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चिकित्सा में पी. पी. पी. विचार करें सरकार

- दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने के राज्य सरकार के फैसले पर बहस की पर्याप्त गुंजाइश है , किंतु दुर्भाग्य से ऐसा कुछ होता नहीं है। जनकल्याणकारी योजनाएं चाहे केन्द्र की हों या राज्य सरकार की , वे वैसी ही होती हैं जैसा प्राय: सरकारें चाहती हैं , इसमें जनविचारों की भागीदारी कतई नहीं होती जबकि कहा जाता है सरकारें जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। यदि सभी नहीं , तो क्या कुछ योजनाओं पर प्रबुद्ध नागरिकों , विशेषज्ञों से विचार-विमर्श नहीं किया जा सकता ? जाहिर है न नौकरशाही इसकी इजाजत देती हैं और न ही राजनीति क्योंकि यहां सवाल श्रेय का , श्रेष्ठता का एवं अहम् का होता है। बहरहाल पिछले दिनों की एक खबर के मुताबिक छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य के सभी 27 जिलों में बच्चों एवं माताओं के लिए अस्पताल बनाने एवं उन्हें पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप यानी पीपीपी के तहत निजी हाथों में सौंपने का फैसला किया है। सरकारी खबर के अनुसार भवन एवं आवश्यक सभी सुविधाओं की व्यवस्था सरकार करेगी। बाद में उनके संचालन की जिम्मेदारी निजी उद्यमियों को सौंप दी जाएगी , ठीक वैसे ही जैसा कि राज

सत्ता के 13 वर्ष कम तो नहीं होते

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-दिवाकर मुक्तिबोध मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को देखकर आपको, आम आदमी को क्या लगता है? क्या राय बनती है? अमूमन सभी का जवाब एक ही होगा- भले आदमी हैं, नेकदिल इंसान। सीधे, सरल। मुख्यमंत्री होने का दंभ नहीं। सबसे प्रेम से मिलते हैं। सबकी सुनते हैं। लेकिन शासन? जवाब यहां भी एक जैसा ही होगा - लचर है। नौकरशाहों पर लगाम नहीं है। उनकी मनमानी रोकने में असमर्थ है। धाक नहीं है। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं है। सुस्त है। सरकार वे नहीं, नौकरशाह चला रहे हैं। सरकारी योजनाओं का लाभ निचले तबके तक नहीं पहुंच पा रहा है। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता नहीं है। फाइलों के आगे बढऩे की रफ्तार बेहद सुस्त है और सर्वत्र कमीशनखोरी का जलवा है। और उनकी राजनीति? यहां भी प्राय: सभी का जवाब तकरीबन एक जैसा ही होगा- बहुत घाघ हैं। जबरदस्त कूटनीतिज्ञ। अपने विरोधियों को कैसे चुन-चुनकर ठिकाने लगाया। आदिवासी नेतृत्व की मांग करने वालों की हवा निकाल दी। उनकी कुर्सी की ओर आंखें उठाने वालों की बोलती बंद कर दी। शासन की आलोचना करने वाले सांसदों व पार्टी नेताओं को आईना दिखा दिया। कईयों के लिए मार्गदर्शक की भूमिका का इंतजाम कर दिया। संग

एनजीओ और मंत्री का दर्द

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-दिवाकर मुक्तिबोध       कहते हैं देश बदल रहा है, शहर बदल रहे हैं, गांव बदल रहे हैं लेकिन क्या वे बदल रहे हैं जिन्हें वास्तव में बदलना चाहिए, देश हित में, समाज हित में, लोक हित में? जवाब है - बिलकुल नहीं। न बदलने वालों की अनेक श्रेणियां हैं- भ्रष्ट राजनेता हैं, भ्रष्ट मंत्री हैं, भ्रष्ट अफसर हैं और इनके द्वारा पोषित वे संस्थाएं हैं, संगठन हैं जिन्होंने समाज सेवा का नकाब पहन रखा है। गैर सरकारी संगठन यानी एन.जी.ओ. भी इसी तरह की अमर बेल है जो सरकार के महकमों से लिपटी हुई है और जिनके कामकाज को लेकर लंबी बहसें होती रहती हैं। निष्कर्ष के रूप में यह माना जाता है कि देश-प्रदेश में कार्यरत बहुसंख्य एन.जी.ओ. अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। वे सरकारी नुमाइंदों के साथ गठजोड़ करके बेतहाशा पैसा पीट रहे हैं। सामाजिक क्षेत्र में इनके द्वारा किए जाने वाले कथित कामकाज काफी हद तक कागजों तक सिमटे हुए हैं। इनके भौतिक सत्यापन की न तो कभी जरूरत महसूस की जाती है और न ही कभी जांच बैठायी जाती है। एक तरह से ये सरकार के नियंत्रण से मुक्त है। बेखौफ हैं। भ्रष्टाचार का माध्यम बने हुए हैं

अब इस हवा का क्या करें

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-दिवाकर मुक्तिबोध    स्मार्ट सिटी, स्मार्ट विलेज, मेक इन इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसे लुभावने नारों  के बीच गौर करें शहरों, गांवों में वस्तुस्थिति क्या है? ढाई वर्ष पूर्व केन्द्र में भाजपा सरकार के सत्तारुढ़ होने के बाद क्या वाकई देश बदल रहा है? लंबी बहस का विषय है। तर्क-कुतर्क अंतहीन क्योंकि बहुत कुछ राजनीतिक चश्मे से देखा जाना है। बहरहाल केवल राज्य की बात करते हैं। अपने राज्य की, छत्तीसगढ़ की, राजधानी रायपुर की। और बात भी केवल हवा की, वायुमंडल की जो दिनों दिन इतना विषाक्त हो रहा है कि सांस लेना भी मुश्किल। इस विषय पर आगे बढऩे के पूर्व हाल ही में मीडिया में आई दो खबरों पर गौर करेंगे। पहली खबर थी ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजिज की उस रिपोर्ट की जिसके अनुसार वर्ष 2015 में वायुप्रदूषण से सबसे अधिक मौतें भारत में हुई हैं जो चीन से भी अधिक है। आंकड़ों में कहा गया है कि 2015 में भारत में रोजाना 1640 लोगों की असामयिक मौतें हुई जबकि इसकी तुलना में चीन में 1620 जानें गई। चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित देश माना जाता है। अब दूसरी खबर देखें, रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय

इस उत्सव में जन कहां

-दिवाकर मुक्तिबोध      इस वर्ष का राज्योत्सव छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के लिए खास महत्व का है। यह गंभीर चुनौतियों की दृष्टि से भी है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति की वजह से भी। मोदी राज्योत्सव का उद्घाटन करेंगे तथा काफी वक्त बिताएंगे। जाहिर है उनकी उपस्थिति को देखते हुए राज्य सरकार विकास की झलक दिखाने और बहिष्कार पर आमादा कांग्रेस व अन्य पार्टियों से राजनीतिक स्तर पर निपटने में कोई कोर कसर नहीं छोडऩी चाहती। प्रधानमंत्री को यह दिखाना जरूरी है कि राज्य में सब कुछ ठीक-ठाक है, अमन-चैन है, सरकार की योजनाएं दुत गति से चल रही हैं और विकास छत्तीसगढ़ के कोने-कोने में पसरा नजर आ रहा है। राजनीतिक चुनौतियों से निपटने में भी सरकार और पार्टी सफल है तथा सन् 2018 के राज्य विधानसभा चुनाव व उसके अगले वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव के संदर्भ में प्रधानमंत्री को फिकर करने की जरूरत नहीं है। इसके लिए सब कुछ युद्ध स्तर पर चल रहा है, राजनीतिक मोर्चे के साथ ही सामाजिक व आर्थिक मोर्चे पर भी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह संदेश देने, उन्हें आश्वस्त करने सरकार और पार्टी जीतोड़ मेहनत कर रह

स्मरण: वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे

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-दिवाकर मुक्तिबोध    'शिष्य। स्पष्ट कह दूं कि मैं ब्रम्हराक्षस हूँ किंतु फिर भी तुम्हारा गुरु हूँ। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला, किन्तु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गई और मैं ब्रम्हराक्षस के रुप में यहाँ विराजमान रहा। ' 'नया खून' में जनवरी 1959 में प्रकाशित कहानी 'ब्रम्हराक्षस का शिष्य' मैंने बाबू साहेब से सुनी थी। बाबू साहेब यानी स्वर्गीय श्री गजानन माधव मुक्तिबोध, मेरे पिता जिन्हें हम सभी, दादा-दादी भी बाबू साहेब कहकर पुकारते थे। यह उन दिनों की बात है जब हम राजनांदगाँव में थे - दिग्विजय कॉलेज वाले मकान में। वर्ष शायद 1960। तब हमें बाबू साहेब यह कहानी सुनाते थे पूरे हावभाव के साथ। हमें मालूम नहीं था कि यह उनकी लिखी हुई कहानी हैं। वे बताते भी नहीं थे। कहानी सुनने के दौरान ऐसा प्रभाव पड़ता था कि हम एक अलग दुनिया में खो जाते थे। विस्मित, स्तब्ध और एक तरह से संज्ञा शून्य। अपनी दुनिया में तभी लौटते थे जब कहा

धोनी की कप्तानी की अग्निपरीक्षा आज से

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हेलीकॉप्टर शॉट आसमान छुएगा या जमींदोज होगा? -दिवाकर मुक्तिबोध आज से एम.एस. धोनी की एक नई परीक्षा की शुरुआत है। यह परीक्षा ठीक वैसे ही है जब कोई नवोदित खिलाड़ी टेस्ट कैप के लिए घरेलू क्रिकेट में झंडा फहराने की कोशिश करता है। दरअसल न्यूजीलैंड के खिलाफ एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय 5 मैचों की शुरुआत 16 अक्टूबर को धर्मशाला से हो रही है। एक दिवसीय के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी इस शृंखला में कड़ी परीक्षा के दौर से गुजरने वाले हैं। इस परीक्षा को टेस्ट कप्तान विराट कोहली ने और भी कठिन बना दिया है। उन्होंने तीन टेस्ट मैचों की शृंखला में मेहमान टीम को बुरी तरह से धोया और आईसीसी रैंकिंग में भारत को पुन: नम्बर एक की स्थिति में पहुंचा दिया। धोनी भी ऐसा कमाल कर चुके हैं किंतु अब एक दिवसीय में रैकिंग सुधारने के लिए उन्हें न्यूजीलैंड को 4-1 से हराना होगा। धर्मशाला की पिच सफलता के लिहाज से भारत के लिए अनुकूल नहीं है। वहां अब खेले गए 2 एक दिवसीय में भारत ने 1 मैच जीता, एक हारा हालांकि इस पिच पर अलग-अलग क्रिकेट देशों के बीच अब तक कुल 10 मुकाबले हुए हैं। तो अब सवाल क्या धोनी की कप्तानी में

पितरों का तर्पण और छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस

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-दिवाकर मुक्तिबोध पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के नेतृत्व में गठित छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस प्राय: हर मौके को राजनीतिक दृष्टि से भुनाने की फिराक में रहती है। कह सकते हैं, एक ऐसी राजनीतिक पार्टी जिसे अस्तित्व में आए अभी 6 माह भी नहीं हुई हैं, के लिए यह स्वाभाविक है कि वह जनता के सामने आने का, उनका समर्थन हासिल करने का तथा उनके बीच अपनी पैठ बनाने का कोई भी अवसर हाथ से जाने न दें लेकिन ऐसा करते वक्त एक चिंतनशील राजनेता को यह भी देखने की जरूरत है कि मानवीय संवेदनाओं की आड़ में उनकी राजनीति क्या तर्कसंगत और न्यायोचित कही जाएगी और क्या इस तरह की राजनीति पार्टी के लिए फायदेमंद होगी? यह ठीक है कि अजीत जोगी हर सूरत में वर्ष 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी दमदार उपस्थिति दिखाना चाहते हैं और इसके लिए वे हर किस्म की कवायद के लिए तैयार हैं, आगे-पीछे नहीं सोच रहे हैं।           बीते महीनों के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो तार्किक दृष्टि से राजनीति करने के लिए उचित नहीं ठहराए जा सकते अथवा सवालिया निशान खड़े करते हैं। ताजातरीन दो मामले सामने हैं- राजधानी के सेरीखेड़ी में चार बच्

दलित की मौत और दलित होने का अर्थ

-दिवाकर मुक्तिबोध खुशहाल छत्तीसगढ़, विकास की दौड़ में सबसे तेज छत्तीसगढ़, हमर छत्तीसगढ़ और भी ऐसे कई जुमले जो राज्य सरकार उछालती रहती है, दावे करती है। परन्तु क्या वास्तव में यही पूरा सच है ? क्या सब कुछ व्यवस्थित चल रहा है ? क्या राज्य में अमन चैन है ? क्या शासन-प्रशासन की संवेदनशीलता कायम है ? क्या नक्सल मोर्चे में पर सब कुछ ठीक चल रहा है ? अब कोई फर्जी मुठभेड नहीं ? पुलिस का चेहरा सौम्य और कोमल है तथा वह जनता की सच्चे मायनों में मित्र है। और क्या अब वह थर्ड डिग्री का इस्तेमाल नहीं करती तथा थाने में तलब किए गए निरपराध लोगों के साथ में सलीके से पेश आती है? अब अंतिम प्रश्न-क्या पुलिस हिरासत में मौतों का सिलसिला थम गया है? इन सभी सवालों का एक ही जवाब है- ऐसा कुछ भी नहीं है। न पुलिस का चेहरा बदला है न शासन-प्रशासन का। संवेदनशीलता गायब है तथा क्रूरता चरम पर । इसीलिए पुलिस हिरासत में मौत की घटनाएं भी थमी नहीं है।           बीते वर्षो में घटित पुलिस-पशुता की कितनी घटनाएं याद करें। कवर्धा में पुलिस हिरासत में बलदाऊ कौशिक की मौत, नवागढ़ में भगवन्ता साहू, आरंग में राजेश, ज

राजधानी ही नहीं गांवों की ओर भी झांकिए जनाब

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फोटो कैप्शन : सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री टी.एस.ठाकुर ने 10 सितंबर को राजधानी रायपुर के भारतीय प्रबंध संस्थान (आई.आई.एम.) के प्रेक्षागृह में राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण बिलासपुर द्वारा आदिवासियों के अधिकारों का संरक्षण और प्रवर्तन विषय पर आयोजित देश की पहली कार्यशाला को संबोधित किया। इस कार्यक्रम में मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह भी मौजूद थे। -दिवाकर मुक्तिबोध सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर छत्तीसगढ़ की प्रगति से अभिभूत हैं। हाल  मेंही में वे रायपुर प्रवास पर थे। महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के अलावा उन्होंने नई राजधानी का भी दौरा किया। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी उनके साथ थे। यहां चमचमाती चौड़ी सड़कें, ऊंची-ऊंची खूबसूरत इमारतें, हरे-भरे पेड़-पौधे उन्हें आनंदित करने के लिए काफी थे। यह सब देखकर उनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी-''छत्तीसगढ़ को बाहर के लोग गरीब और पिछड़े राज्य के रूप में देखते हैं पर ऐसा नहीं हैं। राज्य तेजी से प्रगति कर रहा है और इसका श्रेय मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को है।ÓÓ अब अ

इंतजार है जब लोग कहेंगे बैस मजबूरी नहीं, जरुरी है

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- दिवाकर मुक्तिबोध           प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं रायपुर लोकसभा से 7 बार के सांसद रमेश बैस पर अरसे से मेहरबान किस्मत अब रुठती नजर आ रही है। राज्य में मोतीलाल वोरा के बाद बैस को ही किस्मत का सबसे धनी नेता माना जाता है। कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष व कार्यसमिति के सदस्य वयोवृद्ध वोराजी पर किस्मत अभी भी मेहरबान है बल्कि उसमें और चमक पैदा हुई है क्योंकि वे सोनिया गाँधी के सबसे अधिक विश्वासपात्रों में से एक है। पर अब भाजपा में रमेश बैस के साथ ऐसा नहीं है। भाग्य दगा देने लगा है जबकि इसी के भरोसे वे भाजपा की राजनीति में सीढिय़ां चढ़ते रहे हैं। राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को अभी भी अच्छी तरह याद होगा कि अटलजी के जमाने में लोकसभा चुनाव के दौरान छत्तीसगढ़ में एक नारा बुलंद हुआ करता था - 'अटल बिहारी जरुरी है, रमेश बैस मजबूरी है।Ó इस नारे में सारा फलसफा छिपा हुआ है। लेकिन अब नरेंद्र मोदी-अमित शाह के युग में रमेश बैस न तो जरुरी है और न मजबूरी। इसलिए आगामी लोकसभा चुनाव में जो 2019 में होने वाला है, बैस की पतंग कट सकती है बशर्ते उन पर किस्मत फिर फिदा

फिलहाल कितने दूर, कितने पास

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-दिवाकर मुक्तिबोध  हाल ही में सीएम हाउस में आयोजित एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। सीएम डॉ. रमन सिंह के बोलने की जब बारी आई तो उन्होंने अपने प्रारंभिक संबोधन में मंच पर आसीन तमाम हस्तियों मसलन मुख्य सचिव विवेक ढांड, रियो ओलम्पिक में महिला हाकी टीम की सदस्य के रूप में प्रतिनिधित्व करने वाली राजनांदगांव की कल्पना यादव, महापौर प्रमोद दुबे, राज्य के मंत्री राजेश मूणत तथा आयोजन के प्रमुखों का नाम लिया किंतु राज्य के सबसे कद्दावर मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का नाम लेना वे भूल गए। क्या वास्तव में भूल गए या जानबूझकर छोड़ दिया? ऐसा प्राय: होता नहीं है। मुख्यमंत्री मंचस्थों के सम्मान का हमेशा ध्यान रखते हैं। इसलिए मान लेते हैं कि बृजमोहन अनायास छूट गए। पर यदि राजनीति की परतों को एक एक करके खोला जाए तो यह बात पुन: स्पष्ट होती है कि बृजमोहन मुख्यमंत्री के निकटस्थ मंत्रियों में शुमार नहीं है। इसलिए इस घटना से दूरियां दर्शाने वाला एक संदेश तो जाता ही है। सो, वह गया।       दरअसल रमन सिंह मंत्रिमंडल में जो इने-गिने प्रगतिशील विचारों एवं राजनीतिक सूझ-बूझ के मंत्री हैं, उनमें बृजमोहन

व्यवस्था पर कड़ी चोट है एक शिक्षित बेरोजगार का आत्मदाह

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-दिवाकर मुक्तिबोध एक नवंबर, 2001 को मध्यप्रदेश से अलग होकर पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आए छत्तीसगढ़ की अब तक की सबसे त्रासद घटना है विकलांग योगेश साहू की मौत। 12वीं तक शिक्षित राजधानी रायपुर के इस युवा ने दो साल के निरंतर संघर्ष के बाद जब एक  अदद सरकारी नौकरी की आस छोड़ दी, तब उसने स्वयं को खत्म करने का निर्णय लिया। 21 जुलाई को प्रात: आठ बजे वह अपने बीरगांव स्थित घर से मुख्यमंत्री जनदर्शन में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से मिलने आखिरी उम्मीद के साथ निकला और नाउम्मीद होने के बाद मुख्यमंत्री आवास के सामने पेट्रोल छिड़ककर खुद को आग के हवाले कर दिया। लगभग 85 प्रतिशत झुलसी उसकी काया ने छह दिन के संघर्ष के बाद अंतत: जिंदगी का साथ छोड़ दिया। उसकी मौत दरअसल रोजगार के लिए संघर्षरत शिक्षित युवाओं में व्याप्त असंतोष, निराशा, कुंठा और बेपनाह दर्द की मार्मिक अभिव्यक्ति है। यह सड़ी-गली व्यवस्था पर एक और निर्मम चोट है।         21 जुलाई को मुख्यमंत्री आवास के समक्ष विकलांग शिक्षित बेरोजगार योगेश साहू ने आत्मदाह किया। छत्तीसगढ़ के इतिहास में आत्मदाह की यह पहली घटना है जिसने स