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''सुजाता"" के बहाने

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- दिवाकर मुक्तिबोध 6 दिसंबर 2015, रविवार के दिन रायपुर टॉकीज का ''सरोकार का सिनेमा"" देखने मन ललचा गया। आमतौर अब टॉकीज जाकर पिक्चर देखने का दिल नहीं करता। वह भी अकेले। लेकिन इस रविवार की बात अलग थी। दरअसल ''सुजाता"" का प्रदर्शन था। बिमल राय की सन् 1959 में निर्मित ''सुजाता"' के साथ कुछ यादें जुड़ी हुई थीं। सन् 1960 में हमने यह पिक्चर राजनांदगांव के श्रीराम टॉकीज में माँ-पिताजी और बहन के साथ देखी। पिताजी जिन्हें हम बाबू साहेब कहते थे, कुछ देर के लिए हमारे साथ बैठे, फिर बाहर निकल गए। घंटे - आधे घंटे के बाद फिर लौट आए। कवि, लेखक और पत्रकार के रुप में श्री गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म शताब्दी वर्ष अगले वर्ष यानी 13 नवंबर 1916 से शुरु हो जाएगा। उनके व्यक्तित्व और कृतित्च के विभिन्न पहलुओं पर बीते 50 सालों में काफी कुछ लिखा जा चुका है। उनकी कविताएं - कहानियां, उपन्यास, डायरी, आलोचनाएं, निबंध व अन्य विविध विषयों पर किया गया लेखन हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है जिस पर दृष्टि, पुनर्दृष्टि, पुनर्पाठ, बिंबों, प्रतिबिंबों के नए-नए रहस्यों

'श्रेय' की राजनीति में निपट गया रायपुर साहित्य महोत्सव

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-दिवाकर मुक्तिबोध कुछ तारीखें भुलाए नहीं भूलती। याद रहती हैं, किन्हीं न किन्हीं कारणों से। रायपुर साहित्य महोत्सव को ऐसी ही तारीखों में शुमार किया जाए तो शायद कुछ गलत नहीं होगा। इसकी चंद वजहें है - पहली - 12 से 14 दिसंबर 2014 को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयोजित साहित्य महोत्सव बेजोड़ था, अद्भुत था। दूसरी वजह - उस सरकार द्वारा आयोजित था जो दक्षिण पंथी विचारधारा से अनुप्राणित है। तीसरी वजह - इस आयोजन में इतना खुलापन था कि माक्र्सवादी विचारधारा से प्रेरित लेखकों, कवियों, कलाकारों एवं अन्य क्षेत्रों के दिग्गज हस्तियों ने इसमें शिरकत की और वैचारिक विमर्श में सक्रिय भागीदारी निभाई। चौथी वजह - सरकारी आयोजन होने के बावजूद विमर्श में सरकार का कोई दखल नहीं रहा। पांचवीं वजह - मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने समारोह का उद्घाटन किया लेकिन वे स्वयं एवं संस्कृति मंत्री मंच पर नहीं, दर्शक दीर्घा में बैठे क्योंकि वामपंथी लेखक ऐसा चाहते थे जिन्होंने समारोह की तैयारियों के दौरान इस तरह की प्रतिक्रिया जाहिर की थी। छठवीं वजह - समारोह अपने उद्देश्य में, राजनीतिक और साहित्यिक दृष्टि से सफल

यादें : जब मुक्तिबोध ने ट्रेन की जंजीर खींची

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 - दिवाकर मुक्तिबोध नाम - श्री कन्हैयालाल अग्रवाल। उम्र 93 साल। मुकाम - राजनांदगांव, छत्तीसगढ़। पीढ़ी दर पीढ़ी। पिछले करीब डेढ़ सौ वर्ष से। व्यवसाय - व्यापार। संस्थान-भारती प्रिंटिंग प्रेस एवं बुक डिपो। स्थापना - 19 अगस्त 1948 स्वास्थ्य - एकदम फिट। चुस्त-दुरुस्त। अभी भी अपने रोममर्रा के काम के लिए किसी के सहारे की जरुरत नहीं, खुद करते हैं।       यह संक्षिप्त परिचय एक ऐसे व्यक्ति का है जो कट्टर राष्ट्रवादी हैं, चिंतक हैं और जिसने अपने व्यवसाय के हित में कभी कोई अनैतिक कार्य नहीं किए। कोई समझौते नहीं किए। इसलिए सदर बाजार स्थित उनकी प्रिटिंग प्रेस एवं दुकान 66-67 साल पहले जिस हालत में थी, अभी भी उसी हालत में है।      श्री कन्हैयालाल जी का एक और परिचय है जो साहित्यिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण  है। वे साहित्यिक नहीं है पर साहित्य और साहित्यकारों से उन्हें प्रेम है। विशेष लगाव है। साहित्यिक बिरादरी में प्राय: रोजाना उठना-बैठना होता रहा है और वे मेरे पिता स्व. गजानन माधव मुक्तिबोध के अनन्य मित्र रहे हैं। आज की तारीख में संभवत: पिताजी के एकमात्र जीवित मित्र।      सन् 1958 में

न जोगी खारिज, न वोरा

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-दिवाकर मुक्तिबोध कांग्रेस बैठे-ठाले मुसीबत मोल न ले तो वह कांग्रेस कैसी? अपनों पर ही शब्दों के तीर चलाने वाले नेता जब इच्छा होती है, शांत पानी में एक कंकड़ उछाल देते है और फिर लहरे गिनने लग जाते हैं। छत्तीसगढ़ कांग्रेस में पिछले चंद महीनों से काफी कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। तीसरे कार्यकाल के ढाई साल देख चुकी रमन सरकार के खिलाफ उसका ऐसा आक्रामक रुप इसके पहले कभी देखने में नहीं आया। विशेषकर भूपेश बघेल के हाथों में प्रदेश कांग्रेस की कमान आने के बाद कांग्रेस की राजनीति में एक स्पष्ट परिवर्तन लक्षित है। बरसों से चली आ रही खेमेबाजी तो अपनी जगह पर कायम है पर आतंरिक द्वंद्व और गुटीय राजनीति के तेवर कुछ ढीले पड़े हैं। ऐसा लगता है कि प्रदेश कांगे्रस ने तीन वर्ष बाद सन् 2018 में होने वाले राज्य विधानसभा चुनाव के लिए अभी से कमर कस ली है और एक सुनियोजित अभियान के तहत राज्य सरकार की नीतियों, उसके कामकाज के तौर-तरीकों, जनता से किए गए उसके वायदे, नीतियों के क्रियान्वयन में हो रही घपलेबाजी तथा आधारभूत संरचनाओं के निर्माण में भारी भ्रष्टाचार से संबंधित मुद्दे खड़े किए जा रहे हैं एवं

मंत्रियों की पीड़ा, ये कैसे नौकरशाह

- दिवाकर मुक्तिबोध किसी राज्य के मंत्री यदि यह गुहार लगाए कि अधिकारी उनकी सुनते नहीं, उनकी परवाह नहीं करते, उनका काम नहीं करते तो इसे क्या कहा जाए? जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होने और सत्ताधिकार के बावजूद उनकी अपनी कमजोरी, भलमनसाहत, नेतृत्व की अक्षमता या और कुछ? नौकरशाही के अनियंत्रित होने की और क्या वजह हो सकती है? जाहिर सी बात है जब राजनीतिक नेतृत्व कमजोर होगा तो प्रशासनिक पकड़ भी कमजोर होगी और ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है नौकरशाही बेलगाम होगी तथा मंत्री अपनी कमजोरियों के चलते मुख्यमंत्री के सामने उसकी निरंकुषता का रोना रोते रहेंगे। छत्तीसगढ़ में यही हो रहा है, यदि ऐसा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राज्य में सन् 2003 से डा. रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा का शासन है। इस दौरान राज्य के अनेक मंत्री मुख्यमंत्री एवं संगठन की बैठकों में प्रशासनिक अधिकारियों के कामकाज और उनके द्वारा की जा रही उपेक्षा की शिकायतें करते रहे हैं। अभी हाल ही में 24 नवंबर 2015 को मुख्यमंत्री निवास में केबिनेट मीटिंग में, अफसरों को विदा करने के बाद मंत्रियों ने जमकर नौकरशाही पर अपनी भड़ास न

असहिष्णुता, बहस और सत्ता का अहंकार

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- दिवाकर मुक्तिबोध       देश में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में नामचीन साहित्यकारों, फिल्मकारों, संस्कृतिकर्मियों और वैज्ञानिकों द्वारा राष्ट्रीय सम्मान लौटाने की घटनाओं पर राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी की प्रतिक्रिया के बाद कुछ सवाल सहजत खड़े होते हैं। लेकिन इन पर चर्चा के पूर्व राष्ट्रपतिजी के विचारों पर गौर करना होगा जो उन्होंने नई दिल्ली में 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय प्रेस परिषद द्वारा आयोजित कार्यक्रम के दौरान व्यक्त किए। उन्होंने कहा- ''प्रतिष्ठित पुरस्कार व्यक्ति की प्रतिभा, योग्यता और कड़ी मेहनत के सम्मान में दिए जाते हैं। ये राष्ट्रीय आदर के प्रतीक होते हैं। अत: पुरस्कार लेने वालों को इनका महत्व समझते हुए इन पुरस्कारों का सम्मान करना चाहिए। समाज में कुछ घटनाओं के कारण संवेदनशील व्यक्ति कभी-कभी विचलित हो जाते हैं किन्तु भावनाओं को तर्क पर हावी होने नहीं देना चाहिए और असहमति को बहस तथा चर्चा से व्यक्त किया जाना चाहिए।''        राष्ट्रपति के इन विचारों से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय सम्मान लौटाने की घटनाओं को वे ठीक नहीं मानते

यादों में बबनजी

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- दिवाकर मुक्तिबोध        पहले सर्वश्री मायाराम सुरजन फिर रामाश्रय उपाध्याय, मधुकर खेर, सत्येंद्र गुमाश्ता, रम्मू श्रीवास्तव, राजनारायण मिश्र, कमल ठाकुर और अब श्री बबन प्रसाद मिश्र। छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के ये शीर्ष पुरुष एक - एक करके दुनिया से विदा हो गए और अपने पीछे ऐसा शून्य छोड़ गए जिसकी भरपाई मुश्किल नजर आ रही है। यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे इनका सानिंध्य प्राप्त हुआ। अलग - अलग समय में मैंने इनके साथ काम किया, मुझे इनका आर्शीवाद मिला, पत्रकारिता की समझ विकसित हुई, विशेषकर मूल्यपरक एवं ईमानदार पत्रकारिता को आत्मसात करने की प्रेरणा मिली। इन श्रेष्ठ संपादकों में से बबन प्रसाद मिश्र ही ऐसे थे जिनके साथ मैंने सबसे कम अवधि एवं सबसे आखिर में काम किया। वर्ष था सन् 2010 एवं अवधि 8-10 महीने। हालांकि इसके पूर्व सन् 2000 से 2003 तक मेरा उनका साथ रहा लेकिन संस्करण अलग थे, भूमिकाएं अलग थीं और शहर भी अलग। बहरहाल वर्ष 2010 पत्रकारिता में उनका उत्तरार्ध था और कुछ-कुछ मेरा भी। लेकिन इसके बावजूद उनके साथ मेरा संपर्क लगभग 40 वर्षों तक बना रहा। यानी ''युगधर्म''

मुठभेड़ के नाम पर बंद हो सरकारी हिंसा

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- दिवाकर मुक्तिबोध        आत्मसमर्पित नक्सलियों को छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा नौकरी में लेने की पेशकश क्या राज्य में हिंसात्मक नक्सलवाद के ताबूत पर आखिरी कील साबित होगी? शायद हां, पर इसकी पुष्टि के लिए कुछ वक्त लगेगा जब राज्य सरकार की इस योजना पर पूरी गंभीरता एवं ईमानदारी से अमल शुरु होगा। दरअसल बस्तर और सरगुजा संभाग के आदिवासी बाहुल्य गाँवों में युवाओं के पास कोई काम नहीं है। पढ़ाई-लिखाई से भी उनका रिश्ता टूटता -जुड़ता रहा है। साक्षर, असाक्षर, शिक्षित और अशिक्षित या अर्धशिक्षित युवाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में सरकार तो विफल थी ही, निजी क्षेत्रों में भी उनके लिए कोई काम नहीं था अत: उन्होंने एक सुविधाजनक रास्ता चुन लिया जो नक्सलवाद की ओर जाता था। यहाँ रोजगार था, एवज में खर्चे के लिए पैसे मिलते थे, दो जून की रोटी की व्यवस्था थी, गोलियों से भरी हुई बंदूकें हाथ में थी, शिकार की भी स्पष्टता थी, पुलिस के जवानों पर अचानक आक्रमण करने एवं घेरकर गोली मारने के अपने अलग मजे थे और थी जंगल की स्वच्छंदता तथा ऐशो आराम। सजा केवल इतनी थी कि उनका आकाश केवल जंगलों और गाँवों तक सीमि

भ्रष्टाचार का भयावह चेहरा, जान का सौदा

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- दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार के सवाल पर राज्य सरकार की जीरो टाललेंस की नीति है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह एवं सरकार के अन्य नुमाइंदे सरकारी एवं गैरी सरकारी कार्यक्रमों में जीरो टॉलरेंस की नीति का एलान भी करते रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐलान-ए-जंग का खुद नौकरशाही पर कितना क्या असर हुआ है, यह राज्य में घटित अलग- अलग किस्म की घटनाओं से जाहिर है। कही-कहीं रिश्वतखोरों को सरेआम पीटा जा रहा है तो कहीं भ्रष्ट अफसरशाही से त्रस्त होकर आदमी अपनी जान दे रहा है। हाल ही में दो घटनाएँ ऐसी हुई हैं जो इस बात का अहसास कराती है कि भ्रष्ट नौकरशाही पर सरकार का कोई अंकुश नहीं है तथा जीरो टॉलरेंस की सरकारी घोषणा के बावजूद वह बेखौफ है तथा बिना रिश्वत लिए कोई कागज आगे न बढ़ाने या फाइलों को लटकाए रखने की उसकी नीति यथावत है। यानी जीरो टॉलरेंस केवल घोषणाओं तक सीमित है। लिहाजा आम आदमी को कोई राहत नहीं है। किंतु अब पीडि़तों का मरने-मारने पर उतारु होना इस बात का संकेत है कि यदि सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कानूनों का सख्ती से पालन नहीं किया, नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश

जनविरोध की तीव्रतम अभिव्यक्ति

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-दिवाकर मुक्तिबोध      देश की साहित्यिक बिरादरी में इन दिनों ऐसा वैचारिक द्वंद चल रहा है जो स्वतंत्र भारत में इसके पूर्व कभी नहीं देखा गया था। शुरुआत इसी वर्ष अगस्त माह में कन्नड़ के प्रतिष्ठित लेखक एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित एम.एम. कलबुर्गी की दिनदहाड़े हत्या की घटना से हुई। इस घटना से समूचे कर्नाटक के लेखक, विचारक, रंगकर्मी एवं बुद्धिजीवी बुरी तरह आहत हुए और उन्होंने तथा अनेक लोकतांत्रिक संस्थाओं ने अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने के षड़यंत्र के खिलाफ विरोध दर्ज किया। कन्नड़ लेखक की हत्या की घटना की अनुगूंज यद्यपि पूरे देश में सुनी गई किंतु छिटपुट आंदोलनों एवं वक्तव्यबाजी से ज्यादा कुछ नही हुआ। यह शायद इसलिए क्योंकि कलबुर्गी को क्षेत्रीयता की नजरों से देखा जा रहा था। हालांकि इसके पूर्व महाराष्ट्र में नरेंद्र दाभोलकर एवं गोंविद पानसरे की हत्या की घटना से देश का प्रबुद्ध वर्ग ज्यादा आंदोलित था तथा उसने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी।    बहरहाल नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे एवं कलबुर्गी की हत्या की घटनाओं ने चिंता की जो

नक्सलवाद की विदाई! ऐसे कैसे?

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- दिवाकर मुक्तिबोध   छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने हाल ही में नई दिल्ली में मीडिया ये चर्चा करते हुए कहा था कि राज्य में नक्सली समस्या अब केवल तीन जिलों सुकमा, दंतेवाड़ा और बीजापुर तक सिमटकर रह गई है। मुख्यमंत्री 28 सितंबर से नई दिल्ली में थे और छत्तीसगढ़ सदन में वे कुछ पत्रकारों से मुखातिब थे। उन्होंने यह भी कहा कि नक्सलियों का विदेशों में नेटवर्क है और अब राज्य में केवल 400 हार्डकोर नक्सली शेष है। मुख्यमंत्री का दावा तो अपनी जगह पर है लेकिन यह भी सच है कि इन तीन जिलों से परे भी आए दिन नक्सली वारदातें होती रहती हैं। पर इसमें शक नहीं कि नक्सलियों के आतंक का दायरा सिमट रहा है। यह अद्र्धसैनिक बलों की भारी संख्या में नक्सली क्षेत्रों में तैनाती, मुठभेड़ों में दर्जनों हार्डकोर माओवादियों के मारे जाने एवं बड़ी संख्या में पुलिस के आगे आत्मसमर्पण की घटनाओं से संभव हुआ है। यह भी स्पष्ट है कि केंद्र व राज्य सरकार के बीच नक्सली मुद्दे पर बेहतर तालमेल है एवं उन्होंने पूरी ताकत झोंक रखी है। नक्सली बैकफुट पर है। उनमें बौखलाहट है। लेकिन वे राज्य से बिदा नहीं हुए है। फि

स्मार्ट विलेज, पता नहीं कब स्मार्ट बनेंगे

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- दिवाकर मुक्तिबोध       प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हाल ही में अमेरिका यात्रा के दौरान भारत के डिजिटल भविष्य पर लंबी चौड़ी बातें हुईं। कुछ वायदे हुए, कतिपय घोषणाएँ हुईं। मसलन गूगल भारत में 500 रेलवे स्टेशनों को वाईफाई से लैस करने में मदद करेगा, एपल की सबसे बड़ी निर्माण कंपनी फॉक्सकान भारत में प्लांट लगाएगा, आईफोन 6 एस व 6 एस प्लस भारत में जल्द लॉच होंगे। एक ओर महत्वपूर्ण घोषणा हुई, माइक्रोसाफ्ट भारत के 5 लाख गांवों में कम कीमत पर ब्रांडबैंड कनेक्टिविटी उपलब्ध कराएगा।       डिजिटल इंडिया के स्वप्नद्रष्टा नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा इस मामले में सफल कहीं जाएगी कि विश्व आईटी सेक्टर के दिग्गजों यथा सुंदर पिचई सीईओ गूगूल, जॉन चैम्बर्स सीईओ सिस्को, सत्य नड़ेला सीईओ माइक्रोसाफ्ट तथा पॉल जैकब्स प्रेसीडेंट क्वॉलकॉन ने डिजिटल क्षेत्र में भारत की प्रगति को शानदार बताते हुए मुक्तकंठ से मोदी की प्रशंसा की। इन आईटी प्रशासकों के विचारों का लब्बोलुआब यह था कि पीएम मोदी दुनिया बदल देंगे, उनके पास ग्लोबल विजन है और भारत इनोवेशन की धरती है। मोदी की प्रशंसा में काढ़े गए इन कसीदों की

असंभव सी लगने वाली विशालकाय जीत

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- दिवाकर मुक्तिबोध       एग्जिट पोल के तमाम परिणामों को पीछे धकेलते हुए आम आदमी पार्टी ने दिल्ली राज्य विधानसभा के चुनावों में अप्रतिम सफलता हासिल की है। यह इस बात का संकेत है कि राजनीति में बदलाव की बयार जो लोकसभा चुनावों के बाद ठहरी सी लग रही थी, वह दरअसल भीतर ही भीतर तेज रफ्तार से दौड़ रही थी जिसे न तो एग्जिट पोल ठीक से भांप पाए और न ही दिल्ली के बाहर के लोग, देश के लोग सोच पाए। यद्यपि चुनाव पूर्वानुमानों ने इतना संकेत तो जरुर दे दिया था कि अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पाटीज़् इस बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लौट रही है लेकिन नतीजे एक तरफ होंगे, कल्पनातीत था। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की 70 सीटों में से 67 सीटें जीतकर एक ऐसा कीर्तिमान रचा है जो भविष्य में शायद ही कभी टूट पाए।        प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की जुगलबंदी से आल्हादित भाजपा चुनाव के पूर्व आश्वस्त थी कि जिस तरह हरियाणा, महाराष्ट्र एवं जम्मू कश्मीर में पार्टी ने झंडे गाड़े, उससे कही बेहतर कामयाबी उसे दिल्ली में मिलेगी क्योंकि वह अब पाटीज़् का एक ऐसा गढ़ है जिसे भेद