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स्मरण मुक्तिबोध: उनके वे सबसे अच्छे दिन

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11 सितंबर को पुण्यतिथि पर विशेष -दिवाकर मुक्तिबोध मुक्तिबोध जन्मशताब्दी वर्ष की शुरुआत 13 नवंबर 2016 से हो चुकी है। एक बेटे के तौर पर बचपन एवं किशोर वय की ओर बढ़ते हुए हमें उनके सान्निध्य के करीब 10-12 वर्ष ही मिले। जन्म के बाद शुरु के 5-6 साल आप छोड़ दीजिए क्योंकि यादों के कुछ पल, कुछ घटनाएँ ही आपके जेहन में रहती है जो जीवन भर साथ चलती हैं। ऐसे ही चंद प्रसंगों पर आधारित संस्मरण की यह दूसरी किस्त। प्रथम किस्त नई दिल्ली से प्रकाशित ""दुनिया इन दिनों'' में 15-30 सितंबर 2016 के अंक में छप चुकी है। ""पता नहीं कब कौन कहां, किस ओर मिले, किस सांझ मिले, किस सुबह मिले, यह राह जिंदगी की, जिससे जिस जगह मिले।'' कविता की ये वे पंक्तियां हैं जिन्हें मैं बचपन में अक्सर सुना करता था, पाठ करते हुए मुक्तिबोधजी से। स्व. श्री गजानन माधव मुक्तिबोध मेरे पिता, जिन्हें हम सभी, घरवाले दादा-दादी भी बाबू साहेब के नाम से संबोधित करते थे। मैं उनका श्रोता उस दौर में बना जब मुझे अस्थमा हुआ। दमे के शिकार बेटे को गोद में लेकर हालांकि वह इतना बड़ा हो गया था कि ग

अभी मैं 30 साल और जिंदा रहूंगा - जोगी

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छत्तीसगढ़़ जनता कांग्रेस का एक वर्ष   -दिवाकर मुक्तिबोध पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के नेतृत्व में गठित प्रादेशिक राजनीतिक पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस ने अभी हाल ही में अपना पहला स्थापना दिवस मनाया। गत वर्ष मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के गृह गाँव ठाठापुर में 21 जून को उन्होंने विशाल सम्मेलन में अपनी पार्टी को विधिवत नाम देते हुए घोषणा पत्र जारी किया था। तब से लेकर आज तक, इस पूरे एक वर्ष के दौरान अजीत जोगी चुप नहीं बैठे और निरंतर सभाएं, जनसंपर्क व जनआंदोलन के साथ-साथ घोषणाओं का पिटारा खोलते रहे। पार्टी का दावा है कि उसकी सदस्य संख्या दस लाख पार कर गई है जो कांग्रेस से कहीं अधिक है। भाजपा व कांग्रेस को छोड़कर छत्तीसगढ़ में जितनी भी राज्य स्तरीय अथवा राष्ट्रीय पार्टियों की शाखाएं है उन्हें जोगी कांगे्रस ने सार्थक जनदखल के मामले में पीछे छोड़ दिया है। वह राज्य में तीसरी शक्ति बनकर उभरी है जिसने प्रदेश के मतदाताओं के सामने सत्तारूढ़ भाजपा पर व कांग्रेस के अलावा नया राजनीतिक विकल्प पेश किया है। महज एक वर्ष के भीतर यह उपलब्धि असाधारण ही कही जाएगी। लेकिन राज्य विधानसभा के अगले चुनावों म

बस्तर : बंदूक नहीं विश्वास की जीत होनी चाहिए

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-दिवाकर मुक्तिबोध 28 अप्रैल को राज्य विधानसभा के विशेष सत्र में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा- नक्सलियों से अब आर-पार की लड़ाई है। जब तक उनका सफाया नहीं हो जाता, वे चैन से नहीं बैठेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि अब नक्सलियों से कोई बातचीत नहीं होगी। बस्तर में नक्सली हिंसा पर मुख्यमंत्री की चिंता, बेचैनी और नाराजगी स्वाभाविक है। वर्ष 2003 से उनके नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और राज्य की इस भीषणतम समस्या जो राष्ट्रीय भी है, पर अब तक काबू नहीं पाया जा सका है। और तो और मुख्यमंत्री के रूप में वर्ष 2013 से जारी उनके तीसरे कार्यकाल में नक्सली घटनाएं बढ़ी हैं तथा हिंसा का ग्राफ और उपर चढ़ा है। राज्य के नक्सल इतिहास में सर्वाधिक स्तब्धकारी घटना अप्रैल 2010 में बस्तर के ताड़मेटला में घटित नक्सल हमला था जिसमें केन्द्रीय सुरक्षा बल के 75 जवान मारे गए थे। तब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी। इस नरसंहार से पूरे देश में शोक और गुस्से की जबरदस्त अभिव्यक्ति हुई। सरकार ने नक्सलियों से निपटने कमर कसी, व्यूहरचनाएं बनाई गई, बड़ी-बड़ी बातें की गई, छत्तीसगढ़ में

खास से आम बनने की कवायद

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  -दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह पिछले कुछ समय से बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। बातचीत का उनका तौर-तरीका और व्यवहार में फर्क महसूस होने लगा है। वे कठोर बनने की कोशिश कर रहे हैं। सरकारी मुलाजिमों को यह जताने का प्रयास कर रहे हैं कि उन्हें ढीला-ढाला और सीधा-साधा शासनाध्यक्ष न समझा जाए जो भयानक से भयानक गलतियों पर भी 'भूल गया, माफ किया' नीति पर चलता है। उनकी बातचीत का टोन बदल गया है। वे अब भरी सभा में, सरकारी बैठकों में लापरवाह, कामचोर व भ्रष्ट अफसरों पर फटकार बरसाने लगे हैं। चेतावनी देने लगे हैं कि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जाएगी। सरकार को जनता से दूर करने की कोशिशें कामयाब नहीं होने दी जाएंगी। हर सूरत में प्रदेश के गरीब-बेसहारों को प्रसन्न रखना, उनके दु:ख दर्द को दूर करना, उनकी समस्याओं का समाधान करना व राज्य में विकास की गंगा बहाना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है। प्रदेश की गायों को लेकर वे अब इतने ज्यादा संवेदनशील हो गए हैं कि उन्होंने यहां तक कह दिया है कि जो गायों का वध करेगा उसे लटका दिया जाएगा। गायों के प्रति आस्था

एक विचार का यों बदल जाना

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-दिवाकर मुक्तिबोध रामचन्द्र गुहा यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व, उनका भाषाई कौशल, लोकदृष्टि और सबका साथ सबका विकास जैसे लोकलुभावन नारे का कमाल है या समानांतर चलते उस खौफ का जो विचारों को रौंदता है, उन्हें बदलने को मजबूर कर देता है। इसे तय कर पाना बड़ा मुश्किल है। वस्तुस्थिति तो वही बता सकता है जो इस दौर से गुजरता है या गुजर रहा है और जो वैचारिक दृष्टि से प्रबल है, लोकतांत्रिक है। करीब दो वर्ष पूर्व देश में घटित विभिन्न घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में सहिष्णुता-असहिष्णुता पर लंबी बहस चली, तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आई, साहित्यिक, सांस्कृतिक व कलावादी पुरस्कारों को लौटाने का लंबा चौड़ा सिलसिला शुरू हुआ, इतिहास को बदलने की कुचेष्टा की गई, सांस्कृतिक दुष्चक्र, साम्प्रदायिक भावनाओं का विस्तार, उनका पोषण और फासिस्ट ताकतों का उत्थान देश ने देखा और अभी भी देख रहा है। जनता खामोश है। जो नहीं हैं उन्हें चुप कराया जा रहा है या पक्ष में बोलने के लिए विवश किया जा रहा है। उन्हें हथियार दिखाए जा रहे हैं। शब्दों के हथियार। इसी वर्ष जनवरी 2017 को प्रख्यात लेखक जी. राजशेखर ने देश मे

'कम सून, बाबा'

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यादें - रश्मि -दिवाकर मुक्तिबोध जिंदगी में कुछ खास तिथियां होती हैं जो ताउम्र साथ चलती हैं - शोक व आल्हाद की तिथियां। अतीत में खो जाने की तिथियां, यादों को ताजा करके प्रफुल्लित होने की तिथियां या फिर गहरे शोक में डूब जाने की तिथियां। 11 सितंबर 1964, 08 जुलाई 2010, 29 जनवरी 2012, 7 अक्टूबर 2015 और अब 22 अक्टूबर 2016। ये मेरी शोक की तिथिया हैं। 1964 को पिताजी गए, 2010 में माँ नहीं रही, 2012 में बड़ी बहन चली गई, 2015 में भाभी नहीं रही और 22 अक्टूबर 2016 को बड़ी बेटी ने साथ छोड़ दिया। अब इनकी भौतिक उपस्थिति नहीं हैं लेकिन स्मृतियां तो हैं जो हर पल, दिलों दिमाग के दरवाजे को खटखटाती हैं, अदृश्य उपस्थिति का एहसास कराती है और जीने का सहारा भी बनती हैं।        बेटी रश्मि को याद करता हूं। जन्म तिथि 1 सितंबर 1979। स्थान रायपुर, छत्तीसगढ़। महामाया मंदिर के परिसर में बने मकान में रहते हुए कामना की थी कि पहली संतान बेटी ही हो। इच्छा पूरी हुई। रश्मि का जन्म हुआ। सीने से लगी उस नन्ही परी के बड़े होने का अहसास तब हुआ जब उसकी शादी हुई और बाद में वह दो प्यारे-प्यारे बच्चों की माँ बनी। लगने लगा