कुछ यादें कुछ बातें - 6

रामाश्रय उपाध्याय : जन्म 2 अगस्त 1917 ग्राम अंगरा, मोगपुर , बिहार। संपादन- लोकमत नागपुर। नवप्रभात भोपाल। देशबंधु रायपुर। निधन -5 फ़रवरी 2005 रायपुर।

पंडित रामाश्रय उपाध्याय उर्फ़ वक्रतुंड के करीब साढ़े तीन दशक के सम्पूर्ण लेखन से गुज़रना पत्रकारिता के तीर्थ-स्थलों में हवन-पूजन के बीच से गुज़रने की तरह है।वे जितने चतुर और काइयाँस्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, उतने ही सजग और सतर्क पत्रकार भी। ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए वे अलग अंदाज में पुलिस स्टेशनों और सरकारी इमारतों पर तिरंगा फहराकर लापताहोते रहे। कभी पकड़ में नहीं आए। उसी तरह आज़ादी के बाद भी लेखन के जरिए छापामार लडाई लड़ते रहे, बिना शिनाख्त के। रामाश्रय उपाध्याय के नाम से नहीं ' वक्रतुंड ' नाम से। 

( उपाध्याय जी किताब 'एक दिन की बात' में राजनारायण मिश्र की भूमिका का छोटा सा अंश)

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दिवाकर मुक्तिबोध 



रामाश्रय उपाध्याय : संस्मरणों की इस शृंखला में पंडित रामाश्रय जी के संबंध में मैंने सोचा नहीं था कि कुछ लिख पाऊँगा किंतु मित्रों का आग्रह था कि कुछ तो लिखना चाहिए अन्यथा यह सीरीज़अधूरी रह जाएगी। मेरी समस्या यह थी लिखूँ तो क्या लिखूँ । पंडित जी देशबंधु में मेरे संपादक थे और उस काल में संपादकीय कामकाज की व्यवस्था आज की तुलना में बहुत भिन्न थी। तबसंपादक देश-दुनिया की सभी महत्वपूर्ण ख़बरों से वाक़िफ़ तो रहते थे किंतु रोज़मर्रा के संपादकीय कार्यों में उनकी संलिप्तता नहीं के बराबर रहती थी। यानी प्रथम पृष्ठ से लेकर अंतिम पृष्ठ तकख़बरों के प्लेसमेंट पर उनका कोई ज़ोर नहीं था और न ही वे निर्देशित करते थे। उनका मुख्य कार्य रहता था प्रतिदिन संपादकीय टिप्पणी के साथ ही संपादकीय पृष्ठ के लिए लेख या स्तम्भ लिखनाजबकि अब संपादक का प्रमुख दायित्व अखबार की रीति-नीति के अनुसार ख़बरों का चयन व पृष्ठों के संयोजन का है ,रोज संपादकीय लिखना बिल्कुल जरूरी नहीं है। यह काम कोई और कर सकताहै। यही नहीं नियमित कालम ,लेखन अथवा महत्वपूर्ण घटनाओं पर टीका-टिप्पणियां न भी लिखें तो भी चलेगा। बिलकुल चलेगा। बस अखबार में कोई गड़बड़ नहीं होनी चाहिए। वह ठीक निकलनाचाहिए। यानी संपादक नाम की संस्था दरअसल समाचार प्रबंधक के रूप में तब्दील हो गई है जिस पर नौकरी की ज़रूरत के चलते एतराज़ का प्रश्न नहीं है। यानी इस पद पर पहुँचने के लिएलेखकीय कौशल की नहीं , प्रबंधकीय निपुणता की ज़रूरत है । विचारशील पत्रकारिता की दृष्टि यह बदलाव यकीनन घातक है पर इससे एक नई बात अवश्य हुई है। संपादक व संपादकीय सहकर्मियोंके बीच संवाद बढ़ गया है, कामकाज में उसके हस्तक्षेप से दूरियाँ घटी है , रोज घटित घटनाक्रमों पर विचार-विमर्श जरूरी हो गया है तथा हर खबर या प्रकाशन सामग्री का संपादक की निगाहों सेहोकर गुज़रना भी अनिवार्य। इस मायने में या यों कहें इस व्यवस्था की वजह से वह दीवार ढह गई है जो बीते कालखंड में अमूमन सह संपादकों, विशेषकर जूनियरों को बार-बार संपादक के पासजाने से रोकती थी।और संवाद न के बराबर होता था। इसलिए आज यदि आपको अपने संपादक के व्यक्तित्व के बारे में , उनकी कार्यशैली के संबंध में या उनकी स्मृतियों बाबत लिखना हो तो आपकेपास अनुभव का भंडार है। लेकिन उस ज़माने के संपादकों के मातहत आपने काम किया है तो यह एक दुष्कर कार्य है। इसी वजह से रामाश्रय उपाध्याय जी पर न लिखने का मन मैने बना लिया था।मुझे लगता था जैसा उनका विराट व्यक्तित्व व लेखन रहा है , उसे वाक़िफ़ होने के बावजूद स्मृतियों में विशेष ऐसा कुछ नहीं हैं कि मैं शब्दांकित कर सकूँ हालाँकि वह ऊर्जा जो उनके सान्निध्य मेंमुझे करीब पाँच साल तक अनवरत मिलती रही, आज भी महसूस करता हूँ । 


उपाध्याय जी से मुलाक़ात तब हुई जब देशबंधु प्रेस बूढापारा से स्टेशन रोड, केलकर पारा में स्थानांतरित  हो गया। यह वर्ष 1971-72 की बात है। मैं नया-नया था। उपाध्याय जी से औपचारिकपरिचय के बाद काफी दिनों तक कोई बातचीत नहीं हुई। बातें होती भी क्या ? जिसे पत्रकारिता की समझ न हो, जिसे देश-दुनिया की खबर न हो, जो शहर के लिए नया हो और जिसका सामान्य ज्ञानभी कमजोर हो और जो बेहद शर्मीला सा दब्बू व अंतर्मुखी नौजवान हो, वह अपने विद्वान व अनुभवी संपादक से क्या बात करेगा ? इसलिए प्रारंभ में मैं केवल उनकी गतिविधियों पर उत्सुकता भरीनज़र रखते हुए उनके व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करता था। पंडित जी धवल वस्त्रों में रहते थे। श्यामल देह पर सफ़ेद कुर्ता व पाजामा खूब फबता था। अच्छे डील-डौल के थे। धीर-गंभीर। जबमुस्कुराते तो गोल चेहरा फैलकर और मासूम लगने लगता था। दफ़्तर में सबसे पहले वे ही आते थे। दस-साढ़े दस बजे। आते ही टेलीप्रिंटर पर समाचारों पर एक सरसरी नज़र दौड़ाने के बाद अंग्रेज़ी वहिंदी अखबारों को पढ़ने में व्यस्त हो जाते। तब तक संपादकीय विभाग में चहल-पहल शुरू हो जाती थी। हम प्रूफ रीडरों के डेस्क पर स्टेंडिंग मैटर के प्रूफों के बंडल पड़े रहते थे। यह वह मैटर रहता थाजो रात में कम्पोजिंग के लिए दिया जाता था। कार्यालय पहुंचने के बाद मैं समाचारों के प्रूफ पढ़ने में व्यस्त रहता और जब कभी पंडित जी अपने कक्ष से संपादकीय हाल आते , मैं गर्दन और नीचेझुका लेता था।मैं देखता था पंडित जी अग्रलेख लिखने के पूर्व टेलीप्रिंटर पर देर रात व सुबह आई ख़बरों का पूरा बंडल अपने कमरे में ले जाते। घंटे -आधे घंटे के बाद क़लम उनके हाथ में आ जातीऔर वे संपादकीय लिखना शुरू कर देते। स्वयं को अपडेट रखने वे बीच-बीच में टेलीप्रिंटर की ख़बरें देखते रहते। अपने मैटर का प्रूफ खुद पढ़ने के पश्चात वे अपना नियमित स्तंभ 'एक दिन की बात' लिखते।  शाम साढ़े पाँच बजे तक अपना काम निपटाकर वे लगभग हर दिन शहर में लोगों से मिलते-जुलते या सब्ज़ी बाज़ार में सब्ज़ी वाले के पास उकडू बैठकर सब्ज़ी ख़रीदते नज़र आते। वे पैदलयात्री थे। यहाँ-वहाँ जाने कोई लिफ़्ट दे दें तो बात अलग। उनके पौत्र सुमीत उपाध्याय बताते हैं कि वे करीब रात्रि नौ बजे तक घर पहुँचते थे और अक्सर उनके हाथ में किताबें हुआ करती थी।


पंडित जी की घटनाओं को देखने, परखने व समझने की दृष्टि कितनी तीक्ष्ण थी, उसकी बानगी ' एक दिन की बात ' है। सप्ताह में एक दिन छोड़कर प्रतिदिन सालों-साल चलने वाले इस स्तम्भ नेजो लोकप्रियता हासिल की वह अद्भुत है। रोज़ाना शहर भ्रमण का, लोगों से मेलजोल का मक़सद रहता था कालम के विषय व पात्र खोजना। इसके लिए लिखने-पढ़ने के अलावा ख़बरों से अपडेट रहनाजरूरी होता है। पंडित जी पढ़ते खूब थे।राजनीतिक विषयों में भी उनकी खासी दिलचस्पी थी। यह उनके लेखन का बडा आधार  था। वे मिलते-जुलते सभी से थे पर बख़्शते किसी को न थे चाहे वहकितना भी बडा नेता, अधिकारी या नगर सेठ ही क्यों न हो। कल्पित पात्रों के आपसी संवाद के जरिए वे इतना तीक्ष्ण व्यंग्य करते थे कि संबंधित व्यक्ति बिलबिला उठता था पर प्रतिरोध इसलिएनहीं कर सकता था क्यों कि पहिचान सांकेतिक हुआ करती थी किंतु पाठकों के लिए समझना आसान था कि पंडित जी ने किसका शिकार किया है। मुझे याद आता है प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशीनवभारत टाइम्स में 'प्रतिदिन' शीर्षक से अंतिम पृष्ठ पर रोज एक स्तम्भ लिखा करते थे। बहुत छोटा सा टुकड़ा, चार-पाँच पैराग्राफ़ का।उनमें भी रोज़मर्रा की घटनाओं पर ऐसा ही तीखा व्यंग्य हुआकरता था। निश्चित ही 'एक दिन की बात' का प्रस्तुतीकरण भिन्न था पर व्यंग्य का तड़का ज़बरदस्त।


मैं पंडित जी के कालम का नियमित पाठक नहीं था। दरअसल कभी-कभार उनके स्तंम्भ तथा अग्रलेख का सेकेंड प्रूफ पढ़ना पड़ता था। उस दौर में उन्हें बस इतना ही पढ़ पाया। उन्हें ठीक से तबसमझ पाया जब वर्ष 2005 में उनकी  किताब 'एक दिन की बात' हाथ में आई। असल में प्रारंभ में प्रूफ रीडरी करते हुए अतिरिक्त 'कुछ' पढ़ने की  ललक नहीं रहती थी। प्रूफ पढते-पढ़ते दिमाग़ थकजाता था। फिर पंडित जी से एक सम्मानजनक दूरी थी। वे व्यस्त रहते थे इसलिए संवाद भी नहीं के बराबर था लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीतता 

गया, पंडित जी हम जूनियर सहकर्मियों से खुलते चले गए। यहाँ तक कि अग्रलेख लिखने के बाद टपरीनुमा होटल में चाय नाश्ते के लिए हम लोगों के साथ जानें में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था।जब नहर पारा में दफ़्तर था तब रेल्वे स्टेशन के निकट होटल मानसरोवर में और जब भैंसस्थान इलाक़े में आए तब बिना साइन बोर्ड वाला हगरू होटल अड्डा बन गया था। यहाँ करीब पौन घंटेमिलते थे जब हम पंडित जी से खुलकर इधर-उधर की बातें करते। इधर-उधर की बातों में अखबार नहीं होता था और न ही अखबारनवीसी। बातें क्या होती थीं कुछ याद नही पर हम लोग इस बात सेबडे गौरान्वित होते थे कि इतने बडे संपादक हमारे साथ होटलिंग करते हैं, बेंच पर बाज़ू में बैठते हैं। हम इसीमें खुश थे जबकि पत्रकारिता के विद्दार्थी होने के नाते उनके सान्निध्य का लाभ क़ायदे सेहमें उनकी पत्रकारिता व उनके जीवनानुभव पर बातचीत के जरिए उठाना चाहिए था ताकि हमारा ज्ञान बढ़ता। पर ज्ञान की परवाह किसे थी? जाहिर है हम उनकी अच्छी 'खुराक' से वंचित रहे। पंडितजी जब घर पर होते थे तब सुमीत उपाध्याय बताते हैं- " जब मैं छोटा था तो जिज्ञासावश उनसे कोई न कोई सवाल पूछता था मसलन एक दफे मैंने पूछा आप कम्युनिस्ट हैं? उन्होंने कहा-किसी भीसंस्था या राजनीतिक पार्टी की नीति या विचारधारा से असहमत होने का यह मतलब नहीं है कि मैं उसके परंपरागत विरोधियों के साथ हूँ। ", उनकी सादगी का एक उदाहरण देते हुए सुमीत ने कहा- " घर में भोजन कैसा भी हो , नमक हो न हो या कम ज्यादा हो , वे कुछ नहीं बोलते थे। हमें बाद में पता चलता था क्या कमी रह गई। दरअसल शिकायत करना उनका स्वभाव नहीं था। इसलिए जोजैसा है , वैसा ही स्वीकार कर लेते थे। घर में वे ज़्यादातर अपने कमरे में रहते थे। कभी रेडियो सुनते, कभी टीवी देखते या फिर टाइम्स आफ इंडिया पढ़ते हुए। बहुत सादगी भरा जीवन था उनका।"

सुमीत ने पंडित जी से संबंधित चंद बातें वाट्सएप पर शेयर की थी। वे स्मृतियों को शब्दांकित करने में मददगार हुईं। 

बस इतना ही।

(अगला भाग शनिवार 15 अगस्त को)

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