मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-17)


चांद का मुंह टेढ़ा है 

'बीमारी के दौरान मुक्तिबोध ने इच्छा ज़ाहिर की कि इस संकलन में उनकी दो कविताएँ  'चंबल की घाटियां' व 'आशंका के द्वीप : अंधेरे में' ज़रूर शामिल की जाएँ । दोनों एक के बाद दूसरी छापी जाएं और दूसरी का शीर्षक बदल दिया जाए। उन्होंने कहा था कि 'आशंका के द्वीप : अंधेरे में' शीर्षक एक विशेष मन:स्थिति के प्रवाह में मैंने दिया था । उनकी इच्छा के मुताबिक़ शीर्षक से मैंने 'आशंका के द्वीप' हटा दिया है, हालांकि मुझे लगता है  यह शीर्षक इस कविता के अर्थ को अधिक अच्छी तरह व्यंजित करता है। ये दोनों ही कविताएँ उनकी, बीमार पडऩे के कुछ ही समय पहले की कविताएँ हैं और इस दृष्टि से अब तक की कविताओं में ये उनकी अंतिम कविताएं हैं। 
मुक्तिबोध, जो अपनी कविताओं को अपनी जि़ंदगी से अधिक सहेजते थे, इस समय अपना संग्रह देख सकने में असमर्थ हैं : बेहोश हैं। लेकिन वे सब नवयुवक कवि जिन्हें मुक्तिबोध ने इस हद तक प्रेम किया है कि वे कभी मुक्तिबोध को भूल नहीं सकते।
(प्रथम संस्करण की भूमिका : श्री श्रीकांत वर्मा, 14 अगस्त 1964, नई दिल्ली)
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चांद का मुंह टेढ़ा है 
हरिजन गलियों में
लटकी है पेड़ पर
कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी
चूनरी  में अटकी है कंजी आँख गंजे सिर
टेढ़े-मुँह चाँद की।

(काव्य संग्रह, चांद का मुंह टेढ़ा है)
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कल जो हमने चर्चा की थी

कल जो हमने चर्चा की थी,
हिय की ऊष्मा के उफान से निकल रहे थे।
सही-सही बातों के उत्तर
हम ज्वालामुख्यिों के मुँह में उतर रहे थे।
जीवन की सच्चाई के स्तर,
सही बात के चौड़े पत्थर,
तीव्र वेदना में कैसे गडग़ड़ा रहे थे,
इन ज्वालामुखियों के भीतर!!

(काव्य संग्रह, चांद का मुंह टेढ़ा है)
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चंबल की घाटी में-1

मुझे अफ़सोस है गहरा ,
बफऱ् है दिल, और स्याह है चेहरा,
सदियों की ख़ून-रंगी भूलों के
कि़स्सों का कि़स्सा,
मेरी अन्तरात्मा का अंश,
मेरी जि़ंदगी का हिस्सा !!
लगता है-लगातार चला आया इतिहास
मेरे सिर चढ़कर 
घुमाता है मुझे आज
टीलों के मुल्क में आगे बढ़-बढ़कर ।
बियाबान रात,
ज़रूर कहीं कोई होगी आज वारदात,
भयानक बात !!

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चंबल की घाटी में-2

चट्टान-बिखराव, अंधेरे में धुंधला ,
कटा-पिटा, कटा-पिटा
फैला है सभी ओर ।
पानी नहीं कहीं भी ,
कहीं भी पानी नहीं ।
और, तब अचानक
कोई चीख़ कहता-
''अब तक अथाह जो भरी -पूरी नदी थी,
वही आज 
अपनी ही घाटी में डूब मरी !
चंबल के (यहांं आ) पैर उखड़ गये,
तुमने बहुत देर की,
तुमने बहुत देर की,
पानी की खोहें और थाहें सब सूख गयीं,
तले सब फट गये,
दरारों में प्यास भर गयी है,
भूख-भरी गहराई खुली पड़ी कब से
जाने कब से''

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चंबल की घाटी में-3

कोई मुझसे कहता है- 
''शांत हो, धीर धरो,
और, उलटे पैर ही निकल जाओ यहाँ से,
ज़माना खऱाब है,
हवा बदमस्त है,
बात साफ़-साफ़ है,
सब यहां त्रस्त हैं,
दर्रों में भयानक चोरों की गश्त है ।''
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चंबल की घाटी में-4

दस्यु-पराक्रम 
शोषण-पाप का परम्परा-क्रम 
वक्षासीन है,
जिसके कि होने में गहन अंशदान
स्वयं तुम्हारा,
इसीलिए, जब तक उसकी स्थिति है, 
मुक्ति न तुमको।
याद रखो,
कभी अकेले में मुक्ति न मिलती,
यदि वह है तो सबके ही साथ है।
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अँधेरे में-1

जिन्दगी के ...
कमरों में अँधेरे
लगाता है चक्कर
कोई एक लगातार,
आवाज पैरों की देती है सुनाई
बार-बार .... बार-बार
वह नहीं दीखता .... नहीं ही दीखता,
किन्तु, वह रहा घूम
तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा
अस्तित्व जनाता
अनिवार कोई एक,
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अंधेरे में-2

प्रश्न थे गम्भीर, शायद खतरनाक भी,
इसीलिए बाहर के गुंजान
जंगलों से आती हुई हवा ने
फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी -
कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
मौत की सजा दी !
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अंधेरे में-3
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
इसी नगर के !!
बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड-दल में !
उनके पीछे चल रहा
संगीन नोकों का चमकता जंगल,
चल रही पदचाप, ताल-बुद्ध दीर्घ पाँत
टैंक-दल, मोर्टार, आँर्टिलरी, सन्नद्ध,
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना,
सैनिकों के पथराये चेहरे
चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हए, गहरे !
शायद, मैंने उन्हें पहले भी तो कहीं देखा था।
शायद, उनमें मेरे कई परिचित !!
उनके पीछे यह क्या !!
कैवेलरी !
काले-काले घोड़ों पर खाकी मिलिटी ड्रेस,
चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ
आधा भाग कोलतारी भैरव,
आबदार !!
कन्धे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा।
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तौल,
रोष-भरी एकाग्रदृष्टि में धार है,
कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते,
उनके चित्र समाचार पत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कविताएं पढ़ी थीं
भई वाह !
उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कवि-गण
मंत्री भी, उद्योगपति और विद्धान
यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमा जी उस्ताद
(काव्य संग्रह, चांद का मुंह टेढ़ा है, पृष्ठ 264)
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अंधेरे में-4

ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!

उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दु:खों के दाग्रों को तमग्रों-सा पहना,
अपने ही खयालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया !
बताओं तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय ! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत-बहुत ज्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!
लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य-त्याग दिये,

हृदय के मन्तव्य-मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए, फँस गये,
अपने ही कीचड़ में धँस गये !!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श ख गये !

अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश अरे, जीवित रह गये तुम
(काव्य संग्रह, चांद का मुंह टेढ़ा है, पृष्ठ 268-69)
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अंधेरे में-5

अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोडऩे ही होंगे मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक
ले जाने उसको धँसना ही होगा
झील के हिम-शीत सुनील जल में
(काव्य संग्रह, चांद का मुंह टेढ़ा है, पृष्ठ 287)
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अंधेरे में-6

एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !!
नगर से भयानक धुआँ उठ रहा है,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान,
हवाओं में अदृश्य ज्वाला की गरमी
गरमी का आवेग।
साथ-साथ धूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं,
जन-मन उद्देश्य !!
पथरीले चेहरों के खाकी ये कसे ड्रेस
घूमते हैं यन्त्रवत्,
वे पहचाने-से लगते हैं वाकई
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!
(काव्य संग्रह, चांद का मुंह टेढ़ा है, पृष्ठ 298)
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