रमन सिंह के लिए बजी खतरे की घंटी

-दिवाकर मुक्तिबोध
भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के लिए छत्तीसगढ़ अब विशेष दिलचस्पी का सबब बन गया है जिसमें नई चिंता भी है और राज्यीय सत्ता को चौथे कार्यकाल के लिए कायम रखने की उजली संभावनाएं भी। ऐसा इसलिए क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजीत जोगी ने कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया है। यदि वे सार्वजनिक रुप से घोषित अपने इरादे पर कायम है तो राज्य में तीसरी शक्ति का उदय होना तय है। जाहिर है कांग्रेस में होने वाली टूट-फूट से भाजपा को फायदा भी है और नुकसान भी। जोगी राजनीतिक के माहिर खिलाड़ी हैं। तमाम झंझावतों के बावजूद व्हील चेयर पर बैठे हुए इस शख्स की राजनीतिक हैसियम में कभी कोई फर्क नही पड़ा। उनकी सक्रियता पूर्ववत कायम रही। लिहाजा नवंबर-दिसंबर 2018 में होने वाले चुनाव के पूर्व वे अपनी पार्टी को इतनी ताकत तो दे देंगे ताकि उसका हाल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसा न हो। स्व. विद्याचरण शुक्ल ने कांगे्रस से बगावत करके राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी का दामन थामा था। उनके नेतृत्व में पार्टी ने सन् 2003 का विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन सत्ता विरोधी तेज लहर के बावजूद जनता ने उन्हें नकार दिया। एनसीपी को केवल एक सीट मिली अलबत्ता उसे हासिल हुए 6.75 प्रतिशत वोटों की वजह से कांगे्रस सत्ता से बेदखल हो गई। एनसीपी ने कम से कम 20 सीटों पर कांग्र्रेस को हराने का काम किया। कांग्रेस के वोटों के इस विभाजन से भाजपा को फायदा हुआ। राज्य में रमन सिंह के नेतृत्व में वह सरकार बनाने में कामयाब रही। आंतरिक संघर्ष एवं अन्य कारणों के कारण कांग्रेस अगले दो चुनाव भी हार गई। हालांकि दोनों पार्टियों के बीच फासला एक प्रतिशत के आसपास ही था। बहरहाल जोगी की बात कुछ अलग हंै। वे जमीनी नेता हैं तथा अनुसूचित जाति-जनजाति की लगभग 45 प्रतिशत आबादी पर उनकी खाली पकड़ है। इसलिए यह तय प्रतीत होता है कि वे अपनी पार्टी को कम से कम इतनी शक्ति तो देंगे जो कांग्रेस का भी समीकरण बिगड़े और भाजपा का भी। प्रदेश भाजपा की मूल चिंता यही है कि उसके प्रतिबद्ध वोटों के अलावा यदि जोगी ने अनुसूचित जाति के 12 प्रतिशत वोटों पर सेंध लगाई तो नुकसान उसे भी होगा। इस वर्ग के लिए आरक्षित 10 सीटों में से 9 सीटें अभी भाजपा के पास है। मुश्किल यह है कि भाजपा के पास अनुसूचित जाति से कोई ऐसा सर्वमान्य नेता नही है जो अपनी बिरादरी के वोटों पर पकड़ रखता हो। जबकि जोगी इसके मान्य नेता हैं। भाजपा की यह कमजोर कड़ी है। अब यदि जोगी ने न्यूनतम दहाई का आंकड़ा ही पार कर लिया तो वे सौदेबाजी की स्थिति में आ जाएंगे। राज्य विधानसभा में 90 सीटें हैं। अब तक भाजपा व कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होता रहा है। त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति में तीसरी शक्ति भाजपा को सत्ता से बाहर कर सकती है या सौदेबाजी के लिए मजबूर कर सकती है। कांग्रेस के सपने को भी तोड़ सकती है जिसे भूपेश बघेल के नेतृत्व में चौथे चुनाव में जीत दर्ज करने का विश्वास है। किन्तु जोगी के दोनों हाथों में लड्डू है और वे संख्या बल के आधार पर भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस को भी सौदेबाजी के लिए विवश कर सकते है। दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को अब यही चिंता है कि जोगी के प्रभाव को कैसे कम किया जाए। हालांकि कुशंकाओं के बीच भाजपा यह सोचकर प्रफुल्लित भी है कि जोगी कांग्रेस को ज्यादा नुकसान पहुंचाएंगे।
        प्रदेश में तेजी से घट रहे राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व राज्य में नेतृत्व परिवर्तन पर भी विचार कर सकता है। बहुत संभव है, चुनाव के कछ समय पूर्व डा. रमन सिंह की गद्दी छिन जाए और किसी आदिवासी चेहरे को मुख्यमंत्री बना दिया जाए जिसकी मांग राज्य का आदिवासी समाज लंबे समय से कर रहा है। यों भी अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 29 सीटों में से केवल 11 सीटें भाजपा के पास है। जोगी विवादित आदिवासी चेहरा है लिहाजा इस समाज के वोटों को संतुष्ट करने के लिए पार्टी में किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने का विचार जोर पकड़ सकता है। इस सोच के पीछे और भी राजनीति कारण हैं। यह बात साफ हो चुकी है कि मुख्यमंत्री के रुप में तीसरी पारी खेल रहे डा. रमन सिंह शासकीय प्रबंधन में माहिर नही है। नौकरशाही ऐसी बेलगाम है कि विधायक तो विधायक मंत्रियों की भी औकात नही है कि वे उससे मनचाहा काम ले सकें। केबिनेट की बैठकों में मंत्रियों ने एवं पार्टी बैठकों में कार्यकर्ताओं ने नौकरशाही के खिलाफ जमकर गुस्सा निकाला। सरकार भले ही जनोन्मुख होने का दावा करें किन्तु नौकरशाही का जाल ऐसा है कि बिना पैसों के लेन-देन के कोई काम नहीं होता। भ्रष्ट अफसरों ने रिश्वतखोरी में नए कीर्तिमान स्थापित कर रखें हैं। यह एंटी करप्शन ब्यूरो के लगातार पड़ रहे छापों एवं करोड़ों की चल-अचल अनुपातहीन संपत्ति के उजागर होने की घटनाओं से जाहिर है। राज्य में चार दर्जन से अधिक प्रशासनिक अधिकारियों एवं लगभग इतने राज्य संवर्ग के अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ मामले चल रहे है। और तो और खुद रमन सिंह की साफ-सुथरी छवि भी तीसरी पारी में दागदार हुई है। चाहे वह अगुस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर खरीदी में कमीशन देने का आरोप हो या 36 हजार करोड़ का तथाकथित पीडीएस चावल घोटाला। सांसद बेटे अभिषेक सिंह पर विदेशी बैंकों में संपत्ति रखने के आरोप जैसे कुछ और आरोपों ने मुख्यमंत्री को परेशान किया है। हालांकि मुख्यमंत्री के रुप में उनका पहला और दूसरा कार्यकाल निष्कलंक रहा। उन पर व्यक्तिगत तौर पर कोई आरोप नहीं लगे, विपक्ष ने भी उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं किया लेकिन तब भी सरकार की नाकामी और नौकरशाही की आलोचना होती रही और भ्रष्टाचार खूब फलता-फूलता रहा। किन्तु तीसरे कार्यकाल की आधी अवधि बीतते-बीतते रमन सिंह पर छीटें पड़ने शुरु हो गए। विपक्ष ने उन्हें घेरा, कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने उन पर सवाल खड़े किए। यद्यपि रमन सिंह ने तमाम आरोपों को नकारा किन्तु एक संदेह का वातावरण तो बना। आगे कभी भाजपा हाईकमान राजनीतिक दृष्टि से नेतृत्व में बदलाव के बारे में विचार करेगा तो वह इस पहलू की भी अनदेखी नहीं करेगा।
         बहरहाल राज्य के सत्ता शिखर में परिवर्तन के अभी कोई संकेत नहीं है। कोई सुगबुगाहट नही है। मुख्यमंत्री को प्रशासनिक क्षमता भले ही कमजोर हो पर वे कूटनीति में माहिर है। बीते 12 वर्षों में उन्होंने अपनी राह के उन सभी कांटों को चुन-चुनकर अलग किया है जो उनके नेतृत्व को चुनौती दे सकते थे, चाहे वह आदिवासी नेता हो या गैरआदिवासी। उन्हें सबसे ज्यादा खतरा था राज्य के अनुभवी, युवा एवं कद्दावर मंत्री बृजमोहन अग्रवाल, पिछड़े वर्ग के नेता एवं 7 बार रायपुर लोकसभा के सांसद रमेश बैस एवं पूर्व सांसद व प्रबुद्ध आदिवासी नेता नंदकुमार साय से। अहिस्ते-अहिस्ते इनके कद छांट दिए गए। अब स्थिति यह है कि डा. रमन सिंह का दूर-दूर तक कोई विकल्प नजर नही आ रहा है। मुख्यमंत्री के लिए यह निश्चिंतता की बात है किन्तु यह तय है कि नए घटनाक्रम के बाद हाईकमान की प्रदेश की राजनीतिक परिस्थितियों पर नजर रहेगी और यदि सचमुच तीसरा विकल्प तैयार हुआ, जोगी की पार्टी खड़ी हो गई, जनता का रुख बदलता नजर आया, सरकारी कामकाज के ढर्रे में कोई सुधार नहीं हुआ और लोक कल्याणकारी कार्यक्रमों में ढिलाई जारी रही तो केंद्र के पास यकीनन नेतृत्व परिवर्तन के अलावा कोई चारा नही रहेगा। अभी विकल्प नहीं है लेकिन समय और परिस्थितियां खुद ब खुद विकल्प तैयार कर देती है। तब इस बात पर विशेष गौर किया जाएगा कि नया मुख्यमंत्री सवर्ण वर्ग से नहीं, आदिवासी या पिछड़े वर्ग से हो ताकि नई ऊर्जा के साथ चुनाव मैदान में उतरा जा सकें। नेतृत्व परिवर्तन के संदर्भ में इस तथ्य को भी ध्यान में रखा जाएगा कि सन् 2003 एवं 2008 चुनाव के मुकाबले 2013 में हुए चुनाव में भाजपा के वोटों का प्रतिशत गिरा है। भाजपा-कांग्रेस के बीच फासला केवल 0.75 प्रतिशत रहा। हालांकि सीटों का अंतर बढ़ा। भाजपा 41.04 प्रतिशत वोट और 51 सीटें जीतकर पुन: सरकार बनाने में सफल रही जबकि कांगे्रस को 40.29 प्रतिशत वोट और 38 सीटें मिली। राज्य विधानसभा के अब तक हुए तीनों चुनाव में हार-जीत के बीच महीन अंतर रहा है। ऐसी स्थिति में यदि जोगी के नेतृत्व में नई पार्टी बनी और उसने दम दिखाया तो भाजपा-कांग्रेस दोनों के मतों का एक हद तक विभाजन होगा। और यह विभाजन ही छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक नई इबारत लिखेगा।

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