छत्तीसगढ़ के साहू गुजरात के मोदी?

- दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ के बस्तर में चुनाव राज्य विधानसभा का हो या लोकसभा का, वह नक्सली हिंसा के साये से जरूर गुजरता है। लेकिन यहाँ के मतदाता अपने वोटों के जरिए हिंसा व आतंक का करारा जवाब भी देते है। पूर्व में सम्पन्न हुए सभी चुनाव इसके उदाहरण है। यानी बस्तर में चुनाव के दौरान हिंसा कोई नई बात नहीं है पर इस बार महत्वपूर्ण यह है कि हमेशा की तरह बहिष्कार की चेतावनी के साथ हाथ-पैर काट डालने की नक्सली धमकी के बावजूद आदिवासी महिलाओं, पुरूषों एवं युवाओं ने मतदान ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया व रिकार्ड मतदान किया वह भी तब जब मतदान के दो दिन पहले नक्सलियों ने बारूदी विस्फोट में दंतेवाड़ा के विधायक भीमा मंडावी की हत्या कर दी थी। बस्तर लोकसभा सीट के लिए 11 अप्रैल को मतदान था। जाहिर था, नक्सलियों द्वारा की गई हिंसा से समूचे इलाके में दहशत फैल गई किंतु जब मतदान का दिन आया, मतदाता घर से निकल पड़े और बिना किसी भय के मतदान केन्द्रों के सामने उन्होंने लंबी-लंबी कतार लगाई। एक लाइन में भीमा मंडावी की शोकाकुल पत्नी, बच्चे व परिवार के अन्य सदस्य भी शामिल थे। उन्होंने अपना सारा दुख भूलकर मतदान किया। यह लोकतंत्र के गहरी आस्था व विश्वास का अनोखा उदाहरण है। ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जो यह बताती है कि तमाम प्रकार के अत्याचार व कष्टों के बावजूद आदिवासी लोकतंत्र में मतदान के महत्व को बखूबी समझते हैं तथा जान की परवाह किए बिना मतदान करते है। इस बार बस्तर लोकसभा के लिए 66 प्रतिशत से अधिक वोट पड़े हैं। पिछले चुनाव में यह आँकड़ा महज 47 प्रतिशत था।

छत्तीसगढ़ में लोकसभा की 11 सीटें हैं जिनमें पाँच आरक्षित हैं। मतदान का पहला दौर निपट चुका है। 18 अप्रैल के दूसरे चरण में तीन सीटें  राजनांदगाव, कांकेर व महासमुंद के लिए वोट पड़े। अंतिम दौर में शेष बची सीटें रायपुर, दुर्ग, कोरबा, बिलासपुर, रायगढ़, जांजगीर-चाँपा व सरगुजा का नंबर है। छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जाति के लिए एक मात्र आरक्षित लोकसभा सीट जांजगीर-चाँपा को छोड़ शेष स्थानों पर कांग्रेस-भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है। जांजगीर बसपा के कारण त्रिकोणीय संघर्ष में फँसी हुई है। छत्तीसगढ़ में लगातार 15 वर्षों तक भारतीय जनता पार्टी का शासन रहा लेकिन लोकसभा सीटों पर उसका दबदबा काफी पहले से है। राजधानी रायपुर से रमेश बैस सात बार चुने गए। इस बार बैस को टिकिट नहीं मिली। दरअसल पार्टी नेतृत्व ने एक रणनीति के तहत सभी मौजूदा सांसदों की टिकिट काट दी जिनमें केन्द्रीय मंत्री विष्णु देव साय व प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी भी शामिल है। भाजपा ने नए चेहरों को, हालाँकि कुछ को विधायकी का अनुभव रहा है, टिकिट देकर बड़ा दाँव खेला है। इस दाँव में उसे कुछ या बहुत कुछ गँवाना पड़ेगा, यह तय है। और पार्टी की ऐसी तैयारी भी है। नेतृत्व की सबसे बड़ी जि़द है, कांग्रेस की आँधी को रोकना जो विधान सभा चुनाव के दौरान इतनी तेज गति से चली कि पन्द्रह साल से तना हुआ तंबू बुरी तरह उखड़ गया। लोकसभा चुनाव में इस उखड़े हुए तंबू को सीधा करने की कवायद में जुटी भाजपा यह चाहती है कि सम्मानजनक स्थिति हासिल हो जाए। पिछले दो लोकसभा चुनावों में उसका कीर्तिमान दस-दस सीटों का है। इनमें से कितनी बचाई जा सकती है, सारी जद्दोजहद इसी के लिए है। उसके हक में यह अच्छा है कि टिकिट से वंचित नाराज सांसद व कार्यकर्ताओं तथा स्थानीय नेताओं की वह फौज जो अपनी ही सरकार से खफा थी, सक्रिय हो गई है।

यदि छत्तीसगढ़ में गत नवंबर में विधानसभा चुनाव के साथ-साथ लोकसभा चुनाव हुए होते तो शायद भाजपा को एक भी सीट नहीं मिलती। चुनाव बाद हुए सर्वे भी यही बता रहे थे। पर अब जनमानस वैसा नहीं है। निजाम में बदलाव के लिए मतदाताओं का वह जोश अब मोदी फैक्टर पर भी विचार करने लगा है। पर इसके मायने यह नहीं है कि कांग्रेस की संभावना कमतर हुई है। राज्य के मतदाताओं के सामने सबसे बड़ा चेहरा राहुल, प्रियंका के बाद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का है जिन्हें बहुत उम्मीद के साथ उनहोनें सत्ता सौंपी है और वे अपने वायदों पर खरे भी उतर रहे हैं। राजनीति का गणित कुछ भी कहे, पर मतदाता लोकसभा के लिए अपना प्रतिनिधि चुनते वक्त राष्ट्रीय के साथ ही राज्य के मुद्दों पर भी गौर करते है। और राज्य में जिस किसी पार्टी की सरकार हो, उसे प्राथमिकता देते हैं। उदाहरण सामने है। बीते तीन लोकसभा चुनाव के दौरान छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार थी, नतीजतन चुनाव के परिणाम एकतरफा रहे। 2004 का प्रथम चुनाव ही ऐसा था जिसमें कांग्रेस को दो सीटें मिलीं, शेष दो में उसे सिर्फ एक से संतोष करना पड़ा। यदि यह माने कि इतिहास अपने आप को दुहराता है तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि कांग्रेस के अच्छे दिन आने वाले है।

कांग्रेस के अच्छे दिन की संभावना उन वायदों की वजह से है जो पार्टी के राष्ट्रीय संकल्प-पत्र में उल्लेखित है। लेकिन इसके साथ पूरक के रूप में छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी का वह घोषणा पत्र भी है जो विधानसभा चुनाव के दौरान जारी किया गया था और पार्टी की सरकार बनने के बाद जिस पर अमल शुरू हो गया है। आमतौर पर ग्रामीण मतदाता यह देखता है कि निरंतर कठिन होती जिंदगी को सुगम बनाने उसके सबसे नजदीक कौन खड़ा है। जाहिर है इसका फायदा सत्तारूढ़ दल को मिलता है। इसलिए चुनावी वायदे विचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते है। प्रचार-जंग में वायदों को बार-बार इसीलिए दोहराया जाता है। छत्तीसगढ़ में यह जंग अंतिम चरण में पहुँच गई है। इस जंग में एक नए अस्त्र के रूप में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जातिवाद का कार्ड खेला है। 16 अप्रैल को उन्होंने भाटापारा व कोरबा में सभाएँ लीं। कोरबा की जनसभा में उन्होंने साहू वोटों को साधने की कोशिश की जो छत्तीसगढ़ में बहुतायत है। उनका जुमला था - साहू यदि गुजरात में होते तो मोदी कहलाते। उनके इस कथन का कितना असर होगा, कुछ कहा नही जा सकता पर केन्द्र में सत्तासीन दल के किसी प्रमुख ने अपने चुनाव प्रचार में जाति  विशेष को आकर्षित करने ऐसी कोशिश की हो, ऐसा कोई प्रसंग यदि है तो याद नहीं आता।

इस लोकसभा चुनाव में अजीत जोगी के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस नहीं है हालाँकि जोगी ने घोषणा की थी कि वे खुद चुनाव लड़ेंगे तथा पार्टी बसपा के साथ चुनावी तालमेल को जारी रखते हुए कुछ सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करेगी लेकिन बाद में जोगी कांग्रेस ने चुनाव न लडऩे का फैसला किया और इसका सीधा फायदा कांग्रेस को मिलता दिख रहा है। विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस को दस लाख से अधिक वोट मिले थे तथा वह पाँच सीटें जीतने में कामयाब रही। दो में वह दूसरे पर और कई सीटों पर तीसरे स्थान पर रहते हुए उसने बड़ी संख्या में वोट हासिल किए। वह कम से कम तीन लोकसभा क्षेत्र कोरबा, बिलासपुर व जांजगीर-चाँपा को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। जोगी कांग्रेस का लोकसभा चुनाव न लडऩे का रणनीतिक फैसला उसके कांग्रेस के नजदीक आने के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि बसपा से गठजोड़ के बावजूद उसके संगठन के लोग जाहिर तौर पर बसपा नहीं, कांग्रेस के समर्थन में काम कर रहे हैं हालाँकि जांजगीर क्षेत्र की एक सभा में मायावती के साथ अजीत जोगी भी मंच पर थे। एक बात तय है कि जोगी कांग्रेस की वजह से वोट विभाजित नहीं होंगे। यह कांग्रेस के लिए राहत की बात है। 

मुद्दों की बात करें तो वे वही हैं जो वर्षों से चले आ रहे हैं। महँगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी, खेती-किसानी की बुरी हालत, ऋणग्रस्तता, जिंदगी से तंग आकर किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाएँ तथा और भी कई समस्याएँ जो लोगों की रोजमर्रा जिंदगी से जुड़ी हुई हैं। कांग्रेस व भाजपा दोनों का चुनावी वादा-पत्र इन्हीं के इर्द-गिर्द केन्द्रित है। अंतर यह है कि भाजपा ने इसमें राष्ट्रवाद का तड़का लगाया है। वोट के खातिर, जातिवाद व राष्ट्रवाद की आड़ में जन-भावनाओं को उद्वेलित करने की उसकी कोशिश रंग नहीं ला रही है। मीडिया की खबरों के अनुसार कहीं भी चुनावी माहौल नहीं है, रंग फीका है तथा मतदाता उदासीन। लेकिन इस सच के बावजूद जागरूकता में कही कोई कमी नहीं है। अगर ऐसा होता तो दशकों से नक्सली हिंसा की आग में झुलस रहे बस्तर के मतदाता रिकार्ड मतदान नहीं करते। पिछले चुनाव की तुलना में मतदान में करीब 19 प्रतिशत का इजाफा मायने रखता है। मतदाताओं की खामोशी हमेशा रंग लाती रही है। इस बार भी ऐसे ही आसार नजर आ रहे हैं।

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