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Showing posts from April, 2014

आखिर इस हिंसा का जवाब क्या है?

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दिल दहल गया है। मुट्ठियां भींच गई हैं। आंखें शोले उगल रही हैं। यह आम आदमी का गुस्सा है जो बरसों से बस्तर में नक्सली हिंसा के तांडव को देखते-देखते आपे से बाहर हुआ जा रहा है। लेकिन लाचार है, मजबूर है। कर कुछ नहीं सकता। सिर्फ आंसू बहा सकता है या गुस्से से लाल-पीला हो सकता है। यही उसकी त्रासदी है। दरअसल जो कुछ करना है सत्ताधीशों को करना है, राजनीतिज्ञों को करना है, अफसरों को करना है। यह उनकी प्रतिबद्धता, समस्या को देखने का नजरिया और जवाबदेही का सवाल है। छत्तीसगढ़ या बस्तर के आम आदमी की भूमिका केवल इतनी हो सकती है कि वह सलवा जुडूम की तर्ज पर हिंसा के खिलाफ आवाज बुलंद करे, नक्सली खौफ को खारिज करे, एकजुटता दिखाए तथा जनजागरण के जरिए वातावरण बनाने की कोशिश करे। वह सरकार एवं पुलिस की मदद के लिए भी तैयार है बशर्ते उसे विश्वास में लिया जाए, उसकी सुरक्षा का माकूल बंदोबस्त किया जाए, उसका मान-सम्मान कायम रखा जाए, मदद के एवज में उसका जीना हराम न किया जाए और नक्सली समर्थक होने के शक में उसे फांसा न जाए, प्रताड़ित न किया जाए। लेकिन दिक्कत यह है कि उसके साथ ठीक उल्टा हो रहा है। इसीलिए बस्तर का आम आदमी प

रास्ता तो खुला पर है अंधेरा

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लोकसभा चुनाव की खबरों की भीड़ में एक खबर दबकर रह गई जबकि वह बेहद महत्वपूर्ण थी। बीबीसी हिन्दी सेवा ने 5 अप्रैल 2014 को एक खबर प्रसारित की जिसमें कहा गया था कि माओवादी कुछ शर्तों के साथ सरकार से बातचीत के लिए तैयार हैं। संगठन की केन्द्रीय कमेटी के प्रवक्ता अभय के हवाले से कहा गया कि वार्ता सचमुच की शांति के लिए और ईमानदारी के साथ होनी चाहिए लेकिन इसके लिए जेल में बंद वरिष्ठ नेताओं को रिहा करना होगा ताकि वार्ता के लिए माओवादियों की तरफ से प्रतिनिधिमंडल का गठन किया जा सके। चूंकि सेन्ट्रल कमेटी के प्रवक्ता अभय के साक्षात्कार के रूप में यह बयान जारी हुआ है लिहाजा इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है और यह माना जाना चाहिए कि पार्टी बातचीत के लिए वाकई तैयार है। यह सुखद है। इसे नक्सल समस्या के समाधान की दिशा में एक नई पहल के रूप में देखा जा सकता है। तीन वर्ष पूर्व, 1 जुलाई 2010 को 58 वर्षीय चेरिकुटि राजकुमार उर्फ आज़ाद के कथित इनकाउंटर में मारे जाने के बाद यह पहला मौका है जब माओवादियों की तरफ से वार्ता के लिए पहल की गई हो। सीपीआई (माओवादी) सेन्ट्रल कमेटी के प्रवक्ता एवं पोलित ब्यूरो के सदस्य आज़ाद

दावे हैं, दावों का क्या

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मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह कई बार यह कह चुके हैं कि लोकसभा चुनाव में भाजपा छत्तीसगढ़ की सभी 11 सीटें जीतेंगी। उन्होंने ऐसा विश्वास नरेन्द्र मोदी के छत्तीसगढ़ प्रवास के दौरान भी व्यक्त किया है। हाल ही में नई दिल्ली की दूरदर्शन टीम को दिए गए एक साक्षात्कार में भी मुख्यमंत्री ने कहा कि भाजपा के मिशन 272 के लक्ष्य को पूरा करने में छत्तीसगढ़ का शत-प्रतिशत योगदान रहेगा। उनका मानना है कि लोकसभा चुनाव में राज्य में भाजपा सरकार का दस वर्ष का कामकाज और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी के नाम का प्रभाव जबर्दस्त है और निश्चितत: इसके सकारात्मक परिणाम आएंगे। अब सवाल उठता है कि मुख्यमंत्री के इस विश्वास के पीछे ठोस वजह क्या है? क्या दस साल के कथित सुशासन के अलावा पिछले दो लोकसभा चुनावों एवं राज्य विधानसभा चुनाव में पार्टी का शानदार प्रदर्शन एवं जमीनी पकड़ प्रमुख कारण हैं या मुख्यमंत्री अतिआत्मविश्वास के शिकार हैं? सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में रमन के नेतृत्व में पार्टी ने राज्य की 11 में से 10 सीटें जीती थीं। केवल एक सीट कोरबा, कांग्रेस के खाते में गई। अब मुख्यमंत्री कोरबा को भी अपने खा

चंदू और जोगी

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इसमें जरा भी संदेह नहीं कि अजीत जोगी कुशल रणनीतिकार हैं। चुनावी शतरंज की बिसात पर वे अपने मोहरे कुछ इस तरह चलते हैं कि प्रतिद्वंद्वी की सारी आक्रामकता हवा हो जाती है और उसका पूरा ध्यान मात से बचने में लग जाता है। महासमुंद में यही हो रहा है। अजीत जोगी के सामने भाजपा के चन्दूलाल साहू हैं जिन्हें अपनी सीट बचाने की चिंता है। जोगी है कि शह पर शह देते जा रहे हैं। अपनी उम्मीदवारी की अधिकृत घोषणा होते ही उन्होंने पहला पांसा फेंका। उनके राजनीतिक इशारे को समझते हुए महासमुंद से एक-दो नहीं 10-10 चन्दूलाल साहुओं ने नामांकन दाखिल किया और उसके बाद वे गायब हो गए। लौटे तभी जब नाम वापसी की तारीख निकल गई। अब महासमुंद में भाजपा के चंदूलाल साहू के हमनाम 10 उम्मीदवार हैं जो कुछ और नहीं तो कुछ हजार वोट तो खराब कर ही सकते हैं। जोगी की रणनीति का यह कोई नया दांव नहीं है। इस तरह के चुनावी हथकंडे पहले भी आजमाये जाते रहे हैं। नवम्बर 2013 में सम्पन्न हुए राज्य विधानसभा चुनाव में बृजमोहन अग्रवाल के रायपुर दक्षिण से 19 मुस्लिम प्रत्याशियों को खड़ा कर दिया गया था। इसका मकसद सिर्फ इतना ही है कि मतदाताओं के सामने भ्रम