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Showing posts from 2014

पहले से कुछ बेहतर की उम्मीद

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रायपुर साहित्य महोत्सव - दिवाकर मुक्तिबोध 12 दिसंबर से प्रारंभ हो रहे तीन दिवसीय साहित्य महोत्सव के तनिक विवादित होने के बाद अब सवाल है कि गंभीर वैचारिक अनुष्ठान के जिस लक्ष्य को लेकर इसका आयोजन किया जा रहा है वह पूरा होगा अथवा नहीं। देश के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यिक मनीषियों की मौजूदगी में प्रादेशिक साहित्यिकों, साहित्यप्रेमियों एवं लोक कलाकारों को विचार-विमर्श के लिए एक सार्थक मंच उपलब्ध कराना आयोजन का दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है। यह उद्देश्य भी पूरा होगा या नहीं इस बात का पता तीन दिन तक चलने वाले 53 सत्रों में उपस्थित श्रोताओं की सक्रिय एवं वैचारिक भागीदारी से स्पष्ट हो सकेगा। महोत्सव पर विवाद की परछाइयां मूलत: राजनीतिक हैं तथा उन दो-तीन बड़ी घटनाओं की वजह है जिसने समूचे जनमानस को उद्वेलित, चिंतित और गमगीन कर रखा है। बिलासपुर जिले में आयोजित नसबंदी शिविर में आॅपरेशन के बाद हुई मौतें, जहरीली दवा सिप्रोसिन का प्रदेश के बाजारों में फैलाव, उसके सेवन से स्वास्थ्यगत समस्याएं एवं कुछ का प्राणांत, दवा वापस लेने के तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी ग्रामीण बाजारों में उसकी उपलब्धता तथा स

इस तरह जड़ों से नहीं कटेंगे नक्सली

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-दिवाकर मुक्तिबोध यह तो होना ही था। सुकमा जिले के धुर नक्सली क्षेत्र चिंतागुफा से कुछ किलोमीटर दूर कसलपाड़ में सीआरपीएफ की दो टुकड़ियों को घेरकर नक्सलियों ने जो हमला किया वह कोई नई रणनीति के तहत नहीं था। घात लगाकर गोलियां बरसाने जैसी वारदातें जिसमें जनहानि सुनिश्चित रहती हैं, वे पहले भी कई बार कर चुके हैं। इस बार भी उन्होंने ऐसा ही किया। सर्चिंग आॅपरेशन के लिए निकले केन्द्रीय रिजर्व पुलिस के जवानों को बड़े आराम से अपनी मांद में घुसने दिया और जैसे ही वे टारगेट में आए उन पर गोलियां बरसा दीं। जाहिर है, एकाएक हुए इस हमले में जवानों को संभलने या मोर्चा लेने का मौका नहीं मिला, लिहाजा फटाफट गोलीबारी में 2 अफसरों सहित 13 जवान मारे गए। इस घटना के साथ ही नक्सली यह संदेश देने में कामयाब रहे कि उनकी शक्ति भले ही क्षीण हो गई हो लेकिन मारक क्षमता में किसी तरह की कोई कमी नहीं आई है इसलिए यदि छत्तीसगढ़ सरकार आत्मसमर्पण  करने वाले दूसरी-तीसरी पंक्ति के नक्सलियों की भारी भरकम संख्या देखकर मुदित हो रही हो, तो ऐसा करने का उसे हक है लेकिन नक्सली हिंसकों को बस्तर से समूल नष्ट करने का उसका मकसद कम से कम अर्

सन्नाटे में बीता क्रिकेट का एक दिन, उठे कई सवाल

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- दिवाकर मुक्तिबोध क्रिकेट में इन दिनों कुछ ठीक नहीं चल रहा है। दो बड़ी घटनाएं घटी हैं। दोनों स्तब्धकारी एवं क्रिकेट, क्रिकेटरों व क्रिकेट प्रेमियों के लिए चिंतनीय। आस्ट्रेलिया के युवा प्रतिभाशाली बल्लेबाज फिलिप ह्यूज की सिर पर गेंद टकराने से मौत व भारत में सु्प्रीम कोर्ट का मुद्गल कमेटी रिपोर्ट पर की गयी टिप्पणियां जिसमें उसने चैन्नई सुपर किंग्स (सीएसके) की मान्यता रद्द करने व उसे आईपीएल से बाहर का रास्ता दिखाने कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ और भी कड़ी टिप्पणियां की हैं और इसके घेरे में सीएसके एवं भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी भी आए हैं। ये दोनों ही घटनाएं विचलित करने वाली हैं।           भारतीय क्रिकेट टीम इस समय आस्ट्रेलिया के दौरे पर हैं तथा उसे चार टेस्ट मैचों की श्रृंखला के बाद त्रिकोणीय एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैच भी खेलने हैं और फिर कुछ दिनों बाद वर्ल्डकप में हिस्सा लेना है। फिलहाल टीम की कमान विराट कोहली के हाथ में हैं। वे 4 दिसंबर से ब्रिस्बेन में प्रारंभ होने वाले पहले टेस्ट के भी कप्तान हैं क्योंकि पूर्णकालिक कप्तान महेंद्र सिंह धोनी अभी चोट से पूरी तरह उ

बर्खास्तगी,गिरफ्तारी,न्यायिक जांच के बाद आगे क्या?

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नसबंदी हादसा - दिवाकर मुक्तिबोध बिलासपुर के कानन पेंडारी नसबंदी हादसे की न्यायिक जांच की घोषणा के साथ ही छत्तीसगढ़ सरकार ने संकेत दिया है कि दोषियों को सजा दिलाने के मामले में उसकी नीयत पर शक  करने की जरुरत नहीं है। बिलासपुर के कानन पेंडारी और गौरेला में सरकारी नसबंदी शिविरों में  आपरेशन के बाद अब तक 14 महिलाओं की मृत्यु हो चुकी है। मौत का सिलसिला यद्यपि अभी थमा है, लेकिन 122 अभी भी अस्पतालों में है जिसमें से कई की स्थिति गंभीर है। जन स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने  वाली यह अब तक की सबसे बड़ी त्रासदी है जिसने राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। चूंकि परिवार नियोजन जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों को आयोजित एवं नियंत्रित करने की जिम्मेदारी अंतत: जिला प्रशासन की होती है लिहाजा इस मामले में वह भी अपनी  जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। इसीलिए सरकार ने घटना के चार दिनों के भीतर ही न केवल न्यायिक जांच की घोषणा की अपितु आॅपरेशन के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार डॉक्टर आर.के. गुप्ता एवं मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. एस सी.भांगे को निलंबित करने के बाद अंतत: बर्खास्त कर दिया। पिछली तमाम बड़ी घटनाओं मसलन बाल

स्वास्थ्य विभाग को सुधारने का जिम्मा किसका?

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संदर्भ - नसबंदी ऑपरेशन के बाद मौतें - दिवाकर मुक्तिबोध बिलासपुर के कानन पेंडारी नसबंदी शिविर में ऑपरेशन के बाद 11 महिलाओं की मौत की हृदयग्राही घटना के बाद क्या राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा देंगे? या छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह उन्हें इस्तीफा देने की हिदायत देंगे अथवा स्वास्थ्य मंत्रालय उनसे छीनने का राजनीतिक साहस दिखाएंगे? ये सवाल घटना की गंभीरता को देखते हुए सहज स्वाभाविक है और इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि केन्द्र में सत्तारुढ़ भाजपा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सख्त मिजाज है और सरकारी कामकाज में किसी भी किस्म की लापरवाही को बर्दाश्त करने के पक्ष में नहीं है। इसका उदाहरण इस बात से भी मिलता है कि घटना के फौरन बाद केन्द्र ने 5 सदस्यीय विशेष टीम का गठन किया जो घटनास्थल का दौरा करके सही-सही आंकलन करेगी। जाहिर है केन्द्र ने कानन पेण्डारी नसबंदी शिविर में हुई मौतों के मामलों को बेहद गंभीरता से लिया है तथा राज्य सरकार को स्पष्ट संकेत दिया है कि उसे इस मामले में कठोर कदम उठाने की जरुरत है। राजनीतिक दृष्टि से भले ही मंत्री पर गाज न गि

अजीत जोगी : एक दृष्टि

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- दिवाकर मुक्तिबोध (छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी पर केन्द्रित यह आलेख सन 2009-10 के दरमियान लिखा गया था। लिहाजा उनकी राजनीतिक गैर राजनीतिक कथा यात्रा इसी अवधि तक सीमित है।) छत्तीसगढ़ की राजनीति में अजीत प्रमोद कुमार जोगी का क्या स्थान होना चाहिए, एक लंबी बहस का विषय है। कांग्रेस की राजनीति में भी उनके संदर्भ में एकबारगी कोई ठोस राय कायम नहीं की जा सकती। इस पर भी काफी मतांतर हो सकता है। दरअसल यह स्थिति इसलिए है क्योंकि जोगी का व्यक्तित्व अजीबोगरीब है। राजनेताओं में वैसे भी व्यक्तित्व की पारदर्शिता का अभाव रहता है। उसमें सच और झूठ की कई परतें होती हैं लिहाजा उन्हें ठीक-ठीक पढ़ा नहीं जा सकता। पढ़ने की कोशिश करें तो उसमें भी काफी वक्त लगता है और ऐसे में यदि जोगी जैसे गूढ़ व्यक्तित्व आपके सामने हों और उसे पढ़ने की चुनौती आपने स्वीकार कर ली हो तो जाहिर सी बात है, आपको काफी मशक्कत करनी पड़ेगी। उनकी जिंदगी की किताब जिसमें साल दर साल नए-नए पन्ने जुड़ते जा रहे हैं, इतनी विचित्र और हैरतअंगेज है कि उन्हें पढ़ते-पढ़ते न केवल आप रोमांचित होंगे बल्कि इस नतीजे पर पहुंचेगे कि यह आदमी लाजवाब है, जब

कुछ यादें

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‘‘जीवन में ऐसी बहुतेरी घटनाएं घटती हैं जो यादें बनकर रह जाती हैं, कुछ कड़वी, कुछ मीठी और कुछ अवसाद भरी। वे कैसी भी हों, पीछा नहीं छोड़ती। जब आप तनिक फुर्सत में होते हैं, जिंदगी के पन्ने पलटने लगते हैं तो चलचित्र की तरह उनका अक्स आंखों के सामने उभरने लगता है और आप अतीत में खो जाते हैं। ऐसे ही कुछ संस्मरण हैं जो मैने फुर्सत के क्षणों में सन 2010 के प्रारंभ में लिखे थे। उनमें से तीन अजीम शख्सियतों से सोचा आपकी मुलाकात करा दूं। स्वर्गीय हो चुके ये तीन मित्र व छोटे-बड़े भाई हैं सर्वश्री सुशील त्रिपाठी, निर्भीक वर्मा एवं श्री रम्मू श्रीवास्तव।’’ ********************************************************************************** सुशील त्रिपाठी- बात कहां से शुरू करें ? कोई सिरा पकड़ में नहीं आ रहा। बहुत सोचा काफी माथापच्ची की। अतीत में कई डुबकियां लगाई। कई सिरे तलाशे। लेकिन हर सिरे को दूसरा खारिज करता चला गया। थक हार कर सोचा दिमाग खपाने से मतलब नही। कागज कलम एक तरफ रखें और चुपचाप आराम फरमाएं।        लेकिन क्या ऐसा संभव है? मन में कहां शांति? किस कदर बेचैनी होती है इसे हर शब्दकार बेहतर ज

आलोक तोमर के बहाने

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- दिवाकर मुक्तिबोध   आलोक तोमर को मैं व्यक्तिगत रुप से नहीं जानता. औपचारिक परिचय का सिलसिला भी कभी नहीं बना. हालांकि वे एकाधिक बार रायपुर आए पर खुद का परिचय देने के अजीब से संकोच की वजह से उनसे कभी नहीं मिल पाया किंतु बतौर पत्रकार मैं भावनात्मक रुप से उनसे काफी करीब रहा. पता नहीं इस दृष्टि से वे मुझे कितना जानते थे, किंतु मैं यह मानकर चलता हूं कि वे मुझे इतना तो जानते होंगे कि मैं उन्हीं की बिरादरी का हूं, हमपेशा हूं. बहरहाल इस बात का अफसोस बना रहेगा कि मैं एक प्रखर व तेजस्वी पत्रकार से रुबरु नहीं हो पाया. मैं उनकी प्रतिभा का उस समय से कायल था जब उन्होंने जनसत्ता, नई दिल्ली में कदम रखा था. निश्चय ही अपनी रिपोर्टिंग एवं विश्लेषणात्मक लेखों के जरिए जिन पत्रकारों ने अत्यल्प समय में अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाई उनमें आलोक तोमर महत्वूपर्ण थे. प्रभाष जोशी ने न केवल उनकी प्रतिभा को पहचाना बल्कि उन्हें उडऩे के लिए पूरा आकाश भी दिया. आलोक तोमर ने उनके विश्वास का कायम रखा लेकिन बतौर प्रभाष जोशी वे और भी आगे बढ़ सकते थे. जनसत्ता में अपने विख्यात स्तंभ 'कागद कारे’ में उन्होंने एक