Posts

Showing posts from 2018

अजीत जोगी : न किंग बने न किंगमेकर

Image
-दिवाकर मुक्तिबोध  छत्तीसगढ़ राज्य विधानसभा की 90 सीटों के लिए हुए चुनाव के परिणामों से स्पष्ट है कि प्रदेश की नई-नवेली छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस ने तीसरे विकल्प के रूप में स्वयं को जिंदा रखा है। अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों जिनमें कुछ उच्च सरकारी अधिकारी भी शामिल हैं, का ख्याल था कि इस पार्टी का खाता भी नहीं खुलेगा और यदि बहुत हुआ तो एकाध सीट से उसे संतोष करना होगा। अलबत्ता यह आम राय थी कि चुनाव में इस पार्टी की मौजूदगी से भाजपा को कम, कांग्रेस को ज्यादा नुकसान होगा। लेकिन जब परिणाम आए तो वे कांग्रेस के मामले में चौंकाने वाले तो थे ही, जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के सन्दर्भ में भी संभावना के प्रतिकूल थे। नया प्रांत बनने के 18 साल बाद यह पहली बार हुआ है कि किसी तीसरी पार्टी ने राजनीति में अपनी कुछ दमदार हैसियत दर्ज कराई हो। बसपा के साथ हुए उसके चुनावी गठबंधन में उसके सात उम्मीदवारों का विधानसभा के लिए चुनकर आना मायने रखता है। इसके पूर्व हुए तीन चुनावों में केवल बसपा के ही इक्के-दुक्के विधायक निर्वाचित होते रहे हैं । हालाँकि 2003 के पहले चुनाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) का

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-23)

                                   पीले पत्तों के जग में मेरे जीवन की फिलॉसफी उस सुख को स्थान नहीं था। विष में थी पहिचान पुरानी मधु में तू अनजान नहीं था। पतझर की कोकिल नीरव थी अंधकार में बंधन पाये, पीले पत्तों के इस जग में जब झंझा से तुम बन आये। जब तुझको समझा न सकी थी मेरे अंतस की ये आहें, आँखों ने तब प्यार सम्हाला दे दुख को कितनी ही राहें। करूणा की जीवन-झोली में मैंने किस सुख के कण पाये? पीले पत्तों के इस जग में जब झंझा-से तुम बन आये। (रचनाकाल 3 फरवरी, 1936। उज्जैन। रचनावली खंड 1 में संकलित)                                   मरण-रमणी (मैने मरण को एक विलासिनी सुन्दरी माना है। और वह एक ऐसी सुन्दरी है जो कठोर नहीं है किन्तु हमारे अरमान पूर्ण करना ही मानों उसने  धैर्य बना रखा है। पर एक शर्त पर, जो उससे विलास करने को राजी हो। मैंने उसे 'प्रेयसी', 'ममता-परी', 'सखी', 'आली', इत्यादि शब्दों से संबोधित किया है क्योंकि वह वैसी है भी। मरण -सुन्दरी हमें आकर्षण द्वारा खींचकर ले जाएगी, न कि यमदूतों के समान। वह हमें अपने अंचल से बाँधकर ले जाएगी। क

घर बैठ जाएँगे टी एस सिंहदेव?

Image
- दिवाकर मुक्तिबोध  छत्तीसगढ़ राज्य विधान सभा चुनाव के नतीजों के लिए अब कुछ ही दिन शेष हैं। मतदाताओं के रुझान को भाँपते हुए कांग्रेस का ख्याल है कि वह 15 वर्षों बाद सत्ता में वापसी कर रही है। इसलिए प्रदेश कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने अपने -अपने पत्ते खोलने शुरू कर दिए हैं। चूँकि उन्हें पूर्ण बहुमत मिलने का विश्वास है, लिहाजा अजीत जोगी के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के सहयोग की उन्हें कोई जरूरत नहीं है। पार्टी नेताओं का मानना है कि कांग्रेस को कुल 90 मे से 50 से अधिक सीटें मिलेंगी। सरकार बनाने के लिए 46 सीटें चाहिए। बहुत संभव है कांग्रेस का अनुमान सही साबित हो लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ और दो - चार सीटें कम पड़ गई तो क्या होगा? क्या कर्नाटक का इतिहास दोहराया जाएगा जहाँ कांग्रेस की अधिक सीटें होते हुए भी मुख्यमंत्री उसका नहीं है? अजीत जोगी बार - बार कह रहे हैं कि सत्ता की चाबी उनके हाथ में होगी और वे ही मुख्यमंत्री बनेंगे। क्या वे हवा में उड़ रहे हैं या इस कथन के पीछे कोई तार्किक आधार है? जाहिर है, चुनाव के पूर्व या चुनाव के बाद ऐसे दावों का कोई ठोस आधार नहीं होता और प्रत्येक राजनी

मिशन 65 प्लस क्या फ्लाॅप ?

Image
छत्तीसगढ - चुनाव 2018 - दिवाकर मुक्तिबोध  छत्तीसगढ़ में किसकी सरकार बनेगी? भाजपा की या कांग्रेस की? दस दिसंबर तक न थमने वाली इन चर्चाओं के बीच केवल एक ही बात दावे के साथ कही जा सकती है कि भाजपा के राष्ट्रीय अधयक्ष अमित शाह का मिशन 65 प्लस औंधे मुँह गिरने वाला है। उन्होंने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष व राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह को विधान सभा चुनाव में कुल 90 में से 65 से अधिक सीटें जीतकर लाने का लक्ष्य दिया था जो किसी भी सूरत में पूरा होते नहीं दिख रहा है। 11 दिसंबर को मतों की गिनती होगी और नई सरकार का चेहरा स्पष्ट हो जाएगा। अभी लोगों की जिज्ञासा तीन सवालों पर केन्द्रित है - सरकार किसकी बनेगी? बीजेपी की या कांग्रेस की? जोगी कांग्रेस - बसपा गठबंधन क्या गुल खिलाएगा? या त्रिशंकु की स्थिति में क्या होगा? 12 व 20 नवंबर को मतदान की प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद बहुसंख्य लोगों का मानना है कि इस बार परिवर्तन की आहट है और मतदाताओं ने इसके पक्ष में वोट किया है। यानी  कांग्रेस एक मजबूत संभावना है। अनुमानों के इस सैलाब पर यकीन करें तो भाजपा सत्ता गँवाते दिख रही और यदि ऐसा घटित हुआ तो छत्तीसगढ़ की

नक्सल समस्या - डाॅ. रमन के पास जादू की छड़ी?

Image
- दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ वर्षं 2022 तक नक्सल -मुक्त हो जाएगा? इस पर कोई कैसे भरोसा करे? लेकिन मुख्यमन्त्री डा. रमन सिंह आश्वस्त हैं। उनके विश्वास पर विश्वास करें तो अगले चार सालों में चार दशक से अधिक पुरानी इस राष्ट्रीय समस्या का कम से कम छत्तीसगढ से जरुर खात्मा हो जाएगा। यह अलग बात है कि मुख्यमंत्री अभी जनता की अदालत में है और उन्हें पूरा भरोसा है कि उनकी पार्टी इस बार रिकार्ड बहुमत के साथ लगातार चौथी बार सत्ता में वापसी करेगी। चुनाव जीत लेगी। अगर ऐसा हुआ तो वे पुन: मुख्यमंत्री बनेंगे जिसकी राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पहले ही घोषणा कर चुके है। यानी अगले चार वर्षों में नक्सलवाद को समूल नष्ट करने का उनका विश्वास विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की जीत पर निर्भर है। नहीं जीत पाए तो उन्हें जनता के सामने किए गए संकल्प से बरी होने का मौका मिलेगा। वरना अगले चार साल अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। पर उम्मीद करनी चाहिए उनकी सरकार रहे या न रहे, दो चक्कों के बीच पीस रहे आदिवासियों के खिलाफ हिंसा रूकनी ही चाहिए, किसी भी सरकार की यही प्राथमिकता होनी चाहिए जो नए छत्तीसगढ़ राज्य में सत्तारूढ़ रह

अजीत जोगी का नया दाँव

Image
-दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस की कमान मूलत: किसके हाथ में है ? अध्यक्ष अजीत जोगी के या उनके विधायक बेटे अमित जोगी के हाथ में? यह सवाल इसलिए उठा है क्योंकि अजीत जोगी चुनाव लड़ेंगे या नहीं, लड़ेंगे तो कहाँ से लड़ेंगे, यह पिता के लिए बेटा तय कर रहा है। कम से कम हाल ही में घटित एक दो घटनाओं से तो यही प्रतीत होता है। वैसे भी पुत्र-प्रेम के आगे जोगी शरणागत है। इसकी चर्चा नई नहीं, उस समय से है जब जोगी वर्ष 2000 से 2003 तक कांग्रेस शासित प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके उस दौर में अमित संविधानेत्तर सत्ता के केन्द्र बने हुए थे तथा उनका राजनीतिक व प्रशासनिक कामकाज में ख़ासा दख़ल रहता था। अब तो ख़ैर दोनों बाप-बेटे की राह कांग्रेस से जुदा है और दो वर्ष पूर्व गठित उनकी नई पार्टी ने छत्तीसगढ़ में अपनी जड़ें जमा ली है। यद्यपि कहने के लिए अजीत जोगी अपनी नई पार्टी के प्रमुख कर्ता-धर्ता हैं लेकिन कार्यकर्ता बेहतर जानते हैं कि अमित जोगी की हैसियत क्या है और संगठन में उनका कैसा दबदबा है। पिता-पुत्र के संयुक्त नेतृत्व में छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस अपना पहला चुनाव लड़ रही है। राज्य की 90 सीट

किसके हाथ में कमान

Image
- दिवाकर मुक्तिबोध  छत्तीसगढ़ में चुनाव के पूर्व की तस्वीर बहुत साफ़ सुथरी व स्वस्थ नज़र नहीं आ रही है। राज्य विधानसभा चुनाव के लिए तारीख़ों का एलान हो चुका है। 12 एवं 20 नवम्बर को 90 सीटों के लिए मतदान होगा। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है। यानी अब मतदाताओं को प्रभावित करने वाली सरकारी घोषणाएँ नहीं होंगी। लेकिन राजनीतिक माहौल में जिस तरह गरमाहट व तनाव है, उसे देखते हुए सवाल है कि क्या राज्य में शांतिपूर्ण चुनाव की परम्परा पर आघात पहुँचने वाला है? नक्सली समस्या से जूझ रहे छत्तीसगढ़ ने बीते वर्षों मे ख़ूब हिंसा देखी है, ख़ूब ख़ून बहा है पर आमतौर पर चुनाव शांति से निबटे हैं। किन्तु इस बार परिस्थितियां कुछ अलग दिखाई दे रही है। कम से कम वह अभी बेहतर तो नहीं ही है। नक्सलियों ने अलग फ़रमान जारी कर दिया है। यह समस्या ख़ैर अपनी जगह तो है ही, सत्तारूढ़ भाजपा व  प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के बीच जो तनाव व राजनीतिक विद्वेष घिरता हुआ नज़र आ रहा है वह चुनाव के दौरान हिंसक झड़प की आशंकाओं को घनीभूत करता है। 2003 में राज्य के पहले चुनाव के ठीक पूर्व ऐसा ही नज़

अटल, भाजपा व चुनाव

Image
- दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ मे क़रीब 15 वर्षों से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की सरकार को ऐन चुनाव के पूर्व मतदाताओं को भावनात्मक रूप से आकर्षित करने के लिए एक नया हथियार हाथ लग गया है - अटल - स्मृति हथियार। देश के पूर्व प्रधानमंत्री व भाजपा के शीर्षस्थ स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की यादों को चिरस्थायी बनाने की दिशा में रमन सरकार ने अन्य भाजपा शासित राज्यों से बाज़ी मारी है। रमन कैबिनेट की 21 अगस्त को हुई बैठक में केवल राज्य के नाम के आगे अटल जोड़ने के अलावा कोई ऐसा कोना नहीं छोड़ा गया जिसमें अटल -सुगन्ध न हो, अटलजी की याद न हो। अटलजी के नाम पर दर्जनों नामकरण। शैक्षणिक संस्थाओं, सड़कों, बाग़ बगीचों को अटलजी का नाम। और तो और 5 सितंबर से शुरू होने वाली दूसरे चरण की विकास यात्रा का नाम-भी अब अटल विकास यात्रा होगा जो राज्य में आदर्श आचार संहिता लागू होने के पूर्व ख़त्म होगी। यानी यह माना जा रहा है कि भाजपा के चुनावी एजेंडे में प्रमुख रूप से अटल बिहारी वाजपेयी रहेंगे जिन्हें तीन नये राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड व उत्तराखंड का जनक माना जाता है। रमन मंत्रिमंडल की बैठ

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-22)

दृष्टिकोण का दीवाला-1 सिनेमा व्यवसाय एक सामूहिक व्यवसाय है-ऐसा दृष्टिकोण हमारे निर्माताओं में पैदा होना चाहिये। व्यक्ति की जगह अब उसमें समाज और समस्त हिन्दुस्तान की आत्मा की  पूजा होनी चाहिए। जहाँ एक व्यक्ति के नाम पर हज़ारों- लाखों की होली खेली जाती है- वहाँ हित चिंतन किसी ख़ास निश्चित पैमाने पर ज़रूर होना  चाहिए।  (पत्रिका, विचार, 5-01-1941, में प्रकाशित, शेष-अशेष में संकलित)   ----------------------------------------- ----------------------------------------- ----------------------------------------- ----------------------------------------- दृष्टिकोण का दीवाला-2 फि़ल्म-व्यवसाय कुछ चंद भारतीय पूँजीपतियों के हाथ में हैं । वे जो चाहते हैं, करते हैं । उनकी इच्छाओं पर किसी अन्य सुयोग्य बौद्धिक व्यक्तियों के सुझावों का नियंत्रण एवं सहयोग नहीं है । इससे हुआ यह है कि सिनेमा व्यवसाय कुछ चंद निर्माताओं के डायरेक्टरों की कठपुतली बनकर रह गया है । उसमें प्राण नहीं है। इसलिये उनके चित्रों मे भी प्राण  नहीं होते हैं। यहां तो जहाँ तक मेरा अनुमान है -कुछ दो- एक निर्माताओं को छोड़क