दलित की मौत और दलित होने का अर्थ

-दिवाकर मुक्तिबोध
खुशहाल छत्तीसगढ़, विकास की दौड़ में सबसे तेज छत्तीसगढ़, हमर छत्तीसगढ़ और भी ऐसे कई जुमले जो राज्य सरकार उछालती रहती है, दावे करती है। परन्तु क्या वास्तव में यही पूरा सच है ? क्या सब कुछ व्यवस्थित चल रहा है ? क्या राज्य में अमन चैन है ? क्या शासन-प्रशासन की संवेदनशीलता कायम है ? क्या नक्सल मोर्चे में पर सब कुछ ठीक चल रहा है ? अब कोई फर्जी मुठभेड नहीं ? पुलिस का चेहरा सौम्य और कोमल है तथा वह जनता की सच्चे मायनों में मित्र है। और क्या अब वह थर्ड डिग्री का इस्तेमाल नहीं करती तथा थाने में तलब किए गए निरपराध लोगों के साथ में सलीके से पेश आती है? अब अंतिम प्रश्न-क्या पुलिस हिरासत में मौतों का सिलसिला थम गया है? इन सभी सवालों का एक ही जवाब है- ऐसा कुछ भी नहीं है। न पुलिस का चेहरा बदला है न शासन-प्रशासन का। संवेदनशीलता गायब है तथा क्रूरता चरम पर । इसीलिए पुलिस हिरासत में मौत की घटनाएं भी थमी नहीं है।
          बीते वर्षो में घटित पुलिस-पशुता की कितनी घटनाएं याद करें। कवर्धा में पुलिस हिरासत में बलदाऊ कौशिक की मौत, नवागढ़ में भगवन्ता साहू, आरंग में राजेश, जीआरपी भिलाई थाने में सुखलाल लोधी, कुरूद में योगेश, बिलासपुर में शिवकुमार, अंतागढ़ में जागेश्वर साहू और रायपुर फाफाडीह थाने में बिदेश्वर शाह। ये कुछ नाम है जो पुलिस अमानुषता के शिकार हुए हैं। वे पिटाई से मर गए या उन्होंने भयाक्रान्त होकर थाने में फांसी लगा ली। ये वे लोग हैं जो बेवजह मारे गए। परिजनों को पता नहीं न्याय मिला कि नहीं। ये वे घटनाएं हैं जो उजागर हुईं। वनांचलों या दूरस्थ इलाकों में स्थित थानों में कितना कुछ घटित होता होगा, कल्पना की जा सकती है। सोचें, कितना बर्दाश्त करते होंगे वे ग्रामीण जो पूछताछ के नाम पर पुलिस की क्रूरता के शिकार होते हैं। नदी-नाले पार करके, राजधानी या जिला मुख्यालय आना, पुलिस अत्याचार के खिलाफ बड़े पुलिस वालों से शिकायत करना क्या आसान है? इसके लिए कितना जबरदस्त-साहस चाहिए, कलेजा चाहिए। क्या अत्याचार पीडि़त ऐसा कर पाते हैं? जाहिर है-नहीं। कई घटनाओं की रिपोर्टिंग नहीं होती और वे रफा-दफा कर दी जाती हैं। ऐसे में क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए कि राज्य के ग्रामीण थाने यातना शिविर बने हुए हैं। 
दरअसल संदर्भ है अभी हाल में (17 सितम्बर 2016) जांजगीर जिले के पामगढ़ के अन्तर्गत मुलमुला थाने में 21 वर्षीय युवक सतीश नवरंगे की मौत की घटना । बिजली विभाग के कर्मचारियों की एक मामूली सी शिकायत पर पुलिस ने उसे थाने में तलब किया और इतना पीटा की उसकी मौत हो गई। युवक दलित था। दलितों का आक्रोश तो फूटा ही, पुलिस अत्याचार के खिलाफ आम लोग भी सड़क पर उतर आए। जन आक्रोश को देखते जिला पुलिस प्रशासन को तत्काल कार्रवाई करनी पड़ी। थानेदार सहित तीन को संस्पेड कर दिया गया। 
      ऐसी घटनाओं में राजनीतिक दखल स्वाभाविक है और होना भी चाहिए। भले ही यह कहा जाए कि इस तरह की राजनीति स्वार्थपरक होती है। यकीनन काफी हद तक यह सही भी है किन्तु यह भी सच है कि इससे जो दबाव बनता है, वह सरकार को कार्रवाई करने के लिए विवश करता है। विचार करें यदि सतीश प्रकरण में जनआक्रोश नहीं उबलता, राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होता, धरना-प्रदर्शन, चक्काजाम, नगर बंद एवं सीएम हाऊस के सामने विपक्ष नहीं गरजता तो क्या त्वरित कार्रवाई होती ? आरोपी पुलिस वालों के निलबंन के साथ-साथ मुख्यमंत्री पीडि़त परिवार के लिए 1 लाख की सहायता की घोषणा करते? बाद में 5 लाख और देने का ऐलान होता? सतीश की पत्नी को सरकारी नौकरी दी जाती ? और क्या उसके दोनों बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्च सरकार वहन करती ? जाहिर है इसके पीछे एक बड़ा कारण विपक्ष और जनता का दबाव भी था। जिसकी वजह से सरकार को एकमुश्त राहतों की घोषणा करनी पड़ी। ऐसा पहली बार हुआ जब तुरत-फुरत एसआई समेत चार पुलिस वालों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया। और न्यायिक जांच के लिए हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश इंदर उपवेजा की नियुक्ति की गई। 
       लेकिन यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि राज्य सरकार ने सतीश की मौत के मामले में जिस संवेदनशीलता का परिचय दिया है, वह आम तौर इसके पूर्व घटित घटनाओं में कभी दिखाई नहीं दिया। क्या ऐसा इस वजह से है कि मृतक दलित वर्ग से था ? चूंकि देश में इस जमात पर अत्याचार की घटनाएं बेतहाशा बढ़ी हैं इसलिए राज्य सरकार ने इस घटना को तुरंत संज्ञान में लेकर कार्रवाई की ? लगता तो यही है। बहरहाल सरकार की सदाशयता में भी विवशता की प्रतिध्वनि सुनी जा सकती है। इसमें राजनीति को भी नकारा नहीं जा सकता। राज्य की भाजपा सरकार ने एक झटके में मौत के इस मामले में विपक्ष की राजनीति का पटाक्षेप कर दिया। अब दोनों कांग्रेस के पास सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए कोई मुद्दा शेष नहीं है। सतीश की मौत की घटना भले ही मर्मांतक हो पर इसमें शक नहीं कि सरकार ने बाजी जीती है। यह उसकी कूटनीतिक जीत है।

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