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Showing posts from December, 2016

चिकित्सा में पी. पी. पी. विचार करें सरकार

- दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने के राज्य सरकार के फैसले पर बहस की पर्याप्त गुंजाइश है , किंतु दुर्भाग्य से ऐसा कुछ होता नहीं है। जनकल्याणकारी योजनाएं चाहे केन्द्र की हों या राज्य सरकार की , वे वैसी ही होती हैं जैसा प्राय: सरकारें चाहती हैं , इसमें जनविचारों की भागीदारी कतई नहीं होती जबकि कहा जाता है सरकारें जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। यदि सभी नहीं , तो क्या कुछ योजनाओं पर प्रबुद्ध नागरिकों , विशेषज्ञों से विचार-विमर्श नहीं किया जा सकता ? जाहिर है न नौकरशाही इसकी इजाजत देती हैं और न ही राजनीति क्योंकि यहां सवाल श्रेय का , श्रेष्ठता का एवं अहम् का होता है। बहरहाल पिछले दिनों की एक खबर के मुताबिक छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य के सभी 27 जिलों में बच्चों एवं माताओं के लिए अस्पताल बनाने एवं उन्हें पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप यानी पीपीपी के तहत निजी हाथों में सौंपने का फैसला किया है। सरकारी खबर के अनुसार भवन एवं आवश्यक सभी सुविधाओं की व्यवस्था सरकार करेगी। बाद में उनके संचालन की जिम्मेदारी निजी उद्यमियों को सौंप दी जाएगी , ठीक वैसे ही जैसा कि राज

सत्ता के 13 वर्ष कम तो नहीं होते

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-दिवाकर मुक्तिबोध मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को देखकर आपको, आम आदमी को क्या लगता है? क्या राय बनती है? अमूमन सभी का जवाब एक ही होगा- भले आदमी हैं, नेकदिल इंसान। सीधे, सरल। मुख्यमंत्री होने का दंभ नहीं। सबसे प्रेम से मिलते हैं। सबकी सुनते हैं। लेकिन शासन? जवाब यहां भी एक जैसा ही होगा - लचर है। नौकरशाहों पर लगाम नहीं है। उनकी मनमानी रोकने में असमर्थ है। धाक नहीं है। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं है। सुस्त है। सरकार वे नहीं, नौकरशाह चला रहे हैं। सरकारी योजनाओं का लाभ निचले तबके तक नहीं पहुंच पा रहा है। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता नहीं है। फाइलों के आगे बढऩे की रफ्तार बेहद सुस्त है और सर्वत्र कमीशनखोरी का जलवा है। और उनकी राजनीति? यहां भी प्राय: सभी का जवाब तकरीबन एक जैसा ही होगा- बहुत घाघ हैं। जबरदस्त कूटनीतिज्ञ। अपने विरोधियों को कैसे चुन-चुनकर ठिकाने लगाया। आदिवासी नेतृत्व की मांग करने वालों की हवा निकाल दी। उनकी कुर्सी की ओर आंखें उठाने वालों की बोलती बंद कर दी। शासन की आलोचना करने वाले सांसदों व पार्टी नेताओं को आईना दिखा दिया। कईयों के लिए मार्गदर्शक की भूमिका का इंतजाम कर दिया। संग

एनजीओ और मंत्री का दर्द

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-दिवाकर मुक्तिबोध       कहते हैं देश बदल रहा है, शहर बदल रहे हैं, गांव बदल रहे हैं लेकिन क्या वे बदल रहे हैं जिन्हें वास्तव में बदलना चाहिए, देश हित में, समाज हित में, लोक हित में? जवाब है - बिलकुल नहीं। न बदलने वालों की अनेक श्रेणियां हैं- भ्रष्ट राजनेता हैं, भ्रष्ट मंत्री हैं, भ्रष्ट अफसर हैं और इनके द्वारा पोषित वे संस्थाएं हैं, संगठन हैं जिन्होंने समाज सेवा का नकाब पहन रखा है। गैर सरकारी संगठन यानी एन.जी.ओ. भी इसी तरह की अमर बेल है जो सरकार के महकमों से लिपटी हुई है और जिनके कामकाज को लेकर लंबी बहसें होती रहती हैं। निष्कर्ष के रूप में यह माना जाता है कि देश-प्रदेश में कार्यरत बहुसंख्य एन.जी.ओ. अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। वे सरकारी नुमाइंदों के साथ गठजोड़ करके बेतहाशा पैसा पीट रहे हैं। सामाजिक क्षेत्र में इनके द्वारा किए जाने वाले कथित कामकाज काफी हद तक कागजों तक सिमटे हुए हैं। इनके भौतिक सत्यापन की न तो कभी जरूरत महसूस की जाती है और न ही कभी जांच बैठायी जाती है। एक तरह से ये सरकार के नियंत्रण से मुक्त है। बेखौफ हैं। भ्रष्टाचार का माध्यम बने हुए हैं