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जोगी के लिए आगे का सफर मुश्किल भरा

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-दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ की राजनीति में तीसरी शक्ति का दावा करने वाली छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस बुरे दौर से गुजर रही है। विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद प्राय: छोटे-बड़े कई सेनापति जिनमें चुनाव में पराजित प्रत्याशी भी शामिल है, एक-एक करके पार्टी छोड़ चुके हैं तथा अपनी मातृ संस्था कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। दो वर्ष पूर्व, 23 जून 2016 को अजीत जोगी के नेतृत्व में जब इस प्रदेश पार्टी का गठन हुआ था, तब कांग्रेस से असंतुष्ट व मुख्य धारा से छिटके हुए नेताओं को नया ठौर मिल गया था जो उनके लिए उम्मीद भरा था लिहाजा ऐसे नेताओं व कार्यकर्ताओं की एक तैयारशुदा फौज जनता कांग्रेस को मिल गई थी। चुनाव के पहले आगाज जबरदस्त था अत: अंत भी शानदार होगा, इस उम्मीद के साथ यह फौज जोगी पिता-पुत्र के नेतृत्व में चुनावी रण में उतरी थी, लेकिन तमाम उम्मीदों पर ऐसा पानी फिरा कि हताशा में डूबे नेता पुन: कांग्रेस की ओर रूख करने लगे हैं। अब नेतृत्व के सामने पार्टी के अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया है। संगठन में भगदड़ मची हुई है। कई पदाधिकारी इस्तीफा दे चुके हैं और खुद को कांग्रेस व भाजपा के विकल्प के रूप मे...

छत्तीसगढ़ के साहू गुजरात के मोदी?

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- दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के बस्तर में चुनाव राज्य विधानसभा का हो या लोकसभा का, वह नक्सली हिंसा के साये से जरूर गुजरता है। लेकिन यहाँ के मतदाता अपने वोटों के जरिए हिंसा व आतंक का करारा जवाब भी देते है। पूर्व में सम्पन्न हुए सभी चुनाव इसके उदाहरण है। यानी बस्तर में चुनाव के दौरान हिंसा कोई नई बात नहीं है पर इस बार महत्वपूर्ण यह है कि हमेशा की तरह बहिष्कार की चेतावनी के साथ हाथ-पैर काट डालने की नक्सली धमकी के बावजूद आदिवासी महिलाओं, पुरूषों एवं युवाओं ने मतदान ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया व रिकार्ड मतदान किया वह भी तब जब मतदान के दो दिन पहले नक्सलियों ने बारूदी विस्फोट में दंतेवाड़ा के विधायक भीमा मंडावी की हत्या कर दी थी। बस्तर लोकसभा सीट के लिए 11 अप्रैल को मतदान था। जाहिर था, नक्सलियों द्वारा की गई हिंसा से समूचे इलाके में दहशत फैल गई किंतु जब मतदान का दिन आया, मतदाता घर से निकल पड़े और बिना किसी भय के मतदान केन्द्रों के सामने उन्होंने लंबी-लंबी कतार लगाई। एक लाइन में भीमा मंडावी की शोकाकुल पत्नी, बच्चे व परिवार के अन्य सदस्य भी शामिल थे। उन्होंने अपना सारा दुख भूलकर मतदान कि...

चिंता और चुनौती में फँसे रमन सिंह

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- दिवाकर मुक्तिबोध  भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व छत्तीसगढ़ के पूर्वं मुख्यमंत्री डा रमन सिंह इन दिनों किन-किन चिंताओं, किन-किन मुसीबतों के दौर से गुजर रहे हैं, इसे वे ही बेहतर जानते हैं। ये मुसीबतें कुछ राजनीतिक हैं, कुछ पारिवारिक। लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान 11 अप्रैल, दूसरे चरण का 18 व अंतिम 23 अप्रैल को है। यानी चुनाव की घड़ी एकदम नजदीक आ गई है और चुनाव में पार्टी की वैतरणी पार लगाना उनकी जिम्मेदारी हैं। दिसंबर 2018 में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए, यह बेहद मुश्किल काम है, इसे वे भी जानते हैं और भाजपा के अन्य शीर्ष नेता भी। पिछले दो लोकसभा चुनाव में जीती गई 11 में से 10 सीटें लगातार तीसरी बार जीतना भाजपा के लिए नामुमकिन है। मोदी है तो मुमकिन है, का फार्मूला छत्तीसगढ़ में असर दिखा पाएगा, यह भी सोचना कठिन है। फिर भी तीन बार के मुख्यमंत्री होने के नाते मूल जिम्मेदारी उनकी बनती है क्योंकि संगठन में करीब-करीब सारे प्यादे उन्होंने अपने हिसाब से सजा रखे हैं। इसलिए लोकसभा चुनाव ही वह मौका है जिसमें उन्हें यह साबित करना है कि विधानसभा चुनाव भले ही प...

भाजपा का दाँव कितना सही?

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- दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ लोकसभा चुनाव भाजपा ने अप्रत्याशित रूप से चेहरे बदल दिए हैं। यह तो उम्मीद की जा रही थी कि 11 लोकसभा सीटों में से दस पर काबिज कुछ सांसदों की टिकिट कटेगी व नयों को मौका मिलेगा। रायपुर संसदीय सीट को सात बार जीतने वाले रमेश बैस या केन्द्रीय मंत्री व रायगढ के आदिवासी नेता विष्णुदेव साय अथवा कांकेर लोकसभा का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी सोच भी नहीं सकते थे कि उनकी टिकिट कटेगी लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व ने बडा दाँव खेलते हुए सभी दस विजेताओं को संदेश दे दिया कि अब उनकी भूमिका बदली जा रही है तथा उन्हें नेता की हैसियत से अपने प्रभाव का इस्तेमाल अपेक्षाकृत नए उम्मीदवारों को जीताने में करना है। पार्टी का यह चौका देने वाला फैसला रहा और स्वाभाविक रूप से इसकी मौजूदा सांसदों व उनके समर्थकों के बीच तीव्र प्रतिक्रिया हुई। बंद कमरों में आक्रोश फूट पड़ा तथा नेतृत्व पर दबाव बनाकर फैसला बदलने की रणनीति पर विमर्श शुरू हो गया लेकिन जाहिर था समूची कवायद व्यर्थ थी। व्यर्थ रही। राज्य के करीब दो करोड मतदाताओं के सामने भाजपा के 11 नए लोकसभा प्रत्याशी मैदान में ...

एक हारी हुई बाज़ी

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- दिवाकर मुक्तिबोध   तीन माह पूर्व विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित प्रदेश भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि वह संगठन में जान किस तरह फूंके ताकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बराबरी की टक्कर दे सके। छत्तीसगढ़ में तीन चरणों में लोकसभा चुनाव होने हैं, 11, 18 व 23 अप्रैल। पिछले नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह व तब के प्रदेश अध्यक्ष धरमलाल कौशिक को 65 प्लस का लक्ष्य दिया था। आत्म मुग्धता की शिकार भाजपा सरकार व संगठन ने 65 से अधिक सीटें जीतकर देने के संकल्प के साथ लगातार चौथी बार सरकार बनाने का दम भरा था। पर उसका संकल्प इस कदर धराशायी हुआ कि विधानसभा में वह केवल 15 सीटों तक सिमट कर रह गई। इस बुरी हार के बाद स्वाभाविक रूप से दबा हुआ अंतरकलह सतह पर आ गया तथा कार्यकर्ता व नेता एक दूसरे के खिलाफ तनकर खड़े हो गए। यह स्थिति अभी भी बनी हुई है जबकि लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा हो चुकी है। केन्द्रीय नेतृत्व की ओर से अब कोई मिशन इलेवन नहीं है। शायद इसलिए क्योंकि संख्या-बल की दृष्टि से बड़े प्...

किसानों से माफी क्यों माँगे

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-  दिवाकर मुक्तिबोध  छत्तीसगढ भाजपा क्या अपने सबसे बुरे दिनों की ओर बढ़ रही है? 11 दिसंबर को विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सन्नाटे में डूबी पार्टी पराजय के शोक से उबरने के बजाए जिस तरह 'गृहयुद्ध' में उलझ गई और दिनों दिन उलझती ही जा रही है, उसे देखते हुए यहीं प्रतीत होता है कि प्रादेशिक इकाई अपने इतिहास के सबसे खराब दौर से गुजर रही है। अब तक जिलेवार हुई समीक्षा बैठकों में जिला, मंडल व ब्लॉक स्तरीय नेताओं व कार्यकर्ताओं ने अनुशासन के नाम पर चलने वाली तानाशाही के चिथड़े उड़ाने में कोई कसर नहीं छोडी हैं। उनके निशाने पर रमन सरकार के मंत्री, विधायक, प्रादेशिक नेतृत्व, संगठन के राष्ट्रीय पदाधिकारी जिनका राज्य की राजनीति में दखल हैं तथा चुनिंदा अफसरों का वह गिरोह है जिसने पार्टी के मुख्यमंत्री को 15 साल तक घेर रखा था। अफसरशाही व राजनीतिक गिरोहबंदी की वजह से सरकार जनता से दूर होती गई और अंतत: उसे विधानसभा चुनाव में इस तरह उखाड़ फेंका कि वह रसातल में पहुँच गई। अपने लगातार, तीन कार्यकाल में 48-49 विधायकों पर टिकी पार्टी सिमटकर 15 की हो गई है। सत्ता से बेदखली के दो माह पूरे हो ...

बघेल सरकार का एक माह: आगे-आगे देखिए होता है क्या

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- दिवाकर मुक्तिबोध 17 जनवरी को छत्तीसगढ़ में कांग्रेस-राज की स्थापना को एक माह पूरा हो गया। 17 दिसंबर 2018 को भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। फिलहाल उनकी सरकार को फटाफट काम करने वाली सरकार मानना चाहिए जिसका लक्ष्य स्पष्ट है। पार्टी का घोषणा-पत्र उसके सामने है जिसके सर्वाधिक महत्वपूर्ण वायदों पर सरकारी फऱमान जारी हो चुका है। लेकिन यह एक पहलू है जिसमें लोक-कल्याण की भावना प्रबल है। दूसरा पहलू है - राजनीतिक। लक्ष्य है, पूर्ववर्ती भाजपा शासन के दौरान सतह पर आई गड़बडिय़ों एवम् कुछ महाघोटालों की पुन: जाँच। नए सिरे से जाँच की आवश्यकता क्यों है, यह अलग प्रश्न है। इसका तार्किक आधार भी हो सकता है। यह भी संभव है, नई जाँच से नए तथ्य और छिपे हुए चेहरे भी सामने आएं जो जरूरी है पर इसके पीछे राजनीतिक मंशा को भी बखूबी महसूस किया जा सकता है। मंशा है, आगामी अप्रैल-मई में प्रस्तावित लोकसभा चुनाव के पूर्व घोटालों में कथित रूप से लिप्त भाजपा नेताओं, मंत्रियों व अफसरों पर फंदा कसना तथा उन्हें जनता की अदालत में खड़े करना। तीन-चार बड़े प्रकरणों, झीरम घाटी नरसंहार, करीब 36 हजार करो...