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Showing posts from August, 2020

कुछ यादें कुछ बातें - 11 "बसंत दीवान"

- दिवाकर मुक्तिबोध 19-3-1 बसंत दीवान जी पर मैं क्या लिखूँ । इसी रविवार , 18 को जब समीर का फ़ोन आया , मेरा मन कही और गुथा हुआ था। दरअसल टीवी पर टाइगर दहाड़ रहा था और मैं बकवास सी पिक्चर होने के बावजूद उसे देख रहा था। फ़िल्मों में मेरी खासी दिलचस्पी है और ख़राब फ़िल्मे भी पूरी देखने की कोशिश करता हूँ। अत: समीर की बातें सुनने के बाद मै यह नहीं कह पाया कि दीवानजी से मेरी गहरी जान पहचान नहीं थी और न ही मैंने उनके साथ कोई ख़ास वक़्त बिताया था। रोज़ाना साथ में उठना बैठना भी नहीं था, इसलिए घटनाओं से गुज़रने का भी प्रश्न नहीं । लिहाज़ा उनके बारे में, उनकी यादों को लेकर क्या लिख सकता हूँ ? लेकिन यह बात नहीं कह पाया समीर से। समीर ने कहा- भैया, परितोष जी के संस्मरण में आपका ज़िक्र आया है। पिताजी आशु कविताओं, तुकबंदियों , उनके लेख व मित्रों की यादों की तैयार हो रही किताब में मुझे आपका भी लिखा चाहिए। आप लिखिए। दिमाग़ ' टाइगर ज़िंदा है ' में उलझा हुआ था इसलिए बातें जल्दी से जल्दी समाप्त करने के चक्कर में मैंने समीर से कहा - हाँ ठीक है , लिख दूँगा। लेकिन अब सवाल है लिखूँ तो क्या लिखूँ ? सारगर्

कुछ यादें कुछ बातें - 10: तेज़िंदर गगन

- दिवाकर मुक्तिबोध   *************************** हेलो, उधर से ठहाका गूंजा। जवाब में इधर से भी जोरदार। मोबाइल पर एक हेलो ने कम से कम दो मिनट तक दो दोस्तों को कुछ भी बोलने से रोक दिया। केवल हँसी की फुलझड़ियाँ छूटती रहीं। जब हँसते-हँसते मन भर गया तो बातचीत शुरू हुई । कहाँ हो , कैसे हो, क्या चल रहा है। इत्यादि -इत्यादि । प्रेम की बातें , उलाहने की बातें, लिखाई-पढ़ाई की बातें। वो दोस्त अब इस दुनिया में नहीं है पर उसकी वह हँसी, वे ठहाके और वह दमकता चेहरा आँखों के सामने रह -रह कर आता है और खिलखिलाने के बाद पूछता है - ' यार भाई कैसे हो।' नाम है तेज़िंदर गगन। प्रख्यात उपन्यासकार , कथाकार ,कवि व पत्रकार । आकाशवाणी व दूरदर्शन का एक ऐसा मस्तमौला अधिकारी जिसने नौकरी के सिलसिले में देश के तमाम बड़े शहरों की ख़ाक छानी और अंतत: अपने घर-शहर रायपुर में आकर रिटायर हुआ। तब मुलाकातों व बातचीत का दौर तेज़ हुआ और जैसा कि मैंने कहा मोबाइल पर हमारी बातचीत पुरज़ोर ठहाकों के बाद शुरू होती थी। दोस्तों में केवल तेज़िंदर ही ऐसे थे जिनकी ज़िंदादिली जीवन में अनोखा आनंद भर देती थी। नतीजतन मोबाइल पर हो या आमने

कुछ यादें कुछ बातें- 7

सुशील त्रिपाठी:  बात कहां से शुरू करें ? कोई सिरा पकड़ में नहीं आ रहा। बहुत सोचा काफी माथापच्ची की। अतीत में कई डुबकियां लगाई। कई सिरे तलाशे। लेकिन हर सिरे को दूसरा खारिज करता चला गया। थक-हार कर सोचा, दिमाग खपाने से मतलब नही। कागज कलम एक तरफ रखें और चुपचाप आराम फरमाएं। लेकिन क्या ऐसा संभव है? मन में कहां शांति? किस कदर बेचैनी होती है इसे हर शब्दकार बेहतर जानता-समझता है। सो शांति तभी मिलेगी, जब किसी एक सिरे को जबरिया पकड़कर लिखना शुरू कर दें। किन्तु यह भी क्या कम मुश्किल है। बात फिर घूम फिरकर वहीं आ जाती है, शुरूआत बढ़िया होनी चाहिए, तसल्लीबख्श होनी चाहिए। लिहाजा दिमाग के घोडेÞ पूर्ववत दौड़ते रहे और उस पर सवार सैनिक गर्दन से लिपटा पड़ा रहा, सोच में डूबा हुआ, थका-हारा। एक दिन एकाएक ख्याल आया सुशील त्रिपाठी से शुरूआत की जाए। उत्तर प्रदेश के इस प्रतिभाशाली पत्रकार की मौत की खबर स्तब्धकारी थी। कुल जमा लगभग 30 वर्षों के परिचय में मेरी उनसे केवल दो बार मुलाकात हुई थी। 1980 में उस समय जब मैं देशबंधु की ओर से एडवांस जर्नलिज्म का वर्कशाप अटैंड करने बनारस गया था। 15 दिन बीएचयू के गेस्ट हाऊस में रहा और

कुछ यादें कुछ बातें - 6

रामाश्रय   उपाध्याय   :   जन्म   2   अगस्त   1917 ।   ग्राम   अंगरा ,   मोगपुर   ,   बिहार।   संपादन -   लोकमत   नागपुर।   नवप्रभात   भोपाल।   देशबंधु   रायपुर।   निधन   -5   फ़रवरी   2005   रायपुर। पंडित रामाश्रय उपाध्याय उर्फ़ वक्रतुंड के करीब साढ़े तीन दशक के सम्पूर्ण लेखन से गुज़रना पत्रकारिता के तीर्थ-स्थलों में हवन-पूजन के बीच से गुज़रने की तरह है।वे जितने चतुर और काइयाँस्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, उतने ही सजग और सतर्क पत्रकार भी। ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए वे अलग अंदाज में पुलिस स्टेशनों और सरकारी इमारतों पर तिरंगा फहराकर लापताहोते रहे। कभी पकड़ में नहीं आए। उसी तरह आज़ादी के बाद भी लेखन के जरिए छापामार लडाई लड़ते रहे, बिना शिनाख्त के। रामाश्रय उपाध्याय के नाम से नहीं ' वक्रतुंड ' नाम से।  ( उपाध्याय जी किताब 'एक दिन की बात' में राजनारायण मिश्र की भूमिका का छोटा सा अंश) ---------------------------- दिवाकर मुक्तिबोध  रामाश्रय उपाध्याय : संस्मरणों की इस शृंखला में पंडित रामाश्रय जी के संबंध में मैंने सोचा नहीं था कि कुछ लिख पाऊँगा किंतु मित्रों का आग्रह

कुछ यादें कुछ बातें - 5

गोविंद लाल वोरा 1932 में नागौर , राजस्थान में जन्में गोविंद लाल वोरा जी ने मात्र 18 वर्ष का उम्र में स्वतंत्र पत्रकार के रूप में अपने करियर की शुरूआत की। प्रारंभ में नवभारत नागपुर के लिए ख़बरें लिखने के अलावा बाद के समय में वोरा जी अनेक दैनिकों मसलन हिंदुस्तान टाइम्स, नवभारत टाइम्स,द स्टेट्समैन , इलसट्रेटेड वीकली, टेलीग्राफ़ , जयहिंद आदि के लिए काम करते रहे। 1959 में जब रायपुर से नवभारत का प्रकाशन शुरू हुआ, वे इसके संपादक नियुक्त हुए। 1984 में उनके स्वामित्व में रायपुर से एक नए समाचार पत्र अमृत संदेश प्रारंभ हुआ। करीब सात दशक की पत्रकारिता में वोरा जी सामाजिक , राजनीतिक व शैक्षणिक क्षेत्रों में भी सक्रिय रहे। बक़ौल परितोष चक्रवर्ती वे मानते थे कि पत्रकारिता में दो रास्ते स्पष्ट हैं-एक निर्भीक रहते हुए स्वयं को जोखिम में डालकर पत्रकारिता और दूसरा चाटुकारिता की पत्रकारिता। वोरा जी ने ताउम्र पहिला रास्ता अपनाया। छत्तीसगढ में पत्रकारिता को शैक्षणिक पाठ्यक्रम के रूप में स्थापित करने का बहुत कुछ श्रेय वोरा जी को है। -------------- -------------- -------------- - दिवाकर मुक्तिबोध ___________

कुछ यादें कुछ बातें-4

बबन प्रसाद मिश्र  : देश में आपातकाल के ठीक पूर्व जिन अखबारों की रातों-रात प्रसार संख्या व पठनीयता बढ़ी, उनमें रायपुर से प्रकाशित युगधर्म भी था। एक ख़ास विचारधारा का अखबार। तब शहर में नवभारत व देशबंधु की जोरदार पकड़ के बावजूद उस विशेष कालखंड में युगधर्म की अधिक माँग रहती थी। लेकिन इसे आपातकाल का शिकार होना पड़ा। इसके संपादक थे बबन प्रसाद मिश्र। अपनी किताब 'मैं और मेरी पत्रकारिता ' में उन्होंने लिखा है- " अतीत पर हँसना और रोना, वर्तमान के प्रति संतोष-असंतोष और भविष्य प्रति भाग्यवादी आशा के हिंडोले में झूमता नाज़ुक मन, जहॉं जैसी भी स्नेहिल छाया मिलती है, ठिठक जाता है। मेरे जीवन का आकाश वैद्य गुरूदत्त के उपन्यास ' पथिक ' ने बनाया था। उस पथिक के काल्पनिक नायक के चरण रज को मस्तक अभिषेक को रोली मानकर अपनी आत्मकथा के माध्यम से वह कहने की कोशिश की है जो अंतर्मन की संचित निधि है और एक मस्त की मस्ती है जो अपनों के बीच थोडी-थोडी बाँटकर दुनिया से गुज़र जाना चाहता है।" _____________ _____________ _____________ यादों में बबनजी -------------------- - दिवाकर मुक्तिबोध पहले सर्

कुछ यादें कुछ बातें- 3

रम्मू श्रीवास्तव - छत्तीसगढ में मूल्यानुगत पत्रकारिता करने वालों में जो नाम प्रमुखता से लिया जाता है वह है रम्मू श्रीवास्तव का जो आजीवन रम्मू भैया के नाम जाने जाते रहे। उनकी हिंदी व अंग्रेज़ी में समान पकड़ थी ।उनकी भाषा शैली व ज्ञान का लोहा सभी मानते थे। विविधता से भरे उनके लेखन की बानगी तब भी देखने मिलती थी जब वे देशबंधु के होली अंक को सँवारते थे। वे शहर के नामचीन लोगों को ऐसी ऐसी टाइटिल से नवाजते थे कि बरबस हर किसी के चेहरे पर मुस्कान थिरकने लगती थी। दरअसल गंभीर चेहरे के पीछे निश्चल हास्य का एक और चेहरा था जो गुदगुदा सकता था पर क़तई रूलाता नहीं था। राजनीति पर उनकी पकड़ ज़बरदस्त थी। राजनेताओं के साथ मित्रता भी व्यापक थी लेकिन वह कभी किसी पार्टी विशेष तक सीमित नहीं रही। - परितोष चक्रवर्ती ,वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार। _______________________________________ रम्मू श्रीवास्तव ----------------- -दिवाकर मुक्तिबोध मुझे संवारने, काम के लायक बनाने में यकीनन अनेक वरिष्ठजनों यथा सर्वश्री ललित सुरजन, राजनारायण मिश्र, सत्येन्द्र गुमास्ता, स्व. रामाश्रय उपाध्याय, गोविंदलाल वोरा का बड़ा योगदान रहा है।