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Showing posts from July, 2018

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-7)

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मुक्तिबोध के पत्र _____________ मुक्तिबोध रचनावली के खंड छह में उनके द्वारा अपने मित्रों को लिखे गए पत्र संकलित हैं। उनमें से कुछ चिट्ठियों के कुछ अंश यहां दिए जा रहे हैं जिनमें मुक्तिबोध जी की मन:स्थिति, साहित्य व सामाजिक परिवेश के संदर्भ में उनकी चिंताएं दृष्टिगत होती है। श्री नेमिचंद्र जैन को पत्र  दिनांक 26-10-1945  रोज़ लिखने की सोचता हूँ। लिखता भी हूँ पर बहुत थोड़ा। आप विश्वास नहीं करेंगे,  एक कविता को दुरुस्त करने में छह घंटे लगते हैं। मैंने कई सुधार भी दी है। कई तो सुधार की प्रक्रिया में परिवर्तित हो गई है। पता नहीं कब तक मैं कविताओं को यों सुधारता बैठूँगा। पर अब साहित्यिक श्रम मुझे करने ही पड़ेंगे। हिंदी सुधारने की कोशिश शुरू हो गयी है। छोटी-सी phrase (फ्रेस), कोई चुस्त जबान-बंदी झट नोट कर लिया करता हूँ, बिलकुल शॉ के 'लेडी ऑफ द डार्क' के शेक्सपियर की भांत।     इससे पहले, मैं हिंदी के साहित्यिक प्रयासों के सिवाय, कभी भी लिखा नहीं करता था। मेरे अत्यन्त आत्मीय विचार मराठी या अंग्रेजी में निकलते थे, जिसका तर्जुमा, यदि अवसर हो तो हिंदी में हो जाता था।

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-6)

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गजानन माधव मुक्तिबोध रथ के दो पहिये- साहित्य और राजनीति  साहित्य पर राजनीति का प्रभाव हमेशा बुरा नहीं होता। जो राजनीतिक विचारधारा देश में चलती है, उसका एक सांस्कृतिक पक्ष भी होता है जो साहित्य में निखरता है। हिंदी में गांधीवाद व  मार्क्सवाद  के प्रभाव रहे हैं। उससे हमारा साहित्य सम्पन्न भी हुआ है। उनके अभाव में साहित्य गरीब हो जाता। रहा  सवाल यह कि साहित्य राजनीति का नेतृत्व क्यों नहीं करता, तो इसका मूल कारण यह है कि हमारे हिन्दी साहित्य ने अपने युग तथा देश की प्रगट विवेक-चेतना के महाप्रभावशाली चित्र प्रस्तुत ही नहीं किये। तो, इसमें साहित्य के नाम पर रोने की ज़रूरत है, राजनीति के नाम पर नहीं। राजनीति ने तो हिन्दुस्तान को आज़ादी दिलवाई और आज भी वह देश को आगे बढ़ा रही है। ( सारथी, 20 मई , 1956 में प्रकाशित, रचनावली खंड 5 द्वितीय संस्करण में संकलित) ------------------------------------------------------------- -------------------------------------- ----------------------- ---- ----------------------- ---- --------------------------- संयुक्त महाराष्ट्र का निर्माण एक

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-5)

साहित्य के काठमांडू का नया राजा कहने दीजिए कि हिंदी साहित्य सम्मेलन का जनता से कोई ताल्लुक़ नहीं। भारतीय संस्कृति और हिंदी साहित्य के नाम पर चलनेवाली वह एक नक़ली साहित्य संस्था है। हम दुर्ग, रायगढ़, मुंगेली, अकलतरा, राजनांदगांव, रायपुर, नरसिंहपुर,छिंदवाडा, खंडवा, बुरहानपुर, आदि-आदि छोटी जगहों के अन्याय पीडि़त जीवन बिताने वाले वर्गों के साहित्यिक नौजवानों को यह आह्वान करते हैं कि़ वे 'जनता के साहित्य' का आंदोलन उठायें और म्यूनिसिपल कंदील के नीचे, बरगद के तले, और जहाँ जहाँ उन्हे जगह मिल सके, वे आपस में मिले और यह तय करें कि उन्हे जनता का जीवन-चित्रण करना है। कहानी, नाटक, उपन्यास, लोकगीत, मुक्तक-गीत, खंड काव्य, लेख, निबंध, रिपोर्ताज, स्केच आदि आदि लिखें, और सुनायें, और इस प्रक्रिया के दौरान में जनता के लिए अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को सुधारें, संवारे और निखारें तथा नेमाडी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, आदि मध्यप्रदेशीय लोकभाषा के पुनरूत्थान के लिए दिन-रात कोशिश करते रहें। (नया ख़ून में प्रकाशित संपादकीय, रचनावली खंड-6 में संकलित) ******************************* ********************

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-4)

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सिंहासनों पर वृद्धों के मनोरंजक योगासन-1 इस बुढ़ापे में, महात्मा गांधी सरीखे बहुत कम लोग हैं जिन्होंने अपने जीवन और मरण में इतनी  महान और व्यापक ख्याति प्राप्त की हो। लेकिन इसका कारण एक यह भी था वे किसी पद पर नहीं थे, यहाँ तक कि कांग्रेस से भी उन्होंने पद-वद के मामले में कोई ताल्लुक़ नहीं रखा। लेकिन ऐसे भाग्यवान और बुद्धिमान बूढ़े बहुत कम होते हैं। आज के अणु-युग में  गांधीवाद अपरिहार्य हो गया है। (नया ख़ून, 12 जुलाई 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित) *************************************** *************************************** *************************************** ********************* सिंहासनों पर वृद्धों के मनोरंजक योगासन-2  ऐसे बूढ़े बहुत कम है जिन्हें बुढ़ापे में पद की लालसा न हो। वे अपनी मौत की खाई पर प्रभाव के पुल से काम लेना चाहते हैं। स्टालिन इसका ज्वलंत उदाहरण है। किंतु मौत होते ही उसकी कीर्ति की हत्या कर दी गई। लेकिन रूस की मौजूदा प्रवृत्ति को देखते हुए कहा जा सकता है कि उसकी जि़ंदगी में ही वह स्वयं अपनी पार्टी में लोकप्रिय नहीं रहा था। यह बु

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-3)

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बगदादी राजनीति का चक्कर यह बिलकुल सही है कि अपनी जनता के सामने बहादुरी बताना पाकिस्तान के लिए ज़रूरी हो गया है। ऐसी हालत में सरहदी उपद्रव और ज़्यादा बढ़ेगा और लड़ाई के बादल घुमडेंगे। यह ज़रूरी नहीं है कि वे बरसे भी। लेकिन वे घुमडेंगे भी ख़ूब और गरजेंगे भी ख़ूब, और शायद वे इधर- उधर ओले गिरायें बौछारें करें और आग के छींटे मारें। ( सारथी, 3 फऱवरी 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड - 6 में संकलित) ************************* ************************* ************************* ************************* ************************* ************************* दून घाटी में नेहरू सुना है पंडित जवाहर लाल नेहरू एक हफ़्ते की छुट्टी पर रहेंगे। 'आराम हराम है' का नारा देने वाले नेहरूजी को स्वयं आराम की कितनी ज़रूरत है, यह किसी से छिपा नहीं है। देश-विदेश की हर छोटी सी घटना उनके संवेदनशील मन को केवल प्रभावित ही नहीं करती, वरन उन्हें योग्य कार्य करने के लिए संचालित भी कर देती है। इनका मानसिक भार उन लोगों से भी छिपा नही है, जो सिफऱ् चित्र मे उन्हे देखते हैं। उनका कहना है कि  नेहरूजी

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-2)

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जि़ंदगी के तक़ाज़े और सामाजिक त्योहार-1 जो मुहल्ला बहुत पुराना पड़ जाता है गऱीबों के पल्ले पड़ता है और नया धनियों के जि़म्मे आता है। यह प्रक्रिया स्पष्ट होती है ठीक पचास सालों के दरमियान, लेकिन वह चलती रहती है, सदा सर्वदा। यह नये और पुराने का भेद असल में गऱीब और अमीर का भेद है। एक ही शहर की दो संस्कृतियाँ हैं -एक गऱीब की  संस्कृति और दूसरी अमीर की संस्कृति । एक ही शहर में दो राष्ट्र है। एक राष्ट्र गऱीब है, काम  करता है, कुलीगीरी करता है, मज़दूरी करता है, रिक्शा चलाता है, क्लर्की करता है, टाइमकीपरी करता है, दजऱ्ीगीरी करता है  और एक दूसरा राष्ट्र है जो मैंगनीज़ की खदानें  लेता है, अंग्रेज़ी, हिंदी, मराठी अख़बार निकालता है, चुनाव लड़ता है, और सरकार  चलाता है और उद्योगों में पैसा लगाता है। ( नया खून,18 सितंबर 1953 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित) ************************************* ************************************* ************************************* ************************** जि़ंदगी के तक़ाज़े और सामाजिक त्योहार-2 गणेश उत्सव के वर्तमान स्वरूप से अब

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-1)

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काफ़ी दिनों से सोच रहा था स्वर्गीय श्री गजानन माधव मुक्तिबोध जी के विविधता से भरे लेखन यथा आलोचना, निबंध, कहानी तथा पत्रों में से कुछ पैराग्राफ़, कविताओं के कुछ अंश, पत्रकारिता करते हुए लिखे गए उनके उनके लेखों से में से चंद पंक्तियाँ जो बार बार पढऩे व उसके गहरे निहितार्थ समझने के लिए बाध्य करती है, अलग से कागज पर उतारूं तथा जब कभी मन करें, उन्हे पढ़कर समझने की कोशिश करूं। पत्रकार हूं, कवि या साहित्यकार नहीं हूँ अलबत्ता साहित्य में मेरी रूचि जरूर है। आप मुझे हिन्दी साहित्य का एक जिज्ञासु पाठक कह सकते हैं जो बिम्ब, प्रतिबिम्ब व प्रतीकों के गहरेपन को, उनके अर्थ को समझने की कोशिश करता है। लिहाज़ा 'मुक्तिबोध : प्रतिदिन' शीर्षक से उनके गद्य व पद्य के अंश जो मेरी अल्प साहित्यिक समझ की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, चयनित है। दरअसल उनका रचना संसार इतना काव्यात्मक, व्यापक एवम् गम्भीर है कि उनके अंशों को उनके समूचे परिदृश्य से बाहर खींचना बेहद कठिन है। ऐसी कोशिश करते वक्त बार बार यह अहसास होता है कि कुछ पीछे छूट गया। अत: उसके सही परिदृश्य को, भावनाओं व विचारों के आवेग को समझने के लिए यक