मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-14)

एक लम्बी कविता का अंत-1

मैंने सोचा है कि मैं हर कविता पर एक कहानी लिखूँ। क्या यह असम्भव है? साफ बता दूँ कि मैंने वैसा कभी भी करके नहीं देखा है। फिर भी सोचता हूँ कि वैसा करुँ। क्यों? अब क्या बताँ कि इस तरह मुझे गद्य लिखने की आदत तो पड़ जायेगी। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह होगी कि अगर कविता नहीं तो कविता की आत्मा को, कहानी के रुप में ही क्यों न सही, मान्यता प्रदान करा सकूॅंगा। यह मेरी अभिलाषा है।
(एक साहित्यिक की डायरी, पृष्ठ 32)

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एक लंबी कविता का अंत-2

मेरा अपना विचार है कि जिस भ्रष्टाचार, अवसरवादिता और अनाचार से आज हमारा समाज व्यथित है उसका सूत्रपात बुजुर्गों ने किया। स्वाधीनता-प्राप्ति के उपरांत भारत में दिल्ली से लेकर प्रान्तीय राजधानियों तक भ्रष्टाचार और अवसरवादिता के जो दृश्य दिखाई दिये उनमें बुजुर्गों का बहुत बड़ा हाथ है। अगर हमारे बुजुर्गों पर नये तरुणों की श्रद्धा नहीं रही तो इसका कारण यह नहीं है कि वे अनास्थावादी हैं वरन् यह कि हमारे बुजुर्ग श्रद्धास्पद नहीं रहे।
(एक साहित्यिक की डायरी, पृष्ठ 33)

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एक लंबी कविता का अंत-3

तो इस प्रकार के वातावरण में फिट होने के लिए हमारी समझदारी का यह तकाजा होता है कि किसी न किसी तरह शैतान से समझौता करके गधे को भी काका कहो। बड़े-बड़े आदर्शवादी आज रावण के यहाँ पानी भरते हैं, और हाँ में हाँ मिलाते हैं। बड़े प्रगतिशील महानुभाव भी इसी मर्ज में गिरफ्तार हैं। जो व्यक्ति रावण के यहां पानी भरने से इनकार करता है उसके बच्चे मारे-मारे फिरते हैं।
(एक साहित्यिक की डायरी, पृष्ठ 33)

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एक लंबी कविता का अंत-4

आज के साहित्यकार का आयुष्य - क्रम क्या है? विद्यार्जन, डिग्री और इसी बीच साहित्यिक प्रयास, विवाह, घर, सोफासेट, ऐरिस्ट्रोक्रैटिक लिविंग, महानों से व्यक्तिगत संपर्क, श्रेष्ठ प्रकाशकों द्वारा अपनी पुस्तकों का प्रकाशन, सरकारी पुरस्कार, अथवा ऐसी ही कोई विशेष उपलब्धि, किसी बड़े भारी सेठ के यहाँ या सरकार के यहाँ ऊँचे किस्म की नौकरी !
    अब मुझे बताइए कि यह वर्ग क्या तो यथार्थवाद प्रस्तुत करेगा और क्या आदर्शवाद? स्वामी विवेकानंद आज से कोई सौ बरस पहले यह घोषित कर चुके थे कि भारत के उच्चतर वर्ग नैतिक रुप से मृतक हो गये हैं। वे कहते हैं 'भारत की एकमात्र आशा उसकी जनता है। उच्चतर वर्ग दैहिक और नैतिक रुप से मृतवत् हो गये हैं।'
(एक साहित्यिक की डायरी, पृष्ठ 34)

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राजनीति

जिसको जड़ कहते हो
तुम्हें काट देता है
पीटपाट देता है,
तुम पर बिछ जाता है
तुम्हें गाड़ देता है
तुम्हारा वह शत्रु है
 जिससे तुम्हें घृणा है
उससे मेल मना है
क्यों कि वह रोज रोज
तुम्हें डांट देता है।
वह जो गिरायेगा
तुम्हारे प्रभुओं को
महलों को विभुओं को
तुमको चरायेगा

जिसको जड़ कहते हो
वे दो आँखे हैं
अंधियारा भरी हुई
कोठों की खिड़की से
तुमको ही देख रही !!
जिसको जड़ कहते हो
तुम्हारी वह आत्मा
होटल में कपबशियाँ
धोती हुई तुमको ही
कहती हैं खात्मा
होना ही चाहिए
महलों का
नहीं तो होती रहेंगी खुदकुशियाँ!!
शहर के तालाब में लाशें ही
रोज रोज तैरेंगी।
तुमको सतायेंगी तुमको ही घेरेंगी।

जिसको जड़ कहते हो
तुम्हारा भाई वह
फटीचर हालत में
अपमानों दु:खों को
हमेशा सहकर भी
तुम्हारा भाई वह
जमाने की भट्टी के मुंह में रख
हाथ-पैर अपने अ-सहमे रख
आग, आवेश, विश्वास और श्वास को
जीवित जीवन्त प्रज्जवलन रखता है
उसका रुख तुम्हारी तरफ है।

 (अपूर्ण, संभावित रचनाकाल 1962-63)
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