आखिर इस हिंसा का जवाब क्या है?

दिल दहल गया है। मुट्ठियां भींच गई हैं। आंखें शोले उगल रही हैं। यह आम आदमी का गुस्सा है जो बरसों से बस्तर में नक्सली हिंसा के तांडव को देखते-देखते आपे से बाहर हुआ जा रहा है। लेकिन लाचार है, मजबूर है। कर कुछ नहीं सकता। सिर्फ आंसू बहा सकता है या गुस्से से लाल-पीला हो सकता है। यही उसकी त्रासदी है। दरअसल जो कुछ करना है सत्ताधीशों को करना है, राजनीतिज्ञों को करना है, अफसरों को करना है। यह उनकी प्रतिबद्धता, समस्या को देखने का नजरिया और जवाबदेही का सवाल है। छत्तीसगढ़ या बस्तर के आम आदमी की भूमिका केवल इतनी हो सकती है कि वह सलवा जुडूम की तर्ज पर हिंसा के खिलाफ आवाज बुलंद करे, नक्सली खौफ को खारिज करे, एकजुटता दिखाए तथा जनजागरण के जरिए वातावरण बनाने की कोशिश करे। वह सरकार एवं पुलिस की मदद के लिए भी तैयार है बशर्ते उसे विश्वास में लिया जाए, उसकी सुरक्षा का माकूल बंदोबस्त किया जाए, उसका मान-सम्मान कायम रखा जाए, मदद के एवज में उसका जीना हराम न किया जाए और नक्सली समर्थक होने के शक में उसे फांसा न जाए, प्रताड़ित न किया जाए। लेकिन दिक्कत यह है कि उसके साथ ठीक उल्टा हो रहा है। इसीलिए बस्तर का आम आदमी प...