चिंता और चुनौती में फँसे रमन सिंह

- दिवाकर मुक्तिबोध 

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व छत्तीसगढ़ के पूर्वं मुख्यमंत्री डा रमन सिंह इन दिनों किन-किन चिंताओं, किन-किन मुसीबतों के दौर से गुजर रहे हैं, इसे वे ही बेहतर जानते हैं। ये मुसीबतें कुछ राजनीतिक हैं, कुछ पारिवारिक। लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान 11 अप्रैल, दूसरे चरण का 18 व अंतिम 23 अप्रैल को है। यानी चुनाव की घड़ी एकदम नजदीक आ गई है और चुनाव में पार्टी की वैतरणी पार लगाना उनकी जिम्मेदारी हैं। दिसंबर 2018 में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए, यह बेहद मुश्किल काम है, इसे वे भी जानते हैं और भाजपा के अन्य शीर्ष नेता भी। पिछले दो लोकसभा चुनाव में जीती गई 11 में से 10 सीटें लगातार तीसरी बार जीतना भाजपा के लिए नामुमकिन है। मोदी है तो मुमकिन है, का फार्मूला छत्तीसगढ़ में असर दिखा पाएगा, यह भी सोचना कठिन है। फिर भी तीन बार के मुख्यमंत्री होने के नाते मूल जिम्मेदारी उनकी बनती है क्योंकि संगठन में करीब-करीब सारे प्यादे उन्होंने अपने हिसाब से सजा रखे हैं। इसलिए लोकसभा चुनाव ही वह मौका है जिसमें उन्हें यह साबित करना है कि विधानसभा चुनाव भले ही पार्टी बुरी तरह हार गई हो पर अब वे संसदीय चुनाव में वैसा नहीं होने देंगे। पर कैसे? यह उनकी बडी राजनीतिक चिंता है।
दूसरी इससे भी बड़ी चिंता और मुसीबत पारिवारिक है। उनके डाक्टर दामाद 50 करोड़ के घपले के आरोपी हैं। नए सुपर स्पेशयालिटी डीके हास्पीटल की कमान संभालने के बाद उन्होंने तरह-तरह के गुल खिलाए। उन पर आरोपों की लंबी फेहरिस्त हैं। एफआईआर दर्ज है। भागे भागे फिर रहे हैं। पुलिस उन्हें तलाश रही है। उनके घर, अस्पताल में छापेमारी की। रिश्तेदारों से पूछताछ की। पर वे फिलहाल हाथ नहीं लगे हैं। उनके विदेश भागे जाने की संभावना को देखते हुए पुलिस ने  लुकआउट नोटिस जारी कर दिया है। उन पर गिरफ्तारी की तलवार लटकी हुई है। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि डॉ. रमन सिंह पर क्या बीत रही होगी। एक तरफ चुनाव में पार्टी को जीताने  की चुनौती, दूसरी तरफ पारिवारिक प्रतिष्ठा का सवाल। बहुत विकट स्थिति में फँस गए हैं रमन सिंह। 2003 के अंत में जब उन्होंने राज्य की कमान सम्हाली थी, उनकी छवि एक ऐसे भलेमानुस की थी, जो सत्ता के अहंकार से दूर था, जिसमें राजनीतिक दुष्टता नहीं थी, दाँवपेंच की गहरी व पुख्ता समझ नहीं थी और जिसकी सरलता व सज्जनता का हर कोई कायल था। इस सुदर्शन मुख्यमंत्री के शुरू के पाँच साल सरकार के कामकाज के लिहाज से यकीनन बेहतर बीते। विकास कार्यों की नींव पड़ी, जन-कल्याण की योजनाओं एवं अनेक आधारभूत संरचनाओं पर काम शुरू हुआ, सिंचाई, कृषि व ग्राम उत्थान पर ध्यान केन्द्रित किया गया। शहरों व गाँवों का चेहरा धीरे-धीरे बदलने लगा जिसकी वजह से मतदाताओं का यह विश्वास पुख्ता हुआ कि उन्होंने भाजपा को सत्ता सौंप कर कोई गलती नहीं की। लिहाजा बढ़ी हुई उम्मीदों के साथ साल 2008 में उसे पाँच साल का दूसरा कार्यकाल भी दिया गया। बस यहीं से रमन सरकार की दिशा व दशा बदलनी शुरू हो गई। अफसरशाही ने लगाम हाथ में ले ली। राजनीतिक नेतृत्व से बेखौफ बलशाली प्रशासनिक अफसरों का गिरोह तैयार हो गया। नीति संबंधी महत्वपूर्ण निर्णयों में उसका दखल बढ़ गया तथा वह फैसलों को प्रभावित करने लगा। सरकारी नौकरियों में भाई-भतीजावाद भयंकर रूप से हावी हो गया। सलाहकारों की नई फौज तैयार हो गई। करोड़ों-अरबों के नए निर्माण ठेकों में कमीशन के नए रेट फिक्स हो गए और भ्रष्टाचार चरम की ओर बढऩे लगा। हालाँकि इस दौरान भौतिक संरचनाओं से शहरों का का चेहरा चमकने लग गया था। राजधानी रायपुर की सूरत तो काफी कुछ बदल भी गई लेकिन देहातों के किसानो, मजदूरों, आदिवासियों तथा शहरों के तीसरे व चौथे वर्ग के लोगों में विभिन्न कारणों से असंतोष घर करने लगा। सरकारी व गैरसरकारी संगठनों के आंदोलन शुरू हो गए। सरकार के खिलाफ चर्चाएँ जोर पकडऩे लगी। व्यवस्था पर प्रहार किया जाने लगा। इससे प्रतीत होने लगा था कि आम जनता की नाराजगी रंग लाएगी लेकिन भाजपा के सौभाग्य से देश भर में मोदी लहर चल पड़ी थी जिसका असर छत्तीसगढ़ में इस कदर हुआ कि कुशासन के बावजूद राज्य के मतदाताओं ने 2013  के विधानसभा चुनाव में रमन सरकार को पुन: एक अवसर देना मुनासिब समझा। भाजपा लगातार तीसरी बार सत्ता में आ गई। बस इसी कार्यकाल में भाजपा के ताबूत में अंतत: आखरी कील ठुक गई। दरअसल रमन सरकार का यह दौर सबसे खराब दौर रहा। सरकार तेजी से अलोकप्रिय होती चली गई और वस्तुस्थिति से बेखबर सत्ताधारी हवा में उड़ते रहे। आखिरकार विधानसभा चुनाव में वोटरों ने अपना फैसला सुना दिया। उसके सिर्फ 15 विधायक चुनकर आए जिसमें रमन सिंह भी शामिल है। सत्ता से बाहर होते ही रमन सरकार के कार्यकाल का कच्चा-चि_ा बाहर आने लग गया। आर्थिक व राजनीतिक भ्रष्टाचार की परतें खुलनी शुरू हो गई। इसमें रमन सिंह की संलिप्तता भले ही संदेह के परे हो पर अपने दामाद डॉ. पुनीत गुप्ता के मामले मे वे यह कहकर पल्ला घर नहीं झाड़ सकते कि भूपेश बघेल सरकार बदले की भावना से काम कर रही है तथा उन्हें फँसाया जा रहा है। दामाद प्रकरण की चूँकि जाँच जारी है और नित नए खुलासे हो रहे हैं, इसलिए कानूनी कारवाई के बारे में कुछ कहना अभी मुश्किल है पर यह स्पष्ट है इससे पूर्व मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा को बहुत धक्का पहुँचा है। इससे उबर पाना फिलहाल बहुत मुश्किल दिखता  है।
विभिन्न घटनाक्रमों के परिप्रेक्ष्य में डा. रमन सिंह के इर्द-गिर्द बहुत से सवाल फन उठाए खडे हैं। यदि उनके सम्पूर्ण कार्यकाल के केवल अंतिम पाँच वर्षों को लें, तो भी कुछ सवाल राजनीतिक व प्रशासनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं जो यह सोचने के लिए बाध्य करते हैं कि एक राज्य प्रमुख आँखें मूँदकर कैसे  बैठ सकता है? यह ठीक है कि सरकार सर्वज्ञ नहीं होती, उसकी नाक के नीचे भी भ्रष्टाचार तेजी से फलता-फूलता है और कई बार उसकी भनक तक नहीं लगती लेकिन ऐसा भी होता है, ज्यादातर होता है, समझते बुझते हुए भी उसकी ओर दुर्लक्ष किया जाता है। क्या यह माना जाए कि अपने दामाद के मामले रमन सिंह ने ऐसा ही किया? अंतागढ़ टेप कांड की क्या उन्हें कोई खबर नहीं थी? क्या यह राजनीतिक सौदा बिना उनकी सहमति के सम्पन्न हुआ? पर ऐसा कैसे हो सकता है? अंतागढ़ उपचुनाव में नामांकन वापसी के अंतिम क्षणों में कांग्रेस का अधिकृत प्रत्याशी मैदान से हट जाए ताकि भाजपा की जीत सुनिश्चित हो। छत्तीसगढ़ की राजनीति में ऐसा पहली बार हुआ जिसकी गूँज पाँच साल बितने के बाद भी बनी हुई है और जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, उनके बेटे अमित जोगी व रमन सिंह के दामाद की भूमिका मानी जाती है। जाहिर है राजनीतिक कदाचरण की ऐसी घटना मिली-जुली साजिश के बिना संभव नही है और यह स्वीकार-योग्य नहीं है कि मुख्यमंत्री रमन सिंह को इसकी जानकारी नहीं रही होगी। इसी तरह डीके सुपर स्पेशलिएटी हॉस्पीटल का प्रकरण है। डा. पुनीत गुप्ता असाधारण रूप से तरक्की पाते गए, अस्पताल के प्रमुख कर्ताधर्ता हो गए और किस तरह अपनी पोजीशन का बेजा फायदा उठाते हुए उन्होंने नियम कायदों  की धज्जियाँ उड़ाई, वह अब तक की पुलिस जाँच से काफी कुछ स्पष्ट है। क्या यह माना जाए कि अस्पताल की में चले इस गोरखधंधे से रमन सिहं बिल्कुल अनजान थे? या उन्हें अपने दामाद की ईमानदारी और कर्तव्य निष्ठा पर पूरा भरोसा था या फिर गड़बडिय़ों की भनक लगने के बावजूद वे चुप्पी साधे रहे। क्या यह सोचा जा सकता है कि उन्हें प्रशासन की ओर से कोई फीड बैक इसलिए नहीं मिला क्योंकि सीएम के दामाद का मामला है, अत: बर्र के छत्ते में क्यों हाथ डाले? यह बात भी भरोसे के लायक नहीं है। बहरहाल रमन सिंह का मानना है कि उनका दामाद बेकसूर है तथा प्रकरण के अदालत में जाते ही स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। उनका ऐसा कहना बहुत स्वाभाविक है।
लेकिन यह अकेला एक मामला नहीं है जिसने रमन सिंह की उज्ज्वल छवि को दागदार न बनाया हो। इसके दौर भी उदाहरण है। यह स्पष्ट है कि वे अच्छे शासक नहीं बन सकें। उन्होंने केवल अपनी छवि की चिंता की और जाने-अनजाने में नौकरशाही को इतनी ढील दे दी कि वह मनमानी करती चली गई। राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद अब एक-एक करके बेजा सरकारी कामकाज और संगठित महा भ्रष्टाचार की जो कलई खुलते जा रही है, वह हैरतअंगेज तो है ही, वह यह भी बताती है कि सरकारी कोष का किस कदर दुरूपयोग हुआ। बकौल मुख्यमंत्री भूपेश बघेल रमन सरकार अपने पीछे 50 हजार करोड़ का कर्ज छोड़कर गई। इस कर्ज से उबरना व जनता से किए गए वायदों पूरा करते हुए विकास कार्यों को आगे बढ़ाना कांग्रेस सरकार के लिए गंभीर चुनौती है।
रमन सिंह का राजनीतिक भविष्य क्या है, इस बारे में अभी कुछ कहना मुश्किल है। पार्टी ने उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जरूर बना दिया है लेकिन उनके युवा बेटे और राजनांदगाँव से सांसद रहे अभिषेक सिंह की टिकिट काटकर उन्हें दंडित भी किया है हालाँकि केन्द्रीय नेतृत्व ने अपने सभी लोकसभा सदस्यों की टिकिट काटकर यह संदेश दिया है कि विधानसभा चुनाव में पार्टी की भारी पराजय के लिए वे भी जिम्मेदार तथा उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए। फिर भी लोकसभा चुनाव में रमन सिंह को कमान सौंपकर उन्हे अपने को साबित करने का एक और मौका दिया गया है। पूर्व मुख्यमंत्री के लिए यह कठिन परीक्षा का दौर है। एक तरफ राजनीतिक भविष्य का सवाल है तो दूसरी तरफ दामाद को अदालत से बाइज्जत बरी कराने का। किसमें कितनी सफलता मिलती है, यह देखने की बात है।

Comments

  1. Nirbheek lekh . Wakai Bahut dikkat me hain dr raman singh. Hope he comes out clean of all these problems.

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