स्मरण मुक्तिबोध: उनके वे सबसे अच्छे दिन
11 सितंबर को पुण्यतिथि पर विशेष
-दिवाकर मुक्तिबोध
मुक्तिबोध
जन्मशताब्दी वर्ष की शुरुआत 13 नवंबर 2016 से हो चुकी है। एक बेटे के तौर
पर बचपन एवं किशोर वय की ओर बढ़ते हुए हमें उनके सान्निध्य के करीब 10-12
वर्ष ही मिले। जन्म के बाद शुरु के 5-6 साल आप छोड़ दीजिए क्योंकि यादों के
कुछ पल, कुछ घटनाएँ ही आपके जेहन में रहती है जो जीवन भर साथ चलती हैं।
ऐसे ही चंद प्रसंगों पर आधारित संस्मरण की यह दूसरी किस्त। प्रथम किस्त नई दिल्ली से प्रकाशित ""दुनिया इन दिनों'' में 15-30 सितंबर 2016 के अंक में छप चुकी है।
""पता नहीं कब कौन कहां, किस ओर मिले,
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले,
यह राह जिंदगी की, जिससे जिस जगह मिले।''
कविता की ये वे पंक्तियां हैं जिन्हें मैं बचपन में अक्सर सुना करता था, पाठ करते हुए मुक्तिबोधजी से। स्व. श्री गजानन माधव मुक्तिबोध मेरे पिता, जिन्हें हम सभी, घरवाले दादा-दादी भी बाबू साहेब के नाम से संबोधित करते थे। मैं उनका श्रोता उस दौर में बना जब मुझे अस्थमा हुआ। दमे के शिकार बेटे को गोद में लेकर हालांकि वह इतना बड़ा हो गया था कि गोद में नहीं समा सकता था, थपकियां देकर वे जो कविताएं सुनाया करते थे, उनमें ""पता नहीं'' शीर्षक की इस कविता की प्रारंभिक लाइनें मेरे दिमाग में अभी भी कौधंती हैं। वह शायद इसलिए कि मैंने उसे उनके स्वर में बार-बार सुना है। जिस लयबद्ध तरीके से वे इसे सुनाया करते थे, कि मुझे थोड़ी ही देर में नींद आ जाती थी। अस्थमा एक ऐसा रोग है जो आदमी को चैन से सोने भी नहीं देता। धाैंकनी की तरह बेचैनी होती सांसें ऊपर-नीचे होती रहती हैं जिसकी वजह से सीधा लेटा नहीं जा सकता। दो-तीन तकियों के सहारे आधा धड़ ऊपर रखकर-एक तरह से बैठे-बैठे राते काटनी पड़ती हैं। 10-11 साल की उम्र में मुझे दमे ने कब कब पकड़ा, याद नहीं, अलबत्ता पिताजी की बड़ी चिंता मुझे लेकर थी। इसलिए जब अधलेटे बेटे की हालत उनसे देखी नहीं जाती थी, तब वे उसे गोद में लेकर सस्वर कविताओं का पाठ करते थे, आगे पीछे अपने शरीर को झुलाते हुए ताकि मुझे नींद आ जाए और वह आ भी जाती थी।

अपनी याद में पिताजी को बीमार पड़ते मैंने कभी नहीं देखा। बचपन की यादें यानी नागपुर में सन् 1954 -55, राजनांदगांव में 1964, उनकी मृत्यु पर्यन्त तक। जनवरी 1964 में पक्षाघात के बाद वे कभी नहीं उठ पाए। ऊंचे-पूरे, अच्छी पर्सनालिटी के मालिक थे। उन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता था कि कोई बीमारी उन्हें तोड़ सकती है। लेकिन हाथ-पैर उनके दर्द देते थे। कॉलेज से लौटने के बाद या निरंतर लेखन से आई शारीरिक शिथिलता दूर करने के लिए वे हमें हाथ-पैर दबाने के लिए कहते थे। यह काम मालिश जैसा नहीं था यानी यहाँ हाथों की उंगलियों का कोई काम नहीं था। वे पेट के बल लेट जाते थे और हमें ऊपर से नीचे तक, पैरों से लेकर गर्दन तक पांव से दबाने कहते थे। हम दीवार के सहारे एक तरह से उनकी पीठ व कमर पर नाचते थे। यह हमारे लिए खेल था किन्तु उन्हें इससे आराम मिलता था। कभी-कभी वे पेट भी इसी तरह हमसे दबाया करते थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्हें कितनी तकलीफ थी पर न तो वे डॉक्टर के पास जाते थे और न दवाई लेते थे। इसलिए उनकी शारीरिक पीड़ाओं का हमें अहसास नहीं था।
बाबू साहेब को हमने गुस्से में कभी नहीं देखा। दिन-रात व्यस्तता के चलते हमारी पढ़ाई के बारे में पूछताछ करने या हमें पढ़ाने के लिए वक्त निकालना उनके लिए बहुत कठिन था। लेकिन वसंतपुर के मकान में रात्रि में कंदील की रोशनी में जब कभी वे हमें किताब कापी लेकर आने के लिए कहते थे, तो हमारी रूह कांप जाती थी। हालांकि वे हम पर कभी नाराज नहीं होते थे और न ही डांटते-फटकारते थे। हम पढ़ते कम थे पर उन्हें एतराज नहीं था। मैं और मेरी बड़ी बहन उषा नगर पालिका की प्राथमिक शाला के विद्यार्थी थे। पढ़ाई लिखाई में मैं सामान्य था लेकिन उषा से कुछ बेहतर। इसलिए पिताजी के सवालों का टूटा-फूटा सा जवाब मैं दे देता था। इससे उन्हें संतोष हो जाता था किन्तु उषा मूक बनी रहती थी इसलिए वह उनके गुस्से का शिकार बन जाती थी। उनका रौद्र रुप देखकर हम दोनों सहम जाते थे। यद्यपि गुस्सा शांत हो जाने के बाद वे हमें दुलारते भी थे। यह अच्छा था कि पढ़ाई-लिखाई का वह दौर न ज्यादा समय के लिए चलता था और न ज्यादा दिन चलता था। दिग्विजय कॉलेज परिसर वाले मकान में रहने के लिए आने के बाद वह खत्म हो गया। वक्त ने उन्हें वक्त नहीं दिया। वे बीमार पड़ गए।

बहरहाल सन् 1960 में जब हम वसंतपुर से दिग्विजय कॉलेज में एरिया में रहने गए थे, तब भी उसका सौंदर्य अद्भुत था, हालांकि वह खुरदुरा था। शहर में रहते हुए गाँव जैसा अहसास। सिंह द्वार, आम रास्ता था। सुबह-शाम खुलता-बंद होता। दरवाजों पर बड़ी-बड़ी कीलें ठुकी हुई थीं जो राजशाही की प्रतीक थीं। वे अभी भी वैसी ही हैं। इस द्वार से सबसे ज्यादा आते-जाते थे वे धोबी जिनके लिए दोनों तालाबों के घाट ज्यादा मुफीद थे। धोबीघाट पर कपड़े पटकने की ध्वनि में भी एक अलग तरह की मिठास थी। मकान की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से टकराती ध्वनियां मधुर संगीत का अहसास कराती थी। पिताजी के जीवन के ये सबसे अच्छे दिन थे। राजनांदगाँव का वसंतपुर व दिग्विजय कॉलेज का हमारा किराए का मकान।
जहाँ तक मुझे स्मरण है, बाबू साहेब ने नागपुर आकाशवाणी की नौकरी छोडऩे के बाद, "नया खून' में काम किया। यह उनकी पत्रकारिता का दौर था जिसमें उन्होंने सम-सामयिक विषयों जिसमें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दे भी शामिल है, काफी कुछ लिखा। उन दिनों के नागपुर का भी उन्होंने बड़ा भावनात्मक चित्र खींचा। माँ से मैंने सुना था "नया खून' में रहते हुए उनके लिए दो नौकरियों की व्यवस्था हुई थी। दिल्ली श्री श्रीकांत वर्मा ने प्रयत्न किए थे और राजनांदगाँव से श्री शरद कोठारी ने। अब समस्या दो शहरों में से एक को चुनने की थी। अंतत: बाबू साहेब ने महानगर की बजाए कस्बाई राजनांदगाँव को चुना। दिग्विजय कॉलेज जो उन दिनों निजी था, में उन्हें प्राध्यापकी मिली। यह एकदम सही निर्णय था क्योंकि जो शांतता और सौहाद्र्रता इस शहर थी, वह उन्हें संभवत: दिल्ली में नहीं मिल सकती थी। राजनांदगाँव उनके लेखन एवं जीवन की दृष्टि से इसीलिए महत्वपूर्ण रहा।
वे कितने पारिवारिक थे, कितने संवेदनशील यह बहुतेरी घटनाओं से जाहिर है। एक प्रसंग है - वसंतपुर में हमारे मकान के सामने आगे बड़ा था मैदान था जहां हम प्राय: रोज पतंग उड़ाया करते थे। एक दिन पतंग उड़ाते- उड़ाते मैं पीछे हटता गया और अंत में मेरा पैर एक बड़े पत्थर से जा टकराया। हड्डी में चोट आई। कुछ दिनों में वह बहुत सूज गया और उसमें मवाद आ गया। सरकारी अस्पताल में डॉक्टर ने कहा - चीरा लगाना पड़ेगा। दर्द के उन दिनों में पिताजी हर पल मेरे साथ रहे। अस्पताल लाना-ले-जाना, पास में बैठना, पुचकारना और आखिर में सरकारी अस्पताल में चीरा लगाते समय मुझे पकड़कर रखना। उन दिनों ऐसी छोटी-मोटी सर्जरी पर एनेस्थिया नहीं दिया जाता था। छोटे बच्चे इंजेक्शन से वैसे भी घबराते है और ऊपर से चीरा। भयानक क्षण थे। मेरी दर्द भरी चीखें और मजबूती से मेरे पैर पकड़े हुए घबराए से पिताजी। उनका कांपता चेहरा, वह दृश्य अभी भी आँखों के सामने हैं।
मुझे अस्थमा था। जब यह महसूस हुआ कि घर के दोनों तरफ के तालाब और उमस भरा वातावरण इसकी एक वजह है तो मेरे रहने की अलग व्यवस्था की गई। माँ के साथ एवं बड़े भैय्या के साथ। गर्मी के दिन थे। शहर से बाहर जैन स्कूल में छुट्टियां थी इसलिए स्कूल के एक कमरे में मैं माँ के साथ रहा। इसके बाद मेरे लिए शहर के नजदीक लेबर कॉलोनी में एक कमरे का मकान किराये पर लिया गया जहाँ मैं भैया के साथ रहने लगा। पिताजी रोज शाम को पैदल मिलने आया करते थे, किसी नजदीकी मित्र के साथ। मेरे लिए उनकी चिंता गहन थी। अभावों के बावजूद उन्होंने हमें किसी बात की कमी नहीं होने दी। समय के साथ मैं तो ठीक हो गया पर वे बीमार पड़ गए। ऐसे पड़ गए कि फिर बिस्तर से उठ नहीं पाए।
यकीनन राजनांदगाँव उनकी सृजनात्मकता का स्वर्णिम काल था। जीवन में कुछ निश्चिंतता थी, कुछ सुख थे पर दुर्भाग्य से यह समय अत्यल्प रहा। लेकिन मात्र 6-7 साल। इस अवधि में उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेखन यही हुआ। वे छत्तीसगढ़ के प्रति कितने कृतज्ञ थे, इसका प्रमाण श्री श्रीकांत वर्मा को लिखे गए उनके पत्र से मिलता है - 14 नवंबर 1963 के पत्र में उन्होंने लिखा है -""उस छत्तीसगढ़ का मैं ऋणी हूँ जिसने मुझे और मेरे बाल बच्चों को शांतिपूर्वक जीने का क्षेत्र दिया। उस छत्तीसगढ़ में जहाँ मुझे मेरे प्यारे छोटे-छोटे लोग मिले, जिन्होंने मुझे बाहों में समेट लिया और बड़े भी मिले, जिन्होंने मुझे सम्मान और सत्कार प्रदान करके, संकटों से बचाया''।
बहुत ही हृदयस्पर्शी वर्णन है।
ReplyDeleteआपके पिता के आपके प्रति स्नेह,और आपके उनके प्रति आदर का बहुत ही जीवन्त वर्णन किया है आपने इस प्रलेख में।
बहुत ही हृदयस्पर्शी वर्णन है।
ReplyDeleteआपके पिता के आपके प्रति स्नेह,और आपके उनके प्रति आदर का बहुत ही जीवन्त वर्णन किया है आपने इस प्रलेख में।