राजनीतिक सदमे से उबरने की कोशिश में ‘आप’


-दिवाकर मुक्तिबोध

      देश को वैकल्पिक राजनीति देने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी क्या फिर जनता की निगाहों में चढ़ पाएगी? लोकसभा चुनाव में रणनीतिक भूलों की वजह से पार्टी को न केवल पराजय झेलनी पड़ी वरन आम लोगों की उम्मीदों को भी धक्का लगा जो अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में राजनीति के शुद्धिकरण का सपना देख रहे थे। चुनाव में पराजय एवं आतंरिक कलह से उपजी टूट-फूट के बाद पार्टी नए सिरे से जनता के बीच खडेÞ होने की कोशिश कर रही है। 3 अगस्त को पार्टी ने जंतर-मंतर पर विशाल जनआंदोलन का ऐलान किया है। प्रमुख मांग है दिल्ली राज्य विधानसभा के चुनाव। विधानसभा निलंबित है और राष्ट्रपति शासन लागू है। पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल लेफ्टिनेंट गवर्नर से अनुरोध करते रहें हैं कि चुनाव यथाशीघ्र कराए जाएं। अब इसी मांग को लेकर पार्टी ने जनशक्ति की अपनी बुनियाद को पुन: टटोलने का फैसला किया है। 3 अगस्त को स्पष्ट हो जाएगा कि जनसमर्थन की उसकी चूलें हिली हैं अथवा नहीं? यानी वास्तविक स्थिति क्या है।
       दिल्ली राज्य विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को अपेक्षा से कहीं ज्यादा सीटें मिलीं थी। उसके 28 विधायक चुनकर आए किन्तु बहुमत के लिए कसर रह गई। फिर भी कांगे्रस के समर्थन से अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली में आप की सरकार बनी। कोई नई पार्टी अपने पहले ही चुनाव में सरकार बना लें, यह देश के राजनीतिक इतिहास की पहली घटना है। लेकिन उसके बाद जनता की अपेक्षाओं का बोझ, अह्म का टकराव एवं महत्वाकांक्षाओं के अतिरेक ने पार्टी को 6-7 महीने के भीतर ही लगभग शून्य की स्थिति में पहुंचा दिया है। लोकसभा चुनाव में पार्टी के 300 से अधिक उम्मीदवारों में से केवल 4 विजयी हुए जो पंजाब से है। पार्टी ने यद्यपि लोकसभा में प्रवेश जरूर किया है किन्तु वह आंतरिक द्वंद से जूझ रही है। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व पर सवाल खडेÞ किए गए हैं तथा पार्टी के वे तेवर ढीले पड़ गए हैं जो उसके अस्तित्व में आने के बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव तक नजर आ रहे थे। शीर्ष नेताओं में विचारों का टकराव अनेक बार सतह पर आया। इससे पार्टी को नुकसान हुआ तथा शाजिया इल्मी सहित कुछ वरिष्ठ नेताओं ने अलग राह पकड़ ली।
        लोकसभा चुनावों के पूर्व इस बात पर काफी बहस थी कि पार्टी कितनी सीटों पर चुनाव लड़ना चाहिए? राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना था कि ‘आप’ जमीनी हकीकत को समझे तथा क्षणिक सफलता से अति उत्साह में आकर 250-300 सीटों पर चुनाव न लडेÞ। उसे अपने प्रभाव क्षेत्र वाले दिल्ली, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब जैसे कुछ राज्यों में जोर-आजमाइश करनी चाहिए। लेकिन पार्टी ने दिल्ली चुनाव के फैसले को देश की जनता का फैसला माना तथा 300 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। पार्टी के लिए यही कदम आत्मघाती सिद्ध हुआ। नतीजों के बाद विवादों का जो बवंडर उठा वह अभी भी पूरी तरह शांत नहीं हुआ है। मिसाल के तौर पर योगेन्द्र यादव जैसे बडेÞ नेता हरियाणा में इसी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव लड़ने के पक्ष में थे किन्तु केजरीवाल इससे सहमत नहीं हुए। पार्टी ने केवल दिल्ली एवं पंजाब के दो उपचुनाव में प्रत्याशी उतारने का फैसला किया है। उसकी मंशा इस बार बहुमत के साथ दिल्ली की सत्ता हासिल करने की है। इसीलिए उन्होंने लोकसभा चुनाव के बाद पहला बड़ा प्रदर्शन 3 अगस्त को करने का फैसला किया है।    
         अब सवाल है, क्या पार्टी को पहले जैसा जनसमर्थन हासिल है? दिल्ली की बात भले ही छोड़ दें लेकिन इतना तय है, अरविंद केजरीवाल ने देश की जनता को एक स्वप्न तो दिखाया था जो आर्थिक भ्रष्टाचार, राजनीतिक भ्रष्टाचार, नौकरशाहों की लालफीताशाही एवं महंगाई से बेहद त्रस्त थी तथा बदलाव चाहती थी। आम आदमी पार्टी के जनसरोकारों से लोग प्रभावित थे तथा उन्हें उम्मीद की किरणें नजर आने लगी थी। दिल्ली खास प्रभाव क्षेत्र तो था ही, बाकी राज्यों में भी आम आदमी पार्टी चर्चा के केन्द्र में थी। लेकिन राज्यों में ठीक से संगठन खड़ा नही हो पाया और कोई सबल नेतृत्व का भी अभाव रहा। इसी वजह से न तो जनता के बीच कोई लहर बन पाई और न ही चुनाव का कामकाज ठीक से संभाला जा सका। लोगों ने वोट नहीं किया और पार्टी लोकसभा में केवल एक राज्य तक सिमटकर रह गई। यह अति महत्वाकांक्षा, अति आत्मविश्वास और यथार्थवादी दृष्टिकोण न अपनाने का परिणाम था। निश्चय ही पार्टी ने लोकसभा चुनाव से सबक लिया है। पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने स्वीकार किया उनसे गलतियां हुई। खासकर दिल्ली की सत्ता छोड़ने का उन्हें मलाल रहा।
        दिल्ली विधानसभा के जब कभी चुनाव होगें पार्टी को आशातीत सफलता मिल पाएगी या नहीं, कहना मुश्किल है। लेकिन यह तय है आम आदमी पार्टी का जनाधार कमजोर पड़ गया है। उसमें अब पहले जैसी ऊर्जा नहीं रही। हालांकि केन्द्र में भाजपा के सत्तारूढ़ होने के बाद परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं हुआ है। समस्याएं यथावत हैं और महंगाई बर्दाश्त के बाहर हो गई है। यानी आम आदमी पार्टी के पास जनता से जुडेÞ वे तमाम मुद्दे हैं जिसके जरिए उसने सफलता का स्वाद चखा था। लेकिन दिक्कत यह है कि जनता नेतृत्व के पलायनवादी रुख से आहत है।  ऐसी स्थिति में खोए हुए विश्वास को पुन: प्राप्त करना आसान नहीं।  राजनीतिक परिस्थितियां भी बदल गई हंै। केन्द्र की सत्ता के साथ-साथ भाजपा दिल्ली विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी है। यानी राजधानी में उसका दबदबा है। यदि चुनाव होते हैं तो बहुत संभव है, भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल जाए। पिछले राज्य विधानसभा चुनाव में वह बहुमत से सिर्फ 3 कदम दूर थी। उसके 33 विधायक चुनकर आए थे जबकि सरकार बनाने के लिए 36 की दरकार थी।
आम आदमी पार्टी ने अगले कुछ महीनों में प्रस्तावित 4 राज्यों के विधानसभा चुनाव से स्वयं को अलग कर सिर्फ दिल्ली तक सीमित रहने का फैसला करके ठीक ही किया।  दिल्ली में उसका संगठन सशक्त है। जनता अभी उससे पूर्णत: नाउम्मीद नहीं हुई है लिहाजा मुद्दों को लेकर जनता के साथ खडेÞ होने की उसकी कोशिशें रंग ला सकती है। अब देखना यह है कि 3 अगस्त को प्रस्तावित धरना प्रदर्शन कितना सफल रहता है। यह प्रदर्शन इस बात का संकेत होगा कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी का राजनीतिक भविष्य क्या है।

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