'कम सून, बाबा'

यादें - रश्मि

-दिवाकर मुक्तिबोध

जिंदगी में कुछ खास तिथियां होती हैं जो ताउम्र साथ चलती हैं - शोक व आल्हाद की तिथियां। अतीत में खो जाने की तिथियां, यादों को ताजा करके प्रफुल्लित होने की तिथियां या फिर गहरे शोक में डूब जाने की तिथियां। 11 सितंबर 1964, 08 जुलाई 2010, 29 जनवरी 2012, 7 अक्टूबर 2015 और अब 22 अक्टूबर 2016। ये मेरी शोक की तिथिया हैं। 1964 को पिताजी गए, 2010 में माँ नहीं रही, 2012 में बड़ी बहन चली गई, 2015 में भाभी नहीं रही और 22 अक्टूबर 2016 को बड़ी बेटी ने साथ छोड़ दिया। अब इनकी भौतिक उपस्थिति नहीं हैं लेकिन स्मृतियां तो हैं जो हर पल, दिलों दिमाग के दरवाजे को खटखटाती हैं, अदृश्य उपस्थिति का एहसास कराती है और जीने का सहारा भी बनती हैं। 
      बेटी रश्मि को याद करता हूं। जन्म तिथि 1 सितंबर 1979। स्थान रायपुर, छत्तीसगढ़। महामाया मंदिर के परिसर में बने मकान में रहते हुए कामना की थी कि पहली संतान बेटी ही हो। इच्छा पूरी हुई। रश्मि का जन्म हुआ। सीने से लगी उस नन्ही परी के बड़े होने का अहसास तब हुआ जब उसकी शादी हुई और बाद में वह दो प्यारे-प्यारे बच्चों की माँ बनी। लगने लगा था, बड़ी हो गई थी वह। लेकिन 37 साल की उम्र क्या दुनिया से रुखसत होने की होती है? वह हम सब के जीवन में विराट शून्य छोड़कर चली गई। अपने मासूम बच्चों की जुबान में वह तारा बन गई। उनका आसमान में किसी चमकते हुए तारे को देखना यानी अपनी माँ को देखना होता है, उससे संवाद करना होता है। 
     यह कितनी विडंबना हैं कि उसकी अंतिम इच्छा पूरी नहीं हो सकी। बल्कि यों कहें हम उसे पूरा नहीं कर पाए। मौत के चंद महीने पूर्व उसने कहा था - ''मेरे शरीर के अंग, जो भी काम के हो, दान कर दिए जाए। मैंने 'उनसे' कह दिया है, बाबा आपको भी बता रही हूं, याद रखना।''  वर्ष 2015 के पूर्वाद्ध में अस्पताल के बिस्तर पर मौत से आँख मिचौली खेलते हुए उसने बहुत शांति से ये बातें कहीं थी। चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। जबकि वह जानती थी कि मौत का साया मंडरा रहा हैं। लेकिन वह लड़ रही थी। निराश या उदास होना उसके स्वभाव में नहीं था। उसमें परोपकार की भावना इतनी प्रबल थी कि वह चाहती थी यदि मृत्यु हो भी जाए तो उसके शरीर के कुछ अंग जरुरतमंदों के काम आए। 
     उसने जब ये बातें कहीं, अपने पिता से यानी मुझसे तो समझ सकते हैं कि दु:ख का कैसा सैलाब उमड़ आया होगा। उससे आँखें चुराते हुए, आँखों से टपकने को आतुर अश्रुओं को रोकते हुए मैंने कहाँ - 'तुम ठीक हो जाओगी, बेटी चिंता मत करो।' किन्तु अकाट्य सत्य मैं भी जानता था और वह भी कि अब जिंदगी का ठिकाना नहीं। कैंसर का शायद हर मरीज जानता है कि यह बीमारी चैन से जीने नहीं देती। साल-दो साल, चार-पांच साल या कुछ और अधिक बशर्ते कैंसर को समय रहते चिन्हित कर लिया जाए। पर अक्सर ऐसा होता नहीं है। पता तब चलता है जब मौत दस्तक देने लगती है। रश्मि के साथ भी ऐसा ही हुआ। डॉक्टरों ने कहा, इसे बहुत खराब कैंसर हैं। अधिक से अधिक दो-ढाई साल या बहुत हुआ तो पांच साल। पर उसे मिले जिंदगी के सिर्फ दो साल। घनघोर पीड़ा के दो साल। वह चली गई। अफसोस है कि हम उसकी अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर सकें। इस बात का भी अफसोस है कि हमने कोशिश भी नहीं की। रायपुर मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल जहां मृत शरीर दान में लिए जाते हैं, के अधिकारियों से विमर्श नहीं किया कि क्या कैंसर से पीडि़त मरीज के अंग निर्दोष होते हंै, नीरोग होते हैं? क्या वे किसी के काम आ सकते हैं? क्या जीवित शरीर में उनका प्रत्यारोपण हो सकता हैं? और क्या जरुरतमंद मरीज एवं उसके परिजन उसे स्वीकार करने तैयार होंगे? 
दरअसल उसकी अंतिम इच्छा को शेष घरवालों से छुपाकर रखा गया था। केवल उसके और हमारे परिवार के एक-दो लोग ही इस बात को जानते थे। सब उसकी बीमारी से इतने सदमें में थे कि बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। यह कल्पना से परे की बात थी। करीब दो साल से वह मौत से लड़ रही थी। कई बार अस्पताल में दाखिल हुई, पर हमेशा लौट आई। इसलिए विश्वास था, मौत अंतत: हार जाएगी। अंग दान की नौबत नहीं आएगी। वह ठीक हो जाएगी। रश्मि, मेरी बेटी। लेकिन उसकी अंतिम इच्छा को पूरी न कर पाने का एक और बड़ा कारण भी था। उसका शरीर बहुत कमजोर हो चुका था, आँखें कटोरियों से कुछ बाहर निकल आई थी, जबड़ा आगे आ गया, पेट में पानी भर हुआ था, उसका लीवर क्षतिग्रस्त था, कैंसर के सेल्स ने अपनी वहां खास जगह बनाई थी। वह काफी फैल गया था। शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया था। इसलिए लगता नहीं था कि शरीर कोई भाग सुरक्षित बचा होगा? ऐसे में क्या कोई अंग किसी के काम आ सकता था? शायद नहीं। यद्यपि पूरा शरीर मेडिकल कॉलेज अस्पताल को अध्ययन की दृष्टि से सौंपा जा सकता था। पर क्या इसके लिए हम तैयार थे? उसके ससुराल वाले राजी होते? दो वर्ष तक उसने इतना दर्द सहन किया था कि मृत्यु के बाद उसे और तकलीफ नहीं दे सकते थे। लिहाजा मैंने यह सोचकर अपने आपको दिलासा देने की कोशिश की कि बेटी ने अंग दान की बात कही थी, शरीर दान की नहीं। 
     लेकिन खुद को दी गई इस झूठी तसल्ली से मन कैसे शांत रह सकता है। यह अफसोस तो ताउम्र रहेगा कि मैं अपनी बेटी की अंतिम इच्छा भी पूरी नहीं कर सका जबकि वह मुझे ताकीद करके गई थी 'बाबा मेरी बात याद रखना।Ó अंदाज लगा सकते हंै - उसका हृदय कितना विराट था। कितनी प्रबल थी परोपराकार की भावना। यदि वह जीवित रहती तो आगामी 1 सितंबर 2017 को 38 साल की हो जाती। जब वह पैदा हुई, मैं बहुत खुश था। मनोकामना पूरी हुई थी। वह इस दुनिया में आ गई पर इतनी कम उम्र लेकर? कैंसर से जूझते हुए जैसी पीड़ा उसने झेली, वह देखी नहीं जा सकती थी। उफ, इतना दर्द, इतनी तकलीफ! कौन कैसे बर्दाश्त कर सकता हैं। लेकिन वह बहुत जीवट थी। लड़ती रही, आखिरी सांस तक लड़ती रही। यकीनन नहीं होता कि वह इस दुनिया में नहीं है। घर की दीवारों पर टंगी उसकी तस्वीरों के कोलाज को देखता हूं तो लगता है वे बोल पड़ेंगी और मुझे सुनाई देगा - 'बाबा, क्या चल रहा है।' फोन पर बातचीत का यह उसका तकिया कलाम था।
   स्वाभाविक रुप से हर पिता को अपनी बेटी बहुत प्यारी और मासूम लगती है। वे होती भी हैं। जीवन को खुशियों से भर देती है। रश्मि भी ऐसी ही बेटी थी। बहुत ही सीधी, सरल और शांत लेकिन पढ़ाई में उतनी ही तेज, खेलकूद में भी अव्वल। स्कूल और कॉलेज के दिनों में उसे अनेक पुरस्कार मिले। दर्जनों मेडल, ट्राफी और कप जो मेरी आलमारी में सजे हुए हंै और उसकी यादों को ताजा करते हैं। बैडमिंटन खेलती हुई रश्मि, वालीवाल खेलती रश्मि, 100-200 मीटर की दौड़ में अव्वल आती रश्मि। याद हैं - स्कूल के दिनों में एक एथलेटिक स्पर्धा में भाग लेते हुए वह 100 मीटर की रेस में अव्वल आई पर दौड़ खत्म होते ही पेट पकड़कर बैठ गई। मैं उसकी दौड़ देखने आया था। उसे संभाला। पूछने से पता चला कि वह सुबह से खाली पेट थी। कुछ भी नहीं खाया था। 13-14 साल की बेटी की तकलीफ देखकर में द्रवित हो गया। दरअसल अपने स्वास्थ्य के प्रति वह हर दर्जे तक लापरवाह थी। जब बच्ची थी, हम जोर जबरदस्ती करते थे किन्तु यह उसका स्वभाव था, अपनी नहीं अपनों की फिक्र करना, दूसरों की चिंता करना। हम उसे प्यार से डांटते, फटकारते भी थे। नसीहत देते - खाना खाते समय थाली छोड़कर उठना नहीं चाहिए। लेकिन वह कहां मानती नहीं थी। उसे तभी तसल्ली मिलती थी जब वह दूसरों को परोस देती। काम के लिए आवाज किसी और को देते थे, दौड़कर चली आती थी रश्मि।
    वह बहुत हंसती थी, बात-बात पर हंसी। कभी-कभी झुंझलाहट भी होती थी। जब उसका मजाक उड़ाते थे, तकलीफ हमें होती थी। 'रश्मि इतनी ज्यादा मत हंसा कर। पराए तो पराए अपने भी तुझ पर हंसते हैं। सामने भी और पीठ पीछे भी।' किन्तु वह अनसुनी करती। दरअसल हमेशा मुस्कराते रहना और सबकी मिजाज पुर्सी करना उसका स्वभाव था। इसीलिए अपने ससुराल में भी वह सबसे प्यारी और स्नेहिल बहू मानी जाती थी। वक्त-वक्त पर अपने विशाल परिवार के हर किसी सदस्य से बातचीत करना या टेलीफोन करके उनका हालचाल जानना उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा था। कोई उसे फोन करें या न करें, वह जरुर हर किसी से संपर्क रखती थी। अपनी सखी-सहेलियों से, अपने कॉलेज के दोस्तों से, अपने पास-पड़ोस से और अपने परिजनों से। ऐसी थी रश्मि। 
रश्मि ने मास्टर ऑफ कम्युनिकेशन (एमसीए) में स्नातकोत्तर डिग्री ली थी। कुछ समय के लिए प्राध्यापकी की। फिर संविदा में सरकारी नौकरी उसे मिली। लेकिन जब उसकी पहली संतान होने की थी, उसने नौकरी छोड़ दी। बाकायदा नियमानुसार वेतन जमा करके इस्तीफा मंजूर करवाया। वह एक बच्चे की माँ बनी। करीब चार साल के अंतराल में उसने बेटी को जन्म दिया। अब 8 व 4 साल के दोनों बच्चे बहुत प्यारे और समझदार है। उन्होंने मान लिया है कि उनकी माँ तारा बन गई है। रात कैसी भी हो, अंधेरी या उजियारी, वह किसी चमकदार सितारे को देखकर कहते हैं - देखों, वह हमारी माँ। जब वे ऐसा कहते हैं तो कलेजा मुंह को आ जाता है। दर्द की लकीरें हम सुनने वालों को झंझोड़ती है। क्यों हमें छोड़कर गई रश्मि। क्यों?
     रश्मि ऐसा ही सवाल हमसे भी करती थी? कहती थी 'आई' - बाबा आखिर मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? मैंने क्या किया? क्यों मैं ऐसी बीमार पड़ी? कैंसर मुझे क्यों?' हम क्या जवाब देते। दुहराते थे बेटा चिंता न करो ठीक हो जाओगी। हम हैं न तुम्हारे साथ। किन्तु हम स्वयं आशंकित थे। डरे हुए थे। हमने गुगल सर्च करकें 'कोलोंजियो कार्सिनोमा' के बारे में जानकारी हासिल की थी। इस बीमारी से ग्रस्त लोगों को बमुश्किल दो-ढाई साल या अधिक 5 की जिंदगी मिलती है। विश्व में इसके बहुत उदाहरण भी नहीं है। प्राय: उम्रदराजों को ही यह बीमारी पकड़ती है। लेकिन रश्मि तो युवा थी, वह कैसे और क्यों इसके गिरफ्त में आई? किसी के पास जवाब नहीं था। वर्ष 2014 के आखिरी महीनों में पेट दर्द, अपचन, पसली में दर्द से बीमारी की शुरुआत हुई। आराम न मिलने पर विशेषज्ञों से सलाह ली गई, फिर कुछ और टेस्ट हुए। कुछ आशंकाएं सामने आई। सीटी स्केन के बाद डॉक्टरों ने आगे के परीक्षण के लिए मुंबई, हैदराबाद या दिल्ली जाने की सलाह दी। मुंबई के बड़े अस्पताल में एमआरआई, सीटी स्केन, पेट स्केन आदि से पता चला लीवर का कैंसर हैं। मेडिकल शब्दावली में कोलोंजियो कार्सिनोमा, जिसने तीसरी स्टेज पार कर ली हैं। 
    कैंसर कन्फर्म हुआ और हम सब की जान सूख गई। लेकिन रश्मि अविचलित रही। कैंसर की भयावहता के बावजूद वह ज्यादा फिक्रमंद नहीं थी। उसका विश्वास था कि वह इस जानलेवा बीमारी से लड़ लेगी। बीमारी के बारे में उससे कुछ भी छुपाना मुश्किल था क्योंकि वह अपनी सारी मेडिकल रिपोर्ट खुद देखती थी, डॉक्टरों से खोद-खोदकर बीमारी के बारे में सवाल जवाब करती थी। हम बहुत चिंतित थे क्या किया जाए। टाटा मेमोरियल ने कैंसर हिस्ट्री देखकर हाथ खड़े कर दिए थे। उसके परिवार में विचार चल रहा था कि ऑपरेशन करवाया जाए अथवा नहीं। कोकिलाबेन धीरुभाई अंबानी अस्पताल के विशेषज्ञ डॉक्टरों की राय थी कि ऑपरेशन करना चाहिए। युवा है, ठीक होने की संभावना है। तय हुआ ऑपरेशन में जाएंगे। रश्मि का लगभग 7 घंटे ऑपरेशन चला। ऑपरेशन थियेटर में जाने के लिए पूर्व वह शांत और निर्भीक थी। आश्चर्य था इतनी घातक बीमारी के बावजूद वह कैसे एकदम सामान्य रह सकती हैं। किन्तु उसमें गजब का धैर्य था, जबरदस्त मनोबल था। वह घबराई नहीं। पर हम घबराए हुए थे। ऑपरेशन जटिल था। कामयाब रहा, हमारी तात्कालिक चिंता मिट गई। 
    उसके बाद अगले 6 महीने, मार्च से अगस्त तक बहुत तकलीफदायक थे। कीमो थेरेथी बड़ी कष्टकारी थेरेपी है। पर उसने सारी तकलीफें झेली। बहुत दर्द सहन किया। रातें बेचैनी में काटी किन्तु उसने आत्मविश्वास नहीं खोया। वह लड़ती रही। उसके संघर्ष को देखकर हमें भी भरोसा होने लगा। चमत्कार की हमारी उम्मीदें बढ़ गईं। कीमो के 6 चक्र पूर्ण होने के बाद धीरे-धीरे वह ठीक होती गई। सिर के झड़े हुए केश वापस आने लगे। चेहरा खिलने लगा, शरीर में ताकत लौट आई। स्वस्थ दिखाई देने लगी। उसकी नियमित दिनचर्या शुरु हो गई। घर का सारा काम, रसोई और फिर बच्चों की पढ़ाई। वह बाहर जाने लगी थी। अकेले ट्रेन का सफर करने लगी थी। उसे देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वह कैंसर जैसी घातक बीमारी से उठी है। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार दिसंबर 2015 में उसे स्वास्थ्य परीक्षण के लिए मुंबई जाना था। वह गई। जिस दिन उसे पेट स्केन की रिपोर्ट मिली, वह बेहद खुश थी। हंसते खिलखिलाते हुए उसने हमें फोन पर बताया - 'बाबा रिपोर्ट नार्मल आई है। मैं बिल्कुल ठीक हो गई हूं।' स्वाभाविक था हम भी बेहद खुश हुए। उसके संघर्ष को सलाम किया और ईश्वर को धन्यवाद दिया कि हमारी बेटी ने जिंदगी की जंग जीत ली है। 
    किन्तु ये खुशियां टिकाऊ साबित नहीं हुई। दो महीने बीते भी नहीं थे कि उसे पुन: पेट व पीठ दर्द शुरु हो गया। मन पुन: आशंकाग्रस्त हुआ। जब दर्द असहनीय होने लगा तब मुंबई से टेलीफोन पर डॉक्टर के परामर्श पर इलाज शुरु हुआ। हैवी पेनकिलर्स के डोज के बावजूद आराम नहीं हुआ तो फिर अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। तबियत कुछ संभली तो घर लौट आई। लेकिन चंद दिन बीते नहीं थे कि फिर वही कहानी। इस दौरान मैंने उससे बार-बार कहा - बेटी हमें मुंबई जाना चाहिए। किसी रात जब मैंने यही बात दुहराई तो उसका धैर्य जवाब दे गया। वह बेकाबू हो गई। फूट फूटकर रोने लगी। रोते हुए उसने कहा - ''बाबा मुझे कैंसर नहीं है। आप मानते क्यों नहीं कि मैं ठीक हो गई हूं। क्यों मुझे आप बार-बार मुंबई जाने कहते हैं।'' उस दिन वह मेरे अपने घर में थी। आंसू बहाते हुए अपने कमरे में चली गई। उसे रोते देखकर मैं स्तब्ध रह गया। उसकी पूरी जिंदगी में मैंने कभी उसे यूं रोते हुए नहीं देखा था। बचपन में भी नहीं। दरअसल वह कभी ऐसा काम नहीं करती थी कि डांट खानी पड़े। उसे देर तक रोता देखकर मुझे अपने आप पर गुस्सा आने लगा। बहुत पछतावा हुआ - ऐसा क्यों कहां मैंने उससे। पर उसकी हालत देखकर मैं आशंकाग्रस्त था और चाहता था डॉक्टरों से परामर्श के लिए तत्काल मुंबई रवाना होना चाहिए। मैं उसके शांत होने का इंतजार करता रहा। करीब आधे घंटे बाद वह सामान्य हुई। मेरे पास आई बोली - 'बाबा चिंता न करो, मुझे अब कैंसर नहीं है। मैं ठीक हूं। आप बहुत चिंता करते हैं। ठीक हैं, मैं चली जाऊंगी बाम्बे।'
सोचता हूं काश, उसका यह विश्वास कायम रहता। भारी मन से उसे मुंबई ले जाया गया। अम्बानी हॉस्पिटल में फिर उसका इलाज शुरु हुआ। एमआरआई, पेट स्केन और तमाम क्लीनिकल टेस्ट। हम रायपुर में बैठे-बैठे ईश्वर से प्रार्थना करते रहे, रिपोर्ट नार्मल आए। लेकिन इस बार ईश्वर के दरबार में हमारी प्रार्थना कबूल नहीं हुई। मुंबई से फोन आया - 'कैंसर के 3-4 ट्यूमर फिर डेवलप हो गए हैं। अब ऑपरेशन संभव नहीं। पुन: कीमो में जाना पड़ेगा। हम लौट रहे हैं।' पेट स्केन की रिपोर्ट रश्मि के विश्वास पर सबसे बड़ा झटका था। पहले दौर में कैंसर कनफर्म होने के बावजूद वह घबराई नहीं थी। उसने बड़े साहस और धैर्य के साथ पस्थितियों का मुकाबला किया था। कीमो, रेडियेशन, तरह-तरह की दवाइयां, भारी भरकम इंजेक्शन और असहनीय दर्द से मुकाबला करके वह ठीक हो गई थी। यह उसकी जिजीविषा थी, उसका नैतिक बल था, न घबराने की मनोवृत्ति थी और भरोसा था कैंसर के विरुद्ध जंग जीतने का। वह जीत गई थी, हम सभी जीत गए थे किन्तु यह जीतकर भी हारने वाली बात थी। उसका यह विश्वास तब खंडित हो गया था, जब उसे पता चला कैंसर ने पीछा नहीं छोड़ा है। वह टूट गई। उसे लगने लगा था अब जिंदगी चंद दिनों की, चंद महीनों की। लेकिन उसने शायद जिंदगी के साथ समझौता कर लिया था। उसने जाहिर नहीं किया कि वह विचलित हैं। जब वह रायपुर लौटी। हम विमानतल पर उसे लेने गए। वह थकी-थकी सी थी। फिर भी चेहरे पर मुस्कान लाते हुए उसने फिर कहा - 'चिंता न करो, बाबा मैं ठीक हो जाऊंगी।' वह बहुत दुबली हो गई थी। हमें डर लगने लगा था कि पुन: कीमो थेरेपी को कैसे झेल पाएगी। पर कमजोर शरीर के बावजूद कीमो के तीन चक्र उसने झेले, चौथा आधा कर पाई क्योंकि शक्ति इतनी क्षीण हो गई थी बर्दाश्त करना नामुमकिन था। डॉक्टरों ने मना कर दिया। कीमो बंद करना पड़ा।
    अब उसकी हालत देखी नहीं जाती थी। उसके दोनों हाथों की नसे सूख गई थी, सलाइन चढ़ाने वे बमुश्किल मिलती थी। डॉक्टर सुई चुभो-चुभो कर उसे ढूंढने की कोशिश करते। ऐसी कोशिशों के दौरान अतुलनीय पीड़ा उसे झेलनी पड़ती थी। बहुत त्रासद दौर था। अंतिम दो-तीन महीने तो बेहद कठिन थे। 6 महीने से वह सुबह-शाम दोनों वक्त एक ऐसा पेन किलर इंजेक्शन ले रही थी जो अधिक लेने पर नुकसानदेह था। लेकिन दर्द से छुटकारा पाने के लिए यही एक सहारा था। मार्फिन की स्ट्रांग गोलियों का डोज भी धीरे-धीरे बेअसर साबित हो रहा था। वह बेहद कमजोर हो गई थी। पैरों में सूजन की वजह से वे लकड़ी की बल्लियों जैसे ठोस हो गए थे। वह उन्हें उठा नहीं सकती थी। तबियत तब और खराब हो गई जब पेट में पानी भरना शुरु हुआ। दो बार सर्जरी से पानी निकाला गया। किन्तु ऐसा कब तक चलता लिहाजा कैथेड्रल लगा दिया गया। हालत इतनी खराब हो गई कि करवट लेना मुश्किल हो गया। अंतिम महीना तो बेहद दर्द भरा था। तो वह लेट भी नहीं पाती थी। बैठे-बैठे झपकियां लेती थी। 
    22 अक्टूबर 2016 की पूर्व रात्रि उसने मुझे अपने घर रुकने के लिए कहा। चूंकि पत्नी साथ में थी, मैंने कहा इन्हें छोड़ने जाना पड़ेगा। सुबह जल्दी आ जाऊंगा। अगले दिन सुबह 8 बजे मैं उसके घर पहुंच गया। उससे मिला। उसके चेहरे पर पूर्व जैसी मुस्कुराहट आई। मैंने भी मुस्कराने की कोशिश की। कुछ देर उसके पास बैठा रहा। उसने फिर कहा - 'बाबा बाहर बैठो स्पजिंग करनी है।Ó मैं बाहर आया। कुछ देर बैठा और फिर अपने एक मित्र से मिलने चला गया। करीब घंटे भर बाद लौटा तो नर्स ने बताया अभी तैयार नहीं हुई है। स्पजिंग चल रही है। मैं जल्दी लौटने की बात कहकर घर के लिए निकल गया। लेकिन 7 किलोमीटर दूर सड्डू स्थित अपने घर तक पहुंच भी नहीं पाया था कि उसके यहां से फोन आया - पेट में लगा पाइप निकल गया है, पानी बह रहा है। जल्दी आइए - अस्पताल ले जाना पड़ेगा। मैं अपने भाई के साथ उल्टे पांव लौटा। घर पहुंचा ही था कि एम्बुलेंस आ गई, हम उसे लेकर सरकारी अस्पताल पहुंच गए। 
    22 अक्टूबर को प्रात: 11 बजे वह अस्पताल में थी। होशो-हवास में। करीब एक घंटे बाद उसे ऑपरेशन थियेटर ले जाया गया। लगभग डेढ़ घंटे बाद जब उसे बाहर लाया गया तो वह अद्र्धचेतनावस्था में थी। मुंह पर आक्सीजन मास्क लगा हुआ था। पेट में फिर से पाइप लगा दिया गया था और कंधे पर सर्जरी के जरिए सेंट्रल लाइन। हालत बेहद खराब दिख रही थी। वह बार-बार मास्क हटाती थी। उसे रोकना पड़ता था। 
    गंभीर स्थिति के बावजूद हमने उम्मीद नहीं छोड़ी थी लेकिन मन फिर भी आशंकित था। जब उसके भाई का लखनऊ से फोन आया तो मेरे मुंह से अनायास निकला - '24 घंटे, 24 दिन या 24 महीने। कुछ भी कह पाना मुश्किल हैं। बेहतर है आ जाओ।Ó
डॉक्टरों ने कहा स्थिति गंभीर है पर मन मानने को तैयार नहीं था। विश्वास था कि वह संकट से उबर आएगी और घर लौटेगी, अपने बच्चों के पास। ऐसा नहीं हो सका। रात 11 बजे के आसपास वह चल बसी। मैं उस वक्त उसके पास नहीं था। मेरे साथ ऐसा तीसरी बार हुआ। पता नहीं यह कैसा दुर्योग है। वर्ष 2010 में जब माँ अंतिम सांसे गिन रही थी, मैं पल भर के लिए उसके पास से हटा और वह चली गई। बड़ी बहन के साथ भी ऐसा ही हुआ। और अब बेटी। रात में अस्पताल में रुकने की दृष्टि से मैं सामान लेने घर आया था और जब वापस अस्पताल पहुंचा तो 5 मिनट पूर्व ही उसकी सांसे थम गई थी। उसकी मृत काया देखकर अजीब सा खालीपन महसूस हुआ। आँखें भर आई - बरसने लगी। वह इतने जल्दी चली जाएगी, उम्मीद नहीं थी। हम जानते थे उसका कैंसर बहुत घातक है, कुछ भी हो सकता है लेकिन इसके बावजूद मन नहीं मानता था कि वह आखिरी सफर पर क्यों निकल जाएगी। जीने के लिए जैसा संघर्ष उसने किया, अपरिमित दर्द को बर्दाश्त किया, वह असाधारण था। 18 अक्टूबर को यानी प्राणांत के 3 दिन पहले मेरे मोबाइल पर उसका अंतिम संदेश था 'कम सून बाबा।' अब इस संदेश से रोज गुजरता हूं। प्राय: रोज पढ़ता हूं। ऐसा लगता है रश्मि अपने घर पर हैं और मुझे बुला रही है। हम जानते है कि अब उसकी दैहिक उपस्थिति नहीं है पर हमारे दिलोदिमाग में उसका बचपन, उसकी युवावस्था, उसका हंसता-मुस्कराता चेहरा बसा हुआ है। और फोन पर उसका प्रारंभिक संबोधन - 'क्या चल रहा है बाबा।' कानों में गूंजता हैं।

Comments

  1. Rashmi was one of the finest persons i have ever met . very humble ,always smiling ,harmless n selfless.Difficult to believe she has left us.May God give immense strength to diwakar bhaiyya and bahbhi ,sachin , her son n daughter n to all other members to bear her loss. whenever i think of her a smiling face comes into view. Hello rashmi hope ur r fine there in God's house.

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  2. Pure soul..
    MCA में मेरी सहपाठी थी और निश्चित रूप से सबसे सरल और सहज थी। हमेशा एक मुस्कान चेहरे पर होती थी।
    जब ये दुखद समाचार सुना तो बिलकुल भी विश्वास नहीं हुआ। परमात्मा उसकी आत्मा को शांति दे और जहाँ उसे पुनः शरीर मिले आप के जैसा ही पिता मिले।

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  3. Rashmi didi had the smile which no-one can forgot. Always felt positivity whenever I met her. RIP

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  4. रश्मि ताई , मैंने पहेली बार किसी को ताई संबोधित किया और दिल से माना भी मैने उनसे हमेशा मुस्कुराना, खुद से पहले दुसरो के बारे में सोचना सबको अपना मानना सीखा कैसे कर लेती थी वो समझ से परे हैं। हमेशा घर आये आतिथि को खाये बिना जाने नही देना । खुद से ज्यादा दुसरो की चिंता करना
    जो भी ताई से मिला हैं वो उन्हें ज़िन्दगी भर नही भूल सकता जो थी ही इतनी अद्भुत

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  5. Rashmi tai..I have good childhood memories with you. Such a pure and happy soul. Rest in peace tai !

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  6. Most beautiful flowers Perish early .Miss your beautiful spirits around.

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  7. मार्मिक! रुला देने वाली पीड़ा। माधव-मुक्ति ! उन महीयसी के नमन।

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  8. rashi ji vakayi bahadur ladki thee.. bhagvaan unki atma ko shanti de ...

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