पहले से कुछ बेहतर की उम्मीद
रायपुर साहित्य महोत्सव
- दिवाकर मुक्तिबोध
12 दिसंबर से प्रारंभ हो रहे तीन दिवसीय साहित्य महोत्सव के तनिक विवादित होने के बाद अब सवाल है कि गंभीर वैचारिक अनुष्ठान के जिस लक्ष्य को लेकर इसका आयोजन किया जा रहा है वह पूरा होगा अथवा नहीं। देश के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यिक मनीषियों की मौजूदगी में प्रादेशिक साहित्यिकों, साहित्यप्रेमियों एवं लोक कलाकारों को विचार-विमर्श के लिए एक सार्थक मंच उपलब्ध कराना आयोजन का दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है। यह उद्देश्य भी पूरा होगा या नहीं इस बात का पता तीन दिन तक चलने वाले 53 सत्रों में उपस्थित श्रोताओं की सक्रिय एवं वैचारिक भागीदारी से स्पष्ट हो सकेगा। महोत्सव पर विवाद की परछाइयां मूलत: राजनीतिक हैं तथा उन दो-तीन बड़ी घटनाओं की वजह है जिसने समूचे जनमानस को उद्वेलित, चिंतित और गमगीन कर रखा है। बिलासपुर जिले में आयोजित नसबंदी शिविर में आॅपरेशन के बाद हुई मौतें, जहरीली दवा सिप्रोसिन का प्रदेश के बाजारों में फैलाव, उसके सेवन से स्वास्थ्यगत समस्याएं एवं कुछ का प्राणांत, दवा वापस लेने के तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी ग्रामीण बाजारों में उसकी उपलब्धता तथा सुकमा नक्सल हमले में सीआरपीएफ के जवानों का मारा जाना भीषण त्रासदी के रुप में है और प्रदेश की जनता इससे उबर नहीं पाई है लिहाजा शोक के इस माहौल के बीच रायपुर साहित्य महोत्सव का आयोजन कुछ खटकने वाला जरुर है लेकिन यह भी सत्य है कि भीषण से भीषण त्रासदियों के बावजूद जिंदगी चलती रहती है। न वह रुकती है और न ही कोई ठहराव आता है अलबत्ता दु:ख और शोक की अनुभूतियां ठंडी नहीं पड़ती। वह सालों-साल मन को सालती रहती है और एक अव्यक्त शोक मन के किसी कोने में फड़फड़ाता रहता है। किन्तु रायपुर साहित्य महोत्सव का आयोजन चूंकि काफी पूर्व से नियोजित था, लिहाजा इसे भावनात्मक आधार पर स्थगित करने या रद्द करने का कोई तार्किक आधार नहीं था और फिर चूंकि यह राज्य के गठन के 13 वर्षों बाद पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है इसलिए इस वैचारिक अनुष्ठान का अपना महत्व है जो अंतत: समाज, जनसाहित्य और जनसंस्कृति के अंतर संबंधों और उसके विकास में प्रेरक की भूमिका के रुप में दर्ज होने वाला है, बशर्ते उसकी सफलता असंदिग्ध बनी रहे।
चूंकि सरकार के स्तर पर आयोजित होने वाले साहित्यिक -सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ विवाद का रिश्ता काफी पुराना है और वह साथ ही साथ चलता है अत: स्वाभाविक था रायपुर साहित्य महोत्सव भी विवादों से परे नहीं रहता लेकिन दिक्कत यह है कि विवाद वैचारिकता के स्तर पर और आयोजन में आमंत्रित विशिष्ट वक्ताओं के चयन एवं उनकी प्रतिबद्धता की वजह से नहीं बल्कि राजनीति के कारण है, यह अलग बात है कि इसे भावनात्मकता से जोड़ दिया गया है। राजनीति में भी केवल कांग्रेस ही अकेली पार्टी है जिसे यह आयोजन गंवारा नहीं। दरअसल इसके पीछे भी उसकी राजनीतिक मजबूरियां हैं। राज्य में नगर निकायों के चुनाव सिर पर है तथा पार्टी ने पिछली घटनाओं को लेकर सरकार की नाक में दम कर रखा है। धरना, प्रदर्शन, धान खरीदी पर सरकार की कथित जनविरोधी नीतियां, गर्भाशय कांड, नसबंदी कांड, स्वास्थ्य विभाग में उपकरणों की खरीदी में करोड़ों के घपले, बस्तर में नक्सली हमले में हुई मौतें और इससे निपटने में सरकार विफलता, आदि-आदि मुद्दों को पार्टी आगामी निकाय चुनावों में पूरी तरह से भुनाने की कोशिश में है और इसी संदर्भ में उसे रायपुर साहित्य महोत्सव का मुद्दा हाथ लगा है। इसीलिए उसके विरोध के स्वर तेज है तथा उसका प्रयास है आयोजन में आमंत्रित देश के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार और लोकरंग से जुड़े विशिष्ट लोग रायपुर न आए। पार्टी इस मामले में किस कदर गंभीर है, इसका पता इस बात से भी चलता है कि प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भूपेश बघेल ने स्वयं टेलीफोन पर सर्वश्री अशोक वाजपेयी, प्रयाग शुक्ल, अपूर्वानंद, नंदकिशोर आचार्य सहित सभी प्रख्यात साहित्यिकों से आयोजन में शामिल न होने की अपील की। तर्क वहीं दिया गया कि राज्य में शोक का माहौल है, शहीदों की अभी तेरहवीं भी नहीं हुई है तथा राज्य आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है अत: ऐसी परिस्थतियों में उनका आना उचित नहीं रहेगा। कांग्रेस अध्यक्ष के इस अनुरोध पर आमंत्रित साहित्यकारों ने किस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त की, यह स्पष्ट नहीं है पर यह तय है कि इसने एक संशय का निर्माण तो कर दिया है। संभव है इसके चलते तथा विवाद से बचने के लिए कुछ आमंत्रित वक्ता अपना इरादा बदल दें। वे न आएं। लेकिन इस घटना से भी एक बात पूर्णत: स्पष्ट है कि कांग्रेस का विरोध तार्किक कम राजनीतिक ज्यादा है। शोक का हवाला देकर उसने यह साबित कर दिया है कि उसका उद्देश्य हर सूरत में त्रासद घटनाओं से सरकार को कटघरे में खड़ा करना है और इसके लिए एक और बहाने के रुप में सरकार द्वारा पोषित साहित्य महोत्सव हाथ लगा है। निश्चिय ही पार्टी को यह सब करने की जरुरत नहीं थी क्योंकि कांग्रेस नेताओं के विरोध के बाद आयोजनकर्ता, सरकार के जनसंपर्क विभाग ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों को रद्द कर दिया और उसे विमर्श तक सीमित कर दिया है। यह बेहतर है क्योंकि राज्य में एक दशक से सत्तारुढ़ भाजपा सरकार का लोक विमर्श से नाता कम ही रहा है और सरकारी विज्ञापनों में उसका दावा भी है कि राज्य में पहली बार लोक साहित्य की बहार आई है।
बहरहाल यह अच्छी बात है कि साहित्य और संस्कृति के आयोजनों को राजनीतिक चश्मे से देखने एवं उसके अनुसार साहित्यिक व्यवस्थाएं बनाने के बजाय विचारों को प्रधानता दी जा रही है। रायपुर साहित्य महोत्सव में गैर दक्षिणपंथी विचारकों को भी आमंत्रित करना इस बात का प्रमाण है कि भाजपा सरकार संकीर्णता के घेरे से बाहर निकलने की कोशिश कर रही है जिसकी शुरुआत अब जाकर हो रही है हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यह पहल आगे भी जारी रहेगी क्योंकि जनता को धर्म की घुट्टी पिलाने के लिए यह कोई राजिम कुंभ मेला नहीं है जिस पर राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए खर्च करती है और पार्टी के सत्ता में रहते आगे भी करती रहेगी।
लोक साहित्य आयोजन के परिप्रेक्ष्य में यह कहना अप्रसांगिक नहीं होगा मीडिया का एक वर्ग जो भाजपा की सत्ता में अपने लिए खुशहाली देखता है, अब यह राग अलापने लगा है कि वामपंथी विचारकों और साहित्यकारों का जैसा सम्मान छत्तीसगढ़ में हो रहा है, वैसा देश के किसी और राज्य में नहीं। इसके उदाहरण के रुप में प्रख्यात कवि एवं लेखक स्वर्गीय गजानन माधव मुक्तिबोध का हवाला दिया जा रहा है और यह कहा जा रहा है कि उनके वामंपथी रुझान के बावजूद मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने पिछले 11 वर्षों में अपने राज में मुक्तिबोध के सम्मान को सरकारी एवं सार्वजनिक स्तर पर बढ़ाया है और उन्हें सर्वाधिक महत्व दिया है। यह कितना सच है, इसका खुलासा इस बात से हो जाता है कि सन् 2000 में नया राज्य बनने के बाद से अब तक मात्र दो या तीन बार सरकार के स्तर पर कार्यक्रम हुए अलबत्ता निजी साहित्यिक संस्थाएं अपने स्तर पर प्रति वर्ष पुण्यतिथि एवं जयंती पर कार्यक्रम करती रहीं। चूंकि स्वर्गीय कवि की 50वीं पुण्यतिथि एवं प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में ’ के 50 वर्ष भी इसी वर्ष पूरे हुए हैं इसलिए देशभर में साहित्य समारोह के जरिए उन्हें याद किया जा रहा है। मुक्तिबोधजी का अंतिम समय छत्तीसगढ़ में गुजरा है अत: पचासवें पर उन्हें पूरी प्रखरता से याद करना बहुत स्वाभाविक है।
बहरहाल भाजपा सरकार ने प्रदेश के साहित्यकारों, कलाकारों, रंगकर्मियों एवं लेखकों को देश के मूर्धन्य रचनाकारों के सान्निध्य के साथ-साथ विचारों के आदान-प्रदान के लिए जो अवसर उपलब्ध कराया है, वह एक लोकतांत्रिक सरकार की सही भूमिका को दर्शाता है। ऐसे समय जब असहमतियों को सिरे से खारिज करने का दौर चला हुआ हो और जब विचारों को जानने-समझने की सहनशीलता जवाब दे रही हो, तब लोक साहित्य संवाद जैसे आयोजन निश्चय ही पहले से कुछ बेहतर की संभावना को जगाते है।
Comments
Post a Comment