मुझे याद है जब आइपीएस विजय रमन रायपुर एसपी थे तब गिरिजा उनकी खुली जीप में उनके बेटे को गोद में लेकर शहर घुमाते देखे जाते थे। यह पुलिस अफसर के साथ उनके संबंधों की गर्माहट का एक उदाहरण है।यद्यपि रायपुर की पत्रकार बिरादरी में इस बात को लेकर खूब चर्चा होती थी जिसमें आलोचना का पुट अधिक रहता था। इसी तरह अनेक राजनेताओं व आईएएस अफसरों से भी उनका घरोबा था, मधुर संबंध थे। इसका लाभ उन्हें रिपोर्टिंग में मिलता था। मजबूत दीवारों के भीतर कैद अनेक ऐसी खबरें जिनकी हवा अन्य अखबारों को नहीं लगती थीं, वे देशबंधु में फ्लैश होती थीं। कहना न होगा शहर की खबरों व विचारों के लिए देशबन्धु सर्वप्रिय अखबार था। इसके पीछे रिपोर्टिंग की टीम तो थी ही, पर इसके मूल आर्किटेक्ट गिरिजाशंकर थे।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रायपुर की पत्रकारिता में गिरिजाशंकर का ग्राफ काफी उपर चढा हुआ था, खासकर रायपुर सेंट्रल जेल में एक कैदी को फांसी पर चढाने की घटना का आंखों देखा हाल जब देशबंधु में फ्लैश हुआ तो खबरों की दुनिया में तहलका मच गया। यह उनकी व सुनील कुमार की संयुक्त रिपोर्टिंग थी। इस तरह की किसी रिपोर्ट का किसी भी अखबार में छपना लगभग नामुमकिन था। दरअसल जेल में रिपोर्टिंग के लिए सरकार की मंजूरी का प्रश्न था जो मिल नहीं सकती थी और न ही इसके लिए कोई प्रयास इसके पूर्व किसी अखबार या उसके किसी रिपोर्टर ने किया था। लेकिन देशबंधु व इसके इन दोनों रिपोर्टरों ने यह कमाल कर दिखाया। उन दिनों संत कवि पवन दीवान अविभाजित मध्यप्रदेश के जेल मंत्री थे और छत्तीसगढ़ से थे। लिहाजा थोड़े से प्रयास से उनके आदेश पर गिरिजाशंकर व सुनील कुमार को कैदी को फांसी देते समय जेल में मौजूद रहने व रिपोर्टिंग की इजाजत मिल गई। ये दोनों रात भर अखबार के दफ्तर में जागरण करते रहे और तडके रायपुर सेंट्रल जेल पहुंच गए। फांसी के समय कैदी की मन:स्थिति तथा फांसी घर के माहौल का लाजवाब चित्र सुनील कुमार ने खींचा। देशबंधु में रिपोर्ट दोनों के नाम से छपी। कहना न होगा उनकी रिपोर्टिंग मील का पत्थर साबित हुई और लंबे समय तक चर्चा में रही।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रायपुर में अच्छी खासी पत्रकारिता कर रहे गिरिजा को भोपाल क्यों भेजा गया, किस मकसद से भेजा गया, प्रबंधन की नीति क्या थी, मुझे नहीं मालूम पर इतना अवश्य है कि गिरिजाशंकर बडे आकाश के हकदार थे जो उन्हें भोपाल में मिला। उन दिनों प्रधान संपादक मायाराम सुरजन जी का अधिकतम समय भोपाल में ही बीतता था। वर्षों से राज भारद्वाज संपादकीय कार्यों को देखते थे लेकिन ऐसा लगता है कि विशेष रिपोर्टिंग के लिए गिरिजा की जरूरत महसूस की गई। अत: उनका भोपाल तबादला कर दिया गया। हालांकि उनके लिए शहर भोपाल नया था और राजधानी होने के नाते खबरों की दृष्टि से वहां की आबोहवा भी उनके लिए एकदम नई थी। नया शहर, नये लोग। किंतु अपने वाक चातुर्य तथा व्यवहार से उन्होंने वहां भी बहुत जल्दी राजनीतिक व प्रशासनिक क्षेत्र में अपनी पैठ बना ली। चूंकि उन दिनों छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा था अतः आईएएस व अन्य वरिष्ठ अफसरों की पदस्थापना कभी न कभी रायपुर में होती ही थी। उनमें से अनेक गिरिजा के मुरीद थे ही लिहाजा उनके जरिए भोपाल में सम्पर्क बढाने में गिरिजा को कोई दिक्कत नहीं हुई। उनके विस्तारित सम्पर्कों का लाभ एक्सक्लुसिव खबरों के रूप में अखबार को मिलने लगा। बहुत जल्दी राजनीति व सत्ता के इन गलियारों में उनकी वैसी ही तूती बोलने लगी जैसी रायपुर में बोलती थी। फिर गिरिजा भोपाल में रम गये सो रम गए। रायपुर नहीं लौटे। हालांकि छत्तीसगढ़ से उनका संबंध अटूट है। वर्षों पहले देशबंधु से अलग होने के बाद अब वे स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं तथा राजनीतिक विश्लेषक के रूप में इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया में नजर आते रहते हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">गिरिजा के बारे में कुछ बातें और। एक नवंबर वर्ष 2000 को मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ नया राज्य बना और अजीत जोगी के नेतृत्व में पहली सरकार कांग्रेस की बनी। फिर 2003 से 2018 तक भाजपा का शासन रहा। इस दौरान गिरिजाशंकर दोनों सरकारों के चहेते रहे। उनका छत्तीसगढ़ प्रवास काफी बढ गया। वे मुख्यमंत्री रमन सिंह के शासकीय आवास में नजर आते थे। एक तरह से वे उनके तथा राज्य के लोकप्रिय मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के अघोषित सलाहकार थे। उच्च अधिकारियों से खैर उनकी अच्छी छनती ही थी। लेकिन उनके जीवन वृत्त (बायोपिक) का फिल्मांकन घोर आश्चर्य की बात है। गिरिजाशंकर छत्तीसगढ़ के ऐसे पहले पत्रकार हैं जिनकी बायोपिक बनी है जबकि राज्य की पत्रकारिता में अनेक दिग्गज हुए जिन पर फिल्म तो कौन कहे, उनकी छोटी-मोटी जीवनियाँ तक नहीं छपीं। ऐसे में गिरिजा पर बायोपिक का बनना विशुध्द रूप से आपसी संबंधों के निर्वहन का मामला दिखता है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">इस बायोपिक का प्रदर्शन भाजपा शासन के अंतिम दौर यानी 2018 में राजधानी के एक बडे होटल में हुआ। गिरिजा की ओर से मैं भी आमंत्रित था। उन पर यह फिल्म मुम्बई की किसी कंपनी ने बनाई थी। फिल्म के प्रदर्शन समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह, उनके खासमखास अधिकारी अमन सिंह, कुछ मंत्री व अधिकारी गण उपस्थित थे। फिल्म की लागत कितनी थी? पैसों का भुगतान किसने किया व इसके निर्माण की वजह क्या थी? यह अज्ञात है। पर यह बात मानी जा सकती है कि राज्य सरकार के इशारे पर इसकी निर्मिति हुई होगी तथा सरकारी या अन्य अघोषित स्त्रोतों से कंपनी को इसका भुगतान हुआ होगा वर्ना गिरिजा को क्या जरूरत पडी थी कि अपना पैसा लगाकर खुद पर फिल्म बनाए ? यकीनन नहीं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">गिरिजा से मेरीअच्छी दोस्ती है। जब तक हम देशबंधु में रहे, हम दोस्तों, सोहन अग्रवाल, भरत अग्रवाल, दीपक पाचपोर, लियाकत अली , निर्भीक वर्मा व प्रदीप जैन के बीच खूब छनती थी। बाद में सभी के रास्ते अलग अलग हो गए। गिरिजा भोपाल गए तो भोपाल के ही होकर रह गए। आमतौर फर रायपुर आने पर उनका पता तब चलता था जब वे भोपाल वापसी के लिए ट्रेन पकड चुके होते। धीरे धीरे बातें व मुलाकातें भी कम होते चली गई। लेकिन हमारे बीच संबंधों की ऊर्जा वैसी ही है जैसी देशबंधु के दिनों में थी। अफसोस सिर्फ इस बात का है कि एक बेहद प्रतिभाशाली मित्र जो पत्रकारिता में उच्च शिखर को स्पर्श कर सकता था, बीच रास्ते में ठहर गया, और आगे नहीं बढा। सत्ता केन्द्रित राजनीति व सुविधाभोगी पत्रकारिता के गठजोड़ से प्रतिभाशाली पत्रकार किस तरह रास्ता भटक जाते हैं, उसके ढेरों उदाहरण हैं और मेरी दृष्टि में गिरिजाशंकर भी ऐसे ही एक उदाहरण बन गए हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">_______________________</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><span style="font-family: inherit;"><a class="oajrlxb2 g5ia77u1 qu0x051f esr5mh6w e9989ue4 r7d6kgcz rq0escxv nhd2j8a9 nc684nl6 p7hjln8o kvgmc6g5 cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x jb3vyjys rz4wbd8a qt6c0cv9 a8nywdso i1ao9s8h esuyzwwr f1sip0of lzcic4wl q66pz984 gpro0wi8 b1v8xokw" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%AD%E0%A4%B0%E0%A4%A4_%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2?__eep__=6&__cft__[0]=AZXCj_FW-6NkjSfXSH6PYRDVLp5dVDzSyTUJ_eqpnYq0LBOkg9CuP5MQjW6qDAsvhFQbHlvsAUNqYnkV4QZ9Ls9GVBBv6YpRftiSQAE5K1Op_SB3OH0m2wf_s3q7E8G1X-4&__tn__=*NK-R" role="link" style="-webkit-tap-highlight-color: transparent; border-color: initial; border-style: initial; border-width: 0px; box-sizing: border-box; cursor: pointer; display: inline; font-family: inherit; list-style: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; text-align: inherit; text-decoration-line: none; touch-action: manipulation;" tabindex="0">#भरत_अग्रवाल</a></span></div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">भरत अग्रवाल मेरे अभिन्न मित्र हैं। हमारी चौकडी थी। मैं, कृष्ण कुमार विश्वकर्मा, विमल चंद बेगानी व भरत अग्रवाल। इनमें से भरत पत्रकार थे। मेरी उनसे पहली मुलाकात वर्ष 1969 में नयी दुनिया ( देशबंधु ) में हुई। बातचीत के बाद पता चला हम दोनों लगभग पडोसी हैं। मैं अमीन पारा, महामाया मंदिर परिसर स्थित मकान में रहता था व भरत दानी पारा में। मोहल्ले अलग थे पर हम दोनों के मकानों के बीच का फासला पांच सौ मीटर से भी कम था। चूंकि दोनों के घर आसपास ही थे लिहाजा प्रायः रोज एक दूसरे के यहां आनाजाना था। पर नयी दुनिया के संपादकीय विभाग में मेरा व उनका लंबा साथ नहीं रहा। एक दिन भरत ने बताया कि ललित जी उन्हें जगदलपुर भेजना चाहते हैं। समूचे बस्तर की खबरें वे करेंगे। उन्होंने वहां जाने हामी भर दी है। यह सुनकर मुझे थोड़ा अफसोस हुआ। भरत के साथ आत्मीय संबंध बन गए थे। लेकिन तसल्ली इस बात से हुई कि भले ही वे जगदलपुर में रहे, उनसे समाचार के सिलसिले में प्रायः हर दिन टेलीफोन पर संवाद का सिलसिला बना रहेगा।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">भरत जगदलपुर चले गए। कुछ दिन अकेले रहे। फिर परिवार को ले गए। एक अजनबी शहर को जानना, पहचानना, लोगों से परिचय बढाना व खबरों के लिए भागदौड़ करना आसान नहीं था पर भरत चंद दिनों में ही व्यवस्थित हो गए। डाक से उनकी खबरों के लिफाफे आने लग गए तथा महत्वपूर्ण घटनाक्रमों का ब्योरा देने रात, देर रात टेलीफोन। टेलीफोन पर उनके समाचार प्रायः मैं ही नोट करता था। वे पहले पूछते थे कि ड्यूटी पर कौन है। जब मेरा नाम बताया जाता तब उन्हें संतोष रहता कि खबरें ठीक नोट होंगी व ठीक से छपेंगी। खबर नोट करने के अलावा हम थोड़ी बहुत इधर -उधर की बातें कर लेते थे।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">उन दिनों माओवादी बस्तर में पैर जमाने व अपने प्रभाव क्षेत्र का दायरा बढाने की कोशिश कर रहे थे। उनका प्रारंभिक लक्ष्य ग्रामीणों का विश्वास अर्जित करना व उन्हें सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों व व्यापारियों के अत्याचार व शोषण से मुक्त करना था। उन दिनों हिंसा का वैसा तांडव नहीं था जैसा बाद के वर्षों में नजर आया अलबत्ता आतंक बरपाने की शुरुआत हो चुकी थी। ऐसे माहौल में पत्रकारिता जोखिम भरी थी जो अब और अधिक खतरनाक हो गई है। लेकिन तब चूंकि नक्सली प्रचार चाहते थे अतः वे संवाददाताओं को जंगल में अपने ठिकाने आमंत्रित करते थे। बस्तर व बस्तर के बाहर के अनेक संवाददाता उनके शिविरों में ले जाए गये जहां से लौटकर उन्होंने माओवादियों की गतिविधियों व उनके लक्षित इरादों का चित्र खींचा। बस्तर को छानने वाले, उसकी एक एक इंच जमीन को नापने वाले यों बहुत से पत्रकार हैं , राज्य के और राज्य के बाहर के भी लेकिन जिन दो लोगों को मैं जानता हूँ , उनमें एक भरत अग्रवाल थे व दूसरे कांकेर के बंशीलाल शर्मा। उन्होंने प्रदीर्घ यात्राएं की, वन ग्रामों में रहे, आदिवासियों के जीवन को नजदीक से देखा-परखा, उनके शोषण को महसूस किया व रिपोर्टिंग की। तब के बस्तर को जानना हो तो देशबंधु में छपी उनकी रिपोर्ट्स महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता से फुर्सत पाने के बाद वे चाहते तो अपने अनुभव लिख सकते थे। लेकिन वे टालते रहे। उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया जबकि उनके पास यादों का भंडार हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">भरत दीर्घ अवधि तक जगदलपुर में रहे। पन्द्रह-बीस वर्ष। बाद में उनका तबादला भोपाल कर दिया गया। कुछ ही महीनों बाद उन्हें इन्दौर भेज दिया गया। इंदौर से जब वे रायपुर लौटे तो बोरिया-बिस्तर को साथ में ले आए। उन्होंने इस्तीफा दे दिया व पत्रकारिता से ही तौबा कर ली। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">------</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी शनिवार 13 नवंबर को)</div></div></span></div></div></div></div></div><div style="font-family: inherit;"><div class="stjgntxs ni8dbmo4 l82x9zwi uo3d90p7 h905i5nu monazrh9" data-visualcompletion="ignore-dynamic" style="border-radius: 0px 0px 8px 8px; font-family: inherit; overflow: hidden;"><div style="font-family: inherit;"><div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 12px;"><div style="font-family: inherit;"><div class="tvfksri0 ozuftl9m jmbispl3 olo4ujb6" style="font-family: inherit; margin-left: 12px; margin-right: 12px;"><div class="rq0escxv l9j0dhe7 du4w35lb j83agx80 pfnyh3mw i1fnvgqd gs1a9yip owycx6da btwxx1t3 ph5uu5jm b3onmgus e5nlhep0 ecm0bbzt nkwizq5d roh60bw9 mysgfdmx hddg9phg" style="align-items: stretch; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row nowrap; flex-shrink: 0; font-family: inherit; justify-content: space-between; margin: -6px -2px; padding: 4px; position: relative; z-index: 0;"><div class="rq0escxv l9j0dhe7 du4w35lb j83agx80 cbu4d94t g5gj957u d2edcug0 hpfvmrgz rj1gh0hx buofh1pr n8tt0mok hyh9befq iuny7tx3 ipjc6fyt" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: column; flex: 1 1 0px; font-family: inherit; max-width: 100%; min-width: 0px; padding: 6px 2px; position: relative; z-index: 0;"><div aria-label="इसे मित्रों को भेजें या इसे अपनी टाइमलाइन पर पोस्ट करें." class="oajrlxb2 gs1a9yip g5ia77u1 mtkw9kbi tlpljxtp qensuy8j ppp5ayq2 goun2846 ccm00jje s44p3ltw mk2mc5f4 rt8b4zig n8ej3o3l agehan2d sk4xxmp2 rq0escxv nhd2j8a9 pq6dq46d mg4g778l btwxx1t3 pfnyh3mw p7hjln8o kvgmc6g5 cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x tgvbjcpo hpfvmrgz jb3vyjys rz4wbd8a qt6c0cv9 a8nywdso l9j0dhe7 i1ao9s8h esuyzwwr f1sip0of du4w35lb lzcic4wl n00je7tq arfg74bv qs9ysxi8 k77z8yql abiwlrkh p8dawk7l" role="button" style="-webkit-tap-highlight-color: transparent; align-items: stretch; background-color: transparent; border-bottom-color: var(--always-dark-overlay); border-left-color: var(--always-dark-overlay); border-radius: inherit; border-right-color: var(--always-dark-overlay); border-style: solid; border-top-color: var(--always-dark-overlay); border-width: 0px; box-sizing: border-box; cursor: pointer; display: inline-flex; flex-basis: auto; flex-direction: row; 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color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>- दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">-----------------------</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">मेरे समकालीन व बाद की पीढी के छत्तीसगढ़ के अनेक ऐसे पत्रकार हैं जिन्होंने पत्रकारिता इस प्रदेश में रहते हुए प्रारंभ की लेकिन बाद में राज्य से बाहर चले गए व ख्यातनाम हुए। जो नाम मुझे याद आते हैं और जिनके साथ मेरा अनियमित सम्पर्क रहा है, उनमें प्रमुख हैं दीपक पाचपोर, निधीश त्यागी, सुदीप ठाकुर ,विनोद वर्मा, विजय कांत दीक्षित , शुभ्रांशु चौधरी ,महेश परिमल आदि आदि। संयोगवश ये सभी अलग-अलग समय में ललित सुरजन जी की पत्रकारिता पाठशाला यानी देशबंधु से निकले छात्र हैं। देशबंधु में कुछ महीने या कुछ वर्ष काम करने के बाद वे नये आकाश की तलाश में राज्य से बाहर निकले तथा जिन-जिन राष्ट्रीय अखबारों व मीडिया संस्थानों में रहे ,उन्होंने पत्रकारिता में अपना व छत्तीसगढ़ का मान बढाया। एक नाम और है, मेरे समकालीन जगदीश उपासने का। जहां तक मैं जानता हूं, उन्होंने रायपुर से प्रकाशित हिंदुत्ववादी विचारधारा के अखबार दैनिक युगधर्म से पत्रकारिता की शुरुआत की। बतौर पत्रकार मैं उन्हें जानता था पर कोई खास मुलाकात नहीं थी। आत्मिक परिचय का दायरा इसलिए भी आगे नहीं बढ पाया क्योंकि जगदीश नयी दिल्ली से प्रकाशित होने वाले इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के नये हिंदी अखबार जनसत्ता की संपादकीय टीम में चुन लिए गए जिसके संपादक प्रभाष जोशी थे। जनसत्ता के बाद वे समाचार विचार की प्रसिद्ध पत्रिका इंडिया टूडे में पहुंच गए और संपादक के रूप में वहां से निवृत्त हुए। चूंकि वे दिल्ली में बस गए थे अतः उनसे भेंट तब ही होती थी, जब वे अपने घर रायपुर आते थे। पर वह भी हर दफे नहीं। जगदीश उपासने समर्थ पत्रकार व कुशल संपादक व ओजस्वी वक्ता हैं। छत्तीसगढ़ को भले ही उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र न बनाया हो किंतु राष्ट्रीय पत्रकारिता में जो पहिचान बनाई है, उसमें छत्तीसगढ़ का अक्स साफ-साफ नजर आता है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">जिन दिनों मैं देशबन्धु था, विजयकांत दीक्षित बलौदाबाजार के संवाददाता थे। बलौदाबाजार जैसे छोटे स्थान से पत्रकारिता प्रारंभ करनेवाले विजयकांत ने जल्दी ही नया रास्ता चुन लिया। जब तक वे बलौदाबाजार में रहे, उनसे संवाद होता रहा। यह सिलसिला तब खत्म हुआ जब वे छत्तीसगढ़ से बाहर निकल गए। कहाँ कहाँ रहे, किन अखबारों में काम किया, ज्ञात नहीं, अलबत्ता यह खबर लगी कि वे नवभारत टाइम्स लखनऊ में हैं। एक दिन एकाएक फोन आया। सचिवालय में किसी आईएएस अधिकारी के पास बैठे हुए थे। चर्चा चली होगी , पिताजी का जिक्र आया होगा। सो दीक्षित ने उनसे मेरी बात कराई। फिर कुछ महीने बाद जब वे बलौदाबाजार आए तो रायपुर भी आए। घर आए। काफी समय तक इधर उधर की बातचीत होती रही। पता चला कि नवभारत टाइम्स से वे रिटायर हो गए थे। छत्तीसगढ़ मीडिया में नये काम की तलाश में थे। पता नहीं उन्हें काम मिला या नहीं पर उनका स्थायी निवास लखनऊ ही है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">निधीश त्यागी एक ऐसे पत्रकार हैं जिनका हिंदी के साथ अंग्रेजी पर भी समान अधिकार है। हिन्दी पत्रकारिता में बडा नाम। पत्रकारिता रायपुर से शुरू की । संभवतः पहला अखबार देशबन्धु ही था। देशबन्धु में वे बहुत बाद में आए। तब तक मैं वहां से निकल चुका था पर उनका नाम मैंने सुन रखा था । देशबन्धु वे कितने महीने या वर्ष रहे ज्ञात नहीं। एक दिन खबर मिली कि रायपुर उन्होंने छोड़ दिया है। संवाद नहीं था, इसलिए पता नहीं चल पाया कि वे कहाँ और किस समाचारपत्र में है। मेरी उनसे भेंट तभी हुई जब वे दैनिक भास्कर से जुड़े। जब वे दैनिक भास्कर चंडीगढ़ में थे तब मैं भी भास्कर उच्च प्रबंधन के निर्देश पर विशेष प्रयोजन से कुछ दिन वहां रहा। बाद में दैनिक भास्कर समूह के भोपाल गोवा संपादकों के सम्मेलनों में भी मुलाकातें हुई पर वे औपचारिक बातचीत तक ही सीमित थीं। अलग से मिलने या वार्तालाप करने की न तो उन्होंने इच्छा प्रकट की न मैने। अलबत्ता बीबीसी हिंदी के लिए कार्य करने के दौरान एक दो बार जरूर उनका फोन आया। विनोद वर्मा व अन्य के साथ भी कुछ ऐसा ही रहा। यदा-कदा फोन पर बातचीत या कभी कभार मुलाकात।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">छत्तीसगढ़ में वर्ष 2018 में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद विनोद वर्मा व रूचिर गर्ग मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सलाहकार मंडली में हैं। विनोद राजनीतिक सलाहकार हैं और रूचिर मीडिया देखते हैं। विनोद देशबंधु दिल्ली में सेवाएं देने के बाद बीबीसी लंदन में रहे। रूचिर रायपुर में ही रहकर पत्रकारिता करते रहे। वे भी देशबन्धु से दीक्षित हैं। नयी दुनिया व नवभारत का संपादन करने के पूर्व वे राष्ट्रीय न्यूज चैनल सहारा समय के छत्तीसगढ़ ब्यूरो प्रमुख थे। इस चैनल में वे अनेक वर्षों तक रहे। प्रिंट मीडिया में रहते हुए वैसे तो उनकी अनेक रिपोर्ट्स चर्चा में रहीं किंतु उन्हें बस्तर में नक्सल समस्या की रिपोर्टिंग के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है। देशबन्धु के सीनियर रिपोर्टर के रूप में उन्होंने बस्तर संभाग के नक्सल प्रभावित इलाकों का सघन दौरा किया। नक्सलियों की मांद में गए, उनके कैम्प में रहे, उनसे बातचीत की व उनके विचार जानने के बाद रायपुर लौटकर श्रृंखलाबद्ध रिपोर्ट्स प्रकाशित की। यह शायद पहली बार था जब किसी युवा रिपोर्टर ने बस्तर में आतंक के पर्याय माओवादियों की कार्यशैली को नजदीक से देखने-परखने एवं सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक कारणों की वजह से उपजी इस राष्ट्रीय समस्या की तह तक जाने की कोशिश की।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">दैनिक भास्कर में रहते हुए मेरा प्रयास था कि रूचिर हमारी संपादकीय टीम में शामिल हो जाए। उच्च प्रबंधन भी यही चाहता था। लेकिन रूचिर इच्छुक नहीं थे। ठीक से पता नहीं क्यों। लेकिन मुझे लगता है वे जहां थे, खुश थे। संस्था बदलने का उनका इरादा नहीं था। लिहाजा वे भास्कर में नहीं आए हालांकि अस्सी के दशक में जब इस नव भास्कर नाम से अखबार की लांचिंग हुई थी, वे नयी संपादकीय टीम के सदस्य थे।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रूचिर को मैं उस समय से जानता हूँ जब वे स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया में सक्रिय थे , कालेज छात्र थे तथा फेडरेशन के समाचारों के सिलसिले में प्रेस नोट देने अखबारों के दफ्तरों में आते थे। पत्रकारिता के बाद अब वे कांग्रेस की सरकार में नयी भूमिका में हैं। इस भूमिका को स्वीकार करने का निर्णय उनका अपना निर्णय है जिस पर मतांतर हो सकता है लेकिन यह बात तय है मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार के रूप में काम करने के बावजूद हर दिन , हर सुबह उनके भीतर का पत्रकार जागता होगा और फिर स्थिति का अहसास होते ही मन मसोसकर रह जाता होगा। इस तरह की मन:स्थिति से गुजरना उनके जैसे प्रखर, संवेदनशील व स्वाभिमानी पत्रकार के लिए स्वाभाविक है। कह नहीं सकते कि वे मीडिया में लौटेंगे या नहीं या फिर राजनीति में कदम आगे बढाएंगे। फिलहाल यह कहा जा सकता है कि जब तक छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार है, रूचिर भी वहां हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">विनोद वर्मा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के संघर्ष के दिनों के साथी हैं। प्रखर पत्रकार और अब बघेल के राजनीतिक सलाहकार। विनोद देशबन्धु में काफी दिनों तक रहे। बाद में ललित जी ने उन्हें दिल्ली में देशबन्धु का दायित्व सौंपा। दिल्ली में देशबन्धु के लिए रिपोर्टिंग करने के पश्चात उन्होंने लंदन की ओर रूख किया व बीबीसी हिंदी की सेवा में आ गये। रायपुर में वे जब तक रहे , कभी कभार उनसे मुलाकात हो जाया करती थी। पत्रकारिता की गहरी समझ के साथ उनके पास बढिया सौंदर्य बोध है, भाषा का। सरल, सुबोध व सुगम्य साहित्यिक भाषा। उतनी ही अच्छी शैली भी। उन्होंने घर आकर मां का किसी पत्रिका के लिए इंटरव्यू लिया था। घर, परिवार व पिताजी के संंबंध में लंबी बातचीत की थी। बहुत अच्छा था वह इंटरव्यू ।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रूचिर की तरह विनोद वर्मा की भी पारी किस तरह आगे बढेगी, फिलहाल कहना मुश्किल है पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे राजनीति में ही अपना स्थान बनाने की कोशिश करेंगे। और यह ठीक भी है क्योंकि राजनीति में अच्छे लोगों की वाकई बहुत जरूरत है। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">**********************</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">वर्ष 2000 , मई के महीने में बिलासपुर नवभारत में संयुक्त संपादक के पद पर जब मेरी नियुक्ति हुई तब वहां संपादक बजरंग केडिया थे। व्यावसायिक वृत्ति के बजरंग केडिया के बारे में मैं केवल इतना ही जानता था कि बिलासपुर से प्रकाशित किसी अखबार में वाणिज्य रिपोर्टर के रूप में उन्होंने पत्रकारिता प्रारंभ की थी और एक दिन वे नवभारत के प्रबंधक व संपादक बन गए जहां वे वर्षों बने रहे। नवभारत में नीतिगत व्यवस्था के तहत संपादक ही प्रबंधन की भी जिम्मेदारी संभालते थे। लेकिन मेरी नियुक्ति के बाद केडिया जी को संपादकीय दायित्व से मुक्त कर दिया गया। नवभारत का आंतरिक ढांचा कुछ ऐसा है कि व्यवस्थागत परिवर्तन नहीं के बराबर होता है। यानी संपादक या इतर पद पर एक बार जो नियुक्त हुआ वह रिटायरमेंट तक उसी पद बना रहता है। इसीलिए छत्तीसगढ़ की अखबारी दुनिया में नवभारत की नौकरी को सरकारी नौकरी माना जाता था जहाँ कर्मचारियों की सेवाएं सुरक्षित रहती थीं। केडिया जी के साथ भी यही हुआ, मुझे लाया गया पर उन्हें हटाया नहीं गया। केडियाजी समझदार व सुलझे हुए व्यक्ति थे। व्यवस्था में परिवर्तन बाबत वे नवभारत के संचालक का इशारा समझ गए थे लिहाजा उन्होंने संपादकीय कामकाज में दखल देना बंद कर दिया था अलबत्ता पत्रकार साथियों के साथ दरबार सजाना उन्होंने बदस्तूर जारी रखा। मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं थी। सालों तक एक अखबार की पूरी व्यवस्था देखने वाले व्यक्ति के लिए ऐसा करना स्वाभाविक बात थी।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">बिलासपुर नवभारत में अधिकांश पत्रकार अधेड़ उम्र के थे। 20-22 साल का कोई नौजवान नहीं था। सभी को कामकाज का दीर्घ अनुभव था लेकिन इसके बावजूद भाषा के मामले में अधिकांश साथी गरीब थे। उनकी कापियों को सीधे कंपोजिंग के लिए नहीं भेजा जा सकता था। रूद्र अवस्थी, किशोर दिवसे, शशिकांत कोन्हेर, गणेश तिवारी व पीयूष पांडे सरीखे चंद ही ऐसे थे जिनके पास अच्छी भाषा, अच्छी समझ व अच्छी शैली थी। खबरों के प्रस्तुतीकरण में उनकी मास्टरी थी। लेकिन मेरी दृष्टि में इन सब में रूद्र अवस्थी विशिष्ट थे। बहुत काबिल रिपोर्टर जिनकी राजनीतिक टिप्पणियां घटनाओं के पीछे छिपे सत्य को बेपर्दा कर देती थीं। बिलासपुर का कोई ऐसा अखबार न था जो इतनी बारीकियों के साथ राजनीतिक घटनाओं की तथ्यों के आधार पर चीरफाड करता हो। दूसरे सहयोगी किशोर दिवसे का हिंदी ,अंग्रेजी पर समान अधिकार था। उनके लेख व साप्ताहिक कालमों में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की गहरी पडताल रहती थी लिहाजा नये-नये दृष्टिकोण सामने आते थे जो अखबार के विचार पृष्ठ को पठनीय बनाते थे। वे माहिर अनुवादक भी थे। उन्होंने कुछ किताबों का अनुवाद किया जो समय के अंतराल में प्रकाशित हुई हैं। नवभारत के एक और साथी शशिकांत कोन्हेर काफी सीनियर व बेहद प्रतिभाशाली पत्रकार थे किंतु उनमें कुछ कमियां थीं इस वजह से वे पत्रकारिता के क्षेत्र में उस उंचाई को छू नहीं पाए जिसके लिए वे डिजर्व करते थे। उनकी कमजोरियों व ड्यूटी पर महीनों अनुपस्थिति के बावजूद नवभारत ने उनकी नौकरी नहीं छिनी। जाहिर है संपादक व प्रबंधक बजरंग केडिया मानवीय दृष्टिकोण अपनाते रहे। जब मैंने कार्यभार संभाला, शशिकांत अनुपस्थित थे और काफी समय से थे। मेरे कार्यकाल के दौरान भी उनका यही रवैया रहा। वे अपनी मर्जी से दफ्तर आते -जाते रहे और मैं भी उनकी पारिवारिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए नवभारत की नीति का अनुसरण करता रहा। शशि नौकरी में बने रहे। इसमें कोई शक नहीं कि वे अच्छे रिपोर्टर व कलमकार हैं, यह अलग बात है कि उन्होंने खुद होकर अपनी संभावनाएं धूमिल की। इन कुछ नामों के अलावा संपादकीय विभाग के अन्य सहयोगी भाषाई सौंदर्य को भले ही ठीक से शब्द न दे पाते हों , लेखन में कमजोर हो, लेकिन वैचारिकता तथा पत्रकारिता की समझ की दृष्टि से वे किसी भी मायने में कमतर नहीं थे। रायपुर नवभारत की तरह नवभारत बिलासपुर भी प्रसार के मामले में अपने प्रतिद्वंद्वियों से काफी आगे बना रहा तो इसका श्रेय संपादकीय टीम को ही था जिसने अखबार के कंटेंट पर ध्यान रखा और विश्वसनीयता के मूल तत्व को नष्ट नहीं होने दिया। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">------</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी शनिवार 6 नवंबर को)</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-81368449166786666832021-10-30T08:04:00.007-07:002021-10-30T08:04:41.761-07:00 कुछ यादें, कुछ बातें - 25<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">- दिवाकर मुक्तिबोध</span></p><div class="kvgmc6g5 cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">--------------------------</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><span style="font-family: inherit;"><a class="oajrlxb2 g5ia77u1 qu0x051f esr5mh6w e9989ue4 r7d6kgcz rq0escxv nhd2j8a9 nc684nl6 p7hjln8o kvgmc6g5 cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x jb3vyjys rz4wbd8a qt6c0cv9 a8nywdso i1ao9s8h esuyzwwr f1sip0of lzcic4wl q66pz984 gpro0wi8 b1v8xokw" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A4%AF_%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A4%BE?__eep__=6&__cft__[0]=AZWEo-J7hH52uGXQXRbJ0T6LBOhdIy2ingSvdQhMoS6o7kX07B5mm46K_CTQ_Dy3n8hTShycS48SVf3Zn8HrKYxfxCUC7RntLaR-WyPproEbMK2g5AmAuo13SrAUWEzwH_E&__tn__=*NK-R" role="link" style="-webkit-tap-highlight-color: transparent; background-color: transparent; border-color: initial; border-style: initial; border-width: 0px; box-sizing: border-box; cursor: pointer; display: inline; font-family: inherit; list-style: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; text-align: inherit; text-decoration-line: none; touch-action: manipulation;" tabindex="0">#विजय_शंकर_मेहता</a></span></div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रायपुर में पोस्टिंग के पूर्व विजय शंकर मेहता जी कौन है, मैं नहीं जानता था। बाद में मैंने जाना कि वे स्टेट बैंक आफ इंडिया उज्जैन में अधिकारी हैं तथा वहाँ दैनिक भास्कर ब्यूरो का अप्रत्यक्ष रूप से कामकाज देखते है। यह भी सुना कि दैनिक भास्कर के मालिकों से उनके अच्छे संबंध है तथा समूह संपादक श्रवण गर्ग को वे अपना गुरू मानते हैं। शायद उन्होंने बैंक की नौकरी छोडऩे का मन बना लिया था और अब पूर्णकालिक पत्रकारिता करना चाहते थे। लिहाजा इसकी शुरूआत रायपुर से की जा रही थी। वे रायपुर आए व संपादक का पदभार ग्रहण किया। दुर्योग से इस अवसर पर मैं उपस्थित नहीं था। दरअसल मैं बीमार था। घुटने में बार-बार पानी भरने की वजह से चलने-फिरने से लाचार था फलत: लंबी छुट्टी पर था। लेकिन मेरी अनुपस्थिति का गलत अर्थ निकाला गया व मेहता को कुछ विघ्नसंतोषियों द्वारा यह बताने की कोशिश की गई कि मैं बीमारी का बहाना बना रहा हूँ क्योंकि मैं अपना तबादला भिलाई नहीं चाहता। संभवत: यह बात उपर तक पहुँचाई गई। बहरहाल जब मेरी स्थिति कुछ ठीक हुई तो मैं दफ़्तर पहुँचा व मेहता जी के सामने हाजिर हो गया। मेरी उनसे यह पहली मुलाक़ात थी। वे तिलकधारी थे, मुझे तेज़ आदमी लगे। किसी अखबार के दफ़्तर में आम तौर पर संपादक के कक्ष में दीवारों पर देवी-देवताओं की तस्वीरें शायद ही नजऱ आए। पर दैनिक भास्कर के नये संपादक के कक्ष में हनुमान जी पहुँच गए थे। दीवार पर उनकी तस्वीर बता रही थी कि संपादक महोदय रामभक्त हनुमान के परम भक्त हैं। औपचारिक बातचीत के बाद उन्होंने फऱमान सुना दिया कि कल भिलाई चले जाएँ और एक हफ़्ते में सारी व्यवस्थाएँ ठीक कर लें। मैंने हामी भरी व अगले दिन सुपेला, भिलाई स्थित दफ़्तर पहुँच गया। नई व्यवस्थाएँ बनाने में समय लगना ही था सो वह लग रहा था। तकनीकी रूप से पेज मेकिंग का काम शुरू नहीं हो पा रहा था जबकि मेहता जी ने बिना हक़ीक़त जाने दबाव बनाना शुरू कर दिया था। जिस तरह बातें चल रही थी, मुझे संचालक गिरीश अग्रवालजी का कथन याद आने लग गया था। बहरहाल मेहता जी ने एक रात बडी तल्ख़ भाषा में अल्टीमेटम दे दिया- ' कल से पेज भेजना शुरू करें।' मुझे उनका रवैया पसंद नहीं आया। मैंने भी साफ़ शब्दों में मना कर दिया- ' नही हो सकता। समय लगेगा। जब हमारी व्यवस्था ठीक हो जाएंगी तब हम यहां पेज मेकिंग कर पाएंगे।' आगे कुछ बाता-बातें हुई और मैंने तैश में आकर कह दिया कि आप नई व्यवस्था देख लें। मैं यहाँ से जा रहा हूँ, कल इस्तीफ़ा भेज दूँगा। इस पूरे घटनाक्रम से हाईकमान को किस तरह अवगत कराया गया, मैं नहीं जानता लेकिन गिरीशजी की आशंका सही साबित हुई कि मेहता जी के साथ आपकी पटरी नहीं बैठेगी। हालाँकि मेहता जी को ठीक से जानने-समझने का मुझे पर्याप्त समय ही नहीं मिला था। दरअसल ऐसा लगा कि उनके रायपुर पहुंचते ही कान फूंक दिए गए थे। इसलिए बहुत संभव है उनकी मेरे प्रति कोई धारणा बन गई हो। बहरहाल मेहता जी अधिक समय तक रायपुर में नहीं रहे। उन्होंने बाद में पत्रकारिता से ही किनारा कर लिया। हनुमान भक्त तो थे ही लिहाजा प्रवचनकर्ता बन गए। वे ओजस्वी वक्ता थे। हनुमान चालीसा को व्यक्ति की जीवन पद्धति से जोडकर वे अपने प्रवचनों से धर्मप्राण जनता को मंत्रमुग्ध कर देते थे। अतः बहुत जल्दी उन्होंने इस क्षेत्र में राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर ली। उनके प्रवचनों की गूँज देश-विदेश में होने लगी। प्रवचन देने जब वे पहली बार रायपुर आए, मै पुन: दैनिक भास्कर में स्थानीय संपादक के रूप में मौजूद था। उनसे होटल में मुलाक़ात हुई। सहज व स्नेहिल मुलाक़ात। इसके पूर्व दैनिक भास्कर के दफ़्तर में वे गए तथा संपादकीय सहकर्मियों की मीटिंग में मेरा जिक्र करते हुए उन्होंने भिलाई की घटना पर अफ़सोस जाहिर किया था। जब साथियों ने मुझे इससे अवगत कराया , तो मन के किसी कोने में मुझे अपार संतुष्टि मिली।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">पंडित विजय शंकर मेहता भले आदमी हैं। मैं उन्हें इस बात का श्रेय देना चाहूँगा कि उन्होंने मेरी होम सिकनेस एक हद तक कम कर दी। भिलाई में टेलीफोन पर उनसे विवाद न हुआ होता तो मैं आनन-फानन में भास्कर न छोड़ता। दरअसल मेरे हाथ में एक नौकरी पहले से ही मौजूद थी। बिलासपुर नवभारत में संयुक्त संपादक की। नियुक्ति पत्र मेरी जेब में पडा हुआ था। केवल हामी भरनी थी। चूंकि परिवार से दूर नहीं रह सकता था। इस वजह से नवभारत उच्च प्रबंधन का प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर रहा था। लेकिन परिस्थितिवश उसे अंततः स्वीकार करना पडा। आलम यह था कि मैं बिलासपुर में रहने की दृष्टि से रोज सूटकेस लेकर जाता लेकिन देर रात ट्रेन से रायपुर लौट आता। यह क्रम एक सप्ताह तक चला। इस अवधि में मन की अस्थिरता कुछ कम हुई और एक दिन मैंने एक होटल को अपना ठिकाना बना लिया अलबत्ता शनिवार देर रात रायपुर लौट आना व सोमवार को सुबह बिलासपुर पहुँचने का क्रम जारी रहा। धीरे-धीरे मैं अकेले रहने का आदी हो गया बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि बिलासपुर ने मेरा अकेलापन ख़त्म कर दिया। यह चमत्कार हुआ कुछ करीबी दोस्तों व इस शहर की तासीर की वजह से। छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में विख्यात शहर की आबोहवा में अपनत्व इस कदर घुला हुआ है कि बहुत जल्दी बाहरी लोग भी आत्मीय जुड़ाव महसूस करने लग जाते है। मेरे साथ भी यही हुआ। मैं तो यहाँ तक सोचने लग गया था कि काश मैंने अपना कर्म क्षेत्र रायपुर के बजाए बिलासपुर को बनाया होता। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">------</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी शनिवार 30 अक्टूबर को)</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-47795891641278254682021-10-30T08:04:00.003-07:002021-10-30T08:04:16.588-07:00कुछ यादें कुछ बातें-24<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">- दिवाकर मुक्तिबोध</span></p><p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">------------------------</span></p><p><span style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>कमल ठाकुर </b></span></p><p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">कमल ठाकुर जी से पहली मुलाकात कब और कहां हुई याद नहीं। मैं अखबारी दुनिया में नया नया था लिहाजा इतना जरुर जानता था कि वे नवभारत के संपादकीय विभाग में हैं और काफी सीनियर है। पता चला था कि सरकारी नौकरी मेंं थे पर वहां मन रमा नहीं इसलिए इस्तीफा देकर रायपुर लौट आए। पर मेरी उनसे पहली मुलाकात नवभारत नहीं, महाकोशल में हुई। श्यामाचरण शुक्ल के स्वामित्व वाले छत्तीसगढ़ के इस सबसे पुराने समाचार पत्र का प्रबंधन श्यामाचरण जी ने नवभारत के संपादक गोविंद लाल वोरा जी को सौंप दिया था। कमल ठाकुर महाकोशल मेंं भेज दिए गए थे। ऐसे ही किसी दिन महाकोशल में उनसे औपचारिक बातचीत हुई पर बात आगे नहीं बढ़ी। परिचय व आत्मीयता का दायरा तब बढा जब हम अमृत संदेश में साथ साथ काम करने लगे। 1983 के प्रारंभ में गोविंद लाल वोरा जी ने अपने अखबार अमृत संदेश के प्रकाशन की तैयारी शुरू की। नवभारत की नौकरी छोड़कर हम तीन सहयोगी नरेंद्र पारख, रत्ना वर्मा व मैं वोरा जी के साथ हो लिए थे। अमृत संदेश की लान्चिग के लिए कम से कम तीन महीने का वक्त था। इस बीच तैयारियां पूरी करनी थी। बाद में वरिष्ठ सहयोगी के रूप में कमल ठाकुर महाकोशल से आ गए थे। चूंकि अमृत संदेश की खुद की इमारत नहीं बनी थी लिहाजा हमारे बैठने की व्यवस्था वोरा जी के बूढापारा स्थित प्रिंटिंग प्रेस के कार्यालय में की गई थी। वोरा जी भी यही बैठने लगे थे। अभी संपादकीय टीम पूरी बनी भी नहीं थी एकाएक कमल ठाकुर जी ने नई राह पकड़ ली। दरअसल उसी दौरान एक और नया अखबार नवभास्कर मार्केट में आने वाला था। पत्रकारों के लिए नये अवसर पैदा हो गए थे। और ठीक ऐसे समय जब अमृत संदेश की तैयारियां जोरों पर थी, यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि कमल ठाकुर जैसे सीनियर ऐन मौके पर साथ छोड़ देंगे। पर यही हुआ। नवभास्कर के प्रकाशन के एक दिन पहले वे भास्कर पहुंच गए। दूसरे दिन यानी नवभास्कर के पहले अंक में वरिष्ठ संपादकीय साथियों के साथ उनकी भी फोटो छपी। हम लोग के लिए उनका इस तरह जाना किसी झटके से कम नहीं था । खैर अमृत संदेश का प्रकाशन यथासमय शुरू हुआ और इस बीच इधर-उधर भटकने के बाद कमल ठाकुर पुन: अमृत संदेश लौट आए। वोरा जी ने उन्हें साप्ताहिक पत्रिका आमंत्रण का काम सौंपा।</span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">कमल ठाकुर हिंदी व अंग्रेजी के विद्वान थे। सहज, सरल व सभी से दोस्ताना व्यवहार। उम्र का कोई बंधन नहीं था। कनिष्ठ से कनिष्ठ सहकर्मी भी उनका मित्र बन जाता था। इसलिए पत्रकारों की जमात में वे बहुत लोकप्रिय थे। मेरे लिए तब बहुत असहज स्थिति निर्मित हो गई जब मेरी नियुक्ति मई वर्ष 2000 में नवभारत बिलासपुर में संयुक्त संपादक के पद पर हुई। और कमल ठाकुर वहां पहले से ही कार्यरत थे। जैसा कि आमतौर पर उन दिनों होता था , संपादक के लिए एक अलग कक्ष की व्यवस्था रहती थी जबकि कमल ठाकुर सहित अन्य सभी संपादकीय साथी एक बड़े से हॉल में एक साथ बैठते थे। चूँकि वे सीनियर थे लिहाजा उनका वहां बैठना मुझे ठीक नहीं लगता था। एक दिन मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे मेरे साथ मेरे चेम्बर में ही बैंठे। लेकिन उन्होंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। उन्होंने कहा - आप अखबार के संपादक हैं , मैं आपका कक्ष कैसे शेयर कर सकता हूँ। मैं बाहर ही ठीक हूं। आप अपने मन में कोई दुविधा न रखें। यह आपका बडप्पन है कि आप ऐसा सोचते हैं जबकि पद को लेकर मेरे दिल में कोई बात नहीं है बल्कि मुझे खुशी है कि आप मेरे संपादक हैं।' कमल ठाकुर की सहज प्रतिक्रिया के बावजूद मैंने नवभारत के नागपुर मुख्यालय में संचालक प्रकाश माहेश्वरी जी को पत्र भेजा व अपनी दुविधा बताई। जवाब में उनका पत्र आया कि आपको प्रोटोकॉल के अनुसार अपने पद की गरिमा व मर्यादा को ध्यान में हुए निर्णय लेना चाहिए। इशारा स्पष्ट था। प्रोटोकॉल का पालन किया जाए। व्यवस्था जैसी है, वैसी ही चलने दी जाए। उनके पत्र से मन हल्का हुआ, दुविधा खत्म हुई। कमल ठाकुर वरिष्ठ सहयोगी के रूप में मेरे साथ बने रहे।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">कमल ठाकुर रायपुर से बिलासपुर रोज लोकल ट्रेन से आना जाना करते थे। एक शहर से दूसरे शहर रोजाना अप-डाउन करनेवाले दैनिक यात्रियों की संख्या सैकड़ों में थीं। इनमें अखबारों के भी कुछ लोग थे। प्रेस बिरादरी के सहयात्री ठीक समय पर रेलवे स्टेशन पर मिलते और लोकल के आते ही किसी एक डिब्बे में घुस जाते। भीड़ की वजह से कई बार बैठने के लिए नीचे की बर्थ नहीं मिल पाती तो उपर की बर्थ पर टांगें सिकोड़कर बैठना पडता था। अनेक दफे यह बंदा भी इसी तरह टंगा रहता था। दरअसल जैसा कि मैंने पूर्व में उल्लेख किया, होम सिकनेस के कारण अपने घर से बाहर दूसरे शहर मेंं अकेले रहने का मतलब फांसी पर चढने जैसा था। चूंकि नवभारत बिलासपुर में नौकरी ज्वाइन करने की विवशता थी, इसलिए किसी तरह अपनेआप को समझाया व ज्वाइनिंग के बाद अपना डेरा सर्किट हाउस में डाल दिया। तिथि थी एक मई 2000। मन में विचलन इस कदर था कि रात किसी तरह काटी व अगले दिन दफ्तर का कार्य निपटाकर देर रात रायपुर पहुंच गया। मुम्बई-हावड़ा रेल मार्ग पर होने के कारण वाया रायपुर-बिलासपुर इतनी ट्रेन चलती हैं कि चौबीस घंटों में किसी भी समय यात्रा की जा सकती है। बहरहाल अगले चार-पाँच दिनों तक यह क्रम चलते रहा। एक दिन जी ऐसा घबराया कि मैंने सोच लिया कि नौकरी छोड़ दी जाए। सो अपना सूटकेस लेकर दफ्तर आ गया। ठाकुर साहब माजरा समझ गए। मैंने समस्या बताई। उन्होंने समझाते हुए कहा कि आपके मन की हलचल मैं समझ सकता हूँ। क्योंकि मैं भी ऐसा ही हूं। मेरी ड्यूटी का समय सुबह दस से पांच का है अत: मेरे लिए अप--डाउन संभव है पर आप रोज ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि अखबार की पूरी जिम्मेदारी आप पर है लिहाजा आप ऐसा करें शनिवार की शाम मेरे साथ चला करें व सोमवार की सुबह साथ-साथ लौंटे। मुझे लगता है इससे आपके मन में स्थिरता आ जाएगी। कमल ठाकुर जी की बातों पर मैंने गौर किया और मैंने फैसला किया किया कि नौकरी छोडना मन की समस्या से निपटने का विकल्प नहीं है। कमल जी मुझे आत्मबल मिला । मैंने तय किया कि मुझे छह दिन बिलासपुर में रहना चाहिए व एक दिन रायपुर। मैंने एक होटल में मासिक किराए पर रूम ले रखा था। उस दिन मेरा सूटकेस फिर होटल में पहुंच गया। अब मुझे शनिवार की प्रतीक्षा होने लगी। लेकिन जब कमल ठाकुर व प्रबंधन के एक दो साथी जो रायपुर के ही थे, रोज शाम को कामकाज समेटकर रेलवे स्टेशन के लिए निकलते तो मन उदास हो जाता। फडफडाने लगता। पर शनिवार आते ही यही मन उल्लास से भर उठता था। कभी मैं उनके साथ हो लेता तो कभी देर रात की ट्रेन पकडता। लौटते समय सोमवार की सुबह सात बजे रायपुर रेलवे स्टेशन पर हम मिला करते। इस साप्ताहिक सफर में मजा आने लगा था। कुछ कुछ एडवेंचर जैसा। ठाकुर जी तो थे ही , इस दौरान अनेक सहयात्री भी मित्र बन गए। करीब पांच वर्ष मैं बिलासपुर में रहा। और यही क्रम चलता रहा। मेरी होम सिकनेस लगभग समाप्त हो गई थी। कमल ठाकुर न होते, उन्होंने हौसला न दिया होता तो यकीनन यह न हो पाता। इस मायने में , एक बडे भाई के रूप में मेरे मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा है। अब घर से बाहर रहने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी। हालांकि जब रात मेंं अकेले हुआ करता था, परिवार खासकर बच्चों की बहुत याद आती थी। लेकिन रहते-रहते बिलासपुर मुझे बेहद अच्छा लगने लगा था। रायपुर से कही ज्यादा। यहां के लोग अच्छे थे, शहर अच्छा था, पत्रकारों की जमात भी अच्छी थी, नई मित्र-मंडली बन ही गई थी और दिल भी यह कहने लग गया था कि कितना अच्छा होता यदि परिवार सहित अपना बसेरा यहां बना लिया होता।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">मैं करीब पांच वर्ष नवभारत व दैनिक भास्कर बिलासपुर में रहा। इस बीच कमल ठाकुर कभी रायपुर कभी बिलासपुर रहे। वे कर्मठ ,मेहनती , ईमानदार व अध्ययनशील पत्रकार थे।पर वे किसी भी एक जगह दीर्घ अवधि तक टिके नहीं। दरअसल वे भी घर व परिवार से अधिक दिनों तक दूर नहीं रह सकते थे।इसलिए जब मन करता वे घर बैठ जाते और बाद में छुट्टी की दरखास्त भेज देते। नौकरी छोडऩे व दूसरी पकडऩे में उन्हें समय नही लगता था क्योंकि उनके जैसे क़ाबिल पत्रकार के लिए अखबारों के दरवाज़े खुले हुए थे, भले ही वे आना-जाना करते रहे हों। जब रायपुर में रहते ,टिकरापारा चौक जहाँ उनका घर था, टपरीनुमा चाय की दुकानें उनका अड्डा हुआ करती थीं। हम अनेक बार उनके घर गए पर मुलाक़ात अड्डे पर हुई। इन अड्डों पर उनके आसपास मामूली हैसियत के सर्वहारा वर्ग के लोग हुआ करते थे जिनके लिए कमल ठाकुर किसी मसीहा से कम नहीं थे। ये अड्डे क्या थे, उन्हें वैचारिक मंच कहना ज्यादा ठीक रहेगा क्यों कि जब कभी किसी अड्डे पर मेरी उनसे मुलाक़ात हुई , सभी बहस में उलझे नजऱ आते थे।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">कमल ठाकुर ऊंचे-पूरे तंदुरूस्त व्यक्ति थे। स्वस्थ। यह सोचना भी कठिन था कि एकाएक उनकी मृत्यु हो जाएगी। पर ऐसा ही हुआ। एक सुबह खबर मिली कि कमल ठाकुर का निधन हो गया। हम स्तब्ध। कुछ समझ में नहीं आया ऐसा कैसे हो गया। पता चला सुबह सुबह उन्हें हार्ट अटैक आया जिसे वे झेल नहीं सके। यह दुखद था कि उनकी अंतिम यात्रा में इने-गिने पत्रकार शामिल हुए जबकि लगभग पूरा मोहल्ला अंत्येष्टि स्थल पर मौजूद था।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">-------</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी बुधवार 27 अक्टूबर को)</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-74490693778020620472021-10-20T06:41:00.006-07:002021-10-20T06:41:41.154-07:00कुछ यादें कुछ बातें - 23<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>श्रवण गर्ग</b></span></p><p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">__________</span></p><p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">मेरे एक और संपादक श्रवण गर्ग का जिक्र करना चाहूंगा। वे पहले दैनिक भास्कर इन्दौर के स्थानीय संपादक थे। बाद में दैनिक भास्कर समाचार पत्र समूह संपादक बने तथा काफी समय तक इस पद पर रहे। वे बहुत सुलझे हुए, ईमानदार व कलम के धनी पत्रकार हैं। लेकिन उनका सामना करने मेंं प्राय: हर पत्रकार घबराता था जिनमें मैं भी शामिल था। दरअसल श्रवण जी स्वभाव से कड़े व रूखे हैं। पर जिनसे उनका मन मिलता था वह व्यक्ति उनका मुरीद हो जाता था। उनकी नाराजगी आमतौर पर काम को लेकर रहती थी। वे परफेक्शनिस्ट हैं और ऐसी ही उम्मीद अपने मातहत पत्रकारों से रखते थे। उनका इस बात पर बहुत जोर था कि पत्रकारों को हमेशा अपडेट रहना चाहिए। जहां कहीं कुछ भी घटित हो रहा हो , उसकी जानकारी तुरंत उसे होनी चाहिए। वे खुद भी अपडेट रहते थे और जो ऐसा नहीं कर पाता था, उसकी शामत तय थी। हालांकि जब गुस्सा शांत हो जाता, वे पुचकारने में देर नहीं करते थे। मैं उनसे घबराता था। घबराहट इसलिए रहती थी कि पता नहीं क्या पूछेंगे और मैं ठीक जवाब दे पाऊंगा कि नहीं। जब कभी किसी घटना के बारे में पूछताछ करने उनका भोपाल से फोन आता तो मैं कोशिश करता था , उन्हें नाराजगी जाहिर करने का अवसर न मिलें। पर ऐसा हमेशा नहीं हो पाता था। वे समझ जाते थे कि अपने आसपास घटित घटनाओं की जानकारियां हासिल करने में मैं कितना कमजोर हूं। वे कहते कुछ नहीं थे पर उनकी बातचीत से समझ मेंं आ जाता था कि वे नाराज हैं। फिर भी पता नहीं उन्होंने मुझमें क्या खासियत देखी थी कि पदोन्नति से लेकर तनख्वाह बढ़ाने तक वे मेरा साथ देते रहे। बिलासपुर से गृह नगर वापसी भी उनकी वजह से संभव हो सकी।</span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">एक विद्वान पत्रकार व संपादक के रूप में श्रवण जी की राष्ट्रीय ख्याति है। कठोर स्वभाव की वजह से उनसे नाराज रहने वाले भी काफी रहे हैं और इस सत्य से वे खुद भी परिचित हैं। वे यह भी कहने से नहीं चूकते कि जो पत्रकार योग्यता की उनकी कसौटी पर खरा नहीं उतरा, उसे बाहर का रास्ता दिखाने में उन्होंने देर नहीं की। इसलिए ऐसे लोग जाहिर है एक व्यक्ति के रूप में उनके बारे में अच्छी राय नहीं रखते। किंतु उन्हें एक तटस्थ, निर्भीक, ईमानदार व तेज कलमकार के रूप में सभी सलाम करते हैं तथा स्वीकार करते हैं कि श्रवण जी ने अपनी पत्रकारिता में पेशेगत ईमानदारी व नैतिक मूल्यों को कायम रखा व परिस्थितियों के साथ कभी समझौता नहीं किया। राजनीतिक व सामाजिक विषयों पर वे लगातार लिख रहे हैं और खूब पढे जाते हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">दैनिक भास्कर समूह संपादक के रूप में पत्रकारों के हितों की रक्षा में उनकी भूमिका भी उल्लेखनीय रही। उच्च प्रबंधन को विश्वास में लेकर उन्होंने जो काम किया, वह इसके पूर्व कोई संपादक नहीं कर पाया था। भास्कर के अन्य संस्करणों की बात मैं नहीं करता पर रायपुर संस्करण वेतनमान के मामले में सर्वाधिक पिछड़ा हुआ था। शुरू से ही संपादकीय विभाग के साथियों का वेतन बहुत कम था। और तो और संपादक की तनख्वाह भी अन्य संपादकों के मुकाबले काफी कम थी। जब भास्कर ने कारपोरेशन कल्चर में प्रवेश किया, तब श्रवण जी ने परफॉर्मेंस के आधार पर स्थानीय संपादकों को वेतन वृद्धि व पदोन्नति का अधिकार दिया तथा उनकी सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए तनख्वाहें बढाई व योग्य साथियों को पदोन्नत किया। आज दैनिक भास्कर में कई ऐसे संपादक हैं जो इसी अखबार में किसी समय रिपोर्टर, सह संपादक, सहायक संपादक थे। यह बंदा भी 1992 मेंं विशेष संवाददाता फिर मुख्य संवाददाता,1996 में समाचार संपादक , 2003 मेंं स्थानीय संपादक 2013 में स्टेट कोआर्डिनेटर के पद पर रहा। कहने का आशय यह कि दैनिक भास्कर मेंं योग्यता व क्षमता की कदर होती थी विशेषकर श्रवण जी के जमाने हालांकि अब अब परिस्थितियां बदली गई हैं। अब संपादकों को प्रतिदिन के अखबार के अलावा जरूरत के अनुसार कंपनी के हित मेंं कुछ और कार्य भी करने पड़ते हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">श्रवण जी के साथ यादों का कोई भंडार मेरे पास नहीं है। चंद मुलाकातें व टेलीफोनिक बातचीत तक सीमित रहे संबंध। लेकिन मुझे इस बात का अहसास था कि श्रवण जी मेरे काम से संतुष्ट हैं तथा मुझसे स्नेह रखते हैं। भोपाल कारपोरेट आफिस की घटना है। मुझे भोपाल तलब किया गया। कुछ खबर नहीं थी, मीटिंग का ऐजेंडा क्या था। मन मेंं इसे लेकर हलचल जरूर थी लेकिन नौकरी जाने की आशंका नहीं। इसलिए जब श्रवण जी के कक्ष में दाखिल हुआ तो उत्सुकता यह जानने की थी कि माजरा क्या है। औपचारिक बातचीत के बाद यकबयक श्रवण जी ने बम फोड दिया। उन्होंने कहा- 'प्रबंधन चाहता है आप दफ्तर में न आए , घर से काम करें। सप्ताह मेंं एक दिन आप आर्टिकल लिखेंगे। आपको 35 हजार रूपये मासिक भुगतान किया जाएगा। 'यह अश्रु गैस वाला बम था सो आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। मैंने मर्माहत स्वर में उनसे कहा-'मेरी अभी पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरी नहीं हुई है। कुछ तो सोचिए।' दरअसल मुझे इस बात का जरा भी भान नहीं था कि मैं 60 का हो गया हूं अत: कंपनी की सेवा नियमानुसार रिटायर कर दिया जाऊंगा। कंपनी ने अपनी पालिसी के तहत रिटायर कर दिया पर साथ ही संविदा नियुक्ति भी दे दी। यह बड़ी बात थी। उससे भी बड़ी बात यह थी कि श्रवण जी ने भरोसा दिया था कि कंपनी आपके साथ है और वक्त पर आपकी हर संभव मदद की जाएगी। जाहिर है श्रवण जी व प्रबंध संचालक सुधीर अग्रवाल ने मेरा ख्याल रखा। मुझे बेरोजगार नहीं होने दिया। यह उनका भरोसा ही था कि वर्ष 2013 में मैं कान्ट्रेक्ट बेसिस पर पुन: दैनिक भास्कर में था।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">श्रवण जी के दिलासा देने व मोहब्बत से पेश आने के बावजूद मैं इतने जल्दी हथियार डालने वाला नहीं था। साठ का होने के बावजूद ऊर्जा से भरपूर था। ईश्वर की कृपा से कद काठी भी ऐसी थी कि वास्तविक उम्र का अंदाज नहीं लगाया जा सकता था। इसलिए नये रास्ते की तलाश मन में घर कर गई थी। फिर भी भोपाल से रायपुर लौटते वक्त मन चिंता से भरा हुआ था। रायपुर लौटा तो खबर आम हो गई थी कि कोई नया संपादक आने वाला है। पर अवनीश जैन का रायपुर आगमन किसी न किसी कारण से टल रहा था। दो-तीन महीने यों ही गुजर गए। मुझे वक्त मिलता गया। मुझ पर ईश्वर की ऐसी कृपा रही है कि नौकरी में एक दरवाजा बंद हुआ नहीं कि दूसरा जल्दी खुल जाता है। एक भी दिन खाली बैठने की नौबत नहीं आई। इस बार भी ऐसा ही हुआ। 'वाच' के नाम से रायपुर से एक न्यूज चैनल की शुरुआत होनी थी। राजधानी में एसपी व डीआईजी रहे रूस्तम सिंह के युवा पुत्र राकेश सिंह व भिलाई-दुर्ग के युवा उद्योगपति अखिल बहादुर के स्वामित्व में छत्तीसगढ़ के प्रथम रीजनल न्यूज चैनल को चीफ एडीटर की तलाश थी। संचालकों ने मुझसे संपर्क किया और मध्यप्रदेश -छत्तीसगढ़ को कव्हर करनेवाले इस चैनल में बहुत अच्छी सैलेरी पर मेरी एंट्री बतौर प्रधान संपादक के रूप में हो गई। भास्कर से रिटायर होने की जरूरत नहीं पड़ी। नया काम हाथ में आ गया। प्रिन्ट मीडिया से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। एक नया अनुभव। हालांकि यह सिलसिला लंबा नहीं चला।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">--------------</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी शनिवार 23 अक्टूबर को)</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-47878376268216411982021-10-16T05:20:00.005-07:002021-10-16T06:12:05.248-07:00 कुछ यादें कुछ बातें - 22<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>-दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="1mgmo-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="1mgmo-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="1mgmo-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="aka7b-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="aka7b-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="aka7b-0-0" style="font-family: inherit;">अमृत संदेश के दो और साथियों का जिक्र करना चाहूंगा एक परितोष चक्रवर्ती और दूसरे कमल ठाकुर। परितोष को देशबंधु के जमाने से जानता था जब वे इस पत्र के पर्यटक संवादाता थे और छत्तीसगढ़ के गांवों का दौरा करके रिपोर्ट तैयार करते थे। शायद छत्तीसगढ़ के किसी भी अखबार के वे एकमात्र पर्यटक रिपोर्टर थे। बीच-बीच में वे जरूरत के हिसाब से रायपुर दफ्तर आते। देशबंधु में उनसे परिचय मात्र हुआ, आत्मीयता नहीं बनी। मैं नहीं जानता था कि वे कवि व कहानीकार भी हैं। उन्हें जानने की तब ललक सवार हुई जब देशबन्धु में उनकी एक श्रृंखला का सिलसिलेवार प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह सीरीज थी रिपोर्टर सुनील की। प्रख्यात जासूसी उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक के काल्पनिक पात्र सुनील को केंद्र में रखकर एक नई शैली में लिखी गई कहानियां। मैं रहस्य कथाओं का बचपन से पाठक रहा हूं। प्रेमी रहा हूं। मेरठ व इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले तमाम जासूसी उपन्यासों को मैंने खूब पढ़ा है। सुरेंद्र मोहन पाठक भी उनमें से एक हैं। परितोष का यह लेखन मुझे बहुत अच्छा लगा हालांकि इनका कथानक अब मुझे याद नहीं है पर उसका एहसास दिल में अभी भी बना हुआ है। परितोष देशबंधु छोड़ने के बाद नौकरियों के चक्कर में छत्तीसगढ़ से बाहर इधर-उधर काफी भटकते रहे। अखबारों के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में भी उन्होंने काम किया। उनके बारे में सूचनाएं मिलती रहीं। इस दौरान कभी कभार टेलीफोन पर उनसे बातचीत हो जाया करती थी। एक दिन मालूम पड़ा कि वह रायपुर शिफ्ट हो रहे हैं। पुन: पत्रकारिता शुरू करेंगे। गोविंद लाल वोरा जी से उनकी बातचीत हुई। उन्होंने रायपुर आने का फैसला किया, अमृत संदेश में। मेरे पास उनका फोन आया -रायपुर आ रहा हूं किराए का मकान देख ले। मैंने खोजबीन शुरू की। देवेंद्र नगर में ही , जहां मैं रहता था, करीब पांच सौ मीटर दूर एक एलआईजी मकान किराए पर मिल गया। वे वहां सपरिवार शिफ्ट हो गए। मेरे थोड़े से प्रयास से नजदीक के ही स्कूल में भाभीजी को भी नौकरी मिल गई। वोरा जी ने परितोष को अमृत संदेश की साप्ताहिक पत्रिका 'आमंत्रण' का कामकाज सौंपा। कमल ठाकुर सहित तीन पत्रकारों की टीम आमंत्रण को देखने लगी। परितोष को आत्मीयता के स्तर पर ठीक से जानने-समझने का अवसर एक ही मोहल्ले में रहने व साथ में काम करने की वजह से मिला।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="figds-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="figds-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="figds-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="4bvm3-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="4bvm3-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="4bvm3-0-0" style="font-family: inherit;">परितोष न केवल अच्छे पत्रकार, कवि व लेखक हैं , वरन संवेदना से भरपूर अच्छे इंसान भी हैं जो मित्रता निभाना जानते हैं। लेकिन पता नहीं वे ऐसा क्यों सोचते हैं कि वे ही अपनों के काम आते हैं ,अपने उनके नहीं। शायद किसी खास वजह से उनकी यह धारणा बनी हो जो मेरी दृष्टि में सच नहीं हैं। लोगों ने, मित्रों ने उनकी जरूरत पड़ने पर मदद की है। हर मित्र करता है। मित्रता मेंं यह बहुत सामान्य चीज है। यह ठीक है कि रायपुर में उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी। इसलिए आमंत्रण में नौकरी बजाते हुए उन्होंने नौकरी के लिए इधर उधर हाथ पैर मारने शुरू कर दिये थे। वे इस कोशिश में थे कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स जहां कभी भी वे जनसंपर्क अधिकारी थे, नौकरी वापस मिल जाए। पुरानी कंपनी में लौटने की उनकी कोशिश कामयाब हुई और उनकी पोस्टिंग एसईसीएल बिलासपुर में जनसंपर्क अधिकारी के पद पर हो गई। मैं आश्चर्यचकित था क्योंकि यह काम आसान बिल्कुल नहीं था। मुझे कुछ समझ में नहीं आया लेकिन खुशी भी हुई कि परितोष की मुफलिसी अब दूर हो जाएगी। मैंने नयी नौकरी के बाबत उनसे पूछताछ नहीं की और न ही उन्होंने कुछ बताया। पर एक दिन अकस्मात इसी प्रश्न पर चर्चा के दौरान कमल ठाकुर ने बताया कि उन्होंने अर्जुन सिंह को चिट्ठी लिखी थी जो उन दिनों केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्री थे। संभव है इस पत्र का भी प्रभाव पड़ा हो। बहरहाल परितोष 'अमृत संदेश' की नौकरी छोड़कर एसईसीएल बिलासपुर पहुंच गए। वर्ष 2000 में जब बिलासपुर मेरी पोस्टिंग दैनिक नवभारत में बतौर संयुक्त संपादक हुई, उनसे रोजाना मुलाकात का दौर शुरू हो गया। दरअसल मैं पहली बार नौकरी के सिलसिले में रायपुर से बाहर निकला था। एक तरह से बिलासपुर मेरे लिए अजनबी ही था। वहां मित्रों की संख्या सीमित ही थी। करीबी दोस्त दो-चार। ऐसे में परितोष का वहां रहना मेरे जैसे एकाकी के लिए सुखद था। बिलासपुर में मैं कोई साडे चार साल रहा।दो वर्ष नवभारत में व करीब ढाई वर्ष दैनिक भास्कर में। यह नगर मुझे इस कदर भाया कि अफसोस करता रहा कि मैं यहां पहले क्यों नहीं आया। शनिवार को देर रात पहुंचता व सोमवार की सुबह बिलासपुर पहुंचने की इच्छा बलवती हो जाती। नवभारत में भी मैंने सप्ताह में दो कॉलम लिखने शुरू किए थे। 'हस्तक्षेप' व 'देख भाई देखÓ। इसके अलावा राजनीतिक एवं एवं गैर राजनीतिक घटनाक्रमों पर आधारित विशेष टिप्पणियां एडिट पेज पर छपती ही थी। कुल मिलाकर लेखन धड़ल्ले से चला और सराहा भी गया।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="6be9h-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="6be9h-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="6be9h-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="ekp7u-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="ekp7u-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="ekp7u-0-0" style="font-family: inherit;">परितोष चूंकि अकलतरा व बिलासपुर के ही थे इसलिए उनकी पत्रकार, लेखक के रूप में अच्छी प्रतिष्ठा व पहचान थी। इसका फायदा उन्हें एससीसीएल में कार्य करते हुए भी मिला। कंपनी के खिलाफ निगेटिव खबरें कम ही छपती थीं। संपादकों व रिपोर्टरों के साथ उनका सीधा सम्पर्क था। लेकिन नवभारत में मेरे आने के बाद बंदिशें समाप्त हुई। मैंने संवाददाताओं को निर्देश दे रखा था कि खबरों को खबरों जैसे ही पेश किया जाए , निजी संबंधों में लपेटकर नहीं। इसका नतीजा यह निकला कि कंपनी के भी पॉजिटिव के साथ - साथ निगेटिव, हर तरह के समाचार अखबार में छपने लगे। ऐसी ही किसी खबर पर परितोष ने मुझे सूचित किया कि खबर सही नहीं है। कंपनी का पक्ष ठीक से नहीं छपा है अत: एक पत्र नवभारत के नागपुर कारपोरेट आफिस को भेजा जा रहा है , जिसकी काफी तुम्हें भेज दी गई है। उन्होंने टेलीफोन पर भी मुझसे बात की। इस पर मैंने कुछ नहीं कहा क्योंकि यह उनकी ड्यूटी का हिस्सा था। हालांकि इस संदर्भ में नागपुर से कोई पूछताछ नहीं हुई। और न ही इस वजह से हमारी दोस्ती में कोई दरार आई।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="4h3g3-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="4h3g3-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="4h3g3-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="a8cc8-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="a8cc8-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="a8cc8-0-0" style="font-family: inherit;">लेकिन परितोष की एक बात मुझे समझ में नहीं आई। उन्होंने कहा कि मुझे लेखन कम करना चाहिए। उनका इशारा साप्ताहिक स्तम्भ की ओर था जिसमें घटनाओं का पोस्टमार्टम हुआ करता था। मैंने जवाब देने की आवश्यकता नहीं समझी और न ही लिखना कम किया क्योंकि पाठकों से जो फीडबैक मिल रहा था वह उत्साहवर्धक था। संभव था परितोष की नजर में लेखन हमेशा स्तरीय न रहता हो। और ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं लेकिन वे खुद भी बड़े लिख्खाड रहे हैं।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="67scd-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="67scd-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="67scd-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="7f1bp-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="7f1bp-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="7f1bp-0-0" style="font-family: inherit;">बहरहाल यह उनकी प्रकृति में था कि वे नौकरियों में अधिक समय तक टिकते नहीं थे। उनका मन उचट जाता था, कहीं और ठिकाना खोजने वे छटपटाने लगते थे। एस ई सी एल में चंद वर्ष बिताने के बाद वे नये रोजगार की तलाश में लग गए। आत्मीय संबंधों का लाभ यह हुआ कि कोयले का धंधा करने वाले एक कांट्रेक्टर ने उनके सामने नयी दिल्ली से एक पाक्षिक समाचार विचार पत्रिका निकालने का प्रस्ताव रखा और एस ई सी एल की बची हुई नौकरी छोड़ने से होने वाले आर्थिक नुकसान की भरपाई करने का भी वायदा किया। अंधा क्या मांगे दो आंखें ? परितोष को ऑफर अच्छा लगा। आर्थिक क्षति होने की नहीं थी व उडने के लिए नया आकाश मिल रहा था लिहाजा उन्होंने पेशकश स्वीकार कर ली। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी को अलविदा कहा और पत्रिका के प्रकाशन की तैयारी करने दिल्ली उड गए। प्रकाशक महोदय ने जो कहा वह किया। वायदे के अनुसार उन्होंने रकम भेट कर दी।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="24ql7-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="24ql7-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="24ql7-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="68b78-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="68b78-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="68b78-0-0" style="font-family: inherit;">अब देश की राजधानी में एक भव्य समारोह में अच्छी खासी तैयारी के साथ ' लोकायत ' का आगाज हो गया। परितोष की चूंकि साहित्यिक व पत्रकार बिरादरी के बीच अच्छी पहचान व प्रतिष्ठा थी अत: देशभर में पत्रिका का नेटवर्क बनाने में अधिक समय नहीं लगा। राष्ट्रीय पत्रिकाओं के बीच अल्प समय में 'लोकायत ' ने अपना स्थान बना लिया। इसमें परितोष का भी लेखन धड़ल्ले से चला।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="9rliv-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="9rliv-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="9rliv-0-0" style="font-family: inherit;">लेकिन फिर वही बात। मन की छटपटाहट। हालांकि उन्होंने रायपुर में मकान खरीदकर परिवार के रहने की व्यवस्था कर दी थी। लेकिन व्यापारी प्रकाशक से तनातनी के चलते उन्हें यह भी नौकरी छोडने का बहाना मिल गया। रायपुर से जनसत्ता का प्रकाशन प्रारंभ हो गया था। परितोष संपादक के बतौर विराजमान हो गए। इसके बाद उनका अगला पड़ाव था सत्ता प्रतिष्ठान से पोषित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय की माधव राव सप्रे शोधपीठ। वे नियुक्ति पा गए। इस शोध पीठ के वे छह वर्षों तक अध्यक्ष रहे। नौकरियों के सिलसिले में उनका भटकाव यहीं आकर समाप्त हुआ।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="a9soo-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="a9soo-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="a9soo-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="4idbk-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="4idbk-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="4idbk-0-0" style="font-family: inherit;">परितोष ने काफी लिखा है। उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं। पत्रकारिता के अनुभवों पर उनका एक उपन्यास भी हैं। अब उनका साहित्य व पत्रकारिता में हस्तक्षेप नहीं के बराबर है। कारण है स्वास्थ्य व इस वजह से उपजी बेचैनी। वे कहते हैं कि अब कुछ भी लिखने या करने की इच्छा नहीं होती। इसमें दो राय नहीं कि वे प्रदेश के अग्रिम पंक्ति के लेखक व पत्रकार हैं। पर विपुल लेखन के बाद भी हिंदी साहित्य जगत में उनकी रचनात्मकता व साहित्य की चर्चा अपेक्षाकृत कम है। यह दुर्भाग्यजनक है कि छत्तीसगढ़ ने कई अन्य लेखकों के साथ ही उन्हें भी लगभग विस्मृत कर दिया है। कभी कभार टेलीफोन पर उनसे बातचीत होती है और तब हम दोनों की दुनिया एक हो जाती है, यादों की दुनिया।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="1hqel-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="1hqel-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="1hqel-0-0" style="font-family: inherit;">--------------</span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="283co-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="283co-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="283co-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="2433q" data-offset-key="30aqk-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="30aqk-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="30aqk-0-0" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी बुधवार 20 अक्टूबर को)</span></div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-14037146836449406202021-10-13T05:07:00.000-07:002021-10-13T05:07:01.868-07:00 कुछ यादें कुछ बातें - 21<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>-दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><span data-offset-key="eddhn-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">
छत्तीसगढ़ के स्थापित अखबार नवभारत व देशबन्धु इस मुगालते में थे कोई भी नया अखबार प्रचार प्रसार के मामले में उन्हें चुनौती नहीं दे सकता इसलिये वे निश्चिंत थे अतः उन्होंने दैनिक भास्कर को गंभीरता से नहीं लिया जिसने राजधानी व राज्य में अपने पैर जमाने तरह-तरह के उपाय आजमाने शुरू कर दिये थे जिनमें घरेलू उपयोग में आने वाले वस्तुओं की पुरस्कार योजना महत्वपूर्ण थी। अनेक दफे चली ये योजनाएं कारगर रहीं। अब स्थिति यह हैं कि दैनिक भास्कर वर्षों से राज्य का सबसे बडा अखबार बना हुआ है तथा नवभारत व देशबंधु अपने अस्तित्व की रक्षा करने संघर्ष कर रहे हैं।
दैनिक भास्कर की यात्रा कमाल की है। अचंभित करने वाली। पाठकों को प्रलोभन देकर कोई अखबार जबर्दस्ती पढाया नहीं जा सकता। इसके लिए जरूरी है कंटेंट। और इसके लिए आवश्यक है ऐसी संपादकीय टीम जो पाठकों की जरूरत व मनोभाव को समझें और इसके अनुसार कार्य करें, अखबार बनाए। ग्राहकों को आकर्षित करने पुरस्कार योजनाएं शुरू
करने के साथ ही दैनिक भास्कर ने अखबार में परोसी जाने वाली सामग्री की ओर सर्वाधिक ध्यान दिया। इसके लिए उसने संपादकों व प्रबंधकों की ऐसी टीम खडी की जो अपने काम में निष्णात थी। भास्कर प्रबंधन ने अधिक वेतन देकर नवभारत, देशबन्धु व अन्य अखबारों में कार्यरत युवा व वरिष्ठ पत्रकारों को जोड लिया जिन्होंने नये नये प्रयोग किए व पाठकों को अखबार पढने विवश कर दिया। प्रसार बढाने पुरस्कार योजनाओं का सपोर्ट था ही पर कंटेंट ने कमाल किया। और धीरे-धीरे एक नशे के मानिंद दैनिक भास्कर को हर सुबह की जरूरत बना दी गई। नवभारत व देशबन्धु जैसे स्थापित अखबारों के बीच अपने लिए जगह बनाना व रिकॉर्ड समय में उनसे आगे निकलना आसान नहीं था। पर यह कीर्तिमान बना। जाहिर है इसका बहुत कुछ श्रेय यह उस दौर के विलक्षण संपादकों व उनकी ऊर्जावान युवा टीम को है।</span></span><div><span data-offset-key="eddhn-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">
</span></span><span class="diy96o5h" end="1652" start="1640" style="color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>धनंजय वर्मा</b></span><span data-offset-key="eddhn-2-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">
वर्ष 1992 में मै जब दैनिक भास्कर में दाखिल हुआ तो संपादकीय विभाग में अनेक चेहरे परिचित थे व कई नये भी। धनंजय वर्मा का नाम मैंने न सुना था और न ही उनसे परिचित था। धनंजय प्रांतीय डेस्क के सहयोगी थे। संकोची व शालीन। ऊंचे-पूरे इस युवक में मुझे स्पार्क नजर आया। मुझे लगा कि उनकी प्रतिभा को आकाश मिलना चाहिए। मैंने उन्हें प्राविंशियल डेस्क से हटाकर सिटी रिपोर्टिंग टीम में स्थानांतरित कर दिया। समय बितते-बितते धनंजय इस डेस्क के इंचार्ज बन गये।
धनंजय वर्मा के पास बहुत अच्छी भाषा है, शैली में मिठास है और प्रस्तुतिकरण शानदार। इसकी झलक रायपुर सिटी डायरी से मिलती थी जो उनका साप्ताहिक कालम था जो मेरे लगातार पीछे पडने के फलस्वरूप उन्होंने शुरू किया था। घटनाओं की रिपोर्टिंग में खैर वे बेजोड़ थे ही। उनके समाचार विश्लेषण तार्किक होते थे। उन्होंने तथा नवाब फाजिल ने रिपोर्टिंग डेस्क को बहुत अच्छी तरह संभाला था। सिटी खबरों का नम्बर वन अखबार बन गया था दैनिक भास्कर। वर्ष 2000 में मैं भास्कर से बिदा हुआ। कुछ साल बाद धनंजय ने भी दूसरा अखबार पकड़ लिया। लेकिन अफसोस की बात थी कि उन्होंने लिखना बंद कर दिया था। जब कभी उनसे मुलाकात होती थी, मैं जोर देकर कहता था कि उन्हें लेखन बंद नहीं करना चाहिए। डेस्क की पत्रकारिता, खबरों का ठीक से संपादन व उनका प्रस्तुतिकरण तो खैर महत्वपूर्ण है ही लेकिन अपनी खुद की पहचान बनाए रखने के लिए लेखन भी आवश्यक है चाहे वह किसी भी रूप में हो। या तो साप्ताहिक कालम या महत्वपूर्ण राजनीतिक- सामाजिक घटनाओं का त्वरित विश्लेषण। अच्छी कलम को कतई रोकना नहीं चाहिए क्योंकि यह प्रतिभा के साथ न्याय नहीं होगा। इस पर धनंजय गोलमोल सा जवाब देते थे। मैं उनकी विवशताएं समझ सकता था। उन दिनों दैनिक भास्कर में जैसी लेखकीय स्वतन्त्रता थी वैसी अब अखबारों में नहीं रही। पत्रकारों के हाथ बंधे हुए हैं। व्यवस्था के खिलाफ लिखने का अर्थ है प्रताड़ित होना तथा नौकरी गंवाना। धनंजय कहते हैं - ' अब मै केवल नौकरी कर रहा हूं । क्योंकि यह मेरी पहली आवश्यकता है।' उनकी पीडा दरअसल बहुतेरे पत्रकारों की पीडा है जिन्हें अपनी प्रतिभा का दमन करते हुए इस तरह नौकरी बजानी पड रही है। धनंजय यद्यपि संपादक के पद पर पहुंच गए हैं लेकिन उनकी लेखकीय सामर्थ्य को बंद किताब की तरह देखना दुखद है।
</span></span><span class="diy96o5h" end="3627" start="3616" style="color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b><br /></b></span><div><span class="diy96o5h" end="3627" start="3616" style="color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>नवाब फाजिल</b></span><span data-offset-key="eddhn-4-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">
कुछ ऐसी ही स्थिति युवा व बेहद प्रतिभावान नवाब फाजिल की है। वे अभी दैनिक भास्कर में महत्वपूर्ण पद पर हैं पर मेरे विचार में उन्हें संपादक होना चाहिये था। नवाब काम के मामले में तेज हैं। भाषा व शैली भी अच्छी है। बिलाशक बेहतरीन रिपोर्टर हैं पर उनकी सारी ऊर्जा डेस्क के कार्यों के साथ दम तोड़ देती है। दरअसल नवाब और उन जैसे समर्थ पत्रकार कोई जोखिम उठाना नहीं चाहते जबकि कम से कम दैनिक भास्कर में अभी भी इतना तो खुलापन है कि व्यवस्था पर संयमित तरीक़े से प्रहार किया जा सकता है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। मेहनत से जी चुराने तथा लिखकर कौन बला मोल ले की तर्ज पर पत्रकार काम कर रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि स्थानीय अखबार केवल घटनाओं की खबरें परोस रहे हैं। वैचारिक पक्ष लगभग विलुप्त हो गया है। घटनाओं की तह तक जाने, उसके पीछे का सत्य उदघाटित करने तथा उनका आखिरी तक पीछा करने यानी फालोअप जो कि आदर्श पत्रकारिता का महत्वपूर्ण तत्व है, पर अमल अब नहीं के बराबर है। खोजी खबरों का तो अकाल जैसा पड गया है। किसी भी अखबार के पन्ने पलटिए , सभी में आपको लगभग एक जैसी खबरें मिलेंगी।
</span></span><b><span class="diy96o5h" end="4601" start="4586" style="color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">सुरेश महापात्र</span><span data-offset-key="eddhn-6-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;"> / </span></span><span class="diy96o5h" end="4616" start="4605" style="color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">विनोद सिंह</span></b><span data-offset-key="eddhn-8-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">
दैनिक भास्कर में यों प्रतिभाओं की कमी नहीं रही। जिलों के संवाददाता तराशे हुए थे। अपने काम में, खोजखबर के मामले में उस्ताद थे। ऐसे अनेक नामों में एक नाम हमेशा स्मृति में रहा है - दंतेवाड़ा के सुरेश महापात्र का। बस्तर के पत्रकार सुरेश महापात्र जुझारू व निर्भीक संवाददाता हैं । पत्रकारिता की उनकी गहरी समझ व खबरों के पीछे दौडते रहने की उनकी प्रवृत्ति ने उन्हें विशिष्ट बना दिया है। दैनिक भास्कर जगदलपुर ब्यूरो प्रभारी रहने के बाद उन्होंने अपने शहर दंतेवाड़ा लौटना मुनासिब समझा। और तदाशय की पेशकश की। उनकी पारिवारिक स्थिति को समझते हुए मैंने उनका अनुरोध स्वीकार किया लिहाजा वे इस जिले के ब्यूरो प्रभारी के रूप में काम करने लगे। नक्सल प्रभावित बस्तर में पत्रकारिता करना तलवार की धार पर चलने जैसा है। जरा भी डगमगाए तो खैर नहीं। एक तरफ राज्य की पुलिस तो दूसरी तरफ नक्सलियों की बंदूकें। ऐसे में जान का खतरा हमेशा। लेकिन इसके बावजूद बस्तर की पत्रकारिता बहुत समृद्ध हैं। राष्ट्रीय अखबारों के संवाददाताओं को जब कभी बस्तर को कव्हर करना रहता था तो सहयोग लेने उनकी दृष्टि जिन चंद पत्रकारों पर नजर पडती थी , उनमें एक नाम सुरेश महापात्र का था। और यह स्थिति अभी भी कायम है। यह उनकी विश्वसनीयता की वजह से है जो उन्होंने खबरों में निष्पक्षता बरत कर अर्जित की है। घटना का फटाफट ब्यौरा इकट्ठा करके , स्टोरी बनाकर तुरंत रायपुर कार्यालय भेजने के बाद अपडेट्स लेने पुन: फील्ड में पहुंच जाना उनकी फितरत रही है ताकि ओव्हर आल कव्हरेज के मामले में अन्य से आगे रहे। भास्कर में उनके रहते खबरों के मामले में निश्चिन्तता रहती थी। उन्होंने यह विश्वास कभी टूटने नहीं दिया।
सुरेश महापात्र व उनके घनिष्ठ मित्र विनोद सिंह को इस बात का श्रेय है कि दंतेवाड़ा जिले से प्रथम दैनिक अखबार का प्रकाशन उन्होंने शुरू किया। उनके बस्तर इंपैक्ट को पांच वर्ष हो चुके हैं। संसाधनों की कमी के बावजूद एक पिछड़े व नक्सल प्रभावित जिले से दैनिक समाचार पत्र का अनवरत प्रकाशन मामूली बात नहीं है। सुरेश महापात्र व विनोद सिंह बिना झुके व बिना डरे अपने पत्र के जरिए ऐसा इंपैक्ट डाल रहे हैं जो पाठकों को तो सुहाता है पर सत्ता प्रतिष्ठानों को चुभता है, चिकोटी काटने जैसा दर्द देता है। उनकी पत्रकारिता की यही बडी सफलता है। सुरेश अब राजधानी से भी बस्तर इंपैक्ट निकाल रहे हैं।
</span></span><span class="diy96o5h" end="6638" start="6626" style="color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>अनिल पुसदकर</b></span><span data-offset-key="eddhn-10-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">
एक दिन रायपुर प्रेस क्लब में टेबल टेनिस खेलते हुए एक श्याम वर्ण तेजस्वी युवक हाथ में टीटी बैट लेकर मेरे सामने, टेबल के उस पार आ खडा हुआ। गहरे रंग की पीली शर्ट पहने इस तरुण को मैं पहचानता नहीं था। हमने खेलना शुरू किया। वह बहुत अच्छा खेल रहा था। विशेषकर उसके शाट्स व रिटर्न अच्छे थे। गेम खत्म होने के बाद एक साथी ने परिचय कराया । यह युवा पत्रकारिता में नया-नया दाखिल हुआ था । एक नये दैनिक संदेह बंधु टाइम्स का रिपोर्टर था। नाम अनिल पुसदकर। दैनिक भास्कर में उसका प्रवेश किसके माध्यम से हुआ, नहीं जानता लेकिन उस खेल के दौरान मुझे महसूस हुआ था यदि यह लडका हमारी सिटी रिपोर्टिंग टीम में शामिल हो जाए तो टीम और बेहतर हो जाएगी। और ऐसा ही हुआ। मैं उन दिनों टीम इंचार्ज था। चीफ सिटी रिपोर्टर। अनिल दैनिक भास्कर के करीब डेढ दर्जन सिटी रिपोर्टर्स में सर्वाधिक तेज तर्रार रिपोर्टर साबित हुए। उनकी हिंदी सामान्य थी किंतु खबरों को ढूंढ निकालने में उनकी महारत व उन्हें प्रस्तुत करने का ढंग ऐसा था कि पाठक बिना पढे रह नहीं सकता था। यों भी क्राइम की खबरों का पाठक वर्ग काफी बडा है। अनिल क्राइम बीट देखते थे। पुलिस महकमे में उनकी तगड़ी घुसपैठ थी फलतःअंदरूनी खाने की गोपनीय खबरें , पर्दे के पीछे की हलचलों की भनक अपने विश्वसनीय सूत्रों से उन्हें आसानी से मिल जाया करती थी। लिहाजा क्राइम खबरों के मामले में , खोजपरक खबरों के संदर्भ में दैनिक भास्कर का कोई मुकाबला नहीं था। और इसका श्रेय जाहिर है अनिल के खाते में था।
दैनिक भास्कर के संचालक सुधीर अग्रवाल इस बात पर जोर देते थे कि सिटी पेज पर विश्वसनीय व तथ्यात्मक समाचारों के अलावा कुछ और अलग होना चाहिए ताकि अखबार की पठनीयता बढे। उनका जोर साप्ताहिक कालम पर था। बीट के महत्व की दृष्टि से साप्ताहिक कालम शुरू होने चाहिए। मैं खुद कालम लिखता था- हफ्तावार व हस्तक्षेप। हफ्तावार प्रदीप पंडित ने प्रारंभ करवाया था जो उस समय हमारे संपादक थे। जब मै भोपाल से बुलावा आने पर सुधीर जी सै मिलने उनके घर गया तो अखबार के संबंध में चर्चा के बाद उन्होंने मुझे 'हस्तक्षेप' शीर्षक से स्तम्भ लिखने का निर्देश दिया। उनका निर्देश था अन्य साथियों से भी लिखवाया जाए। चूंकि अनिल क्राइम देखते थे अतः उनसे ' पुलिस परिक्रम ' कालम शुरू करवाया गया। यह कालम अपनी धार की वजह से बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गया। लेकिन जब इसकी आंच बडे अफसरों तक पहुंचने लगी , वे कालम के दायरे में आने लगे और एक्सपोज हुए तो उनकी ओर से भोपाल शिकायतें पहुंचाई गईं। वहां से कहा गया कि लेखन में संयम बरता जाए। विशेषकर वरिष्ठ आइपीएस अफसरों पर अवांछित टिप्पणी न की जाए। इस निर्देश के बाद ,जैसा कि तय प्रतीत हो रहा था, अनिल ने कालम लिखना ही बंद कर दिया। स्वाभिमानी पत्रकार से यह अपेक्षित ही था। मैंने भी अधिक जोर नहीं दिया था क्योंकि मेरी दृष्टि से भी एक दो एपीसोड में कुछ बातें आपत्तिजनक थीं। अफसरों का नाम लेकर सीधे प्रहार से बचा जाना चाहिए था। यहां भाषाई संयम की दरकार थी। संभवतः शिकायतों का आधार भी यही था।
अनिल फिर दैनिक भास्कर में ज्यादा दिन नहीं टिके लेकिन जैसा कि उनका मिजाज था वे कहीं भी लंबे समय तक नहीं रह पाए। अखबार बदलते रहे, न्यूज चैनलों में आना-जाना करते रहे। लेखन से रिश्ता लगभग टूट सा गया। व्यवसाय में भी हाथ आजमाया किंतु अच्छी बात यह रही कि उन्होंने पत्रकारिता नहीं छोडी। अनिल के लिए भी यह कहना पड रहा है कि उन्होंने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के साथ न्याय नहीं किया। अन्यथा वे भी किसी बडे अखबार के जाने-माने संपादक रहते।
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(अगली कड़ी शनिवार 16 अक्टूबर को)</span></span></div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-30825181890261277402021-10-09T06:08:00.003-07:002021-10-09T06:08:47.086-07:00 कुछ यादें कुछ बातें - 20<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>-दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><span style="font-family: inherit;"><a class="oajrlxb2 g5ia77u1 qu0x051f esr5mh6w e9989ue4 r7d6kgcz rq0escxv nhd2j8a9 nc684nl6 p7hjln8o kvgmc6g5 cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x jb3vyjys rz4wbd8a qt6c0cv9 a8nywdso i1ao9s8h esuyzwwr f1sip0of lzcic4wl q66pz984 gpro0wi8 b1v8xokw" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%95_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%B0?__eep__=6&__cft__[0]=AZWnBwR53Y_g55y6144etVd55QCtPmzfBEskzH4mPKtqYfYEgoxnm2d00yWgRqb9b48l22xGrGTaqHskPOWy-Er5YpmNKF0yx5q1jcry9ZuW31E2JZ3HkNT_4i29xnmShXM&__tn__=*NK-R" role="link" style="-webkit-tap-highlight-color: transparent; background-color: transparent; border-color: initial; border-style: initial; border-width: 0px; box-sizing: border-box; cursor: pointer; display: inline; font-family: inherit; list-style: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; text-align: inherit; text-decoration-line: none; touch-action: manipulation;" tabindex="0">#दीपक_पाचपोर</a></span></div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">पत्रकारिता के मेरे प्रारंभिक दिनों के साथी थे दीपक पाचपोर। देशबन्धु में हम साथ साथ थे। सामान्य कदकाठी के दीपक चुलबुले थे। मजेदार बातें करते थे। खूब बातें। बात बात में हंसी। हंसें तो चेहरा फैलना स्वाभाविक। पता नहीं दिन के बारह घंटों में किस वक्त उनका चेहरा सामान्य यानी गंभीर नजर आता होगा। लेकिन यह बडी बात थी कि अपनी इसी प्रकृति से वे संपादकीय विभाग के माहौल को जिंदा व खुशनुमा रखते थे।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">दीपक रिपोर्टर थे। अच्छे रिपोर्टर। हिंदी के साथ अंग्रेजी में भी उनकी अच्छी पकड़ थी। शहर के लोगों के साथ उनका खासा मेलजोल था। वे देशबन्धु में कुछ ही वर्ष रहे। फिर पत्रकारिता छोड दी व रायपुर से निकल गए। इसके बाद मेरा उनसे खास सम्पर्क नहीं हुआ हालांकि खबरें मिलती रहीं कि वे दूसरे राज्य में सरकारी नौकरियां पकडते-छोडते रहे हैं। सालों गुजरने के बाद पता चला कि वे अखबारी दुनिया में लौट आएं हैं और जनसत्ता मुम्बई में हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">फिर एक दिन सूचना मिली कि दीपक पाचपोर भारत एल्युमिनियम कंपनी लिमिटेड (बाल्को ) कोरबा पहुंच गये हैं तथा जनसम्पर्क विभाग में वरिष्ठ पद पर हैं। मैं दैनिक भास्कर में था। जाहिर था मुझे प्रसन्नता हुई लेकिन मैं सोच रहा था यह आदमी है कि घनचक्कर। इसे नौकरियां मिल कैसे जाती है ? कभी किसी अखबार में, कभी किसी कंपनी में। वाह ! भाई , वाह ! । यकीनन पत्रकारिता व जनसंपर्क का प्रदीर्घ अनुभव काम तो आता ही होगा पर अधिक महत्वपूर्ण है योग्यता, कार्यकुशलता व खुद को प्रस्तुत करने की क्षमता। दीपक इनमें माहिर। मेरे सामने दूसरा उदाहरण परितोष चक्रवर्ती का है। उन्होंने भी दोनों नावों पर पैर रखें व कश्ती को आराम से चलाते रहे। कभी इस नाव पर तो कभी उस पर। यह मन का सवाल था। जो दिल बोले। काम करते करते एक से ऊब महसूस हुई तो दूसरा काम पकड़ लिया। न डगमगाए न गिरे, बस चलते रहे।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">यह तो जाहिर ही था कि ऐसे मनमौजी प्रकृति के लोगों के साथ पुनः वहीं कहानी सामने आएगी।वह आ ही गई। दीपक बाल्को कंपनी में भी अधिक समय तक नहीं टिके। इस्तीफा दे दिया और फिर रायपुर लौटकर देशबंधु की सेवा में लग गए। इस बीच एक साक्षात्कार पत्रिका भी निकाली पर वह नहीं चली। नामी साहित्यकारों, कलाकारों ,लेखकों के खूब इंटरव्यू किए । पत्रिका बेहतर थी। अन्य से अलग थी। पर अकेले पड गए। अकेले गाड़ी कहां तक खिंचते? अर्थाभाव ने थका दिया। साक्षात्कार पर पूर्ण विराम लग गया। रायपुर से बोरिया बिस्तर संभाला व गृह नगर मुंगेली पहुंच गए । वहां एक प्रायवेट हायर सेकेंडरी स्कूल की नौकरी पकड़ ली। लेकिन प्रशासक के दायित्व से जल्दी ही ऊब गए। मुक्त हो गए। चूंकि यायावरी पीछा नहीं छोडती लिहाजा देश-विदेश भी घूम आए। अब सिर्फ लिखते-पढते व भ्रमण करते रहते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि इस बुढापे में हालांकि हर वृद्ध व्यक्ति स्वयं को जवान ही समझता है, उन पर पीएचडी का भूत सवार हुआ सो पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से अच्छी थीसिस के आधार पर डाक्टरेट की डिग्री हासिल कर ली। पता नहीं उन्हें पीएचडी किसलिए चाहिए थी। केवल शैक्षणिक दृष्टिकोण से अथवा किसी और पडाव के लिए। या शायद यह सोचकर कि नाम के आगे डाक्टर जोडने से कद बढता है, अलग तरह का दर्प भी महसूस होता है व आत्मसंतुष्टि भी मिलती है। बहरहाल कारण जो भी हो लेकिन यार-दोस्तों के लिए उनका पीएचडी करना अचरज , खुशी व गर्व की बात है। दीपक धुनी पत्रकार हैं। वे जो भी काम करते हैं , मन से करते हैं, सफलतापूर्वक करते हैं इसलिए प्रसन्न रहते हैं। उनके व्यक्तित्व की यह बडी विशेषता है। फिलहाल वे देशबंधु के लिए नियमित लेखन कर रहे हैं। और राजधानी में टिके हुए हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">--------- </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><span style="font-family: inherit;"><a class="oajrlxb2 g5ia77u1 qu0x051f esr5mh6w e9989ue4 r7d6kgcz rq0escxv nhd2j8a9 nc684nl6 p7hjln8o kvgmc6g5 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"Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">सनत चतुर्वेदी छत्तीसगढ़ के उन बिरले पत्रकारों में हैं जिन्होंने मूल्यानुगत पत्रकारिता करते हुए पूरी ईमानदारी व नैतिकता बरती। किसी भी प्रकार के समझौते नहीं किए। नौकरियां छोड़ दीं पर स्वाभिमान पर आंच नहीं आने दी। मेरा उनका साथ दो अखबारों व एक न्यूज चैनल में रहा।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">दैनिक भास्कर , अमृत संंदेश व छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश न्यूज चैनल वाच में। हमने अमृत संंदेश में काफी समय बिताया जबकि बाकी में चंद महीनों का साथ। लगभग 45 वर्षों की पत्रकारिता में संभवतः यह पहली बार है जब वे एक सांध्य दैनिक में अब तक टिके हुए हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">सनत से मेरा परिचय करीब चार दशक से है। 1970-71 से। तब मैं मोहल्ला महामाया पारा स्थित महामाया मंदिर के प्रांगण एक कोने में बने हुए किराए के मकान में रहता था। पत्रकार भरत अग्रवाल भी पास ही में रहते थे। एक दिन मंदिर प्रांगण में सनत से भेंट हुई। वे मुझे जानते थे। बातचीत से मालूम पडा कि वे दैनिक युगधर्म के जगदलपुर ब्यूरो के प्रभारी हैं। उनसे मिलकर मुझे प्रसन्नता हुई। मुझे वे जहीन , विनम्र व गंभीर स्वभाव के लगे। चूंकि वे जगदलपुर में रहते थे इसलिए मुलाकातें बहुत सीमित रहीं। कुछ वर्षों बाद वे रायपुर शिफ्ट हो गए। हमारा साथ अमृत संदेश में हुआ। वे प्राविंशियल डेस्क के इंचार्ज थे, मैं सिटी देखता था।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">सनत चतुर्वेदी के पास अच्छी भाषा व समझ है। अपने आसपास घटित घटनाओं को पत्रकार की पारखी नजर से देखने, परखने व विचारपूर्वक प्रस्तुत करने की काबिलियत उनमें हैं। उन्होंने हर तरह की रिपोर्टिंग की। क्या राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक। कोई भी विषय या घटनाएं हों, सनत जी भाषाई कौशल व तथ्यों के आधार पर उन्हें इतना पठनीय बना देते थे कि उसकी छाप कई दिनों तक मन में बनी रहती थी।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">सनतजी नपी-तुली बातें करते हैं। चुप्पे नहीं हैं लेकिन फालतू बातें करना तथा अपनी ही हांकने का उनका मिजाज नहीं हैं। पर इसका मतलब यह नहीं कि मुद्दों पर बहस चली तो वे खामोश बने रहते हैं। उनके पास विषय की जानकारी रहती है, अध्ययन रहता है लिहाजा ऐसे मौकों पर अपनी तर्कशक्ति से वे दृढतापूर्वक अपनी बात रखते हैं। वे बेहद संवेदनशील व स्वाभिमानी हैं। दैनिक हरिभूमि जहां वे जिम्मेदार पद पर थे, इस बिना पर छोड दी क्योंकि प्रबंधन ने उनके उपर उनसे काफी जूनियर पत्रकार को बैठा दिया। सनतजी ने विरोध दर्ज किया व नौकरी छोड दी। दैनिक भास्कर में कार्य करने के दौरान तत्कालीन संपादक प्रदीप कुमार जी ने उन्हें कुछ कह दिया। सनत को स्वाभिमान पर चोट बर्दाश्त नहीं हुई, उन्होंने इस्तीफा दै दिया हालांकि प्रदीप जी की पहल पर उन्हें मनाने की कोशिश की गई लेकिन वे नहीं माने। जबकि उनकी पारिवारिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि एक दिन भी बिना नौकरी के रहा जा सके। उन पर यह बात लागू होती है कि फाके करने की नौबत आई तो फाके कर लेंगे पर समझौता नहीं करेंगे। पर चूंकि वे योग्य व अनुभवी पत्रकार हैं इसलिए उन्हें फटाफट काम मिल जाता था। काम के लिए उन्होंने यह नहीं देखा कि अखबार छोटा है या बडा। लेकिन अखबार में पद की गरिमा का व अपने स्वाभिमान का अवश्य ध्यान रखा। जिस दोपहर के अखबार में वे इन दिनों हैं, उसके संचालक का, जिनके बारे में बहुतों की राय अच्छी नहीं है, उनके कामकाज में दखल नहीं है और न ही वे अपनी इच्छाएं उन पर लादते हैं। यह बडी बात है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">सनत मेरे साथ जब तक सिटी रिपोर्टिंग में रहे, मुझे इस डेस्क की चिंता नहीं हुई। खबरें, उनका चयन, प्लेसमेंट, लेआउट व कंटेंट सभी परफेक्ट। सनत हरफनमौला है। किसी भी डेस्क पर उन्हें बैठा दें, वे सौ प्रतिशत देते हैं, देते रहे हैं, आज भी दे रहे हैं। यकीनन उन्हें किसी बडे अखबार का संपादक होना चाहिये था किंतु अब मीडिया की जो स्थिति है, वहां सनतजी जैसे पत्रकार फिट नहीं बैठते। अखबारों तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ऐसे संपादक चाहिए जो अपनी पोजीशन के बल पर अखबार के अन्य हित भी साध सके। नैतिक मूल्यों को जीते हुए विशुद्ध रूप से, ईमानदारी से पत्रकारिता करने वाले अधिकांश पत्रकार मुख्य धारा से बाहर हैं और यकीनन बाहर ही रहेंगे।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी बुधवार 13 अक्टूबर को)</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-71026374431479039452021-10-06T04:18:00.004-07:002021-10-06T04:18:41.454-07:00 कुछ यादें कुछ बातें - 19<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>-दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">तो, 70 का वह दशक यानी वह दशक जब मैं नौजवान था और पत्रकारिता की एबीसीडी सीखने का प्रयत्न कर रहा था, बहुत मजेदार और जीवंत था। नौजवानी में वैसे भी मन उमंग और उत्साह से भरा रहता है तथा जिंदगी, तमाम कठिनाइयों, दुश्वारियों के बावजूद दिलकश लगती हैं। संघर्ष में आदमी टूटता नहीं था बल्कि तपता व मजबूत होता था। मेरी स्थिति भी ऐसी ही थी। घर में दिक्कतें थीं जो घर में ही महसूस होती थी, दफ्तर आते ही उड़नछू। सारे दर्द और चिंताएं भूलकर हम अपने काम में मशगूल हो जाते थे। काम का काम और साथ में हंसी ठट्टा भी। ऐसा लगता था जिंदगी कहीं हैं तो दफ्तर में ही है। मैंने कहा था न कि, मैं जिनसे बहुत प्रभावित था, वे थे राजनारायण, मेरे पहले गुरु। दूसरे अखबार के युवा प्रोपाइटर ललित सुरजन, तीसरे रम्मू भैय्या (रामनारायण श्रीवास्तव) श्रीवास्तव और चौथे सत्येन्द्र गुमाश्ता। इन महागुरुओं के बारे में थोड़ा सा बता दूं -: राजनारायणजी प्रांतीय खबरों के ओव्हर ऑल इंचार्ज, ललित सुरजनजी मालिक कम पत्रकार ज्यादा, पूरे अखबार के संयोजन व प्रबंधन की महती जिम्मेदारी। रम्मू श्रीवास्तव और सत्येन्द्र गुमाश्ता राष्ट्रीय - अंतरराष्ट्रीय तमाम किस्म की खबरों का संपादन व संयोजन विशेषत: प्रथम पृष्ठ के जिम्मेदार। ये चारों मेरे लिए आदर्श के प्रतिमान थे हालांकि सभी का स्वभाव अलग-अलग था पर काम के सभी पक्के। पेशेगत ईमानदारी के कायल। राजनारायणजी और रम्मू भैय्या अत्यधिक विनम्र और खुशमिजाज। ललित सुरजनजी और सत्येन्द्र गुमाश्ता तनिक गुस्सैल। किन्तु दिल के साफ। रम्मू भैय्याजी के बारे में मुझे पता था कि वे राजनांदगांव के थे। मेट्रिक के बाद घर से निकले व नागपुर चले गए। नागपुर में अखबार 'नया खूनÓ में कम्पोजिटर बन गए। नया खून प्रगतिशील विचारों का प्रसिद्ध अखबार था। इसी अखबार में वे दीक्षित हुए। वे धीरे-धीरे प्रगति की सीढिय़ां चढ़ते गए और जब रायपुर-राजनांदगांव लौटे तो उनकी ख्याति एक ऐसे पत्रकार के रुप में थी जिसकी कलम की धार बहुत तेज थी तथा उनके साप्ताहिक स्तंभ बहुत चाव से पढ़े जाते थे। श्यामवर्ण के रम्मू भैया 50 के आसपास थे। उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कान तैरा करती थी। होठों में सिगरेट दबाए रखते थे और धुएं के छल्ले बनाकर हवा में उड़ाना, उनका शगल था। वे इसमें मस्त रहते थे। सिगरेट कभी होठों से अलग नहीं होती थी। एक बुझी नहीं कि दूसरी तैयार। चेन स्मोकर थे।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">60-70 के उस दौर में कस्बाईनुमा शहरों की जैसी जिंदगी होती है, वैसे ही रायपुर की थी। राजनीतिक रुप से गर्म एक ऐसा शहर जो अविभाजित मध्यप्रदेश राज्य की राजनीति की दिशा तय करता था। श्यामाचरण शुक्ल इसी शहर के थे जो मध्यप्रदेश के तीन-तीन बार मुख्य मंत्री रहे। विद्याचरण शुक्ल केंद्रीय मंत्री के रुप में बरसों राज्य का प्रतिनिधित्व करते रहे। दरअसल वह दौर शुक्ल बंधुओं के प्रभामंडल का था। छत्तीसगढ़ की ही नहीं मध्यप्रदेश की राजनीति के वे शीषस्थ थे। विपक्ष टूटा व बिखरा हुआ था। विपक्ष के नाम पर राजनीति में कुछ हैसियत जनसंघ की थी। वामपंथी पार्टियां भी मौजूद थी लेकिन इसके बावजूद मध्यप्रदेश विशेषकर छत्तीसगढ़ में उनकी जड़ें नहीं के बराबर थी। इस तरह समूचा विपक्ष प्रभावहीन व शक्तिहीन था। पूरे राज्य में कांगे्रस का वर्चस्व था। देश में रायपुर की विशिष्ट पहचान थी। दरअसल वह मुख्यत: विद्याचरण शुक्ल की वजह से थी। राज्य के बाहर के लोग कहते थे - 'अरे रायपुर, विद्याचरण शुक्ल का रायपुरÓ शहर खुली हवा में सांस लेता था। धुआं उगलने वाले कारखाने नहीं थे अलबत्ता आसपास औद्योगिक बसाहट की नींव जरुर रखी जा रही थी। धीमी रफ्तार का अलसाया सा शहर लेकिन खुशमिजाज। छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढिय़ों के आकर्षण का केंद्र था रायपुर जो गरीब आदिवासियों, हरिजनों व निम्न, मध्यम वर्गीय जनता को उस दौर की अपनी भव्यता, समृद्धता से आतंकित भी करता था क्योंकि उनके अपने शहरों में, अपने कस्बों में, अपने गांव में ऐसी जिंदगी सुलभ नहीं थी। इसलिए उसे निहारने, रोजी-रोटी कमाने की गरज लिए ग्रामीणों का रेला, रायपुर आया ही करता था, अभी भी आता है। कोतवाली के पास गांधी मैदान में मजदूरों की बड़ी मंडी थी जो आज भी कायम है। दरअसल प्राय: हर बड़े शहर में एक ऐसा ठिकाना तो होता ही है जहां दीन-दरिद्र पर मेहनतकश मजदूर दिन की रोजी पक्के करने सैकड़ों की संख्या में एकत्रित होते है। जहां श्रम की खरीद-फरोख्त होती हैं। और सुबह घंटे-दो घंटों में लगभग आधी से अधिक भीड़ छंट जाती हैं पर जिन्हें काम नहीं मिलता, वे कोई तो आएगा की आस में लगभग आधा दिन मंडी में डटे रहते हंै और अंतत: निराश होकर खाली पेट और परिवार की चिंता लिए दिन डूबने तक शहर की गलियां व सड़कें नापने लगते हैं। एक नवंबर सन् 2000 में नया राज्य बनने के बाद यकीनन छत्तीसगढ़ में समृद्धता बढ़ी, बड़े-बड़े उद्योग धंधे खुले किन्तु कुटीर उद्योगों का सत्यानाश हुआ, खेती-किसानी, प्रकृति के मिजाज पर ही आश्रित रही, काम की तलाश में मजदूर पहले जैसे ही दूसरे राज्य की ओर पलायन करते रहे। यानी समृद्धता तो बढ़ी पर किसके लिए? मजदूर-मजदूर ही रहा। बाप मजदूर, बेटा मजदूर, बेटे का बेटा मजदूर। सस्ता श्रम, इतना सस्ता कि गाँव-देहातों के जमीनदारों के यहाँ, जागीरदारों के यहाँ, साहूकारों के यहाँ, सूदखोरों के यहां तो श्रमिक बंधक के रुप में जिंदगी बसर करते थे। उनका कोई निजी अस्तित्व नहीं था। बंधुआ श्रमिकों की जमात अभी भी लगभग वैसी ही है। पूरी जिंदगी के लिए गुलामी। अलिखित पट्टा। आर्य समाजी स्वामी अग्निवेश ने इन बंधुआ मजदूरों को पीढ़ी दर पीढ़ी की गुलामी से मुक्त करने के लिए देश भर में आंदोलन चलाया, बंधुआ श्रमिकों को शोषकों से मुक्त भी किया किन्तु क्या बंधुआ पद्धति खत्म हो गई? यह आज भी जारी हैं, शोषण के विभिन्न रुपों में, छत्तीसगढ़ में भी और छत्तीसगढ़ के बाहर भी।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अब चंद बातें अखबारों की। अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ का सबसे पुराना समाचारपत्र दैनिक महाकोशल। बाद में नवभारत, देशबन्धु व युगधर्म। कुछ दर्जन साप्ताहिक अखबार भी। विशेषकर राजनांदगांव से सर्वाधिक। नया राज्य बनने के बाद दैनिक समाचार पत्रों की संख्या बढी व दैनिक भास्कर, नई दुनिया, पत्रिका व हरिभूमि ने पैर पसार लिए व प्रसार की दृष्टि से पुरानों को पीछे कर दिया। युगधर्म का प्रकाशन तो खैर वर्षों पूर्व बंद हो गया था। बीते बीस वर्षों में राज्य मेंं एक के बाद एक बहुत से इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल के ब्यूरो शुरू हो गए तथा कुछ प्रादेशिक भी। अब सोशल मीडिया पर न्यूज प्लेटफार्म, न्यूज पोर्टल की बाढ सी है। यानी समय के साथ मीडिया भी बेहद विस्तारित हुआ है। प्रिंट मीडिया में अखबारों के कामकाज का तौर तरीका बदला पर आधारभूत संरचना पूर्व जैसी ही है। रीजनल डेस्क सर्वाधिक प्रभावी पहले भी थी, अभी भी है। हमारे समय में और वर्तमान दौर में भी सबसे ज्यादा खबरें इसी डेस्क पर आती थी। सर्कुलेशन के दायरे में आने वाले शहरों के संवाददाता, गांव कस्बों के संवाददाताओं की खबरें बाई पोस्ट आती थी। 1000-500 की आबादी वाले गाँवें में भी अखबार पहुंचता था। ग्रामीण संवाददाता भले ही ज्यादा पढ़े-लिखे न हो, भले ही उनके जिम्मे अखबार का प्रसार बढ़ाने व विज्ञापन इक_ा करने का भी दायित्व क्यों न हो किन्तु खबरों के मामले में वे पक्के रहते थे। जागरुक थे। उनकी भाषा भले ही लचर हो पर वे घटना का ब्यौरा ठीक से रख पाते थे। हमारा काम था शब्दों के बीच पसरे हुए भावों को ठीक से समझना व उनका पुनरलेखन करना। इसलिए खबरों की जो फाइनल कापी बनती थी, वह सुघड़ रहती थी। वह संपादित होती थी, सरल भाषा व शैली में लिखी होती थी ताकि सामान्य पाठक भी उन्हें आसानी से समझ सकें। चूंकि खबरों की तादाद बहुत रहती थी, इसलिए इस डेस्क पर काम का बोझ ज्यादा रहता था। काम अधिक रहता था लिहाजा इसी डेस्क पर सहयोगियों की संख्या भी ज्यादा रहती थी। लेकिन अब, आज के दौर की पत्रकारिता में यह डेस्क महत्वपूर्ण होते हुए भी पूरी तरह उपेक्षित है। अब खबरों का पुर्नलेखन नहीं होता, खबरें डाक से नहीं, कम्प्यूटर पर आती हैं। लिहाजा वही उनकी कांट-छांट होती है। अच्छी, सरल और त्रुटिहीन भाषा अब प्राथमिकता में नहीं है। जैसा ग्रामीण या कस्बाई संवाददाता खबरें भेजता है, वे लगभग वैसी ही अखबारों में परोस दी जाती है। टूटी-फूटी भाषा,अनावश्यक विस्तार। कल और आज की क्षेत्रीय पत्रकारिता में यह बड़ा फर्क आया है। भाषा से ध्यान हट गया है, खबरों के संपादन के लिए बैठे पत्रकारों के लिए अब भाषा-ज्ञान जरुरी नहीं है। समझा जा सकता है कि जब डेस्क संपादकों की ही भाषा ठीक न हो तो वह खबरों का संपादन किस तरह करता होगा। एक और दिक्कत यह है कि अखबारों के संपादकों को भी इसकी परवाह नहीं रह गई है। जाहिर है अखबारों की भाषा, विशेषकर प्राविंशियल खबरों की भाषा पूरी तरह भ्रष्ट हो गई है। इसका एक और दुष्परिणाम पत्रकारों का भाषा के मामले में दीक्षित न हो पाना है। वह इसलिए क्योंकि लिखने-पढऩे व समझने की संस्कृति लगभग खत्म होती जा रही है। दरअसल अब क्षेत्रीय अखबारों में आमतौर पर नियुक्ति के समय इंटरव्यू के दौरान इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता कि प्रार्थी की भाषा, उसका लेखन व सामान्य ज्ञान समृद्ध है अथवा नहीं। पहले अनुभव व माहौल से युवा पत्रकार सीखते चले जाते थे और अब शुरुआत से ही स्वयं को समर्थ मानने लगते हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">----------</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी शनिवार 9 अक्टूबर को)</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-5391242145781599492021-10-02T06:41:00.004-07:002021-10-02T06:41:59.072-07:00 कुछ यादें कुछ बातें-18<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">-दिवाकर मुक्तिबोध</span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ललित सुरजन मुझसे उम्र में कुछ वर्ष ही बड़े थे। मैं बीएससी कर रहा था, वे एमए। लेकिन उनका बौद्धिक स्तर बहुत ऊंचा था। जबकि मैं इस मामले में उनसे बहुत बौना। क्या हिंदी, क्या अंग्रेजी, दोनों पर उनकी पकड़ जबरदस्त थी। चूंकि कालेज की पढाई के साथ साथ उन्होंने देशबंधु का काम भी देखना शुरू कर दिया था लिहाजा पत्रकार के बतौर उनकी दृष्टि तीक्ष्ण होती चली गई। भाषा शैली अच्छी थी ही, विचारों से प्रगतिशील। उनका झुकाव वामपंथ की ओर था। जीवन के पूर्वार्ध की तुलना में उत्तरार्द्ध में उनका लेखन विपुल मात्रा में हुआ। वह विविध था। राजनीतिक टिप्पणीकार के अलावा एक लेखक के रूप में उनकी विशिष्ट पहचान है। दो काव्य संग्रह, चार किताबें निबंध व यात्रा वृत्तांत पर तथा मीडिया पर दो किताबें प्रकाशित हैं। लेकिन उनका देशबन्धु का सफरनामा जो बेहद दिलचस्प व जानकारीमूलक है, अधूरा रह गया। उन्होंने इसकी तीस से अधिक कडियां लिखीं किंतु गंभीर बीमारी ने आगे लिखने का वक्त नहीं दिया। 02 दिसंबर 2020 को वे इस दुनिया से दूर , बहुत दूर चले गए।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ललित जी थे स्नेहिल थे, मिलनसार लेकिन कुछ गरम मिजाज के। किसी की कही कोई बात पसंद नहीं आने पर तुरंत फटकार देते थे। उनसे बडी संख्या में लोग जुडे भी तो बहुतेरे अलग भी हुए पर स्नेह का दामन किसी ने नहीं छोडा। इसमे संदेह नहीं छत्तीसगढ़ में विचारशील पत्रकारिता के आधार स्तम्भ थे ललित सुरजन। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। सच्ची पत्रकारिता क्या होती है, इसे जाना। इससे मुझे अपना रास्ता तय करने में अपार मदद मिली।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">देशबंधु में ललित जी हम लोगों की क्लास लेते थे। क्लास कभी मीटिंग के रूप में होती थी या गलतियां मार्क किया हुआ अखबार संपादकीय कक्ष में पहुंच जाता था। हम लोग उसे देखते थे और इससे सीख मिलती थी। सीनियर भी देखते थे। जिनसे गलतियां होती थी ,चाहे वे अनुवाद की हों या कंटेंट की या प्रूफ की अथवा भाषा की, उनके साथ अलग बैठकर बात की जाती थी। यानी काम करते-करते प्रशिक्षण की इस पद्धति से कच्ची मिट्टी को सुआकार मिलना तय रहता था। युवा पत्रकारों के लिए ऐसे प्रशिक्षण की व्यवस्था किसी और अखबार में नहीं थी। इसीलिए देशबन्धु को मीडिया स्कूल कहा जाता था। अब तो खैर परिस्थितियां बदल गई हैं। देशबन्धु, देशबन्धु न रहा और न मायाराम जी रहे न ललित जी। साठ वर्ष पुराना अखबार बस अब किसी तरह चल रहा है। अपने अस्तित्व की रक्षा कर रहा है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">बूढापारा कार्यालय के समय अखबार का देशबन्धु नामकरण नहीं हुआ था। वह ' नई दुनिया ' था जिसके व्यवसायिक तार नई दुनिया इंदौर से जुड़े हुए थे। नई दुनिया इंदौर यानी मध्यप्रदेश का 70-80 के दशक का शानदार, सर्वाधिक लोकप्रिय व सर्वाधिक प्रचारित अखबार जो दो दिन बाद रायपुर पहुंचता था और वैसी ही ताजगी देता था मानो वह उसी दिन का अखबार हो। इससे उसकी लोकप्रियता का अंदाज लगा सकते हैं। दफ्तर में डाक से आने वाले हिंदी -अंग्रेजी अखबारों के ढेर के बीच से सबसे पहले नई दुनिया ही हाथ में आता था। बहरहाल नई दुनिया रायपुर बूढापारा से उठकर पहले स्टेशन रोड व बाद में वहां से खुद की इमारत रामसागर पारा पहुंचा और फिर इसका अवतरण देशबन्धु के रूप में हुआ। मुझे इस बात का अपार संतोष है कि मेरे सफर की शुरुआत नई दुनिया व देशबंधु से हुई। नई दुनिया-देशबन्धु के चार आधार स्तम्भ थे- संपादक रामाश्रय उपाध्याय, राजनारायण मिश्र, रम्मू श्रीवास्तव, व सत्येन्द्र गुमाश्ता। और भी वरिष्ठ थे जो कुछ वर्ष, कुछ महीने बिताकर आगे बढ गये यानी दूसरी नौकरियां पकड लीं। जिन्हें मैं जानता था उनमें कुछ नाम हैं गंगाप्रसाद ठाकुर, कुमार आनंद वाजपेयी, राघवेन्द्र गुमाश्ता , मदन शर्मा व डा.रामदास शर्मा। मेरे समकालीन युवा साथी करीब दर्जन भर थे। सोहन अग्रवाल, भरत अग्रवाल, गिरिजा शंकर, लियाकत अली, दीपक पाचपोर ,दाऊलाल छंगाणी, जगदीश यादव, सतीश वर्मा , मुजफ्फर खान, सुनील कुमार, निर्भीक वर्मा, नईम शीरो , परमानंद वर्मा आदि आदि। बाद में विवेक तिवारी, प्रदीप जैन, सुरेश तिवारी व त्रिराज साहू।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">देशबन्धु की इस युवा टीम को ललित सुरजन जैसा नेतृत्व मिला, वैसा शायद ही किसी अखबार की टीम को नसीब हुआ होगा। मेरे समकालीन व बाद के साथियों में से बहुतों ने आगे चलकर काफी नाम कमाया व राष्ट्रीय पहचान बनाई। समय के साथ अवसर मिलने पर वे अन्य अखबारों या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चले गए पर अपनी पत्रकारीय समझ के निर्माण में देशबन्धु विशेषकर ललित जी के अवदान को वे कभी भूल नहीं सकते। इसलिए इस स्कूल से निकले तमाम विद्यार्थी खुद को गौरान्वित महसूस करते हैं जिनमें मैं भी शामिल हूँ।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ललित जी की कार्य शैली , आसपास घटित घटनाओं को देखने का तीक्ष्ण नजरिया, पत्रकारिता की गहरी समझ और बहुत अच्छी भाषा मुझे मुग्ध करती थी। उनकी बातें, उनके विचार मुझे प्रेरणा देते थे। आदर्श व मूल्यपरक पत्रकारिता के संबंध में उनकी बातें सतत ध्यान में रहती हैं। मसलन पत्रकारों को किसी भी प्रकार की आवाभगत खासकर सुख सुविधाएं स्वीकार नहीं करना चाहिए। इससे कलम के प्रभावित होने की आशंका रहती है। वे विदेशी समाचार पत्रों का उदाहरण देते थे जहाँ कंपनियां अपने रिपोर्टरों को तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं ताकि वे अपने कार्यों के दौरान किसी से प्रभावित न हो सकें तथा प्रलोभन में न आएं। ललित जी की यह सीख जीवन भर न भूलने वाली थी। जिन्होंने इसे जिया , वे आज भी जी रहे हैं अलबत्ता अब पत्रकारिता का चेहरा बहुत बदल गया है। चार दशक पूर्व के मूल्यों को जीना या उस कालखंड की आदर्श स्थिति को प्राप्त करना आज की चकाचौंध वाली मूल्यविहीन पत्रकारिता व पत्रकारों के लिए चाहकर भी संभव नहीं है। दरअसल तेज बाजारवाद व तरह-तरह के दबाव के बीच मूल्यपरक पत्रकारिता के लिए रास्ता बनाना अत्यधिक कठिन है। अखबार के संबंध में ललित जी की एक और बात याद रहती है। उनका मानना था कि हमें अपने अखबार में स्वयं से संबंधित समाचार या फोटो नहीं छापना चाहिए। यानि आप किसी कार्यक्रम में बतौर अतिथि या मुख्य अतिथि हों, मंच पर आसानहो या माइक पर बोल रहे हो अथवा आपकी कोई व्यक्तिगत उपलब्धि हो तो उसका कवरेज उस समाचारपत्र में जहां आप कार्यरत हो, नहीं होना चाहिए। दूसरे अखबार छापे तो ठीक न छापे तो उनकी मर्जी। यह आदर्श पत्रकारिता की एक और बानगी थी जिसका मकसद आत्मस्तुति से बचना व प्रचार से दूर रहना था। उनका कहना था अखबार लोगों के लिए होता है, पाठकों के लिए, उनकी खबरों के लिए अत: यदि आप अपने अखबार में अपनी ही खबर छापे तो यह ठीक न होगा, पाठक वर्ग इसे अच्छी दृष्टि से नहीं देखेगा। पत्रकारों का काम खबरें देना है, खुद खबर बनना नहीं। ललित जी की इस सोच के अनुसार देशबन्धु में इसका पालन होता रहा। लेकिन यह आदर्श स्थिति समय के साथ क्षरित होती गई। क्योंकि पत्रकारिता का स्वरूप बदल रहा था।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">यकीनन बदलते परिदृश्य में उन्हें भी अंततः इस विचार के साथ समझौता करना पडा। चूंकि वे साहित्यिक थे तथा सामाजिक, सांस्कृतिक व साहित्यिक सभा समारोह में उनकी उपस्थिति रहती थी अतः स्वाभाविक रूप से उसका कव्हरेज अखबारों में अपेक्षित रहता था लेकिन स्थानीय समाचार पत्र इसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे और न ही सम्मानजनक स्थान देते थे। तब एक ही उपाय शेष रहता था, अपने ही अखबार में यथोचित खबर छापी जाए। देशबंधु भी यही करने लगा। ऐसे कार्यक्रमों में जिसमें ललित जी भी उपस्थित रहते थे, विस्तार से कव्हरेज किया जाने लगा। जबकि अन्य पत्र इसकी जरूरत नहीं समझते थे। केवल ललित जी ही नहीं खबरों में पत्रकारों की सामाजिक उपस्थिति की उपेक्षा का चलन शुरू हो गया। मजे की बात यह है कि मीडिया में यह स्थिति मालिकों या संचालकों की ओर से निर्मित नहीं है। खुद पत्रकार ही तय करते हैं कि बिरादरी के किसी माणुस से संबंधित समाचार को अपने अखबार में स्थान देना है या नहीं , या देना भी है तो औपचारिकता निभाने जैसा ताकि सनद रहे कि समाचार कवर किया गया है।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">----------</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी बुधवार 6 अक्टूबर को)</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-26028319261846496632021-09-29T04:31:00.002-07:002021-09-29T04:31:06.907-07:00 कुछ यादें कुछ बातें-17<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>-दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">पत्रकारिता को पेशा बनाऊँगा, सोचा नहीं था। कह सकते हैं इस क्षेत्र में अनायास आ गया। जब भिलाई से हायर सेकेंडरी कर रहा था, तीन बातें सोची थीं। एक -भिलाई स्टील प्लांट में नौकरी नहीं करूंगा, दो- केमिस्ट्री में एमएससी करूँगा और तीसरी बात- शैक्षणिक कार्य नहीं करूंगा। पर जैसा सोचा था, वैसा नहीं हो पाया। भिलाई से दूर रहने का खास कारण नहीं था। यह नगर पचास साल पहले भी खूबसूरत था। इन वर्षों में सर्वत्र हरियाली बिछ जाने के कारण वह अब और भी सुंदर हो गया है। पर साठ के उस दशक में सन्नाटे में डूबा हुआ यह शहर जहां चहल-पहल सिर्फ़ बाजारों में नजर आती थीं, मुझे अजीब सा लगता था। उदास-उदास सा। शहर की उदासीनता मुझे पसंद नहीं थी। मैं जीवंतता चाहता था। इसलिए तय किया भिलाई में नहीं रहूँगा। यह संकल्प तो पूरा हो गया पर शेष दोनों नहीं हो पाए। एमएससी नहीं कर सका और स्कूल टीचर या प्रोफेसर न बनने का प्रण भी धराशायी हो गया। दरअसल आप जैसा सोचते हैं, हर बार वैसा घटता नहीं है अतः जिंदगी की गाडी प्रायः किसी और मोड पर पहुंच जाती है। मेरी भी गाडी कुछ स्टेशनों पर रूकती हुई अंतत: पत्रकारिता के प्लेटफार्म पर पहुंचने के बाद स्थायी तौर पर ठहर गई।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">जैसा कि कहा जाता है, जो कुछ घटित होता है, वह अच्छे के लिए भी होता है। इस आशावादी दृष्टिकोण का मैं इसलिए कायल हूँ क्योंकि पत्रकारिता में प्रवेश अच्छा ही रहा। बहुत अच्छा। यह एक ऐसे नशे की तरह है जो सहज उतरता नहीं और ऐसा लगने लगता है कि इसके बिना जिंदगी नहीं। मेरे साथ भी ऐसा ही है। हालांकि एक समय था जब मैं पत्रकारिता के बारे में सोच नहीं सकता था। वजह थी मेरी त्रुटि पूर्ण हिन्दी। मुझे मालूम था अखबार में काम करने के लिए पहली शर्त है भाषा ज्ञान। भाषा का अच्छा ज्ञान। अच्छी शैली। मेरी नहीं थी। लेकिन जब देशबन्धु (तब नई दुनिया) में मेरे नाम के साथ एक खेल समीक्षा छपी तब कुछ भरोसा हुआ कि हिन्दी में एकदम कमजोर नहीं हूँ। लिख सकता हूँ। यह बात 1968-69 की है। तब मैं साइंस कालेज रायपुर में था, बीएससी कर रहा था।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">नागपुर में पहली व दूसरी के बाद कक्षा तीसरी से लेकर कक्षा आठवीं तक पढाई राजनांदगांव में हुई और चूंकि यह शहर हाकी की नर्सरी रहा है अत: इस खेल के प्रति बल्कि यूं कहे अन्य खेलों के प्रति मेरी दिलचस्पी जागृत हुई। राजनांदगांव में शायद ही कोई बच्चा ऐसा रहा होगा जो हाकी न खेलता हो। उस समय भी हाकी स्टिक खरीदना महंगा शौक था लिहाजा हम , साधारण घरों के लडके घर के लिए लकडी टाल से जो जलाऊ लकडियाँ खरीदते थे, उनमें ऐसी लकडी ढूंढते थे जिसका एक सिरा हाकी की तरह मुडा हुआ हो। मैं भी यही करता था। यह हमारी हाकी स्टिक हुआ करती थी। साइंस कालेज में आने के बाद हाकी से नाता लगभग छूट सा गया लेकिन खेलों की रपट पढने में दिलचस्पी जागृत हुई। मुझे याद है , नई दुनिया में संपादकीय पृष्ठ पर मैंने पाकिस्तान दौरे पर गई भारतीय टेस्ट क्रिकेट टीम के प्रदर्शन पर प्रभाष जोशी जी का लेख पढा था। वह इतना जबरदस्त था, इतना मोहित करने वाला कि मैंने उसे दुबारा-तिबारा पढा व अखबार की कतरन रख ली। प्रभाषजी का यह लेख इतना प्रेरणास्पद था कि इच्छा हुई कि खुद भी कुछ लिखूं। सो एक अंतरराष्ट्रीय हाकी टूर्नामेंट जो उन दिनों चल ही रहा था, पर मैंने एक लेख जो विश्लेषण जैसा था, लिखा। उम्मीद नहीं थी कि वह छपेगा फिर भी उसे नई दुनिया में दे आया। उन दिनों इस अखबार का दफ्तर बूढा तालाब के पास, सदानी चौक की ओर जाने वाली सडक पर हुआ करता था।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">इस अखबार में रामनारायण श्रीवास्तव यानी रम्मू भैया हुआ करते थे। 1967 में जब हम भिलाई से रायपुर आए तो इस शहर के परिचितों में वे पहले व्यक्ति थे जिन्हें हम नागपुर में रामनारायण श्रीवास्तव के नाम से जानते थे और जो पिताजी के साथ साप्ताहिक नया खून में काम कर चुके थे। हिंदी के लब्धप्रतिष्ठित कवि व आलोचक प्रमोद वर्मा जी जब शासकीय विज्ञान महाविद्यालय रायपुर स्थानांतरित होकर आए तो वे दूसरे व्यक्ति थे जिनसे घरोबा था। जुलाई 1967 में रायपुर आने पर पहली मुलाकात रम्मू भैया से ही हुई। संयोगवश उनका घर हमारे घर के निकट ही था। वे महामाया पारा स्थित वोरा निवास में रहते थे। चूंकि वे नई दुनिया में थे इसलिए अपना पहला लेख उन्हें दे आया। जब वह अगले दिन अंतिम पृष्ठ पर नाम सहित छप गया तो उसका आनंद अलग ही था। पर सबसे बडी बात थी, इसके छपने से मेरा आत्मविश्वास बढा था, अपनी अधकचरी हिन्दी का भय मन से निकल गया था। बस इसी क्षण से पत्रकारिता की ओर मैंने कदम बढा लिए थे।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">एक लेख क्या छपा, मन कुलबुलाने लग गया।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">1969 में देशबन्धु में कदम रखने के पूर्व एक और वरिष्ठ पत्रकार से परिचित हो गया था- सत्येन्द्र गुमाश्ता जी से। दुबले-पतले , सामान्य कद से कुछ ऊंचे। उनके गोरे-नारे चेहरे पर मुस्कान क्वचित ही खिलती थी। धीर गंभीर व कम बोलने वाले शख्स थे। रम्मू भैया के घर के सामने ही वे रहते थे। इसलिये सुबह के समय वे प्रायः उनके यहाँ नजर आते थे। यहां जब कभी उनसे मुलाकात हुई, उन्होंने मुझे नजरअंदाज ही किया। हालांकि बाद में मुझे उनके साथ काम करने का अवसर मिला और तब मैंने जाना कि वे बाहर से कठोर पर भीतर से बहुत कोमल हैं। बहरहाल बूढापारा कार्यालय में जब मैं अपनी खेल समीक्षा रम्मू भैया को देने गया तब उन्होंने जिस सुदर्शन युवक से मुलाकात करवाई वे ललित सुरजन थे। रम्मू भैया ने मेरा परिचय पिताजी के नाम का उल्लेख करते हुए दिया। पिताजी का नाम सुनकर उनके मन में मेरे प्रति जो भाव जागृत हुआ वह मुझे उनके चेहरे पर नजर आया। परिचय जानकर वे बेहद प्रसन्न हुए। यह प्रसन्नता बाद की प्रत्येक मुलाकातों में कायम रही। पिताजी को शायद उन्होंने न देखा हो, मुलाकात न हुई हो पर उनकी कविताएं ,उनका साहित्य उन्हें अचंभित करता था, बहुत प्रभावित करता था। इसलिए मेरे प्रति उनका स्नेह हमेशा बना रहा। यह मेरी खुशकिस्मती थी ऐसा स्नेह एक बडे कवि लेखक का पुत्र होने के नाते, उनके मुरीदों व उनके प्रशंसकों से मुझे हमेशा मिलता रहा जिनमें मेरे संपादकगण भी शामिल हैं। उनमें से अनेक अब जीवित नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियां मुझ पर प्रेम बरसाती रहती हैं और जो मेरे जीवन का आधार है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">1969-70 का वह समय। अपने बारे में कहूँ तो मैं कम समझ व बुद्धि का छात्र जिसका सामान्य ज्ञान भी कमजोर था। जिसे देश दुनिया की कोई खबर नहीं रहती थी और जो दैनिक अखबार भी पढता नहीं था। लेकिन एक शौक जरूर था, पढने का। किताबी ज्ञान के अलावा किस्से कहानियों में मन बहुत रमा करता था। स्कूल- कालेज की किताबों के पन्ने पलटने के बाद उपन्यासों की दुनिया में खो जाता था। उस दौर के महान उपन्यासकार जिनकी महानता सर्वकालिक हैं, प्रेमचंद, के एम मुंशी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, ताराशंकर बंद्योपाध्याय, विमल मित्र, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, वृंदावन लाल वर्मा, बाबू देवकीनंदन खत्री, शरतचंद्र चटर्जी, बंकिमचंद्र चटोपाध्याय , नीहार रंजन गुप्त, यशपाल, अनंत गोपाल शेवड़े , कृष्ण चंदर, धर्मवीर भारती ,भगवती चरण वर्मा आदि के प्रायः सभी उपन्यास पढे ही थे, रहस्य-रोमांच व ऐयारी की दुनिया भी खूब पसंद आती थीं जिसे तब व अभी भी लुगदी साहित्य कहा जाता है। कुशवाहा कांत, प्यारेलाल आवारा, प्रेम वाजपेयी, गुलशन नंदा , गुरुदत्त , नानक सिंह आदि के रोमांटिक नावेल व ओमप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, इब्ने सफी बीए, निरंजन चौधरी, वेदप्रकाश काम्बोज ,जेम्स हेडली चेइज, सर आर्थर कानन डायल जैसे जासूसी कथाओं के लेखक भी मेरे प्रिय थे। इन्हें भी खूब पढा। तरह-तरह की पृष्ठभूमि के उपन्यासों की यह दुनिया मुझे बहुत भाती थी। लेकिन इसमें भी कतई शक नहीं कि बचपन से युवावस्था तक इतना सारा पढने के बावजूद मैं हिन्दी का अल्प ज्ञानी ही रहा। पर अखबारों में काम करने से हिंदी सुधरी, भाषा शैली भी ठीक हुई। अनुभव बढा व घटनाओं को पत्रकार की नजर से देखने-समझने की दृष्टि भी विकसित हुई ।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">उस दिन रेल्वे स्टेशन इलाके में रूढावाल जी की पुरानी दो मंजिला इमारत में लकडी की सीढियां चढते हुए दिल धक-धक कर रहा था। मन में तनाव था। तब देशबंधु नयी दुनिया के नाम से जाना जाता था। अखबार में काम करने की बात मैंने रम्मू भैया से की थी। उन्होंने कहा था-आ जाओ। इस संबंध में ललित जी को सूचित किया गया था या नही, नहीं मालूम पर समाचार पत्रों में नौकरियां आसानी से मिल जाया करती थी। वह एक तरह से वह पार्ट टाइम पत्रकारों का भी जमाना था यानी संपादकीय विभाग में पार्टटाइम नौकरी मिल जाया करती थी। मुझे भी मिल गई। किसी ने नहीं पूछा कि कालेज की पढाई व प्रेस की नौकरी के बीच तालमेल कैसे बिठाओगे,? मुझे अपने यहां देखकर ललित जी तो खैर बहुत खुश हुए। उनसे हुई दो चार बातों से मन हल्का हुआ। प्रेस में उन्हें व रम्मू भैया को छोड़ मेरे लिए सभी अजनबी थे। यहां पहला परिचय हुआ राजनारायण मिश्र जी से। मुझे इन्हीं के हवाले किया गया। वे डाक ( प्राविंशियल ) की खबरें संपादित करते थे। अधेड वय के राजनारायण जी से पहली ही मुलाकात में आत्मीयता महसूस हुई जो धीरे धीरे प्रगाढ़ता में बदल गई। पत्रकारिता का श्रीगणेश अच्छा हुआ था। काबिल गुरु व श्रेष्ठ मार्गदर्शक मिल जाए तो इससे अच्छी बात औंर क्या हो सकती थी ? इस मायने में मैं भाग्यशाली रहा। साढे चार दशक के सफर में मुझे स्वभाव व व्यवहार से बहुत अच्छे , विद्वान वरिष्ठ गुरूजन व स्नेही सहयोगी मिले जिनसे मैंने काफी कुछ सीखा जिन्होंने मुझे प्रेरणा दी, संबल दिया। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">----------</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><i>(अगली कड़ी शनिवार 2 अक्टूबर को)</i></div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-8169249391544624512021-09-25T07:03:00.003-07:002021-09-25T07:03:32.903-07:00 कुछ यादें कुछ बातें-16<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b>-दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">मैं बीएससी फायनल में पहुंचा ही था कि मुझे सरकार के शिक्षा विभाग में नौकरी मिल गई। शिक्षक की। लोअर डिवीजन टीचर। खम्हारडीह शंकर नगर के मिडिल स्कूल में। यह स्कूल मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल के निवास से लगा हुआ था। यह बात है 1969-70 की। अब साइंस कालेज में पढाई और नौकरी दोनों को साधना था। स्कूल सुबह का था व कालेज में मेरी कक्षाएं 11 बजे से। दिक्कत यह थी ये दोनों स्थान विपरीत दिशा में थे। स्कूल तो समय पहुंच जाता था पर कालेज ? साइकिल कितनी भी तेज चलाएं, शुरुआती एक दो पीरियड छूट ही जाते थे। भूगर्भ विज्ञान ( जिओलॉजी ) के हमारे प्रोफेसर थे श्री वी जे बाल। वे मुझसे प्रसन्न रहते थे पर एक दिन मेरी हालत देखकर उन्होंने समझाइश दी और कहा - "दो नावों पर पैर न रखो, गिर पडोगे। या तो नौकरी कर लो या पढाई। आखिरी साल है, क्यों खतरा मोल लेते हो। मेरी मानो, नहीं कर पाओगे।" वे मुझे आगाह कर रहे थे पर मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। वे ठीक ही कह रहे थे। लेकिन सरकारी नौकरी छोडऩे का मन नहीं था फिर वह मेरी जरूरत भी थी। और सबसे बड़ी बात थी मेरा आत्मविश्वास। मुझे पूरा भरोसा था कि नौकरी बजाते हुए मै बीएससी फायनल की परीक्षा पास कर लूंगा।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">लेकिन मैं मन का कच्चा था। अपने से ही धोखा खा गया। दरअसल इसे धोखा भी नहीं कहना चाहिए। सरासर मूर्खता थी। हुआ यूं कि फिजिक्स का प्रथम प्रश्नपत्र बिगड़ गया। जबकि इस पेपर के लिए मेरी तैयारी सेकंड प्रश्न पत्र से बेहतर थी। कुल सौ अंक के फिजिक्स में पास होने के लिए 33 अंक चाहिए थे। पूरा दारोमदार 50 मार्क्स के इसी प्रथम पेपर पर था। इरादा था 30-35 अंक हासिल कर लिए जाए ताकि दूसरा पेपर बिगड़ भी गया तो भी कोई फर्क न पडे। लेकिन पेपर देखते ही माथा ठनक गया। हाथ-पांव फूल गए। दस प्रश्नों में से पांच हल करने थे। मेरे लिए सब कठिन। बेहद कठिन। इसकी उम्मीद नहीं थी। मैंने सिर्फ दो प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर लिखे। बाकी तीन के आते नहीं थे, इसलिये छोड़ दिए। अब परीक्षा कक्ष में पूरे तीन घंटे बैठे रहने का कोई औचित्य नहीं था लिहाजा एक सवा घंटे बाद ही बाहर निकल गया। पहला ही प्रश्न पत्र बिगड़ने से मन इतना खिन्न था कि मैंने ड्राप लेने का फैसला किया। अगली परीक्षाओं में नहीं बैठा। मुझे लगा कि बीस अंकों में से मुझे अधिक से अधिक कितने अंक हासिल होंगे? अधिकतम पन्द्रह। पचास में पन्द्रह यानी फेल। लेकिन यह मेरी बडी भूल थी। जब अंक सूची हाथ में आई तो फिजिक्स के इस पेपर में पचास में सत्रह अंक मिले थे। मैं पास हो गया था। मैंने अपना सिर पीट लिया। प्रोफेसर बाल साहब का कहा वाकई सच साबित हुआ। बीएससी नहीं कर पाया लेकिन नौकरियां करते हुए निजी परीक्षार्थी के रूप में बीए , एम ए व बीजे ( बैचलर ऑफ जर्नलिज्म ) की डिग्रियां लेकर शिक्षण कार्य पूरा कर लिया।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">सन 1969 से 1978 तक मेरी दिनचर्या अस्तव्यस्त रही। कालेज , ट्यूशन, स्कूल में मास्टरी व पार्टटाइम अखबारनवीसी। सुबह सुबह घर से स्कूल के लिए निकल जाता था व प्रेस का काम निपटाकर देर रात लौटता। साइंस कालेज छोडने के बाद चूंकि निजी छात्र के तौर पर बीए किया इसलिये कालेज जाने की झंझट नहीं थी लेकिन समाज शास्त्र में एम ए करने रविशंकर विश्वविद्यालय के शिक्षण विभाग ( यूटीडी ) में एडमिशन ले लिया। पार्टटाइम पत्रकारिता देशबंधु ( तब नयी दुनिया ) में चल ही रही थी। लेकिन वहां कुछ ही महीने रह पाया क्योंकि सरकारी नौकरी लग गयी सो प्रेस छोड़ दिया। फिर दूसरी बार सरकारी नौकरी बजाते हुए 1973 में पुनः देशबन्धु पहुंच गया। फिर वही कहानी। क्यों छोड़ दिया, याद नहीं अलबत्ता 1976 में तीसरी दफा देशबन्धु के संपादकीय विभाग में मैं हाजिर था। यह अंतिम कार्यकाल दीर्घ रहा। करीब छह साल। इस बीच वर्ष 1978 में सरकारी नौकरी से इस्तीफा दिया था। और इसके बाद पूर्णकालिक पत्रकारिता प्रारंभ हुई जो कई अखबारों की नियमित नौकरी से मुक्ति के बाद स्वतंत्र रूप में जारी है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">पार्टटाइम व पूर्णकालिक दोनों की दृष्टि से देखें तो इस फील्ड में काम करते हुए लगभग 45-46 बरस हो चले है। इस दौरान मैंने रायपुर व बिलासपुर से छपने वाले दैनिक अखबारों में काम किया। रायपुर में देशबंधु, नवभारत, युगधर्म, अमृत संंदेश, दैनिक भास्कर, आज की जनधारा,अमन पथ व पायनियर। बिलासपुर में नवभारत व दैनिक भास्कर। रायपुर में प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी काम करने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश को कव्हर करने वाले वाच न्यूज चैनल में बतौर प्रधान संपादक। शुरूआत देशबन्धु में प्रूफ रीडिंग से की थी, धीरे धीरे अखबारों का संपादन करने लगा। चूंकि वर्षों संपादकीय दायित्व निभाता रहा लिहाजा लगभग पूरे प्रदेश में सहयोगी संवाददाताओं की टीम तैयार हो गई जिनसे आत्मीय संंबंध बने। इस दौरान उनसे व अपने वरिष्ठजनों से खूब सीखने का अवसर मिला। आज यदि पत्रकारिता में थोड़ी सी पहचान बन गई है तो इसका श्रेय सहकर्मियों व पत्रकारिता के मेरे गुरुजनों, संपादकों को है। सर्वश्री ललित सुरजन , राजनारायण मिश्र, रामाश्रय उपाध्याय, रम्मू श्रीवास्तव, सत्येन्द्र गुमाश्ता, बबन प्रसाद मिश्र, गोविंद लाल वोरा आज हमारे बीच नहीं है लेकिन छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता व पत्रकारों को संवारने व उसे समृद्ध बनाने इन सभी का अतुलनीय योगदान है। मैंने अलग अलग अखबारों में इनके मातहत काम किया। इनकी स्मृतियाँ अक्षुण्ण हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><i>----------</i></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><i>(अगली कड़ी बुधवार 29 सितंबर को)</i></div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-27124658200212142452021-09-22T02:36:00.005-07:002021-09-22T02:36:31.414-07:00 कुछ यादें कुछ बातें-15<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">-दिवाकर मुक्तिबोध</span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अपने से शुरू करता हूं, दो चार छोटी मोटी बातें। वैसे बचपन की अनेक घटनाएं स्मृतियों में दर्ज हैं , पर एक रह रहकर याद आती रहती है। घटना नागपुर की। मैं प्राइमरी कक्षा का छात्र था। हम मोहल्ला गणेश पेठ में रहते थे। एक दिन एक फेरीवाले ज्योतिषी महाराज घर के दरवाजे पर आकर खड़े हो गए और आवाज लगाई। मां बाहर आई। आमतौर पर ऐसा कोई व्यक्ति अनायास प्रकट हो जाए व भविष्य जानने का प्रलोभन दें तो न चाहते हुए भी खुद के बारे में कुछ जानने की इच्छा हो जाती है। इस ज्योतिषी ने अपनी लच्छेदार बातों से ऐसा भरमाया कि मां अपना भविष्य जानने उतावली हो गई। जाने क्या-क्या बातें उसने मां को बताई अलबत्ता एक अजीब सी सम्मोहन की हालत में मां ने मेरी भी हथेली उसके सामने फैला दी। उसने लकीरें पढकर मां को क्या बताया, वह याद नहीं किंतु एक बात जरूर याद है कि मां के पूछने पर उसने मेरी आयु 60 वर्ष बताई। यह सुनकर मां ने क्या सोचा होगा, उसकी कल्पना की जा सकती है। यकीनन उसके माथे पर चिंता की लकीरें फैल गई होंगी। प्रत्येक मां अपने बच्चों के शतायु होने की कामना करती है। जुग-जुग जीने की कामना, लंबी उम्र की कामना हालांकि सोचें तो जीने के साठ बरस भी कम नहीं होते। बहरहाल इस ज्योतिषी की 60 वर्षों तक जिंदा रहने की बात मेरे दिमाग में कायम रही। खासकर प्रत्येक वर्ष जन्म तारीख के दिन वह भविष्यवक्ता याद आता रहा। खैर समय गुजरता गया। जीवन के 60 बरस भी पूरे हो गए व आगे निकल गए। आराम से एक और दशक पूरा कर लिया। अच्छा भला स्वस्थ हूं। यद्यपि यह देखने के लिए मां जीवित नहीं रही कि उसका लाडला सही सलामत है। उसे कुछ नहीं हुआ। और जैसा कि वे चाहती थीं, वह और बडी उम्र की ओर बढ़ रहा है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">बहरहाल बाल दिनों की इस एक घटना के उल्लेख के बाद मैं उम्र के 18 बरस के बाद के सफर को सिलसिलेवार याद करने की कोशिश करता हूं विशेषकर कॉलेज व नौकरी के उन दिनों को जो बेहद खूबसूरत थे। वर्ष 1967 में भिलाई नगर से 11 वीं बोर्ड की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैंने शासकीय विज्ञान महाविद्यालय रायपुर में बीएससी प्रथम वर्ष में एडमिशन लिया। शुरुआत के तीन चार महीने बमुश्किल हॉस्टल में रह पाया। दरअसल मैं मां से अलग कभी नहीं रहा। होमसिकनेस इतनी भयानक थी कि बिना मां के एक-एक दिन गुजारना मुझे भारी पड़ रहा था। दिन तो घर कॉलेज में निकल जाता था पर रात ? होस्टल में रात चैन से नहीं कटती थी। घर याद आता रहता था। मां मेरी बेचैनी तब महसूस करती थी जब मैं प्रत्येक शनिवार की रात भिलाई अपने घर पहुंचने के बाद सोमवार की सुबह रायपुर के निकलता था। तब मेरी रोनी शक्ल देखने लायक रहती थी। हर बार मुझे इस तरह विचलित देख एक दिन उन्होंने तय किया कि वे रायपुर में मेरे साथ एक अलग मकान लेकर रहेंगी। मां के इस निर्णय से मुझे अपार खुशी मिली क्योंकि इससे बढ़कर आनंद और हो नहीं सकता था। मैंने साइंस कॉलेज का हॉस्टल नंबर तीन छोड़ दिया। हमने शहर की पुरानी बस्ती में एक मकान किराए पर ले लिया। मां आई तो साथ में छोटे भाई बहन भी आ गए यानी लगभग पूरा परिवार रायपुर शिफ्ट हो गया। इस बात को 54 साल हो गए हैं। पांच दशक से हम रायपुर में ही हैं। किराए के मकान से अब खुद के घर में हैं पर अफसोस साथ में मां नहीं है। केवल उसकी यादें हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">शासकीय विज्ञान महाविद्यालय में मैं 1967 से 1970 तक रहा। इस अवधि में दो ऐसे प्राचार्यों से रूबरू हुआ जो नामी साहित्यकार भी थे - श्री रामेश्वर शुक्ल अंचल व श्री राजेश्वर गुरु। उस दौर में भी प्रिंसिपल व छात्रों के बीच सीधा व प्रदीर्घ संवाद नहीं के बराबर था। आमतौर पर वे कक्षाएं भी नहीं लेते थे। लेते भी होंगे तो स्तानोकोत्तर कक्षाओं की। यह मुझे ज्ञात नहीं। अतः उनके कक्ष में एक दो मुलाकातें हुई। सरनेम से वे पिताजी के बारे में जान गए थे। गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम सुनकर वे प्रसन्न हुए भी होंगे तो इसे उन्होंने जाहिर नहीं किया। यह अच्छा ही था। मैं बोझ मुक्त था। हालांकि उनके नाम का जुडाव गर्व की बात थी, है और हमेशा रहेगी।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">मैं बीएससी प्रथम वर्ष में ही था कि दो प्राध्यापकों की पदस्थापना साइंस कालेज में हुई। दोनों परिचित और पारिवारिक। एक थे प्रोफेसर प्रमोद वर्मा, दूसरे कनक तिवारी। कनक तिवारीजी से राजनांदगांव से परिचय था। विशेषकर रमेश भैया की वजह से। जबकि प्रमोद वर्मा पिताजी के बहुत निकट के मित्रों में से थे । प्रमोद जी ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने पिताजी की बीमारी के दिनों में हमें सम्हाला। जब वे साइंस कॉलेज में हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष बनकर आए तो मेरे एकाकी मन को बहुत राहत मिली हालांकि वे मेरे हिंदी के प्राध्यापक नहीं थे। मेरा अंग्रेज़ी भी एक विषय था। कनक तिवारी कक्षा लेते थे। यह संयोग ही था कि वे हमारे एकदम पडोस में रहते थे। पुरानी बस्ती में सत्येन्द्र ठाकुर के वे भी किराएदार थे, हम भी।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">प्रमोद जी साइंस कॉलेज के सरकारी निवास में रहते थे। कालेज के फ्री पीरियड में और बाद में मैं उनके घर चला जाया करता था। उनके परिवार के सभी सदस्य हमें अपने ही परिवार का समझते थे और वैसा ही स्नेह देते थे। 1964 में भोपाल के हमीदिया अस्पताल में पिताजी के स्वास्थ्य का हाल जानने के लिए आने वाले मित्रों में प्रमोद जी भी थे। जब पिताजी को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नयी दिल्ली ले जाया गया तब हमें सम्हालने का जिम्मा प्रमोद जी ने लिया। वे हम भाई बहन को लेकर भिलाई आ गए। उन दिनों वे शासकीय महाविद्यालय दुर्ग में पदस्थ थे जो भिलाई से लगा हुआ है। भिलाई में वे सपरिवार अपने छोटे भाई के आफिसर्स बंगले में रहते थे। उस समय उनकी शादी नहीं हुई थी। सभी भाई बहनें व उनके माता-पिता साथ ही रहते थे। उनका भरा पूरा घर था हम लोगों के आने से वह और भर गया।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">प्रमोद जी के साथ हम लोग बहुत घुलेमिले हुए थे। चूंकि हम बेहद सामान्य घर से थे लिहाजा भिलाई की बंगले की विशालता , सर्वेंट क्वार्टर व स्कूटर , मोटरसाइकिल देखकर मैं चकरा गया। ऐसा लगा कि प्रमोद जी का वर्ग हमसे अलग है। यद्यपि यह भाव अधिक समय तक कायम नहीं रहा। जैसे जैसे समय बितता गया , वर्गांतर की भावना कम होती गई क्योंकि प्रमोद जी व परिवार के सभी सदस्यों ने अपने व्यवहार से किसी प्रकार का दुराव महसूस ही नहीं दिया। हम उनके यहाँ कुछ महीने रहे और इस बीच बडे भैया को भिलाई इस्पात संयंत्र में नौकरी मिल गई और क्वार्टर भी।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रायपुर साइंस कॉलेज में प्रमोद वर्मा जी जब तक रहे , नियमित रूप से हमारी खोजखबर लेने घर आते रहे। उनके सिवाय इस शहर में हमारा कोई आत्मीय नहीं था इसलिए उनकी उपस्थिति हमें प्रफुल्लित करती थी। रायपुर के बाद वे जहां भी रहे, हमारे बारे में जागरूक अभिभावक की तरह पूछताछ करते रहे। भिलाई में एक कार्यक्रम के दौरान उनकी तबियत का बिगडना व बाद में अस्पताल में उनके न रहने की खबर हम लोगों के लिए वज्राघात से कम नहीं थी। अब उनकी सदेह उपस्थिति नहीं है लेकिन मेरे मन में एक सह्रदय अभिभावक के रूप में उनकी स्मृतियाँ अक्षुण्ण हैं।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">----------</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी शनिवार 25 सितंबर को)</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-81597336193880885132021-09-18T05:23:00.001-07:002021-09-18T05:23:13.269-07:00 कुछ यादें, कुछ बातें - 14<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">बड़े भैय्या, रमेश भैय्या</span></p><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="3uj7q-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="3uj7q-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="3uj7q-0-0" style="font-family: inherit;">_____________________</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="7prtg-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="7prtg-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="7prtg-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="ei5on-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="ei5on-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="ei5on-0-0" style="font-family: inherit;">- दिवाकर मुक्तिबोध</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="600be-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="600be-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="600be-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="19odf-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="19odf-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="19odf-0-0" style="font-family: inherit;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2zb4OgY8pFbsGr40tPgR2AUvDcv41WcBn7zkEXC5tG809xvk_Ym__paPqeuNcv22b08C1qJEnWJ-2Q3THyN2kcdEvWJc2KNY806w8QML57JAYy_ki0XX-VW1U8EYZF7Hj3BIbNOerSpGE/s776/d40c9e96-04cb-463b-8f24-6f6e49146876.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="776" data-original-width="480" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2zb4OgY8pFbsGr40tPgR2AUvDcv41WcBn7zkEXC5tG809xvk_Ym__paPqeuNcv22b08C1qJEnWJ-2Q3THyN2kcdEvWJc2KNY806w8QML57JAYy_ki0XX-VW1U8EYZF7Hj3BIbNOerSpGE/s320/d40c9e96-04cb-463b-8f24-6f6e49146876.jpg" width="198" /></a></div><br />82 के हो गए हैं रमेश भैय्या। रमेश गजानन मुक्तिबोध। मेरे बडे भाई। हम भाइयों , मैं, दिलीप व गिरीश में सबसे बड़े। भिलाई स्टील प्लांट की नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्होंने भाइयों के साथ ही रहना पसंद किया। हम चारों भाई रायपुर के सड्डू इलाके की एक कालोनी मेट्रो ग्रीन्स में रहते हैं। रो हाउसेज हैं । चारों के एक जैसे घर, एक दूसरे से सटे हुए और अलग-थलग भी। चारों घरों के बीच में कोई बाउंड्री वाल नहीं है। यानी एक घर से दूसरे घर में जाना हो तो गेट खोलकर बाहर सडक पर निकलने की जरूरत नहीं। भीतर से ही एक एक दूसरे के यहां आना जाना हम लोग करते हैं। यह सुविधाजनक है।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="72dic-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="72dic-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="72dic-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="ahs5t-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="ahs5t-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="ahs5t-0-0" style="font-family: inherit;">यह अति संक्षिप्त जानकारी। रमेश भैय्या पर कुछ लिखने के पूर्व मुझे लगा हमारे स्थायी ठिकाने के बारे में बताना चाहिए। यह काम हो गया सो अब उन दिनों, महीनों व वर्षों की ओर लौटते हैं जहां से गुजरते हुए हम सभी अलग-अलग तिथियों में साठ पार कर गए। गिरीश चूंकि सबसे छोटा है अतः उसने अभी-अभी इस आंकड़े को स्पर्श किया है।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="32bsj-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="32bsj-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="32bsj-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="culuo-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="culuo-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="culuo-0-0" style="font-family: inherit;">भाइयों में रमेश भैय्या के बाद मेरा ही नंबर है। हम उन्हें रमेश भाऊ कहकर संबोधित करते हैं।नागपुर के उन दिनों में जब हम छोटे थे तब उनके साथ खेलना-कूदना खूब चला। उन्हें पतंगबाजी का जबरदस्त शौक था। पतंगें वे उडाते थे, लडाते थे, काटते, कटते थे और मेरा काम था चक्री पकडना और वो काटा , वो काटा का शोर मचाना। कटी पतंगें व धागे को लूटना मेरे भी हिस्से का काम था जो और भी आनंददायक था। हालत यह थी कि गणेश पेठ के अपने मकान की छत पर हम दोनों घंटों डटे रहते थे। आंखें आसमान की ओर टंगी रहती थी। पेंच लडती पतंगों को देखना व कटने पर छत से गुजरते मांजे या पतंग को पकडना बहुत मजा देता था। और जब हमारे पास उडाने के लिए अपनी पतंग नहीं रहती थी तब कटी पतंगों को लूटने का खेल चलता था। आसमान में हिचकोले खाती, नीचे आती कटी पतंगों को ताकते , अन्य लडकों से स्पर्धा करते हम तेजी से सडक पर दौडते थे, अनेक दफे राहगीरों से टकराते थे, उनकी गालियां खाते थे पर पतंग लूटने का मोह नही छोड़ते थे। अनेक दफे लडकों के साथ लुटी पतंग के लिए छीना झपटी होती थीं। नतीजतन पतंग के अवशेष हाथ लगते थे। लेकिन जब कभी साबूत लुटी पतंग हाथ लगती तो उसका आनंद अद्भुत रहता था। यहीं हाल मांजा लूटने का भी। उसे लूटने के चक्कर में उंगलियां कट जातीं, खून निकल आता था पर हम परवाह नहीं करते थे और इस बात का ध्यान रखते थे कि घर में किसी को हवा न लगे कि उंगलियां घायल हैं। पतंगबाजी से छुट्टी पाने के बाद कभी भंवरा , कभी गिल्ली डंडा व कांच की कंच्चियां हाथ में आ जातीं। छुट्टियों में करीब-करीब दिन भर हम दोनों बाहर ही रहते थे। कोई रोक टोक नहीं थी। बडे भैय्या साथ में थे, ढाल की तरह। कभी कभार घर में थोड़ी बहुत चिल्ला चोट होती तो भी अपन बचे रहते। अपने से बडे का मौजूद रहना, उनकी सरपरस्ती कितनी महत्वपूर्ण रहती है यह तब तो नहीं, बाद के वर्षों में ठीक समझ में आती है। उसकी अहमियत मालूम पडती है। उनकी मौजूदगी से मन में निश्चिंतता का भाव हमेशा बना रहता है।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="3br17-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="3br17-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="3br17-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="1cj5l-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="1cj5l-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="1cj5l-0-0" style="font-family: inherit;">रमेश भैय्या की प्राथमिक व मिडिल तक की शिक्षा उज्जैन में हुई। दादा-दादी के यहां। फिर वे हमारे साथ रहने नागपुर आए। शायद 54-55 में। मैं पांच छह साल का था। तब तक मुझे ज्ञात नहीं था कि मेरा कोई बडा भाई भी है। मुझे शंका हैं कि क्या उन्हें भी मालूम था कि उनके कितने भाई-बहन हैं व उनके नाम क्या हैं ? दादा दादी के पास बरसों रहे, इसलिए संभव है जैसे कि मैं नहीं जानता था, वे भी न जानते हों। लेकिन उनसे सत्य जानने की कोशिश जब मैं यह लिखने बैठा हूं ,तब भी नहीं की जबकि मैं उनसे आराम से पूछ सकता था। दरअसल उनसे बीते हुए कल पर बातें कम ही होती हैं। खैर, मुद्दे पर लौटते हैं। नयी शुक्रवारी के मकान में एक दिन एक नया लडका नजर आया। मां ने बताया वे हमारे रमेश भैय्या थे। बडके भैय्या। यह पहला परिचय था। उन्हें देख बहुत प्रसन्नता हुई। हम दोनों के बीच उम्र का काफी अंतर था पर खेलने के लिए नया साथी मिल गया था। इसी वजह से मुझे शहर नागपुर स्मृतियों में अधिक प्रिय है क्योंकि हमने यहां बचपन के बहुत मजे लिए हैं।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="fl1en-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="fl1en-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="fl1en-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="77hk1-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="77hk1-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="77hk1-0-0" style="font-family: inherit;">1956 में नये राज्य के रूप में मध्यप्रदेश के अस्तित्व में आने के बाद जो घटनाएं घटीं उनमें महत्वपूर्ण थीं पिताजी का आल इंडिया रेडियो की नौकरी छोडना व बतौर संपादक ' नया खून ' साप्ताहिक का संपादन करना। बाद के क्रम में नागपुर से बोरिया बिस्तर समेट कर राजनांदगांव में शिफ्ट होना। राजनांदगांव ही वह पडाव था जहां मां व पिताजी ने महसूस किया होगा कि बडा लडका बडा हो गया है। लडके का बडा होना या ऊंचाई में पिता के कद के समकक्ष आना सुखद अनुभूति देता है जिसमें संतोष इस बात का रहता है जरूरत पडने पर बेटा भार उठा लेगा अथवा जिम्मेदारी बांट लेगा। दुर्भाग्य से पिताजी को राजनांदगांव में जीवन के सात-आठ बरस से अधिक नहीं मिले। इस दौरान रमेश भाऊ ने दिग्विजय महाविद्यालय से बीएससी का इम्तिहान पास कर लिया था। वे ग्रेजुएट हो गये। जब लंबी बीमारी के बाद 11 सितंबर 1964 को नयी दिल्ली में पिताजी का देहांत हुआ तो स्वाभाविक रूप से बडे होने के नाते घर-परिवार को संभालने की जिम्मेदारी भैय्या पर आ गई । यह अच्छी बात रही कि उसी दौरान उन्हें भिलाई स्टील प्लांट में नौकरी मिल गई थी। हमारे जीने का , जीवन में सम्हलने का प्रबंध हो गया था। पिताजी के निधन के बाद परिवार भिलाई शिफ्ट हो गया था। सहारे के लिए, परवरिश के लिए घर में मां थीं। दिन भर खटती थी। कही आना-जाना नहीं। राजनांदगांव में काफी घर थे जहां वे अपनी सहेलियों से मिलती थीं पर भिलाई उनके लिए एकदम ड्राई। उपर से ,पिताजी के असामयिक निधन के शोक से वे वर्षों तक उबर नहीं पाई। बात-बात में उन्हें याद करके उनकी आंखें भर आती थीं। यह सिलसिला उनके जीवन के अंत तक चलता रहा। समय के साथ वह कम हुआ पर मिटा नहीं। मिट भी नही सकता था। ऐसे में रमेश भैय्या मां के साथ हमारे भी सबसे बडे संबल बने हुए थे।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="39t2f-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="39t2f-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="39t2f-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="5rfeo-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="5rfeo-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="5rfeo-0-0" style="font-family: inherit;">राजनांदगांव हमारे लिए तीर्थस्थल जैसा है। अमिट यादों का तीर्थस्थल। दिग्विजय कालेज में लेक्चररशिप मिलने के बाद पिताजी ने वसंतपुर में किराए का मकान लिया। बडे भैय्या पिताजी के साथ पहले ही राजनांदगांव आ गए थे। नागपुर से साजो सामान सहित हम लोग यानी मां व छोटे भाई बहन कुछ दिनों बाद नांदगांव आए। वसंतपुर उस समय शहर से काफी दूर बाहरी इलाके की छोटी सी बस्ती थी। रमेश भैय्या का एडमिशन महंत सर्वेश्वर दास हायर सेकंडरी स्कूल में हुआ जो कि नगर पालिका के अधीन था। इसी स्कूल के परिसर में प्राथमिक विद्यालय भी था जिसे गोल स्कूल कहा जाता है। यह भी पालिका के द्वारा ही संचालित था। यहां मैं पढता था, कक्षा चौथी। रमेश भैय्या अक्सर सायकिल पर मुझे बैठाकर स्कूल छोडते व बाद में अपनी क्लास जाते। वे 11 वी में थे। भोजनावकाश के समय हम नजदीक ही स्थित टाउनहाल में चले जाते थे। वहां के बगीचे में किसी पेड़ के नीचे बैठकर खाना खाते थे। जब हम लोग वसंतपुर से दिग्विजय कालेज परिसर के मकान में शिफ्ट हुए तब यह सिलसिला बंद हुआ। कालेज प्रबंधन ने पुरानी जीर्णशीर्ण इमारत, जो छोटे से महल जैसी थी, को रहने लायक बना दिया था। मकान से हमारा स्कूल नजदीक ही था। इसलिए टाउनहाल का चक्कर समाप्त हो गया।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="fk1sf-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="fk1sf-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="fk1sf-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="b4n8g-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="b4n8g-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="b4n8g-0-0" style="font-family: inherit;">बडे भाई चूंकि बडे हो गए थे, कालेज पहुंच गए थे और उनके अनेक नये दोस्त भी बन गए थे लिहाजा बचपन के खेल हवा हो गए। और तो और पतंगबाजी का नशा भी उतर गया। चूंकि दिग्विजय कालेज का यह मकान काफी बडा था, दो मंजिला जिसके भूतल पर अलग-थलग दो कमरे थे , अतः उनमें से एक उन्हें मिल गया। वे कालेज के छात्र हो गए थे अतः उनकी दिनचर्या बदल गई थी। अब उनके साथ मिल बैठकर गप्पे लडाने के लिए खाली समय का अकाल सा पड गया था हालांकि मुझे कोई दिक्कत इसलिए नहीं हुई क्योंकि मैंने अनुज दिलीप को पकड़ लिया था जो मुझसे पांच साल छोटा था। उसके साथ भागमभाग करने के अलावा उन्हीं दिनों मुझे कहानियां व उपन्यास पढने का चस्का लग गया था। दादी के लिए पिताजी कालेज की लाइब्रेरी से उपन्यास लाते थे। वे भी पढती थीं, मैं भी। इसके अलावा कालेज परिसर में और भी दोस्त बन गए थे अतः आनंद ही आनंद था।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="5vsl2-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="5vsl2-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="5vsl2-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="c20pc-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="c20pc-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="c20pc-0-0" style="font-family: inherit;">एक घटना याद आती है जब मैंने मां को बहुत परेशान व चिंतित होते देखा। पिताजी भी परेशान थे। दरअसल रमेश भैय्या एनसीसी में थे। दिग्विजय महाविद्यालय के एनसीसी केडेट्स का केम्प चेन्नई के पास कोडाईकनाल में लगा। शायद दस दिन का यह केम्प था। यह अवधि समाप्त होने के बाद शिविर के सभी केडेट्स अपने अपने घर लौट आए। मां व पिताजी भी भैय्या के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब एक एक करके दिन बितते गए और वे नहीं आए तो मां चिंता में पड गई। रोने धोने लग गई। परेशान पिताजी ने स्थानीय एनसीसी के कमांडिंग आफिसर से बातचीत की। उन्हे कोडाईकनाल से सूचना मिली कि समय पर केम्प खत्म हो गया। सब चले गए हैं। इस सूचना से चिंता द्विगुणित हो गई। रिश्तेदारों से पूछताछ शुरू हुई तो पता चला कि भैय्या नागपुर में अपने चाचा शरच्चन्द्र जी के यहां हैं। कोडाईकनाल से वे राजनांदगांव न आकर चाचाजी के यहां चले गए थे। उन्होंने संभवतः कल्पना नहीं की थी कि समय पर घर न लौटने से परिवार विशेषकर मां पर क्या बितेगी। यकीनन बाद में उन्हें इस बात का पछतावा हुआ होगा कि उनसे गलती हुई। बहरहाल उनकी खैरियत की खबर पाकर मां की जान में जान आई तथा पिताजी भी चिंता मुक्त हुए। कुछ दिनों बाद भैय्या घर आ गए और बात आई गई हो गई। लेकिन मेरे मन में मां व पिताजी की भैय्या को लेकर वह परेशानहाल छवि स्थायी तौर पर अंकित हो गई।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="cs3kq-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="cs3kq-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="cs3kq-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="3q9s2-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="3q9s2-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="3q9s2-0-0" style="font-family: inherit;">एक और वाकया। मैं मिडिल का विद्यार्थी था जब एस्थमा ने मुझे अपनी गिरफ्त में लिया। बार बार दमे के अटैक से मां व पिताजी बहुत चिंतित थे। मां मुझे घंटों गोद में लेकर बैठती थीं। लेट नहीं सकता था क्योंकि ऐसा करने से सांसें और तेज हो जाती थीं। काफी दिनों तक चली दवाओं से जब कोई विशेष लाभ नहीं हुआ तो यह सोचा गया कि घर के आजूबाजू बडे तालाबों की वजह से हवा में जो आद्रता आती है वह एस्थमा का एक कारण हो सकता है अतः इस वातावरण से परे किसी दूसरी जगह मेरे रहने की व्यवस्था की जाए। लिहाजा घर से तीन चार किलोमीटर दूर बीएनसी मिल्स एरिया की लेबर कालोनी में एक रूम किचन का क्वार्टर जिसमें सभी आवश्यक सुविधाएं थीं, किराए पर लिया गया। यहां मैं और भैय्या रहने लगे। घर से टिफिन आता था। कभी मां, कभी पिताजी लेकर आते तो कभी बडे भाई लेने चले जाते। हम जितने महीने यहां रहे, उन्होंने मेरा बहुत ध्यान रखा। यह आश्चर्यजनक था कि हवा पानी बदलते ही चंद महीनों के भीतर मेरा एस्थमा छूमंतर हो गया। मैं एकदम स्वस्थ हो गया। पर दुर्भाग्य से पिताजी बीमार पड़ गए। जानलेवा बीमारी ने उन्हें जकड़ लिया। तब लेबर कालोनी के मकान को छोड़कर हम घर लौट आए।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="emide-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="emide-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="emide-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="9diko-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="9diko-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="9diko-0-0" style="font-family: inherit;">भैय्या के मिजाज के बारे में थोड़ा सा बता दूं। विनम्र हैं , मिलनसार हैं लेकिन वक्त जरूरत पर कठोर भी। फटाफट निर्णय लेते हैं और उस पर अडिग रहते हैं। तर्क शक्ति लाजवाब। व्यवस्था में नंबर एक। उनका हर काम व्यवस्थित, चीजें व्यवस्थित, हर वस्तु उसकी निश्चित जगह पर ताकि ढूंढने की गरज ही न पडे। इतना तगड़ा अनुशासन बहुत कम देखने में आता है। कम से कम मेरे बस का तो नहीं। सबसे महत्वपूर्ण बात, वे बहुत मेहनती है। जो भी काम हाथ में लेते हैं, उसे ढंग से पूरा करके छोडते हैं। उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है पिताजी की समस्त अप्रकाशित रचनाओं का एकत्रीकरण, उनका संपादन , संयोजन व प्रकाशन। यह बहुत जटिल व भारी मेहनत काम था जिसमें महीनों, बरसों लगना तो तय ही था, अधिक महत्वपूर्ण था रचनाओं के प्रति गहरी समझ रखना तथा विभिन्न विधाओं में किए गए लेखन का क्रम तय करना। रिटायरमेंट के बाद अपना समूचा वक्त देते हुए उन्होंने इस काम को पूरा किया। दरअसल राजनांदगांव में पिताजी के एकाएक बीमार पडने के बाद घर में सब कुछ अस्तव्यस्त था। मां, पिताजी की देखरेख के लिए भोपाल के हमीदिया हास्पीटल में थीं और उनकी गैरमौजूदगी में घर जैसे भांय भांय कर रहा था। यह संभवतः मार्च 1964 की बात है। हमारी स्कूली परीक्षाएँ प्रारंभ नहीं हुई थी। एप्रिल में उनके निपटने के बाद बडे भैया के साथ जब हम भाई-बहन राजनांदगांव से भोपाल गये तब पिताजी के लिखे कागजों का आधा खुला आधा बंद गठ्ठर एक कमरे में यों ही पडा हुआ था। चिंता पिताजी के स्वास्थ्य की थी। वे गर्मियों के दिन थे। बताते हैं एक दिन खूब तेज हवा चली और लिखे कागजात उडने लग गए। उन्हें किसने इकट्ठा किया, सभी मिले कि नहीं, मुझे ज्ञात नहीं। मैंने केवल इस बारे में सुना था। इसलिए कह नहीं सकता यह बात कहा तक सच है। बहरहाल भोपाल से हम लोग राजनांदगांव नहीं आ सके। प्रमोद वर्मा जी के साथ भिलाई आए , उनके यहां रहे जबकि मां, रमेश भैय्या व हरिशंकर परसाई जी अर्द्ध चेतनावस्था में पडे पिताजी को लेकर ट्रेन से दिल्ली गए जहाँ उन्हें एम्स में भर्ती किया गया।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="37gku-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="37gku-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="37gku-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="2pjtb-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="2pjtb-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="2pjtb-0-0" style="font-family: inherit;">पिताजी का लेखन विपुल था। विचारों के झंझावात में एक ही कविता के अनेक ड्राफ्ट बने थे। कुछ ऐसी ही स्थिति कहानी, निबंध व इतर लेखन की थी। अनेक लिखे पेपर इतने पुराने हो चुके थे कि पीले पड गए थे। हाथ से उठाने पर फटने का अंदेशा रहता था। कुछ के कोने फट गये थे लिहाजा शब्द अधूरे। कुल मिलाकर कठिन काम था, श्रमसाध्य। भाई साहब ने भिलाई स्टील प्लांट की नौकरी से रिटायरमेंट के बाद ठीक से मोर्चा संभाला। यद्यपि छुटपुट काम नौकरी के दिनों में भी चल ही रहा था। उन्होंने सबसे पहले लिखे का वर्गीकरण किया। कविता , कहानी, आलोचना , निबंध, समीक्षा, राजनीतिक लेख, राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय सवालों पर टिप्पणियां, अधूरी कविताएं , अधूरी कहानियां, अधूरी समीक्षाएं, अधूरे निबंध, अधूरी आलोचनाएं, अधूरे पत्र, आदि आदि। उन्होंने सभी का पुष्ट या संभावित रचनाकाल निकाला। यह सब व्यवस्थित करने के बाद उन्होंने बहुतेरे लेखन का पुनर्लेखन किया तथा सभी की फोटोकॉपी कर अलग अलग सेट तैयार किये। पिताजी की लिखावट में जहां जो शब्द समझ में नहीं आए, वहां लोगों से परामर्श लिया। उन्होंने सर्वश्री अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल व डा. राजेंद्र मिश्र से काफी मदद ली। यही नहीं, देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं जिनकी मूल अथवा फोटो प्रति घर में उपलब्ध नहीं थी, उनकी जानकारी हासिल की व इसके लिए अनेक शहरों के दौरे भी किए। भोपाल के माधव राव सप्रे संग्रहालय सहित अन्य शहरों के वाचनालयों में घंटों बैठकर उनका लेखन किया या फोटो कापियां निकालीं। इस कठोर परिश्रम का फल यह निकला कि 1984 में प्रकाशित छह खंडों की मुक्तिबोध रचनावली में दो नये खंड और जुड गए और वह बढकर ' मुक्तिबोध समग्र ' के नाम से आठ खंडों की हो गई। प्रायः हर पुराने खंड में नयी सामग्री जुड़ी व समग्र चार हजार से अधिक पन्नों का हो गया। इसके प्रकाशन के पूर्व, पूर्ण अथवा अधूरे राजनीतिक-गैर राजनीतिक रचनाओं व अन्य अप्रकाशित विविध लेखन की दो किताबें प्रकाशित हुई। पत्रों व संस्मरणों की वृहद किताब आई। यानी पिताजी का तमाम अप्रकाशित साहित्य पाठकों के सामने आ गया। और यह भैय्या की वजह से संभव हुआ। मुझे नहीं लगता इस सलीके से कोई और व्यक्ति यह काम कर सकता था। इसीलिये अशोक वाजपेयी जी ने अनेक अवसरों पर भैय्या के परिश्रम का उल्लेख करते हुए ठीक कहा कि हिंदी साहित्य जगत को रमेश मुक्तिबोध का आभारी रहना चाहिए जिनकी बदौलत मुक्तिबोधजी का तमाम रचनाकर्म पाठक समाज के समक्ष आ सका।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="5psn6-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="5psn6-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="5psn6-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="ej7ld-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="ej7ld-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="ej7ld-0-0" style="font-family: inherit;">अब उनका ज्यादातर समय अध्ययन में बीतता है। हर रोज शाम को हम चारों भाई घंटे दो घंटे साथ में बैठते हैं। इधरउधर की खूब बातें करते हैं। जिंदगी मजे से चल रही है।</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="fa8ge-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="fa8ge-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="fa8ge-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="8u5iv-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="8u5iv-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="8u5iv-0-0" style="font-family: inherit;">----////////---///---</span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="92the-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="92the-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="92the-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="98n4s" data-offset-key="etin6-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="etin6-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="etin6-0-0" style="font-family: inherit;">(अगली कड़ी बुधवार 22 सितंबर को)</span></div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-87490596284167726742021-09-15T05:42:00.004-07:002021-09-18T05:23:31.027-07:00कुछ यादें कुछ बातें - 13<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><i>फेसबुक पर 'कुछ यादें-कुछ बातें' स्मरण-श्रृंखला की आगे की कड़ियों की शुरुआत आज से हफ्ते में दो बार। इस सीरीज के प्रारंभ में परिजनों की यादों के अलावा उन संपादकों के संंबंध में अपने अनुभवों को साझा किया था जिनके मातहत मैंने विभिन्न अखबारों में काम किया। इसकी एक दर्जन कड़ियां थीं जो चंद माह पूर्व फेसबुक पर पोस्ट हुई। श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए पत्रकारिता के इस सफरनामे में अब उन साथियों का जिक्र है जो मेरे सहकर्मी रहे। फिलहाल इनमें से कुछ के बारे में कुछ बातें , खूब मीठी किंतु हल्की कड़वी भी।</i></span></p><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="d0pki-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="d0pki-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span style="font-family: inherit;"><i>लेकिन प्रारंभ पिताजी के छोटे भाई व मेरे चाचा, मराठी के प्रख्यात कवि आलोचक शरच्चन्द्र माधव मुक्तिबोध जिनका यह जन्म शताब्दी वर्ष है तथा बड़े भाई रमेश मुक्तिबोध से। इनके बाद क्रमशः कुछ अपने बारे में, पत्रकार मित्रों व साथियों के बारे में। </i></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="dnepg-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="dnepg-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="dnepg-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="f9u4b-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="f9u4b-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="f9u4b-0-0" style="font-family: inherit;">--------------------------------------------------------------</span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="2nn-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="2nn-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><br /></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="7svu3-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="7svu3-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span style="background-color: var(--text-highlight); font-family: inherit;"><b>मेरे काका, बबन काका</b></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="b64eg-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="b64eg-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="b64eg-0-0" style="font-family: inherit;">_______________________</span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="23lnl-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="23lnl-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="23lnl-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="5pb9h-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="5pb9h-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="5pb9h-0-0" style="font-family: inherit;"><i>- दिवाकर मुक्तिबोध </i></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="3dmfb-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="3dmfb-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="3dmfb-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="4gqig-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="4gqig-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="4gqig-0-0" style="font-family: inherit;"><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEisNLSRw4rc6w9utAL8bb6K3iPBmOJfR6vGgNpzCvxRan8LOXUSA5pcXixpajxpaXfm6iMhdsX5ufh5PJBnvSwR-0UG79N88xjit8ZlSlTDF0aWgR5nq5bRh-nztHvpTCnN0fMHZA0-8gJu/s1280/6a7c30d6-a89d-4f2a-86b1-f0fd27ec9342.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="927" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEisNLSRw4rc6w9utAL8bb6K3iPBmOJfR6vGgNpzCvxRan8LOXUSA5pcXixpajxpaXfm6iMhdsX5ufh5PJBnvSwR-0UG79N88xjit8ZlSlTDF0aWgR5nq5bRh-nztHvpTCnN0fMHZA0-8gJu/s320/6a7c30d6-a89d-4f2a-86b1-f0fd27ec9342.jpg" width="232" /></a></div>बबन काका को गुज़रे 37 वर्ष हो गए। जब कभी उनकी याद आती है तो एक दृश्य आँखों के सामने जीवंत हो उठता है। वे मुझसे कहते नज़र आते हैं-ज़रा, तुम्हारी टिकिट तो देना। मैं चुपचाप जेब से टिकिट निकालकर उन्हें देता और वे अपने बेटे व मुझसे छोटे प्रदीप को रेलवे की वह टिकिट देकर कहते- दिवाकर की आज की यह टिकिट कैंसल कर दो और दो दिन बाद की नई ले आओ। मेरा विरोध निरर्थक रहता क्योंकि टिकिट हाथ से निकल चुकी रहती थी। मैं कसमसाकर रह जाता।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="3oh24-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="3oh24-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="3oh24-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="be7r9-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="be7r9-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="be7r9-0-0" style="font-family: inherit;"> यह थे शरच्चंद्र माधव मुक्तिबोध। पिताजी के छोटे भाई। नागपुर निवासी। मराठी के प्रसिद्ध कवि, आलोचक व उपन्यासकार। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत। जिस दृश्य की मैंने बात की, उल्लेख किया वह कोई नई घटना नहीं थी। अक्सर ऐसा होता ही रहता था। वे यात्राओं के मामले में उत्साही नहीं थे। इसकी एक बडी वजह दमा था जिसने अंत तक उनका पीछा नहीं छोड़ा। इसलिए वे इस कोशिश में रहते कि यात्रा न करनी पड़े। परिजनों के प्रति घनघोर आत्मीयता के सबब उनकी इच्छा रहती थी कि लोग उनके यहाँ आते रहे और पूरा घर खिलखिलाता रहे। यह उनका अटूट स्नेह ही था लेकिन दिक़्क़त यह थी कि दूसरे शहरों से परिवार के जो भी सदस्य उनसे मिलने, उनके घर आते, वे प्राय: अपनी मर्ज़ी से तयशुदा तिथि पर लौट नहीं सकते थे। उनके पास वापसी की टिकिट हो चाहे न हो। वे कोशिश करते थे कि लोग विशेषकर बच्चे , अधिक से अधिक समय तक घर में रूकें। उनके साथ समय बिताएँ। लोगों का साथ उन्हें अच्छा लगता था। अक्सर ऐसे ' हादसे ' छोटों के साथ पेश आते थे। आम तौर किसी की भी वापसी को दो-तीन दिन तक टालने में वे कामयाब हो जाते। यह अलग बात है कि जिन मेम्बरान की यात्राएँ टलती थीं वे कई बार मन मनमसोसकर रह जाते थे। उन्हें उनकी बात रखनी पडती थी। क्यों कि वे बडे थे, चाचा थे, भतीजों की क्या औक़ात कि उनका कहना टाले ? ना-नुकूर की गुंजाइश ही कहाँ रहती थी। मैं भी उनके इस स्नेहिल स्वभाव से परिचित था लेकिन जब वापसी टलती थी तो किंचित अखरता था हालाँकि वे कालेज की छुट्टियों के दिन हुआ करते थे अत: वक्त की कोई कमी नहीं थी। लेकिन घर लौटना, घर लौटना ही होता है। बेचैनी होती है। वह तब मिटती है जब आप अपने घर, अपने शहर लौट आते हैं। अत: टिकिट रद्द किए जाने पर कुछ समय के लिए मन उदास हो जाता था। बबन काका इसे खूब समझते थे लिहाजा हमारा मन बहलाने के लिए तरह तरह के प्रयत्न करते थे और उनके इस प्रयत्न में लंबी बातचीत अनिवार्य रूप से शामिल रहती थी।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="8rjtf-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="8rjtf-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="8rjtf-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="13vrm-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="13vrm-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="13vrm-0-0" style="font-family: inherit;"> लेकिन बातचीत भी कैसी? जो मेरे पल्ले कभी नहीं पड़ी।दरअसल मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं पर वे धारा प्रवाह बोला करते और बीच-बीच में रूककर पूछा करते कि समझ में आ रहा है कि नहीं। यदि ना में गर्दन हिलाई तो वे ही बातें पुन: सुननी पडती इसलिए मेरी हाँ ही हाँ रहती थी। वे खुश होकर बोलना जारी रखते। जितने दिन मैं उनके यहाँ रहता, रोज घंटे-दो घंटे की क्लास लगती ही थी। इसके दो कारण मुझे समझ में आए। पहला- वे मेरे गंभीर स्वभाव की वजह से मानते थे कि मैं उनकी बातें ध्यानपूर्वक सुनूँगा।और कुछ ग्रहण करूँगा। दूसरा- मराठी साहित्यकारों की बिरादरी में उनका मेलज़ोल कुछ कम था, इसलिए घर में बैठकें कम होती होंगी जबकि वे लंबी-लंबी बहसों के लिए तैयार रहते थे। कालेज में प्रोफ़ेसर थे , वह भी मराठी भाषा के, इसलिए निरंतर 40-50 मिनिट तक क्लास में अलग -अलग पीरियड में व्याख्यान देना रोज की बात थी। मुझे आश्चर्य होता था तेज़ दमे के बावजूद इतनी देर तक बोलने की ताकत उनमें कहाँ से आती है। बरसों से उन्हें दमे की शिकायत थी। जेब में दवा इनहेल करने वाला पम्प हमेशा पड़ा रहता था जिसे हर पाँच-दस मिनट के अंतराल में उन्हें लेना पड़ता था लेकिन दमे की वजह से उन्होंने अपना कार्य नहीं रोका। आराम नहीं किया। शंकर नगर के घर में मैंने कई बार देखा, वे कालेज जाने निकले, उनकी साँस धौंकनी की तरह चल रही है और वे उस ज़माने की छोटी दुपहिया वाहन को किक मार मारकर स्टार्ट कर रहे है। यह ग़ज़ब का आत्मबल था। मैं जानता था एस्थमा कितना भयानक होता है। बचपन से लेकर कालेज के दिनों तक मैं खुद इसका शिकार रहा। बहुत तकलीफ़देह बीमारी है यह। विशेषकर उम्रदराजी में। पर बबन काका ने इसका जिस तरह सामना किया , वह किसी के लिए भी आसान नहीं हो सकता था।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="dekcn-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="dekcn-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="dekcn-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="5cf38-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="5cf38-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="5cf38-0-0" style="font-family: inherit;"> पचास के दशक में हम नागपुर में थे, नई शुक्रवारी व बाद में गणेशपेठ मोहल्ले में। बबन काका भी नागपुर में थे। नागपुर महाविद्यालय( मारिस कालेज ) में प्रोफ़ेसर। पूर्व में वे सपरिवार राम मंदिर गली वाले मकान में रहे व फिर शंकर नगर में। राम मंदिर वाला मकान नई शुक्रवार से नज़दीक था अत: उनके यहाँ आए दिन आना-जाना लगा ही रहता था। जब वे शंकर नगर चले गए तो यह सिलसिला कुछ कम हुआ। 1956 के बाद और भी कम क्यों कि हम नागपुर छोड़कर राजनांदगाव आ गए थे। पिताजी को दिग्विजय कालेज में हिंदी के लेक्चरर के रूप में नियुक्ति मिल गई थी। किलो मीटर की दृष्टि से नागपुर की दूरी बढ़ गई थी पर गर्मियों की छुट्टियों में काका व उनका परिवार राजनांदगाव पहुँच जाता। वे कुछ रोज ठहरकर लौट जाते जबकि उनके बेटे व हमारे चचरे भाई जो सगे से भी बढ़कर हैं, रूके रहते। राजीव मेरे हमउम्र हैं। </span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="f62q-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="f62q-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="f62q-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="7o94c-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="7o94c-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="7o94c-0-0" style="font-family: inherit;"> पिताजी चार भाई थे-गजानन, शरच्चंद्र ,वसंत व चंद्रकांत। पिताजी को हम बाबू साहेब कहते थे और शरच्चंद्र जी बबन काका। ये नाम दादा-दादी के दिए हुए थे। चूँकि दोनों भाई बडी अवधि तक नागपुर में रहे अत: परिवारों के बीच निकटता अधिक रही और वह आज भी है। पर अच्छी बात यह थी कि दादा-दादी चूँकि अपने चारों बेटों के यहाँ, कभी नागपुर, कभी इंदौर, कभी उज्जैन, कभी जबलपुर तो कभी राजनांदगाँव यानी जिस शहर में जो बेटे रहे, वहाँ वे आते-जाते रहते थे अत: उनसे मिलने सभी का एक -दूसरे के यहां जाना होता ही था। कह सकते हैं कि परिवार संयुक्त नहीं था पर संयुक्त से कम भी नहीं था। रिश्तों की यह डोरी आज भी मज़बूती के साथ बंधी हुई है जबकि हमारी पीढ़ी बुढ़ा गई है , दूसरी प्रौढ़ता की ओर बढ रही है। और तीसरी अवतरित हो चुकी है। </span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="i0sg-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="i0sg-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="i0sg-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="336ne-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="336ne-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="336ne-0-0" style="font-family: inherit;"> बबन काका बहुत सीधे-सरल , हँसमुख और बातूनी थे। उनके चार कविता संग्रह व तीन उपन्यास है। इनमें क्षिप्रा बहुत प्रसिद्ध है किंतु उन्हें वर्ष 1979 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार उनकी आलोचनात्मक कृति ' सृष्टि, सौंदर्य व साहित्य मूल्य ' को मिला। उनके साहित्य पर बात करना मेरे बस में नहीं है। पहली बात तो यह है कि मैं पत्रकारिता का छात्र हूँ और हिंदी साहित्य का अच्छा पाठक। दूसरी महत्वपूर्ण बात है मराठी में लिखने व पढ़ने में मुझे भारी दिक़्क़त है। घर में मराठी बोलते ज़रूर हैं पर लिखना-पढ़ना दुष्कर। बहुत मुश्किल से उपन्यास क्षिप्रा को पढ़ पाया। मुद्दे की बात यह है कि मैं उनके साहित्य से बहुत दूर हूँ। इसलिए जब बबन काका मराठी साहित्य की विभिन्न धाराओं को समझाने का प्रयत्न करते तो वह भैंस के आगे बीन बजाने जैसा रहता था। अलबत्ता जब पिताजी व बबन काका मिलते थे तो बातचीत में घंटों निकल जाते। नागपुर में पचास के उस दशक में मैं बचपन के गलियारे में चहल-कदमी कर रहा था लिहाज़ा उनकी बातचीत से मुझे कोई सरोकार नहीं था। पर होश सम्हालने के बाद यह सहज अनुमानित था कि चूँकि दोनों कवि, लेखक व आलोचक थे अत: दोनों के मध्य पारिवारिक चर्चा कम साहित्यिक बहस ज्यादा हुआ करती होंगी। काका प्रख्यात साहित्यकार पु. ल. देशपांडे से काफी प्रभावित थे। उन्हें महान व अपना प्रिय कवि कवि मानते थे। मैं ऐसा इसलिए कह सकता हूँ क्योंकि मुझसे बातचीत के दौरान अक्सर वे उनकी कविताओं का ज़िक्र किया करते थे।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="6066v-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="6066v-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="6066v-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="5ntv6-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="5ntv6-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="5ntv6-0-0" style="font-family: inherit;"> बबन काका से अंतिम मुलाक़ात कब हुई, याद नहीं। 2 नवंबर 1984 का उनका निधन हुआ। यह वह समय था जब देश तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या की वजह से उपजे आक्रोश को झेल रहा था। चारों तरफ हिंसा , आगज़नी व कर्फ़्यू का साया था लिहाजा नागपुर जाना नहीं हो सका। इसलिए जब अंतिम मुलाक़ात याद करने की कोशिश करता हूँ तो वे तमाम दिन याद आ जाते हैं जो बचपन से लेकर युवावस्था तक टुकड़ों-टुकड़ों में उनके साथ गुज़रे थे, उनके साथ बातचीत करते हुए। लेकिन अंतिम मुलाक़ात का दिन या तिथि याद नहीं आती। पर इससे क्या ? उनका हँसता-मुस्कुराता चेहरा आँखों में , मन की आँखों में हमेशा झिलमिलाता जो रहता है। जब कभी पलके बंद करो तो औरों के साथ वे भी हाज़िर। उनकी स्मृतियाँ हाज़िर।</span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="bppbt-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="bppbt-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="bppbt-0-0" style="font-family: inherit;">-----/-------/---</span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="9oneq-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="9oneq-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="9oneq-0-0" style="font-family: inherit;"><i><br data-text="true" /></i></span></div></div><div data-block="true" data-editor="avh8r" data-offset-key="3s6bp-0-0" style="background-color: white;"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="3s6bp-0-0" style="direction: ltr; position: relative;"><span data-offset-key="3s6bp-0-0"><i><span style="color: #050505; font-family: inherit;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">(</span></span><span style="color: #050505; font-family: Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">अगली </span></span><span style="color: #050505; font-family: inherit;"><span style="font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">कड़ी शनिवार 18 सितंबर को)</span></span></i></span></div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-34597188762215235842021-08-29T04:54:00.005-07:002021-08-29T04:54:49.755-07:00 म्यान में नहीं तलवारें<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><b></b></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmymy3PLKxaauepW-gklyjJVpsuFx_Fx6qSzMVzKBdoUuT7FCN8I5iQ3mD2Fr7JqCz7-uuFgb6JUoTwsYXM0K32Z3EMj0gB8XopTX3Tn6cAiewOKal7OyluAMGOhz5-V8tfJKeQQzE8aVL/s557/fggb.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="554" data-original-width="557" height="318" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmymy3PLKxaauepW-gklyjJVpsuFx_Fx6qSzMVzKBdoUuT7FCN8I5iQ3mD2Fr7JqCz7-uuFgb6JUoTwsYXM0K32Z3EMj0gB8XopTX3Tn6cAiewOKal7OyluAMGOhz5-V8tfJKeQQzE8aVL/s320/fggb.jpg" width="320" /></a></b></div><b><br />- दिवाकर मुक्तिबोध </b> <p></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">इन दिनों छत्तीसगढ़ कांग्रेस की राजनीति में जो कुछ घट रहा है वह प्रदेश में पार्टी के भविष्य की दृष्टि से ठीक नहीं हैं। उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि आंतरिक झगडे व घात-प्रतिघात की वजह से पार्टी ने अपना बहुत नुकसान किया तथा वह पन्द्रह वर्षों तक सत्ता से बाहर रही। अगर 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अपने ही कर्मों के भार से भरभराकर गिरी न होती तो कांग्रेस को ऐसा प्रचंड बहुमत न मिल पाता जो आज उसके पास है। इसलिए उसे बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि सत्ता के आंतरिक संघर्ष को टाला जाए और महत्वाकांक्षाओं व अहम को परे रखते हुए एकजुट होकर सुप्रबंधन के जरिए बचे हुए समय में ऐसे काम किए जाए ताकि लोगों को भरोसा हो कि उन्होंने भारी बहुमत से कांग्रेस को सत्ता सौंपकर कोई गलती नहीं की है। यह उनके प्रति पार्टी की जवाबदेही है। लेकिन पिछले चंद महिनों से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व उनके कैबिनेट मंत्री टीएस सिंहदेव के बीच जो रस्साकशी चली हुई है उससे यकीनन अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। ताजा घटनाक्रम से यद्यपि अब यह स्पष्ट हो गया है कि भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने रहेंगे और प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन नहीं होगा किंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जब तक टीएस सिंहदेव को संतुष्ट नहीं किया जाएगा, अंगारे धधकते ही रहेंगे। अभी तो विशेष नहीं पर चुनाव के कुछ पूर्व पार्टी को इसकी बेतहाशा तपन महसूस होगी।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"> भूपेश बघेल के नेतृत्व में जो सरकार ढाई साल से अच्छी तरह से चल रही थी और जिसने अपने कामकाज से, अपनी लोककल्याणकारी योजनाओं से ग्रामीण छत्तीसगढ़ में विश्वास का एक वातावरण निर्मित किया, उसे पार्टी की आंतरिक राजनीति के कथित फार्मूले में उलझाना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। एक तो हाईकमान से मुख्यमंत्री चयन के समय पहली गलती यह हुई कि उसे उस समय भूपेश बघेल व टीएस सिंहदेव के बीच दो टूक फैसला करना चाहिए था जो नहीं हुआ। उसने दोनों दावेदारों को साधने की कोशिश की। वैसे बघेल मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे क्योंकि प्रदेशाध्यक्ष के रूप में चुनाव उनके नेतृत्व में लडा गया और भारी बहुमत से जीता गया था। अतः किसी और नाम पर हाईकमान को विचार करने की जरूरत नहीं थी। फिर भी यदि संतुष्ट करने की गरज ही थी तो पहले ढाई वर्ष के लिए टीएस सिंहदेव को अवसर दिया जाना चाहिए था। भूपेश बघेल प्रदेशाध्यक्ष बने रहते व टीएस का कार्यकाल खत्म होने के बाद वे मुख्यमंत्री बनते। लेकिन बघेल के नाम पर पहली मोहर लग गई। लिहाजा उन्हें राजनीतिक रूप से खुद को ताकतवर बनाने व सिंहदेव को कमजोर करने का मौका मिल गया और इसका उन्होंने भरपूर फायदा भी उठाया। अब उनके पास संख्या बल है और यही उनकी राजनीतिक ताकत व कूटनीतिक सफलता भी है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"> बहरहाल पिछली घटनाओं के बाद उनके व टीएस सिंहदेव के बीच कटुता के बीज पड गए जो अब पल्लवित हैं व बहुत खुले तौर पर दिखाई दे रहे हैं। माना जाना चाहिए इसकी शुरुआत 17 दिसंबर 2018 को मुख्यमंत्री के शपथग्रहण के दिन से ही हो गई थी जब कथित फार्मूले की चर्चा होने लगी। हालांकि यह खबर उडने के बाद प्रदेश प्रभारी पी एल पुनिया बार बार राग अलापते रहे कि ऐसी कोई बात नहीं है। ऐसा कोई फार्मूला शीर्ष नेतृत्व ने नहीं दिया है। फिर भी यह बात चलती रही। टीएस भी इस मामले में मीडिया को गोलमोल जवाब देते रहे पर इसके बावजूद उनके संकेत समझ में आ रहे थे कि ऐसी कोई खिचडी पकी जरूर है। अगर ऐसा न होता तो 26-27अगस्त को नई दिल्ली में सरकार के मंत्रियों व बहुसंख्य कांग्रेस विधायकों को बुलाकर भूपेश बघेल के समर्थन में शक्ति प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं थी। इसी तरह न तो टीएस सिंहदेव को वायदा निभाने के लिए दबाव बनाने और न ही भूपेश बघेल को हाईकमान के समक्ष प्रदेश की राजनीतिक परिस्थितियों व भविष्य की संभावनाओं पर अपना पक्ष मजबूती के साथ रखने की जरूरत थी। कैबिनेट मंत्री सिंहदेव सत्ता हस्तांतरण के मुद्दे को अंतिम पायदान तक ले गए तो इसका अर्थ है 2018 में कांग्रेस के चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री कौन बनेगा के सवाल पर टीएस को जरूर कोई आश्वासन दिया गया होगा वरना एक छोटे प्रदेश के मंत्री को बातचीत के लिए दिल्ली आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं थी।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"> 28 अगस्त की रात दिल्ली से रायपुर लौटने के बाद टीएस सिंहदेव ने मीडिया से बातचीत के दौरान जो कहा , वह भी गौर करने लायक है। उससे यह ध्वनि निकलती है कि वे अभी भी आशान्वित हैं। उन्होंने कहा कांग्रेस हाईकमान ने फैसला कर लिया लेकिन उसे लागू करने में कुछ समय लग सकता है। उनके इस कथन से क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि देर सबेर सरकार की कमान उनके हाथ में आएगी या फिर केन्द्रीय नेतृत्व ने उनके लिए संगठन में कोई नई भूमिका तलाश ली है और इससे वे संतुष्ट हैं ? अभी इस बारे में दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता अलबत्ता स्थिति शायद चंद दिनों में स्पष्ट हो सकती है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"> वैसे अधिक संभावना टीएस के लिए नई भूमिका की है। क्योंकि हाईकमान के सामने यह अच्छी तरह स्पष्ट हो गया है कि भूपेश बघेल को करीब करीब सभी विधायकों का समर्थन है जिसकी झलक 27 जुलाई को रायपुर सीएम हाउस में विधायक बृहस्पत सिंह प्रकरण पर चर्चा के लिए आयोजित बैठक में व 27 अगस्त को पार्टी के केंद्रीय कार्यालय दिल्ली में मिल चुकी है। बहुमत का समर्थन तो खैर अपनी जगह महत्वपूर्ण तो है ही, पर कांग्रेस के लिए अधिक महत्वपूर्ण है अगला विधानसभा चुनाव जो नवंबर-दिसंबर 2023 में होगा और यदि वह बघेल के नेतृत्व में लडा जाएगा तो पुनः जीतने की शतप्रतिशत संभावना रहेगी। इसलिए हाई कमान टीएस से किए गए कथित कमिटमेंट को पूरा करने की स्थिति में नहीं दिख रहा है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"> बहरहाल कोई फार्मूला था या नहीं इस पर सिर खपाने के बजाए ज्यादा महत्वपूर्ण है जमीनी हकीकत से वाकिफ होना। भूपेश बघेल ने बीते ढाई वर्षों में अपने व्यवहार से, अपने कामकाज से व अपनी सदाशयता से ऐसी छवि गढ ली है जो लोगों विशेषकर ग्रामीण मतदाताओं को बहुत भाती है। सत्ता प्रमुख रहते हुए आम आदमी के मध्य आम आदमी बने रहने का यह व्यक्तिगत गुण तो हुआ पर सरकार के स्तर पर जो वे काम कर रहे हैं, उसकी वजह से उनकी व पार्टी की जडें मजबूत हो रही है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कृषि, शिक्षा ,स्वास्थ्य व रोजगार से जोडने व उसे सुदृढ़ करने की दर्जनों योजनाएं तो हैं ही किंतु उनमें से कुछ तो अभिनव है जो छत्तीसगढ़ माडल के रूप में चर्चित है। प्रदेश की राजनीति में यह तथ्य मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को सर्वाधिक अंक इस वजह से भी देता है क्योंकि बघेल के रहते भाजपा को अपनी स्थिति सुधारने का कोई अवसर नहीं मिल रहा है। उसके लिए टीएस सिंहदेव ज्यादा मुफीद हैं जिनकी स्वभावगत सौम्यता, शालीनता व सह्दयता की चर्चा होती है पर राजनीति में प्रतिपक्ष से मुकाबला करने तथा नौकरशाही को काबू में रखने के लिए अन्य विशेषताओं की भी दरकार रहती है। इस दृष्टि से भूपेश बघेल खांचे में एकदम फिट हैं।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"> प्रदेश की राजनीति में अब क्या घटित होगा, यह संभवतः राहुल गांधी के अगले चंद दिनों में प्रस्तावित दौरे से होगा। हाईकमान को कोई न कोई निर्णय लेना होगा। बघेल व सिंहदेव के बीच तलवारें इसी तरह खीचीं हुई रहेंगी तो इसका दुष्परिणाम अलग अलग रूपों में प्रकट होता रहेगा। और जो संगठन के हित में नहीं होगा।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">-------------</div></div>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-17645155154336720032020-12-20T04:56:00.003-08:002020-12-20T04:56:40.580-08:00मुख्यमंत्री बघेल के दो वर्ष<p><b>- <span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">दिवाकर मुक्तिबोध</span></b></p><p><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEganwkRGoabAF0PqInE-XK7ZzFijwNFyQH6M9GI2N3_RJMEDA0a9I_2Bwa5EbkbkGmVxmcMZ4o9mqCyz1AgEFk5gI1UxmhOVQ5vYOv2FddJcIpGIt1r_r8MYsCCuPVJHZcPcJf8VX2PEK9L/s653/20.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="300" data-original-width="653" height="294" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEganwkRGoabAF0PqInE-XK7ZzFijwNFyQH6M9GI2N3_RJMEDA0a9I_2Bwa5EbkbkGmVxmcMZ4o9mqCyz1AgEFk5gI1UxmhOVQ5vYOv2FddJcIpGIt1r_r8MYsCCuPVJHZcPcJf8VX2PEK9L/w640-h294/20.jpg" width="640" /></a></b></div><b><br /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><br /></span></b><p></p><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार को दो वर्ष पूर्ण हो गए। 17 दिसम्बर 2018 को प्रचंड बहुमत के साथ कांग्रेस सत्तारूढ़ हुई तथा प्रदेश एक नयी राह पर चल पडा जो तरह-तरह की चुनौतियों एवं जन अपेक्षाओं से भरा था। नयी सत्ता के मार्ग पर कांटे ही कांटे बिछे हुए थे। सरकार के सामने पहली चुनौती थी चुनावी घोषणा पत्र में जनता से किए गए वायदों को पूर्ण करना। दूसरी चुनौती थी उस नौकरशाही को दुरुस्त करना जिस पर पन्द्रह वर्षों के भाजपा शासन में भगवा रंग पूरी तरह चढा हुआ था। तीसरी चुनौती थी भ्रष्ट कार्यों का परीक्षण, जांच पडताल व भ्रष्ट अफसरों का सार्वजनिकीकरण ताकि जनता उन चेहरों को पहचान सके। नयी सरकार ने इन तीनों मोर्चों पर ताबडतोड कार्रवाई शुरु की। चूंकि किसानों की कर्ज माफी सहित कुछ संकल्पों को दस दिनों के भीतर पूरा करना था, इसलिए इसे प्राथमिकता दी गई। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने खजाना खाली कर दिया था और ऐसी हालत में शासन पर राज्य के 16 लाख 65 हजार किसानों को धान के समर्थन मूल्य अठारह सौ रुपये में करीब सात सौ रूपए प्रति क्विंटल की वृद्धि के साथ भुगतान करने का बडा बोझ था। धान के समर्थन मूल्य में वृद्धि का यही मुद्दा चुनाव में कारगर साबित हुआ था और कांग्रेस को पन्द्रह वर्षों बाद सत्ता नसीब हुई थी। भूपेश बघेल सरकार ने किसानों की कर्ज माफी के साथ सबसे पहले इसी वायदे को पूरा किया व किसानों के बैंक खातों में किस्तों में रकम डालनी शुरू की। उसने तत्परता से काम शुरू किया। सिर्फ शराब बंदी को छोड़कर करीब-करीब सभी मुद्दों पर सरकार ईमानदार रही तथा इन दो वर्षों में उसने जनता से किए गए लगभग सभी वायदे पूरे कर दिए। दूसरी चुनौती थी नौकरशाही से भगवा रंग उतारने की, सो ट्रांसफर व पोस्टिंग के जरिए यह कवायद तत्काल प्रारंभ की गई जो अभी भी जारी है जबकि तीसरी चुनौती लगभग ठंडे बस्ते में चली गई है। सरकार ने बडे जोर-शोर के साथ अनेक निर्माण कार्यों में घपले के आरोपों व अन्य भारी भरकर वित्तीय अनियमितताओं के मामलों में जांच बैठाई व इसमें लिप्त अधिकारियों को बेनकाब किया। प्रारंभिक जांच के आधार पर पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह व उनके दामाद को भी अर्दब में लाया गया था पर समय सरकता गया और मामले नैपथ्य में चले गए। हालांकि फाइलें बंद नहीं हुई हैं और कुछ महत्वपूर्ण मामले अदालतों में हैं।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">सरकार के दो वर्षों का लेखा-जोखा दसियों पन्नों का है। अनेक पन्ने सुनहरे हैं तो कुछ श्याही गिरने से काले पड गए हैं किन्तु पढने में आते हैं। लोग इन्हें पढ भी रहे हैं। दबी जुबान से चर्चा भी करते हैं। फिर भी उन्हें लगता है कि विषम परिस्थितियों के बीच सरकार काम कर रही है और ठीक कर रही है। उनका ख्याल है कि तंत्र बहुत सुधरा नहीं है लेकिन गाडी पटरी पर आ गई है अतः अभी तो सरकार को पासिंग मार्क्स दे देने चाहिए। शेष अगले तीन साल में तय करेंगे कि वह उम्मीदों की कसौटी पर पूर्णतः खरी उतरी कि नहीं, उसे मेरिट के मार्क्स दें कि नहीं। यकीनन आने वाले दिनों में जनता इसकी मार्किंग विशुद्ध रूप से इस आधार पर करेगी कि सरकार के कामकाज से गरीबों, गरीब आदिवासियों, हरिजनों, शिक्षित बेरोजगारों, मजदूरों तथा छोटी जोत के किसानों का कितना भला हुआ है। सरकारी योजनाओं का लाभ सही अर्थों में उन्हें मिल रहा है कि नहीं तथा इनसे जुडे छोटे-छोटे काम बिना रिश्वत दिए हो रहे कि नहीं। हालांकि रिश्वतखोरी से खुद को मुक्त रखना किसी भी व्यवस्था को संभव नहीं है लेकिन यदि सरकार की इच्छाशक्ति हो तो निचले स्तर के भ्रष्टाचार को कम या खत्म किया जा सकता है। सरकारी नौकरी में अंतिम पायदान पर बैठा पटवारी बिना पैसा लिए कोई काम नहीं करता। शासन-प्रशासन से सम्बद्ध दर्जनों ऐसे काम है जो लोगों की जिंदगी से जुडे हुए हैं। पर बिना लेनदेन के कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। कमजोर प्रशासनिक व्यवस्था व भोगे हुए यथार्थ के आधार पर सरकार व पार्टी के बारे में राय ये ही लोग बनाते हैं। इस मुद्दे पर कांग्रेस सरकार के बारे में लोगों की राय अच्छी नहीं बन रही है। प्रायः हर आदमी कहता है कि लूट-खसोट मची हुई है। और सबसे ज्यादा परेशान पार्टी के लोग कर रहे हैं। </span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">लेकिन भूपेश बघेल सरकार के अब तक के कामकाज पर किसी नतीजे पर पहुंचने के पूर्व यह देखना भी जरूरी होगा कि राज्य की परिस्थितियां व चुनौतियां क्या थीं और सरकार ने इसका सामना किस तरह किया। विश्व-व्यापी महामारी कोरोना की बात करें तो इस एक वजह से ही छत्तीसगढ़ सहित सभी राज्य सरकारों को उनके कामकाज का मूल्यांकन करते वक्त कुछ रियायत दी जा सकती है क्योंकि शासन-प्रशासन का पूरा ध्यान, पूरी ताकत, उसकी समूची मशीनरी लोगों की जान की रक्षा में, बीमारी का मुकाबला करने में व माकूल व्यवस्थाएं बनाने में लगी हुई थी। इसलिए शुरू के करीब छै महीनों को मूल्यांकन के दायरे से बाहर किया जा सकता है। यानी यदि कामकाज का हिसाब करना है तो डेढ साल का किया जाना चाहिए। तथापि व्यावहारिक दृष्टि से बात दो साल की ही होगी।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">दो वर्षों में सरकार ने क्या किया ? उत्तर होगा -काफी कुछ। सांस्कृतिक नाद के साथ बघेल ने </span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">किसानों, खेतिहर मजदूरों, वनोपज संग्रहकर्ताओं, शिक्षित बेरोजगारों, सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों के उत्थान पर, जीवन से जुड़ी उनकी जरुरतों पर ध्यान केंद्रित किया। उनके लिए योजनाएं बनीं और एक-एक करके वे कागजों से बाहर आईं। उन पर अमल शुरू हुआ। लेकिन योजनाओं का लाभ जरूरतमंदों को कितना मिल पा रहा है, यह बहस का विषय है। राजनीति से अलग हटकर बात करें तो अनेक मुद्दों पर लोग सरकार से अप्रसन्नता जाहिर करते हैं तो अनेक पीठ भी थपथपाते हैं। यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। असंतोष की सुगबुगाहट गांवों की अपेक्षा शहरों में अधिक सुनाई देती है पर इस एक बात पर व्यापक सहमति है कि बघेल सरकार नयी दृष्टि वाली सरकार है जो सबसे ज्यादा चिंता सर्वहारा वर्ग की कर रही है। लोग कहते हैं कि योजनाएं बहुत अच्छी हैं अतः सरकार को वक्त देना चाहिए। सरकार के एजेंडे में प्राथमिकता नये छोटे उद्योगों की स्थापना के जरिए रोजगार की सुनिश्चितता, गांवों के बहुमुखी विकास एवं उसकी अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की है। प्रमुखतः खेत-खलिहान ,कृषि, वनसंपदा व ग्रामीण रोजगार के ईर्दगिर्द बुनी गई इन योजनाओं की मंथर गति व निगरानी के अभाव पर जरूर सवाल खडे किए जा सकते हैं। चाहे वह नरवा, गरुआ, घुरवा, बारी योजना हो या पौनी पसारी बाजार योजना अथवा गायों के लिए गौठान। फिलहाल सरकारी कागजों पर सभी योजनाएं ज्यादा आकर्षक, ज्यादा प्रभावशाली नजर आती हैं। इनमें कुछ तो अनूठी हैं। मसलन छत्तीसगढ़ गोधन न्याय योजना। गाय का गोबर खरीदने वाला छत्तीसगढ़ देश का पहला राज्य है।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">चूंकि सरकार की प्राथमिकता ग्रामीण विकास है अतः शहरों में आधारभूत संरचनाओं की चंद नयी योजनाओं को छोड़ दें तो पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के उन्हीं कामों को पूरा किया जा रहा है जो अधूरे पडे थे। दरअसल विकास कार्यों में सबसे बड़ी अडचन पैसों की है। राज्य की वित्तीय स्थिति खराब है और केन्द्र से भी उसे अपेक्षित मदद नहीं मिल रही है। भाजपा सरकार ने पन्द्रह वर्षों के अपने शासनकाल में शहरों के विकास पर ज्यादा ध्यान दिया था। उसने राजधानी की भी शक्ल पूरी तरह बदल दी। इसलिए राजधानी सहित अन्य शहरों में आधारभूत संरचनाओं के विकास की गति भले ही धीमी हो पर लोगों के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है जिस पर असंतोष व्यक्त किया जाए। कांग्रेस सरकार के लिए यह राहत की बात है।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण है भूपेश बघेल की राजनीति, उसकी व्यूह रचना और स्वयं का परिपक्व, चतुर व दृष्टि सम्पन्न राजनेता के रूप में राष्ट्रीय फलक पर उभरना। कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में भूपेश बघेल अब एक महत्वपूर्ण नेता हैं। प्रादेशिक राजनीति में उन्होंने अपने प्रमुख विपक्ष भारतीय जनता पार्टी का जो हाल कर रखा है, उससे उबरने में उसे पता नहीं कितना वक्त लगेगा। बघेल ने उसे चार दशाब्दी पूर्व की स्थिति में पहुंचा दिया है जब छत्तीसगढ़ से भाजपा के इने गिने लोग विधानसभा में पहुंच पाते थे। कांग्रेस की उस दौर में जैसी मजबूत स्थिति थी , वैसी अब यहां है। विधानसभा के कुल 90 में से 70 कांग्रेस विधायकों के इस नेता को कोई आंतरिक चुनौती नहीं हैं। वरिष्ठ मंत्री टी एस सिंहदेव नेतृत्व से असंतुष्ट हो सकते हैं पर कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की जो हालत है, उसे देखते हुए केन्द्रीय नेतृत्व छत्तीसगढ़ की मजबूत सरकार को किसी भी प्रकार का झटका देना पसंद नहीं करेगा। मुखिया को बदलने व नया नेतृत्व देने की उम्मीद करना फिजूल है। भले ही इसे लेकर अफवाहों का बाजार कितना ही गर्म क्यों न हो। यकीनन भूपेश बघेल पूरे कार्यकाल के मुख्यमंत्री हैं।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">बघेल की राजनीति का एक और पहलू है छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान को आगे रखते हुए अपनी ठेठ छत्तीसगढिय़ा लोक नायक की छवि गढना। इसके लिए लोक-संस्कृति व लोकोत्सव को उन्होंने आधार बनाया है। राज्य की सांस्कृतिक विरासत के उन्नयन व संरक्षण का लक्ष तो खैर महत्वपूर्ण है ही, अधिक महत्वपूर्ण है तीज-त्यौहारों पर सरकारी आयोजन व उसमें सहभागिता जो भूपेश बघेल कर रहे हैं। इससे उनकी एक अलग छवि तो बनती है जो जन-प्रियता व वोटों की राजनीति की दृष्टि से भले ही फायदेमंद हो पर बडा खतरा इसके अतिरेक से छत्तीसगढिय़ा व गैर छत्तीसगढिया की भावना को बल मिलने की आशंका है जिसे उभारने की कोशिश पहले भी होती रही है हालांकि राज्य में साम्प्रदायिक सदभाव व एकता का वातावरण बेजोड़ है,अक्षुण्ण है। राजनीति में अपनी छवि बनाने, लोकप्रियता हासिल करने या जन-जन का नेता बनने लोक संस्कृति एक अच्छा माध्यम जरूर हो सकती है पर अंततः छवि कार्यों से ही बनती क्योंकि संस्कृति रोटी नहीं देती। गरीबों की रोटी की समस्या जो हल करेगा वहीं आखिर तक राज करेगा , इस वेद वाक्य को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल विस्मृत नहीं कर सकते। दो साल बीत गए हैं, अब अगले तीन साल उनकी सत्ता के लिए महत्वपूर्ण रहेंगे।</span>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-14246036046921734652020-12-13T23:34:00.001-08:002020-12-13T23:34:25.483-08:00बड़े भाई साहब<p><br /></p><p>- दिवाकर मुक्तिबोध</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjG_v253lycV_5-QszdhKthOlrncdYYgyXrFT5JxcfcIjiFc0KB65xUUf-l2YeJME3Dna_2LRwl0DnFnhJ1NH0V6v5039ack6eD5Nvbwnc5adxJjMbhKGjbAo_1Pb8jM8AVK3PyL7A4XlLT/s400/H-EACB2R_400x400.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="400" data-original-width="400" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjG_v253lycV_5-QszdhKthOlrncdYYgyXrFT5JxcfcIjiFc0KB65xUUf-l2YeJME3Dna_2LRwl0DnFnhJ1NH0V6v5039ack6eD5Nvbwnc5adxJjMbhKGjbAo_1Pb8jM8AVK3PyL7A4XlLT/s320/H-EACB2R_400x400.jpg" /></a></div><br /><p><br /></p><p>तीन दिसंबर को देशबन्धु परिसर में दोपहर के वक्त ललित सुरजन जी का अंतिम दर्शन मेरे लिए किसी देव-दर्शन से कम नहीं था। काँच से घिरे ताबूत में उनकी मृत देह रखी हुई थी। उन्हें गुजरे करीब बीस घंटे हो चुके थे लेकिन शांत चेहरे पर वैसी ही ताजगी थी जिसे मैं बरसों से देखता आ रहा था। कुछ पल मैं उनके ताबूत के पास खडा रहा। एकटक उन्हें देखते। मन में एक लहर सी उठी - शायद बोल पडेंगे - दिवाकर , कैसे हो। पर नहीं। वे चले गए थे। एकाएक। अपने पीछे एक विराट शून्य छोड़कर।</p><p><br /></p><p>मुझे इस बात का सख्त अफसोस है कि मैं उनसे लम्बे समय से नहीं मिल पाया। कोरोना ने दूरी बढा रखी थी और जब वाट्सएप पर बीमारी की खबर मिली तो वे विशेष विमान से दिल्ली रवाना होने की तैयारी में थे। फिर मैसेज आया कि वे अस्थि रोग से पीड़ित हैं जिसके इलाज में काफी समय लगेगा। अतः मित्रों से दूर रहेंगे पर फोन पर संदेश व जरूरी होने पर बातचीत होती रहेगी। वे अस्पताल में भरती हुए। मैंने चिंता व्यक्त की, जल्दी स्वस्थ होने शुभकामनाएं दीं। प्रत्युत्तर में उन्होंने आभार जताया। इसके बाद कोई संवाद नहीं हो सका। दरअसल मैं उनका दोस्त नहीं था ,अनुज था। साथ होने पर औरों को वे मेरा परिचय वे इसी तरह देते थे। यह मेरे लिए बहुत सम्मान की बात थी। आखिरकार दोस्त दोस्त होता है, अनुज अनुज। अनुज था पर मेरी उनसे बातचीत कम ही होती थी। लेकिन प्रत्येक प्रसंग पर वे घर जरूर आते थे। वे यह भी कहते थे, जब भी बुलाओगे, आऊँगा।</p><p><br /></p><p>मुझे इस बात का भी अफसोस है कि दीवाली मनाने वे रायपुर आए पर उनसे मुलाकात नहीं हो सकी। जिन दोस्तों को इसकी सूचना मिली ,उन्होंने जरूरी नहीं समझा कि इसे साझा किया जाए। यह तो जाहिर है कि ललित जी ने अपने रायपुर आगमन की खबर नहीं लगने दी। शायद एकांतवास चाहते थे क्योंकि उन्हें चाहनेवाले मित्रो, हितैषियों व शिष्यों की संख्या इतनी विशाल थी कि घर में मिलने-जुलने वालों का तांता लग जाता। इनमें मैं भी शामिल रहता। सूचना नहीं थी इसलिए मुलाकात का अवसर हाथ से निकल गया। 29 नवंबर को वे चिकित्सकीय परीक्षण के लिए नयी दिल्ली के अस्पताल में थे। यह सामान्य प्रक्रिया थी लेकिन एकाएक मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की उनके स्वास्थ्य संबंधी चिंता व शुभकामना संदेश से आशंकाएं घनीभूत हुई कि स्थिति ठीक नहीं है। फिर ब्रेन हेमरेज व बाद मे मृत्यु की खबर किसी सदमें से कम नहीं थी। मन मे सन्नाटा सा खींच गया। एक अजीब सी नैराश्य की भावना। बाद के चंद घंटे बडे खराब गुजरे। बस ललित जी के साथ बीता देशबन्धु का समय याद आता रहा।</p><p><br /></p><p>ललित जी ने छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को किस तरह समृद्ध किया, यह बताने की जरूरत नहीं। इसके गवाह हैं वे पीढियां, वे पत्रकार जो उनके मार्ग दर्शन मे दीक्षित हुए। चाहे वे देशबन्धु स्कूल से निकले हों या इतर समाचार संस्थानों मे कार्यरत रहें हों। सभी ने उनसे कुछ न कुछ, बहुत कुछ सीखा। वे अपने आप मे पत्रकारिता के विश्वविद्यालय थे। इस विश्वविद्यालय से मैं भी दीक्षित हुआ। वे सभी से स्नेह रखते थे पर मैं उनका स्नेह पात्र इसलिए भी था क्योंकि मैं उस व्यक्ति का बेटा था जिनकी कविताओं पर , जिनके रचनाकर्म पर वे मुग्ध थे। मुझे याद है वह पहली मुलाकात जब मैं बीएससी प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था और वे शायद एम ए फायनल के। बूढापारा स्थित नयी दुनिया ( बाद मे देशबन्धु ) में जब उनसे मेरा परिचय पिताजी के नाम के साथ कराया गया तो वे बेहद खुश हुए। यह हमारा भाग्य है कि हिंदी साहित्य के रचनाकारों से जब कभी मेल-मुलाकात होती है तो वे यह जानकर आनंदित होते है कि हम एक ऐसे व्यक्ति की संतानें हैं जिन्हें युगप्रवर्तक कहा जाता है। ललित जी का भी अभिभूत होना इस दृष्टि से स्वाभाविक था। पचास बरस पूर्व हुई यह संक्षिप्त मुलाकात जल्दी ही प्रगाढ़ आत्मीयता में बदल गई जब मैने1969-70 में देशबन्धु में संपादकीय सहकर्मी के रूप में कदम रखा। अब वे संपादक के साथ ही बडे भाई भी थे। उनसे पारिवारिक रिश्ते कायम हुए। मैं जितने वर्ष भी देशबन्धु में रहा, उनसे कुछ न कुछ नया सीखता रहा। उन्हें हमेशा पढता रहा। उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक समझ इतनी गहरी थी कि समसामयिक घटनाओं पर उनका विश्लेषण बेहद सटीक व तथ्यपरक हुआ करता था। देशबन्धु से अलग होने के बावजूद मैं उनका नियमित पाठक था। बीच-बीच में फोन पर अपनी प्रतिक्रिया देता। वे बोलते कुछ नहीं थे पर उनकी आवाज में प्रसन्नता का पुट बखूबी महसूस होता था। प्रसन्नता मुझे भी होती थी जब वे मेरे लिखे की तारीफ करते हालांकि ऐसे अवसर कम ही आते थे पर मुझे इस बात का संतोष रहता था कि वे भी मेरे पाठक हैं।</p><p><br /></p><p>ललित जी ने खूब लिखा। अपने अखबार में नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के अलावा राजनीतिक टिप्पणियां, देशबन्धु के अब तक के प्रवास पर संस्मरण श्रृंखला। वे अच्छे कवि, लेखक, निबंधकार व यात्रा वृत्तांती भी थे। उन्होंने अपने प्रिय कवि गजानन माधव मुक्तिबोध जी पर भी समीक्षात्मक लेख लिखे। पिछले ही महीने दिल्ली में बीमारी के दौरान उन्होंने फेसबुक पर वह जवाबी पत्र पोस्ट किया जो पिताजी ने सन 1961 में उन्हें लिखा था। उसे उन्होंने अमूल्य धरोहर बताया। अपने अंतिम दिनों में फेसबुक पर उन्हें कविताएं पढते देखना-सुनना इस बात का संकेत था कि वे मानसिक रूप से बहुत मजबूत हैं तथा भयानक बीमारी कैंसर से लडकर स्वस्थ हो रहे हैं लेकिन कविताओं से बेहद नजदीकियों के बावजूद शायद उन्हें इस बात का मलाल था कि हिंदी जगत में उन्हें कवि-लेखक के रूप में वैसे स्वीकार नहीं किया जिसके वे हकदार थे हालांकि प्रखर पत्रकार के रूप में देशभर में उनकी विशिष्ट पहचान थी। पत्रकार तो वे अद्वितीय थे ही, कवि भी उतने ही महत्त्वपूर्ण। हालांकि उनके साहित्यिक पक्ष का वास्तविक मूल्यांकन अभी होना शेष है।</p><p><br /></p><p>विषयांतर के साथ एक अंतिम बात। छत्तीसगढ़ छोटा राज्य है पर प्रतिभाओं का विराट आकाश इस धरती पर मौजूद है, प्रत्येक क्षेत्र में मौजूद है। कला, साहित्य, संस्कृति के मामले में देश-दुनिया में इस राज्य की पहचान है। लेकिन अपनों को अपनाने में, उन्हें सम्मान देने में सत्ता प्रतिष्ठान गरीब है। क्या कारण है कि ललित जी जैसा समर्थ पत्रकार कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति नहीं बन सका जबकि उसकी स्थापना हुए पन्द्रह वर्ष बीत चुके हैं। देश के बहुत बडे कवि व उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल अब तक भारत सरकार के राष्ट्रीय अलंकरण से वंचित क्यों हैं ? विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे अनेक कलावंत हैं जिनकी प्रतिभा को नया आकाश मिलना चाहिए। यहां बात क्षेत्रीयतावाद की नहीं है, यकीनन विद्वत्ता को इसके दायरे में नहीं बांधा जा सकता लेकिन यदि राज्य में प्रतिभाएँ मौजूद हैं तो चयन में प्राथमिकता उन्हें मिलनी चाहिए। यह सरकार का दायित्व है। इसके लिए बेहतर समझ व इच्छा-शक्ति होनी चाहिए , सत्ता भले ही किसी भी राजनीतिक पार्टी की हो। पन्द्रह वर्षों तक राज्य में भाजपा का शासन रहा, पत्रकारिता विश्वविद्यालय भी उसीने शुरू किया। कितना अच्छा होता यदि इस विश्वविद्यालय के पहले कुलपति का सम्मान यहां के किसी वरिष्ठ व नामचीन पत्रकार को मिलता। वे ललित सुरजन हो सकते थे या गोविंद लाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र ,राजनारायण मिश्र या बसंत कुमार तिवारी। बहुत से नाम हैं जिन्होंने जीवन संघर्ष में तपकर पत्रकारिता को नया आयाम दिया है। नई उचाइयां दी हैं। पर यह नहीं हो सका। ललित जी केवल विश्वविद्यालयों की कार्य परिषद के सदस्य बनकर रह गये। चूंकि अब राज्य में कांग्रेस की सरकार है अतः उम्मीद की जा सकती है कि इन क्षेत्रों में बहुत बेहतर काम होगा तथा योग्य व्यक्ति ही सम्मानित होंगे।</p><p><br /></p><p>(ललित जी पर बस इतना ही। दरअसल इसी वर्ष 25 जुलाई को वरिष्ठ पत्रकारों पर केंद्रित स्मरण श्रृंखला 'कुछ यादें कुछ बातें ' में उन पर विस्तृत लेख प्रकाशित है। शुरुआत उन्हीं से की गई थी जिसे मेरे पिछले ब्लॉग पर देखा जा सकता है।)</p>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-48726272963783169102020-09-02T06:15:00.006-07:002021-09-15T05:38:42.085-07:00 कुछ यादें कुछ बातें -12<p><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">कवि-पत्रकार मित्र सुधीर सक्सेना पर संस्मरण की इस कड़ी के साथ ही 'कुछ यादें कुछ बातें' शृंखला पर अल्प विराम। इसी शीर्षक से कुछ और यादें जो प्रदीर्घ हैं, कुछ ठहरकर फ़ेसबुक पर नमूदार होंगी। समापन कड़ी के साथ पत्रकारिता की यादों के इस सफ़र में मुझे सबसे अच्छी बात यह लगी कि मित्रों ने प्रतिक्रिया में अपनी यादें साझा की, सभी को दिल से याद किया, आदरांजलि दी। मेरा मक़सद पूरा हुआ।</span></p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">तो फिर मिलते हैं कुछ समय बाद। शुक्रिया <br />________________________________</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;"></p><h2 style="text-align: left;">सुधीर सक्सेना</h2>---------------------<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjn1TUA05WoOz_25j7uG3Idf7nyjAyI5lbPdLdF9-HA6Br1PLS0HQd15GpLZyEmAt9JIxK2TqXbMLIo6HRvnOfad-ZOhEaFgwuVYp434v7vFIfRqC9E_b8z2t9mNNd0bODFE8NGMCpbrMlJ/s1280/di.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjn1TUA05WoOz_25j7uG3Idf7nyjAyI5lbPdLdF9-HA6Br1PLS0HQd15GpLZyEmAt9JIxK2TqXbMLIo6HRvnOfad-ZOhEaFgwuVYp434v7vFIfRqC9E_b8z2t9mNNd0bODFE8NGMCpbrMlJ/s640/di.jpg" width="640" /></a></div><br /><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;"><b>-दिवाकर मुक्तिबोध</b></p><p style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px 0px;">सुधीर सक्सेना, एक ऐसा कवि पत्रकार जो इस बात से बेचैन है कि साहित्यिक बिरादरी उन्हें साहित्यकार नहीं मानती तथा पत्रकार खालिस पत्रकार का दर्जा नहीं देते। एक लेखक - पत्रकार की ऐसी बेचैनी स्वाभाविक है। सुधीर ने मन की इस पीड़ा को कहीं व्यक्त किया था। चूंकि ऐसी कोई बातचीत मेरे सामने या मुझसे नहीं हुई इसलिए कह नहीं सकता इसमें कितनी सत्यता है लेकिन यदि वह सच है तो क्या सुधीर का यह क्षणिक असंतोष था जो अनायास बाहर फूट पड़ा? अपनी पहचान को लेकर वे इतने उद्वेलित क्यों हुए? उन्हें इस बात का मलाल क्यों हैं जबकि वे अच्छीी तरह जानते हैं कि रचनात्मकता का मूल्यांकन एवं रचना कर्मियों का दर्जा समाज तय करता है, बिरादरियां तय करती हैं। साहित्यिक बिरादरी, पत्रकार बिरादरी। इसलिए सुधीर सक्सेना को विचलित होने की जरुरत नहीं है कि उन्हें देश-प्रदेश का विशाल पाठक वर्ग किस रुप में देखता है और किस रुप में ज्यादा पसंद करता है। इस संदर्भ में एक बात तो निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि वे विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं और हिंदी साहित्य व पत्रकारिता में तेज दखल रखने वालों की जमात में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ऐसा स्थान जो हर किसी को नसीब नहीं होता। आखिरकार ऐसे लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, जो कवि, लेखक होने के साथ पत्रकार भी रहे हैं और जिनकी साहित्यिक पत्रकारिता को भी बड़ा मान सम्मान मिला हुआ है। पिछली पीढ़ी के अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, धर्मवीर भारती, विनोद भारद्वाज आदि और वर्तमान दौर के मंगलेश डबराल, प्रयाग शुक्ल, किशन कालजयी, ललित सुरजन, तेजेंदर, आशुतोष भारद्वाज सहित अन्य कई नाम है जिन्होने मूल्यपरक पत्रकारिता की। ऐसा लेखन किया जिससे इस विधा को नई दिशा मिली। मेरी दृष्टि में सुधीर भी इसी श्रेणी के पत्रकार हैं।<br />सुधीर से मेरा संपर्क बरसो पुराना है। हमारी मैत्री को लगभग चार दशक हो गए है। संपर्क में अनिरंतरता के बावजूद आत्मीयता कायम रही और अभी भी है। दरअसल सुधीर यायावर थे, रायपुर में कुछ ही बरस रहे फिर कुछ नया हासिल करने के लिए उनकी जिंदगी में भटकाव का दौर शुरु हुआ। कभी यहां - कभी वहां, इस शहर से उस शहर। हालांकि वे लंबे समय तक भोपाल में रहकर 'माया' को देखते रहे, विशेष संवाददाता के रुप में। लेकिन इस दौरान उनसे संवाद की रफ्तार धीमी पड़ती गई और अंतत: थम सी गई। मुझे याद है वर्ष 1978 के वे कुछ दिन। रायपुर में फूल चौक वाली गली में समाचार एजेंसी 'समाचार भारती' के दफ्तर में वे काम करते थे, शहर एवं गाँव-देहातों के समाचारों के संकलन का। मैं था देशबंधु में। वहीं उनसे पहली मुलाकात हुई। यह मुलाकात जल्द ही दोस्ती में बदल गई। मेल मुलाकात का सिलसिला चल निकला। उस वक्त तक मुझे ज्ञात नहीं था कि सुधीर कविताएं भी लिखते हैं। मैं उन्हें विशुद्ध पत्रकार समझता था जिनकी समग्र समाज को देखने की पत्रकारीय दृष्टि बहुत पैनी थी तथा जिनके पास शब्दों का अकूत भंडार था हालांकि न्यूज एजेंसी में अमूमन भाषाई कौशल की जरूरत नहीं पड़ती। सीधी सपाट शैली में खबरें लिखी जाती हैं जो हर आम आदमी की समझ में आए। इसलिए सुधीर मेरे लिए सिर्फ एक न्यूज एजेंसी के पत्रकार थे। सुधीर को मैं प्रखर सुधीर तब समझने लगा जब 'माया' में उसकी रिपोर्ट्स छपने लगी। ऐसा भाषाई सामर्थ, तथ्यामकता के साथ कथात्मकता व मोहक शैली में छपने वाली उनकी राजनीतिक एवं गैरराजनीतिक रिपोर्ट्स से मुझे अहसास हुआ कि सुधीर बड़े पत्रकार हैं। निष्पक्ष और पेशे के प्रति ईमानदार।<br />जैसा कि मैने कहा सुधीर से लगाव, आत्मीयता और मैत्री उनकी पत्रकारिता की वजह से बनी हालांकि कवि सुधीर से मेरी अनभिज्ञता बनी रही। हिन्दी साहित्य में मेरी खासी दिलचस्पी है, विशेषकर उपन्यासों का मै अच्छा पाठक हूं। बचपन से पढ़ता रहा हूं लेकिन कविताओं में मेरी कोई खास रुचि नहीं है। भूले भटके अनायास कविता की कोई किताब हाथ में आ जाए तो उसमें डूबने का यत्न करता हूं। खुद होकर कविताओं को ढूंढने की कोशिश नहीं करता शायद इसलिए सुधीर के 'कवि' से मेरी कभी कोई मुलाकात नहीं हुई। मैं उन्हें पत्रकार के रूप में जानता रहा। 1978 के बाद अगले लगभग ढाई दशक तक सुधीर से मेरी यदा-कदा से ही बातचीत हुई वह भी फोन पर। हालांकि वे रायपुर-बिलासपुर आते रहे पर मुलाकातें नहीं हुई। एक साथ घंटों समय बिताने का कोई संयोग हाथ नहीं लगा अलबत्ता इस बीच में मै उनके साहित्यिक अवदान के बारे में काफी कुछ सुनता रहा। आम आदमी की जिंदगी से लिपटी उनकी कविताएं, उनका सौंदर्य और उनमें बेहतर कल की प्रतिध्वनियां एक दशक में काफी तेज सुनाई देने लगी थी। वे एक प्रख्यात कवि और लेखक की श्रेणी में आ चुके थे। उनके काव्य संग्रह 'कभी न छीने काल', 'बहुत दिनों बाद', 'समरकंद में बाबर', 'रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी', 'किरच किरच यकीन' और 'कुछ भी नहीं है अंतिम' चर्चित है। विशेषकर समरकंद में बाबर को खास प्रतिष्ठा हासिल है। उनकी सद्य प्रकाशित किताब 'गोविंद की गति गोविंद', कांग्रेस के बड़े नेता व रचनाधर्मी स्व. सेठ गोविंददास पर केंद्रित है। इस महती जीवन-गाथा को तैयार करने में उन्होंने खासी मेहनत की है और काफी वक्त दिया है।<br />सुधीर सक्सेना की कलम यात्रा बीते चार दशक से अवनरत चल रही है। आश्चर्य होता है कि वे इतना विधिवता पूर्ण, विपुल और सार्थक लेखन कैसे कर लेते हैं। यात्राएं भी करते हैं। जीवन गाथाएं भी लिखते है। अब स्थायी ठिकाना दिल्ली है पर अभी भी एक पांव हमेशा बाहर रहता है। कभी भोपाल, रायपुर, बिलासपुर, दिल्ली, कोलकाता, पटना, लखनऊ। कितने-कितने शहरों के नाम लिए जाए। यकीनन यात्राएं जीवन के अनुभवों को नया आयम देती हंै। सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक परिदृश्यों को यदि उनके समूचे अस्तित्व के साथ, पूरी समग्रता के साथ देखना, समझना हो तो एक उपाय यात्राएं भी हैं। जीवनानुभव की यात्राएं। सुधीर की पत्रकारिता इससे और समृद्ध हुई है। शहरों को देखने का इतना सूक्ष्म नजरिया, उनका सामाजिक द्वंद्व, आम जनजीवन की नब्ज को पकडऩे का सुधीर का तौर-तरीका और मन को बांधने वाली शैली लिखे गए और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेख साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए अध्याय का सृजन करते है। शहरों की जिंदगी का ऐसा जीवंत विश्लेषण कम देखने में आता है। उन्हें पढ़ते हुए यकायक मुक्तिबोध रचनावली के खण्ड 6 में संकलित लेख 'जिंदगी के नये तकाजे और सामाजिक त्यौहार' शीर्षक से शहर नागपुर पर मुक्तिबोधजी के लेख का स्मरण हो आता है।<br />मुझे लगता है सुधीर पत्रकार पहले है, कवि बाद में। उनकी कुछ कविताएं जिन्हें मैं पढ़ पाया हूं, पत्रकारिता से होकर गुजरती है। उसके धरातल पर वे खड़े होती हैं जिन्हें हम काव्यात्मक पत्रकारिता कह सकते हैं। इस दृष्टि से वे अपनी पीढ़ी के पत्रकारों से सर्वथा अलग हैं। भिन्न हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि पत्रकारिता और साहित्य को एक साथ जीना सहज नहीं है। यह असाधारण है कि दोनों विधाओं में कलम साथ-साथ चलें, लंबे समय तक चलें, निर्बाध। सुधीर यह कर रहे हैं। उनकी पत्रकारीय दृष्टि किस कदर पैनी है इसकी मिसाल उनके मार्गदर्शन में प्रकाशित समाचार विचार की पत्रिका 'दुनिया इन दिनों में' उनके नियमित लेखन से मिलती है। साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों पर उनकी टिप्पणियां बेबाक होती हैं और व्यवस्था पर कू्रर प्रहार करती है। ऐसा उनके विभिन्न मनीषियों के साथ किए गए साक्षात्कारों में भी परिलक्षित होता है। यह भी कम हैरत की बात नहीं कि वे अध्ययन के लिए कैसे समय निकाल पाते है। पिछले वर्ष छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी पर मैंने एक विस्तृत लेख लिखा था जो केवल मेरे ब्लॉग तक सीमित था। सुधीर का एक दिन फोन आया और उन्होंने उसे अपनी पत्रिका 'दुनिया इन दिनों में' छापने की इच्छा जाहिर की। इससे पता चलता है कि वे पत्रकारिता में उतने ही रमे हुए है जितने कि साहित्य में। अन्यथा ढूंढ-ढूंढकर मीडिया में यत्र-तत्र बिखरे हुए विचारों को जानना, टिप्पणियों से निरंतर साक्षात्कार करना, वर्तमान दौर के पत्रकारों के लिए अब लगभग अरुचि का काम रह गया है। जाहिर है सुधीर अध्ययनशील और देश-दुनिया की ताजा दम खबर रखने वाले जागरुक पत्रकार है।<br />सुधीर से अब लगातार संवाद बना हुआ है। एक माध्यम 'दुनिया इन दिनों में' भी है। मुलाकातें भी हो रही हैं। आत्मीयता जो मौजूदगी के बावजूद अदृश्य सी थी, अब पुन: जीवंत है। सुनता-पढ़ता हूं, सुधीर का हिन्दी कविता में बड़ा सम्मान हैं, साहित्यिक गोष्ठियों में उन्हें सुनने का आग्रह रहता है। एक बड़े कवि के रुप में वे स्थापित हो गए है और उनकी मूल पहचान पत्रकार की नहीं, कवि की बन गई है। हालांकि उनकी कविताएं दौड़ रही हैं व पत्रकारिता भी। किन्तु कविताएं बहुत आगे निकल गई हैं। यह संयोग ही है कि उनके अनेक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं पर पत्रकारिता पर उनकी कोई किताब देखने में नहीं आई है। पता नही ऐसा विचार उनके मन में क्यों नहीं आया वरना आम तौर पर पत्रकारों की किताबें यानी अखबारों में उनके पूर्व प्रकाशित लेखों का संग्रह, जो समय के दस्तावेज होते हैं। चूंकि साहित्यिक पत्रकारिता में सुधीर जरूरी हस्ताक्षर है इसलिए संभव है निकट भविष्य में इस विधा में भी कोई संकलन सामने आए। पत्रकार सुधीर की पत्रकारिता को जानने- समझने व वस्तुपरक मूल्यांकन के लिए यह जरुरी होगा।</p>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-78101000654303998352020-08-29T04:42:00.004-07:002020-08-29T04:42:58.362-07:00 कुछ यादें कुछ बातें - 11 "बसंत दीवान"<p><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;"><b>- दिवाकर मुक्तिबोध</b></span></p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">19-3-1</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">बसंत दीवान जी पर मैं क्या लिखूँ ।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">इसी रविवार , 18 को जब समीर का फ़ोन आया , मेरा मन कही और गुथा हुआ था। दरअसल टीवी पर टाइगर दहाड़ रहा था और मैं बकवास सी पिक्चर होने के बावजूद उसे देख रहा था। फ़िल्मों में मेरी खासी दिलचस्पी है और ख़राब फ़िल्मे भी पूरी देखने की कोशिश करता हूँ। अत: समीर की बातें सुनने के बाद मै यह नहीं कह पाया कि दीवानजी से मेरी गहरी जान पहचान नहीं थी और न ही मैंने उनके साथ कोई ख़ास वक़्त बिताया था। रोज़ाना साथ में उठना बैठना भी नहीं था, इसलिए घटनाओं से गुज़रने का भी प्रश्न नहीं । लिहाज़ा उनके बारे में, उनकी यादों को लेकर क्या लिख सकता हूँ ? लेकिन यह बात नहीं कह पाया समीर से। समीर ने कहा- भैया, परितोष जी के संस्मरण में आपका ज़िक्र आया है। पिताजी आशु कविताओं, तुकबंदियों , उनके लेख व मित्रों की यादों की तैयार हो रही किताब में मुझे आपका भी लिखा चाहिए। आप लिखिए।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">दिमाग़ ' टाइगर ज़िंदा है ' में उलझा हुआ था इसलिए बातें जल्दी से जल्दी समाप्त करने के चक्कर में मैंने समीर से कहा - हाँ ठीक है , लिख दूँगा।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">लेकिन अब सवाल है लिखूँ तो क्या लिखूँ ? सारगर्भित कुछ भी तो संभव नहीं। पर एक बात है, समीर ने अपने पिता को याद किया और मेरी आँखों के सामने, मेरे ह्रदय पटल पर बसंत दीवान जी का बुलंद व्यक्तित्व अपनी बुलंद आवाज़ के साथ खड़ा हो गया। मन में विश्वास जगा, हाँ , उनके बारे में कुछ तो लिख सकता हूँ। कुछ पल, कुछ घंटे , कुछ दिन ही सही, कुछ तो यादें हैं जो आजीवन साथ चलने वाली हैं। इनसे मैं अलग कैसे हो सकता हूँ ? कुछ कड़ियाँ जुड़ेंगी व बात कुछ बन जाएगी।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">चलिए शुरू करता हूँ।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">वर्ष शायद 1972- 73। माह याद नहीं । दीवान जी से पहली मुलाक़ात । उन दिनों मैं साइंस कालेज का विद्यार्थी था। भिलाई से रायपुर आए हमें दो चार साल ही हुए थे। साइंस कालेज के होस्टल से निकलकर मै माँ व भाई-बहन के साथ शहर की पुरानी बस्ती में रहने लगा था। शहर अपरिचित, लोग अपरिचित। परिचित थे तो रम्मू भैया यानी रामनारायण श्रीवास्तव व नई दुनिया जो बाद में देशबंधु बना। रम्मू भैया एक तरह से लोकल अभिभावक थे हमारे। रोज़ सुबह-सुबह उनके घर दौड़ लगाता था। बहुत हँसमुख। उन्होंने पिताजी के साथ नागपुर में ' नया ख़ून' साप्ताहिक में काम किया था। बहुत छोटा था पर उस अखबार के दफ़्तर में मैंने उन्हें काम करते देखा था। बरसों बाद रायपुर में उनसे मुलाक़ात हुई। नागपुर का परिचय सहज आत्मीयता में बदल गया। लोगों से मेल-मुलाक़ात कराने वे कई बार मुझे साथ ले जाते थे। वे बडे भाई जैसे थे। ज़िंदादिल। मैंने उन्हे उदास कभी नहीं देखा। एक दिन वे मुझे अपने साथ नवीन बाज़ार ले गए। नगर निगम का यह नया- नया व्यावसायिक काम्पलेक्स था। इसी बाज़ार के नीचे के फ़्लोर पर एक स्टूडियो में वे मुझे ले गए। दीवान स्टूडियो में घुसते ही एक बेहद मोटी सी आवाज़ ने रम्मू भैया का स्वागत किया-आ गया रम्मू । आओ, भाई आओ। तो यह थे बसंत दीवान। उँचे पूरे। अच्छा डील -डौल लेकिन खुरदरा चेहरा जिनकी बड़ी बड़ी आँखें डरा भी सकती थी व स्नेह का सैलाब भी ला सकती थी। रम्मू भैया ने परिचय कराया- बसंत, दिवाकर से मिलो, मुक्तिबोध जी का बेटा। मेरे साथ नई दुनिया में है। बसंत दीवान जी ने मुझ पर एक उड़ती सी नज़र डाली और मेरी उपस्थिति को लगभग नज़रअंदाज़ करते हुए रम्मू भैया से बातचीत में लग गए। उनकी ठंडी प्रतिक्रिया से मुझे कोई कोफ़्त नहीं हुई। मैं चुपचाप बैठा रहा। उनकी बातचीत सुनता रहा जो मेरे पल्ले नहीं पड़ रही थी। इसमें मेरी भी कोई दिलचस्पी नहीं थी। रम्मू भैया के साथ इस मुलाक़ात के पूर्व मैंने उनके बारे सुन रखा था कि वे अच्छे मंचीय कवि है और बहुत अच्छे फ़ोटोग्राफ़र। बस यह छोटी सी मुलाक़ात यहीं तक सीमित रही। परिचय का दायरा आगे बढ़ाने फिर कोई संयोग हाथ नहीं लगा। हालांकि यदा-कदा किसी न किसी कार्यक्रम में हम टकराते रहे पर मामला दुआ सलाम तक ही सीमित रहा। इसे प्रगाढ़ करने की न तो मुझे ज़रूरत महसूस हुई न उन्हे। इसलिए उनके स्वभाव व प्रकृति के बारे में मैं कुछ जान नहीं सका। लेकिन कवि के रूप में उनकी ख्याति से मै अनजान नहीं था। लिहाज़ा मन में सहज श्रद्धा व आदर का भाव स्वाभाविक था जो हमेशा कायम रहा।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">दीवान जी को निकट से जानने का अवसर तब मिला जब वे प्रेस फ़ोटोग्राफ़र बन गए। मै वर्ष 1992 में दैनिक भास्कर से बतौर विशेष संवाददाता जुड़ा। चंद महीनों बाद ही एक दिन एकाएक बसंत दीवान दफ़्तर में मेरे सामने नमूदार हो गए। उन्होंने कहा - आज से मै तुम्हारे साथ काम करूँगा। मै अचकचा गया यह सुनकर। दीवान जी जैसा बहुत सीनियर, कलावंत व प्रोफेशनल फ़ोटोग्राफ़र जिनका अच्छा ख़ासा स्टूडियो है, अच्छा नाम है, नौकरी करे? कुछ समझ मे नहीं आया। लेकिन मै मन ही मन बहुत ख़ुश हुआ कि उनके विराट अनुभव का लाभ दैनिक भास्कर को मिलेगा जिसकी आसमान को छूने की कोशिशें शुरू हो गई थी। साथ मे काम करने का एक बड़ा फ़ायदा मुझे भी मिलने वाला था, फ़ोटो तकनीक की बारीकियों को समझने व दीवानजी को गहराई से जानने का।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">भास्कर में सिटी फ़ोटोग्राफ़रों की टीम थी। सभी युवा जिनके हाथों में कैमरा अभी-अभी ही आया था। यानी किसी को कोई ख़ास अनुभव नहीं था। दीवान जी के सामने एक तरह से बच्चे। इन बच्चों के साथ काम करने की स्थिति दीवान जी के लिए असहज हो सकती थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दरअसल अपनी वरिष्ठता का,अपने प्रोफेशनिलिज्म एप्रोज का, अपने हुनर का उन्हें कोई गुमान नहीं था। कोई घमंड नहीं था। वे हर किसी के साथ सहज स्वाभाविक थे। पेशे में जूनियर सीनियर का भेद नहीं करते थे। इसलिए दैनिक भास्कर में जूनियर फ़ोटोग्राफ़रों के साथ काम करने का उन्हे आनंद ही हुआ। शागिर्दों को हुनर व अनुभव बांटने का आनंद । उनके साथ कार्य करते हुए मैंने महसूस किया कि दीवान जी सरल ह्रदय हैं , उन्मुक्त, मिलनसार व दिल की हर बात ज़बान पर लाने वाले व्यक्ति। कही कोई दुराव-छिपाव नहीं। एकदम पारदर्शी। शुरू में मुझे उन्हे एसाइनमेंट देने में संकोच होता था। उम्र व अनुभव में मुझसे काफी बडे। इस असहजता को उन्होंने भाँपा और ख़ुद ही एसाइनमेंट माँगने लगे। आज कहाँ जाना है, कौन सा कार्यक्रम कवर करना है। रोज़ाना की मीटिंग में सबसे पहले, समय पर वे पहुँच जाते थे और दिनभर की भागादौडी के बाद सबसे ज़्यादा फ़ोटो वे ही लेकर आते थे। ज़ाहिर है उनके फ़ोटो तकनीकि दृष्टि से परफ़ेक्ट हुआ करते थे। भास्कर ने ही सबसे पहले छत्तीसगढ़ की अखबारी दुनिया को पाठकीय दृष्टि से विजुअल के महत्व से परिचित कराया था, जीवंत फ़ोटोग्राफ़ कैसा असर डालते हैं, अपने आप में किसी स्टोरी से कम नहीं होते, सिद्ध किया था। दैनिक भास्कर के संघर्ष के उस दौर में दीवान जी का साथ यक़ीनन बहुत महत्वपूर्ण घटना थी। भास्कर ने उस दौर में और बाद के कुछ और कालखंड मे व्यक्तियों को चुनने में कोई ग़लती नहीं की थी। बसंत दीवान के रूप में उसने हीरा चुना था जिसकी चमक से न केवल हमारा अखबार वरन समूचा शेष प्रेस जगत भी कुछ समय के लिए सही,आलोकित हुआ।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">दीवानजी का साथ कितने महीने रहा , याद नहीं। पर वह बहुत लंबा नहीं चला। एक दिन ख़बर मिली कि वे नहीं आएँगे। नौकरी उन्होंने छोड़ दी। कारणों का पता नहीं चला। व्यस्तता के चलते मैं उनसे मिल भी नही सका और न कारण ही पूछ पाया। एक दिन सूचना मिली कि वे अस्पताल में भरती हैं। दुर्योग ऐसा कि मै उनसे भेंट नहीं कर सका। अस्पताल नहीं जा पाया। वाक़ई आज जाएँगे , आज न सही, कल चले जाएँगे का चक्कर बड़ा विकट होता है। ऐसी टालमटोली कभी कभी बड़ा पछतावा देती है। दीवान जी के मामले में मेरे साथ ऐसा ही है। एक दिन ख़बर आई कि दीवान जी नहीं रहे। एक अजीब सी शून्यता के साथ मैंने यह दुखद ख़बर कुछ दोस्तों तक पहुँचा दी । अंतिम समय में न मिल पाने के पछतावे के साथ उस स्तब्धकारी ख़बर को मै आज भी ढो रहा हूँ। उनकी बीमारी के दिनों में उनसे न मिल पाने का अफ़सोस तब और घनीभूत हुआ जब पिछले वर्ष उनके पत्रकार-उपन्यासकार बेटे समीर दीवान ने अपने पिता की कविताओं का संकलन 'अनुगूँज' जो उन्होंने तैयार किया, की एक प्रति भेंट की। उस समय दीवान जी चेहरा आँखों के सामने आ गया और यह ख़्याल भी कि उनके चुनिंदा सर्वश्रेष्ठ फ़ोटोग्राफ्स का भी कोई एल्बम आना चाहिए क्योंकि उनकी रचनात्मकता का मूल आधार फ़ोटोग्राफ़ी था। अर्थात वे कवि बाद में थे फ़ोटोग्राफ़र पहले। उनकी खींचीं तस्वीरों से रूबरू होने का मतलब होगा उनसे रूबरू होना। शायद आगे ऐसा कोई अवसर आए।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">----------</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px 0px;">(अगला अंक बुधवार 2 सितंबर को)</p>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-44807167761788421132020-08-26T05:09:00.003-07:002020-08-26T05:09:36.665-07:00 कुछ यादें कुछ बातें - 10: तेज़िंदर गगन<p><b><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">- दिवाकर मुक्तिबोध</span><span style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;"> </span></b></p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">***************************</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">हेलो,</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">उधर से ठहाका गूंजा।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">जवाब में इधर से भी जोरदार।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">मोबाइल पर एक हेलो ने कम से कम दो मिनट तक दो दोस्तों को कुछ भी बोलने से रोक दिया। केवल हँसी की फुलझड़ियाँ छूटती रहीं। जब हँसते-हँसते मन भर गया तो बातचीत शुरू हुई । कहाँ हो , कैसे हो, क्या चल रहा है। इत्यादि -इत्यादि । प्रेम की बातें , उलाहने की बातें, लिखाई-पढ़ाई की बातें। वो दोस्त अब इस दुनिया में नहीं है पर उसकी वह हँसी, वे ठहाके और वह दमकता चेहरा आँखों के सामने रह -रह कर आता है और खिलखिलाने के बाद पूछता है - ' यार भाई कैसे हो।'</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">नाम है तेज़िंदर गगन। प्रख्यात उपन्यासकार , कथाकार ,कवि व पत्रकार । आकाशवाणी व दूरदर्शन का एक ऐसा मस्तमौला अधिकारी जिसने नौकरी के सिलसिले में देश के तमाम बड़े शहरों की ख़ाक छानी और अंतत: अपने घर-शहर रायपुर में आकर रिटायर हुआ। तब मुलाकातों व बातचीत का दौर तेज़ हुआ और जैसा कि मैंने कहा मोबाइल पर हमारी बातचीत पुरज़ोर ठहाकों के बाद शुरू होती थी। दोस्तों में केवल तेज़िंदर ही ऐसे थे जिनकी ज़िंदादिली जीवन में अनोखा आनंद भर देती थी। नतीजतन मोबाइल पर हो या आमने -सामने , हास्य अनायास प्रस्फुटित होता था। वह हास्य तो अब लुप्त हो गया पर ह्रदय पर उसकी छाप बहुत गहरी है और उसके इस भौतिक संसार में न रहने के बावजूद हर पल उसकी उपस्थिति का अहसास कराती है।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">तेज़िंदर से लगभग चार दशक पुरानी मित्रता। हमारे देशबन्धु के ज़माने से। वह भी देशबन्धु में रहे और मैं भी। हालाँकि हमने कभी एक साथ काम नहीं किया लेकिन मैं उन्हें अपने एक मित्र की वजह से पहले से जानता था। शायद तब वे एग्रीकल्चर कालेज के छात्र थे तथा देशबंधु के दफ़्तर में उनका आना-जाना था। उनसे मेरी कोई गाढ़ी पहिचान नहीं हुई । दफ़्तर में वे और भी लोगों से मिलते थे, उनके पास बैठते थे पर मेरी वाक़फियत केवल दुआ-सलाम तक सीमित थी। कृषि विज्ञान में डिग्री लेने के बाद वे अखबार की नौकरी में आए और तब मेरा उनसे वास्तविक परिचय हुआ और कुछ-कुछ दोस्ती भी। उनकी पत्रकारीय दृष्टि कितनी पैनी थी , इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मीडिया पर उनका पहिला उपन्यास ' फिसलते हुए' हाथ लगा । 70-80 के दशक में क्षेत्रीय मीडिया को खंगालने का काम कोई युवा पत्रकार कर सकेगा , ऐसा सोचना भी कठिन था लेकिन तेज़िंदर ने वह कर दिखाया हालाँकि इस लघु उपन्यास की कोई ख़ास चर्चा नहीं हुई। इस घटना से मैने जाना कि वे क़लम के धनी हैं , असाधारण हैं और उनका सानिंध्य हर किसी के लिए लाभप्रद है। सो , हमारे बीच बातचीत शुरू हुई लेकिन दोस्ती गाढ़े में तब्दील हो , इसके पूर्व ही वे नौकरी के चक्कर में यहां-वहाँ यानी इस शहर से उस शहर , होते रहे और रायपुर से निकल भी गए। किंतु बीच-बीच में फोन पर बातचीत होती रही और छुट्टियों में रायपुर आने पर यदा-कदा मुलाक़ात भी।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">दशक पर दशक बीत गए और इस बीच तेज़िंदर हिंदी साहित्य की दुनिया में एक बडा नाम बन गए। मुझे यह कहने दीजिए कि हमारी मित्रता में गहरी आत्मीयता का पुट तेज़िंदर की घर वापसी के बाद ही आया। यानी उनके जीवन के अंतिम सात-आठ वर्षों मे हमने एक-दूसरे को बेहतर तरीक़े से जाना-समझा। चूँकि मैं ख़ालिस पत्रकार था लिहाजा हमारी चर्चा के केन्द्र में साहित्य कम मीडिया ज्यादा रहता। जाहिर है बीते हुए दिनों व साथियों को याद करते हुए आज की पत्रकारिता की दुरावस्था पर अफ़सोस व्यक्त करने के साथ बातचीत का पटाक्षेप होता था। जब कभी मुझे अतिरिक्त ऊर्जा की ज़रूरत महसूस होती, मैं तेज़िंदर को फोन लगाता और दिल को सुकून देने वाले ठहाके सुनकर ख़ुश होता। एक दिन उन्हे तब बेहद ख़ुशी हुई जब मैंने किताबों की अपनी रैंक से उनका नावेल निकाला और उन्हे भेंट कर आया। उनके पास 'फिसलते हुए ' की कोई प्रति नहीं थी। अपनी पहली किताब पाकर वे भाव-विभोर हो गए। तेज़िंदर को ख़ुश देखकर मुझे अपार संतोष हुआ क्योंकि किताब बहुत सही जगह पहुँच गई, मुझसे कहीं अधिक उन्हें इसकी ज़रूरत थी।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">तेज़िंदर हाँ में हाँ मिलाने व्यक्ति नहीं थे। वैचारिक विमर्श के दौरान तार्किकता के साथ असहमति भी जाहिर करते। वे सच्चे दोस्त थे अत: सलाह लेने-देने में उन्हे हिचक नहीं होती थी।दो वर्ष पूर्व तत्कालीन भाजपा सरकार ने साहित्य के राज्य स्तरीय पुरस्कार के लिए उन्हें चुना। वे सोच में पड़ गए। यहाँ विचारधारा का सवाल था। दक्षिणपंथी सरकार से पुरस्कार स्वीकार करें अथवा नहीं। उन्होंने मेरी राय ली। संभवत: अन्य मित्रों से भी पूछा होगा। मैंने स्पष्ट शब्दों कहा कि पुरस्कार लेने में कोई हर्ज नहीं। अंतत: यह जनता का पुरस्कार है, जनता द्वारा निर्वाचित सरकार का। यह सुनकर वे किसी नतीजे पर पहुँचे। उन्होंने राज्य सम्मान स्वीकार किया। ऐसे ही एक बार मैंने उनसे कहा कि छत्तीसगढ की नक्सल समस्या पर मेरा लिखा काफी है अत: एक किताब बन सकती है। लेकिन मैं चाहता हूँ उन टिप्पणियों को आप देख लें और राय दें। तेज़िंदर ने सहर्ष इसे स्वीकार किया। मैंने अगले दिन समूची सामग्री उनके पास भिजवा दीं। फिर करीब बीस दिन बाद हम मिले। उन्होने लेखन की तारीफ़ की पर यह सुझाव भी दिया इन्हें इस तरह न छापा जाए। घटनाओं को आधार बनाकर उपन्यास की शक्ल दी जाए। मेहनत का काम है पर ऐसा करने से इसकी पठनीयता और बढ़ेगी। यह सुनकर मैं थोड़ा निराश हुआ लेकिन मुझे बात ज़मीं। यह अलग बात है कि तेज़िंदर द्वारा लौटाया गया गठ्ठा जस का तस रखा हुआ है। उसमें तेज़िंदर का स्पर्श है और इसे मैं महसूस करते रहना चाहता हूँ। उनके सुझाव के अनुसार किताब बना पाऊँगा कि नहीं , कह नहीं सकता क्योंकि अपने लिखे हुए की पुन: शक्ल बदलना मेरे जैसे आलसी के लिए कठिनतर कार्य है। लेकिन यदि यह कर सका तो निजी तौर पर जीवन की एक बडी उपलब्धि होगी।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">यों मेरा मित्र-संसार काफी बडा है। एक ही शहर में आधी से अधिक सदी गुज़ारने से ऐसा होना स्वाभाविक है। लेकिन आमतौर पर एक-दूसरे की ज़िंदगी में साधिकार झाँकने ,ज़रूरत पड़ने पर दखल देने और दिल से दिल मिलने वालों की संख्या बहुत कम ही होती है। इसे ही हम अभिन्न कहते हैं। अभिन्न मित्र। तेज़िंदर का यही दर्जा था। ऐसे दोस्त को असमय खोना, ज़िंदगी में बहुत कुछ खोने जैसा है। यक़ीनन।</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px;">_________________<br />// 10 सितंबर 2019//</p><p style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin: 6px 0px 0px;">---------------<br />(अगला भाग शनिवार 29 अगस्त को)</p>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1269740109482312487.post-10587001847975257842020-08-15T06:02:00.002-07:002020-08-15T06:02:19.300-07:00कुछ यादें कुछ बातें- 7<p><b>सुशील त्रिपाठी: </b></p><p><br /></p><p>बात कहां से शुरू करें ? कोई सिरा पकड़ में नहीं आ रहा। बहुत सोचा काफी माथापच्ची की। अतीत में कई डुबकियां लगाई। कई सिरे तलाशे। लेकिन हर सिरे को दूसरा खारिज करता चला गया। थक-हार कर सोचा, दिमाग खपाने से मतलब नही। कागज कलम एक तरफ रखें और चुपचाप आराम फरमाएं।</p><p><br /></p><p>लेकिन क्या ऐसा संभव है? मन में कहां शांति? किस कदर बेचैनी होती है इसे हर शब्दकार बेहतर जानता-समझता है। सो शांति तभी मिलेगी, जब किसी एक सिरे को जबरिया पकड़कर लिखना शुरू कर दें। किन्तु यह भी क्या कम मुश्किल है। बात फिर घूम फिरकर वहीं आ जाती है, शुरूआत बढ़िया होनी चाहिए, तसल्लीबख्श होनी चाहिए। लिहाजा दिमाग के घोडेÞ पूर्ववत दौड़ते रहे और उस पर सवार सैनिक गर्दन से लिपटा पड़ा रहा, सोच में डूबा हुआ, थका-हारा। एक दिन एकाएक ख्याल आया सुशील त्रिपाठी से शुरूआत की जाए। उत्तर प्रदेश के इस प्रतिभाशाली पत्रकार की मौत की खबर स्तब्धकारी थी। कुल जमा लगभग 30 वर्षों के परिचय में मेरी उनसे केवल दो बार मुलाकात हुई थी। 1980 में उस समय जब मैं देशबंधु की ओर से एडवांस जर्नलिज्म का वर्कशाप अटैंड करने बनारस गया था। 15 दिन बीएचयू के गेस्ट हाऊस में रहा और इस दौरान तीन या चार दफा सुशील से मुलाकात हुई। पहली मुलाकात हुई काशीनाथ जी के यहां। काशीनाथ सिंह प्रख्यात कथाकार। उनसे मिलने अस्सी स्थित उनके घर गया था। वे अभिभूत हुए, बेहद खुश। उन्होने प्रस्ताव रखा मैं दुबारा आऊं तथा छात्रों से पिताजी के संस्मरण सुनाऊं। मै गया और वहीं कईयों से परिचय हुआ, मित्रता हुई। सुशील उन्हीं में से एक थे।</p><p><br /></p><p>बनारस की मीठी यादें लेकर रायपुर लौटा। सुशील से कुछ समय तक चिट्ठी-पत्री हुई। इस बीच उन्होंने बहुत सारे रेखा चित्र इस उम्मीद के साथ भिजवाएं कि साहित्य विशेषांक में उनका इस्तेमाल करूं। वे रेखाचित्र ज्यों के त्यों पड़े रह गए। दुर्भाग्य से उनका कहीं उपयोग नहीं किया जा सका। जैसा कि अमूमन होता है चिट्ठियां दूरियां घटाती जरूर हैं पर उनकी निरंतरता बनाए रखना प्राय: कठिन होता है। फिर यह टू वे प्रोसेस है। यदि दोनों पहिए ठीक से घुमते रहे तो सफर तय होता रहता है। पर एक की भी गति धीमी हुई या थम गई तो संबंधों पर पूर्ण विराम लगते देर नहीं लगती अलबत्ता उसकी उष्मा जिंदगी भर कायम रहती है। सुशील के साथ ऐसा ही हुआ। पत्र बंद हो गए। मेरा भी बनारस जाना कभी नहीं हुआ। सुशील की खोज खबर नहीं मिली। अलबत्ता यादें तरोताजा रहीं। आत्मीयता के धागे टूटते नहीं हैं क्यों कि वे भावनाओं के रिश्ते में गुथे हुए रहते हैं। शायद अक्टूबर2008 की बात है सुशील का फोन आया ‘रायपुर में हूं मिलने आ रहा हूं’। दैनिक भास्कर के दफ्तर में वे आए। करीब 27 बरस बाद उन्हे देख रहा था। डील डौल एकदम बदल गया। आते ही गले मिले। यादों को बांटने का सिलसिला शुरू हो गया। सुशील ने बताया नामवर जी रायपुर आए थे, ‘इस राह से गुजरते हुए’ का विमोचन करने। उन्होने कहा था रायपुर में मिलना और उससे किताब ले लेना।</p><p><br /></p><p>मैंने अपनी किताब उन्हें भेंट की। पन्ने पलटते हुए उन्होंने बताया नामवर जी एवं काशीनाथ जी से मुलाकातें होती रहती है। बनारस-बनारस है। उस जैसा शहर कहां? उस जैसे लोग कहां? सारी मित्र मंडली रोज इकट्ठी होती है। वामपंथ की दुर्दशा को लेकर दुनिया जहान की बातें। खूब मजा।</p><p><br /></p><p>इस छोटी सी मुलाकात में सुशील ने अपनी निजी जिंदगी के बारे में कुछ नहीं बताया। अलबत्ता कॉफी हाउस से लौटते हुए उन्होने कहा- भास्कर में या कहीं और नौकरी की अच्छी गुंजाइश बने तो जरूर इत्तला करें, कोशिश करें। उन्होने बताया बनारस में वे दैनिक हिन्दुस्तान के लिए काम कर रहे हैं। साहित्य एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को कव्हर करते हैं। जिंदगी चल रही है। परिवार में जिम्मेदारियां अभी कम नहीं हुई है।</p><p><br /></p><p>करीब डेढ़ दो घंटे साथ बिताने के बाद सुशील चले गए। दूसरे दिन मिलने के वादा करके। पर नहीं आए। अलबत्ता काशी के लिए रवाना होने के पूर्व उन्होने फोन किया। आश्वासन दिया दुबारा रायपुर समय लेकर आएंगे। पर वह समय नहीं आया। हालांकि इस बीच उनका फोन आया, बातें हुई। मैं निश्चिंत था। सुशील मजे में होंगे। उनकी बात याद थी। उनके लिए बेहतर जगह तलाशने की पर आजकल अखबारों में प्राय: गुंजाइशें उन्हीं के लिए बनती हैं जो सबंधों को भुनाना जानते हैं तथा इसके लिए सायास प्रयास करते हैं। मैं इसमें कच्चा हूं, सुशील भी निश्चय ही कच्चे होंगे। वरना उनके जैसे प्रतिभाशाली पत्रकार एवं चित्रकार के लिए अच्छी नौकरी मुश्किल नहीं होनी चाहिए थी।</p><p><br /></p><p>सुशील को गए तीन चार महीने हो गए। सन 2008 बीता। जनवरी 2009 में इप्टा के अभा. मुक्तिबोध नाट्य समारोह में काशीनाथ जी से मुलाकात हुई। उनसे सहज पूछा- सुशील कैसे हैं?</p><p><br /></p><p>- 'मर गए। रिपोर्टिंग के लिए किसी पहाड़ पर चढ गए थे। पैर फिसला, गिर गए। तीन चार दिन अस्पताल में बेहोश पड़े रहे। नहीं न बच पाए।'</p><p><br /></p><p>काशीनाथ जी से उनके निधन की खबर सुनकर स्तब्ध रह गया। फिर मन नहीं लगा। बीच कार्यक्रम से लौट आया। सारी रात सुशील सपने में आए और बातें करते रहे।</p><p><br /></p><p>एक पत्रकार मित्र का इतना कारूणिक अंत! मन अभी भी उदास है। उनके रेखाचित्र मैंने सहेजकर अलग रख दिए हैं। मैं नहीं जानता था कि उनके चित्र याद बनकर रह जाएंगे। उन्हें देखता हूं तो मन भर आता है।</p><p><br /></p><p>//06 अक्टूबर 2014//</p><p>----------------------------------------------------------</p><p>(अगला अंक 19 अगस्त बुधवार को)</p>दिवाकर मुक्तिबोधhttp://www.blogger.com/profile/13222525958044135898noreply@blogger.com0