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Showing posts from September, 2021

कुछ यादें कुछ बातें-17

-दिवाकर मुक्तिबोध पत्रकारिता को पेशा बनाऊँगा, सोचा नहीं था। कह सकते हैं इस क्षेत्र में अनायास आ गया। जब भिलाई से हायर सेकेंडरी कर रहा था, तीन बातें सोची थीं। एक -भिलाई स्टील प्लांट में नौकरी नहीं करूंगा, दो- केमिस्ट्री में एमएससी करूँगा और तीसरी बात- शैक्षणिक कार्य नहीं करूंगा। पर जैसा सोचा था, वैसा नहीं हो पाया। भिलाई से दूर रहने का खास कारण नहीं था। यह नगर पचास साल पहले भी खूबसूरत था। इन वर्षों में सर्वत्र हरियाली बिछ जाने के कारण वह अब और भी सुंदर हो गया है। पर साठ के उस दशक में सन्नाटे में डूबा हुआ यह शहर जहां चहल-पहल सिर्फ़ बाजारों में नजर आती थीं, मुझे अजीब सा लगता था। उदास-उदास सा। शहर की उदासीनता मुझे पसंद नहीं थी। मैं जीवंतता चाहता था। इसलिए तय किया भिलाई में नहीं रहूँगा। यह संकल्प तो पूरा हो गया पर शेष दोनों नहीं हो पाए। एमएससी नहीं कर सका और स्कूल टीचर या प्रोफेसर न बनने का प्रण भी धराशायी हो गया। दरअसल आप जैसा सोचते हैं, हर बार वैसा घटता नहीं है अतः जिंदगी की गाडी प्रायः किसी और मोड पर पहुंच जाती है। मेरी भी गाडी कुछ स्टेशनों पर रूकती हुई अंतत: पत्रकारिता के प्लेटफार्म पर

कुछ यादें कुछ बातें-16

-दिवाकर मुक्तिबोध मैं बीएससी फायनल में पहुंचा ही था कि मुझे सरकार के शिक्षा विभाग में नौकरी मिल गई। शिक्षक की। लोअर डिवीजन टीचर। खम्हारडीह शंकर नगर के मिडिल स्कूल में। यह स्कूल मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल के निवास से लगा हुआ था। यह बात है 1969-70 की। अब साइंस कालेज में पढाई और नौकरी दोनों को साधना था। स्कूल सुबह का था व कालेज में मेरी कक्षाएं 11 बजे से। दिक्कत यह थी ये दोनों स्थान विपरीत दिशा में थे। स्कूल तो समय पहुंच जाता था पर कालेज ? साइकिल कितनी भी तेज चलाएं, शुरुआती एक दो पीरियड छूट ही जाते थे। भूगर्भ विज्ञान ( जिओलॉजी ) के हमारे प्रोफेसर थे श्री वी जे बाल। वे मुझसे प्रसन्न रहते थे पर एक दिन मेरी हालत देखकर उन्होंने समझाइश दी और कहा - "दो नावों पर पैर न रखो, गिर पडोगे। या तो नौकरी कर लो या पढाई। आखिरी साल है, क्यों खतरा मोल लेते हो। मेरी मानो, नहीं कर पाओगे।" वे मुझे आगाह कर रहे थे पर मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। वे ठीक ही कह रहे थे। लेकिन सरकारी नौकरी छोडऩे का मन नहीं था फिर वह मेरी जरूरत भी थी। और सबसे बड़ी बात थी मेरा आत्मविश्वास। मुझे पूर

कुछ यादें कुछ बातें-15

-दिवाकर मुक्तिबोध अपने से शुरू करता हूं, दो चार छोटी मोटी बातें। वैसे बचपन की अनेक घटनाएं स्मृतियों में दर्ज हैं , पर एक रह रहकर याद आती रहती है। घटना नागपुर की। मैं प्राइमरी कक्षा का छात्र था। हम मोहल्ला गणेश पेठ में रहते थे। एक दिन एक फेरीवाले ज्योतिषी महाराज घर के दरवाजे पर आकर खड़े हो गए और आवाज लगाई। मां बाहर आई। आमतौर पर ऐसा कोई व्यक्ति अनायास प्रकट हो जाए व भविष्य जानने का प्रलोभन दें तो न चाहते हुए भी खुद के बारे में कुछ जानने की इच्छा हो जाती है। इस ज्योतिषी ने अपनी लच्छेदार बातों से ऐसा भरमाया कि मां अपना भविष्य जानने उतावली हो गई। जाने क्या-क्या बातें उसने मां को बताई अलबत्ता एक अजीब सी सम्मोहन की हालत में मां ने मेरी भी हथेली उसके सामने फैला दी। उसने लकीरें पढकर मां को क्या बताया, वह याद नहीं किंतु एक बात जरूर याद है कि मां के पूछने पर उसने मेरी आयु 60 वर्ष बताई। यह सुनकर मां ने क्या सोचा होगा, उसकी कल्पना की जा सकती है। यकीनन उसके माथे पर चिंता की लकीरें फैल गई होंगी। प्रत्येक मां अपने बच्चों के शतायु होने की कामना करती है। जुग-जुग जीने की कामना, लंबी उम्र की कामना हाल

कुछ यादें, कुछ बातें - 14

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बड़े भैय्या, रमेश भैय्या _____________________ - दिवाकर मुक्तिबोध 82 के हो गए हैं रमेश भैय्या। रमेश गजानन मुक्तिबोध। मेरे बडे भाई। हम भाइयों , मैं, दिलीप व गिरीश में सबसे बड़े। भिलाई स्टील प्लांट की नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्होंने भाइयों के साथ ही रहना पसंद किया। हम चारों भाई रायपुर के सड्डू इलाके की एक कालोनी मेट्रो ग्रीन्स में रहते हैं। रो हाउसेज हैं । चारों के एक जैसे घर, एक दूसरे से सटे हुए और अलग-थलग भी। चारों घरों के बीच में कोई बाउंड्री वाल नहीं है। यानी एक घर से दूसरे घर में जाना हो तो गेट खोलकर बाहर सडक पर निकलने की जरूरत नहीं। भीतर से ही एक एक दूसरे के यहां आना जाना हम लोग करते हैं। यह सुविधाजनक है। यह अति संक्षिप्त जानकारी। रमेश भैय्या पर कुछ लिखने के पूर्व मुझे लगा हमारे स्थायी ठिकाने के बारे में बताना चाहिए। यह काम हो गया सो अब उन दिनों, महीनों व वर्षों की ओर लौटते हैं जहां से गुजरते हुए हम सभी अलग-अलग तिथियों में साठ पार कर गए। गिरीश चूंकि सबसे छोटा है अतः उसने अभी-अभी इस आंकड़े को स्पर्श किया है। भाइयों में रमेश भैय्या के बाद मेरा ही नंबर है। हम उन्हें रमेश भाऊ कहकर

कुछ यादें कुछ बातें - 13

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फेसबुक पर 'कुछ यादें-कुछ बातें' स्मरण-श्रृंखला की आगे की कड़ियों की शुरुआत आज से हफ्ते में दो बार। इस सीरीज के प्रारंभ में परिजनों की यादों के अलावा उन संपादकों के संंबंध में अपने अनुभवों को साझा किया था जिनके मातहत मैंने विभिन्न अखबारों में काम किया। इसकी एक दर्जन कड़ियां थीं जो चंद माह पूर्व फेसबुक पर पोस्ट हुई। श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए पत्रकारिता के इस सफरनामे में अब उन साथियों का जिक्र है जो मेरे सहकर्मी रहे। फिलहाल इनमें से कुछ के बारे में कुछ बातें , खूब मीठी किंतु हल्की कड़वी भी। लेकिन प्रारंभ पिताजी के छोटे भाई व मेरे चाचा, मराठी के प्रख्यात कवि आलोचक शरच्चन्द्र माधव मुक्तिबोध जिनका यह जन्म शताब्दी वर्ष है तथा बड़े भाई रमेश मुक्तिबोध से। इनके बाद क्रमशः कुछ अपने बारे में, पत्रकार मित्रों व साथियों के बारे में। -------------------------------------------------------------- मेरे काका, बबन काका _______________________ - दिवाकर मुक्तिबोध बबन काका को गुज़रे 37 वर्ष हो गए। जब कभी उनकी याद आती है तो एक दृश्य आँखों के सामने जीवंत हो उठता है। वे मुझसे कहते नज़र आते हैं-ज़रा, तुम्