कुछ यादें कुछ बातें-16

-दिवाकर मुक्तिबोध

मैं बीएससी फायनल में पहुंचा ही था कि मुझे सरकार के शिक्षा विभाग में नौकरी मिल गई। शिक्षक की। लोअर डिवीजन टीचर। खम्हारडीह शंकर नगर के मिडिल स्कूल में। यह स्कूल मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल के निवास से लगा हुआ था। यह बात है 1969-70 की। अब साइंस कालेज में पढाई और नौकरी दोनों को साधना था। स्कूल सुबह का था व कालेज में मेरी कक्षाएं 11 बजे से। दिक्कत यह थी ये दोनों स्थान विपरीत दिशा में थे। स्कूल तो समय पहुंच जाता था पर कालेज ? साइकिल कितनी भी तेज चलाएं, शुरुआती एक दो पीरियड छूट ही जाते थे। भूगर्भ विज्ञान ( जिओलॉजी ) के हमारे प्रोफेसर थे श्री वी जे बाल। वे मुझसे प्रसन्न रहते थे पर एक दिन मेरी हालत देखकर उन्होंने समझाइश दी और कहा - "दो नावों पर पैर न रखो, गिर पडोगे। या तो नौकरी कर लो या पढाई। आखिरी साल है, क्यों खतरा मोल लेते हो। मेरी मानो, नहीं कर पाओगे।" वे मुझे आगाह कर रहे थे पर मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। वे ठीक ही कह रहे थे। लेकिन सरकारी नौकरी छोडऩे का मन नहीं था फिर वह मेरी जरूरत भी थी। और सबसे बड़ी बात थी मेरा आत्मविश्वास। मुझे पूरा भरोसा था कि नौकरी बजाते हुए मै बीएससी फायनल की परीक्षा पास कर लूंगा।
लेकिन मैं मन का कच्चा था। अपने से ही धोखा खा गया। दरअसल इसे धोखा भी नहीं कहना चाहिए। सरासर मूर्खता थी। हुआ यूं कि फिजिक्स का प्रथम प्रश्नपत्र बिगड़ गया। जबकि इस पेपर के लिए मेरी तैयारी सेकंड प्रश्न पत्र से बेहतर थी। कुल सौ अंक के फिजिक्स में पास होने के लिए 33 अंक चाहिए थे। पूरा दारोमदार 50 मार्क्स के इसी प्रथम पेपर पर था। इरादा था 30-35 अंक हासिल कर लिए जाए ताकि दूसरा पेपर बिगड़ भी गया तो भी कोई फर्क न पडे। लेकिन पेपर देखते ही माथा ठनक गया। हाथ-पांव फूल गए। दस प्रश्नों में से पांच हल करने थे। मेरे लिए सब कठिन। बेहद कठिन। इसकी उम्मीद नहीं थी। मैंने सिर्फ दो प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर लिखे। बाकी तीन के आते नहीं थे, इसलिये छोड़ दिए। अब परीक्षा कक्ष में पूरे तीन घंटे बैठे रहने का कोई औचित्य नहीं था लिहाजा एक सवा घंटे बाद ही बाहर निकल गया। पहला ही प्रश्न पत्र बिगड़ने से मन इतना खिन्न था कि मैंने ड्राप लेने का फैसला किया। अगली परीक्षाओं में नहीं बैठा। मुझे लगा कि बीस अंकों में से मुझे अधिक से अधिक कितने अंक हासिल होंगे? अधिकतम पन्द्रह। पचास में पन्द्रह यानी फेल। लेकिन यह मेरी बडी भूल थी। जब अंक सूची हाथ में आई तो फिजिक्स के इस पेपर में पचास में सत्रह अंक मिले थे। मैं पास हो गया था। मैंने अपना सिर पीट लिया। प्रोफेसर बाल साहब का कहा वाकई सच साबित हुआ। बीएससी नहीं कर पाया लेकिन नौकरियां करते हुए निजी परीक्षार्थी के रूप में बीए , एम ए व बीजे ( बैचलर ऑफ जर्नलिज्म ) की डिग्रियां लेकर शिक्षण कार्य पूरा कर लिया।
सन 1969 से 1978 तक मेरी दिनचर्या अस्तव्यस्त रही। कालेज , ट्यूशन, स्कूल में मास्टरी व पार्टटाइम अखबारनवीसी। सुबह सुबह घर से स्कूल के लिए निकल जाता था व प्रेस का काम निपटाकर देर रात लौटता। साइंस कालेज छोडने के बाद चूंकि निजी छात्र के तौर पर बीए किया इसलिये कालेज जाने की झंझट नहीं थी लेकिन समाज शास्त्र में एम ए करने रविशंकर विश्वविद्यालय के शिक्षण विभाग ( यूटीडी ) में एडमिशन ले लिया। पार्टटाइम पत्रकारिता देशबंधु ( तब नयी दुनिया ) में चल ही रही थी। लेकिन वहां कुछ ही महीने रह पाया क्योंकि सरकारी नौकरी लग गयी सो प्रेस छोड़ दिया। फिर दूसरी बार सरकारी नौकरी बजाते हुए 1973 में पुनः देशबन्धु पहुंच गया। फिर वही कहानी। क्यों छोड़ दिया, याद नहीं अलबत्ता 1976 में तीसरी दफा देशबन्धु के संपादकीय विभाग में मैं हाजिर था। यह अंतिम कार्यकाल दीर्घ रहा। करीब छह साल। इस बीच वर्ष 1978 में सरकारी नौकरी से इस्तीफा दिया था। और इसके बाद पूर्णकालिक पत्रकारिता प्रारंभ हुई जो कई अखबारों की नियमित नौकरी से मुक्ति के बाद स्वतंत्र रूप में जारी है।
पार्टटाइम व पूर्णकालिक दोनों की दृष्टि से देखें तो इस फील्ड में काम करते हुए लगभग 45-46 बरस हो चले है। इस दौरान मैंने रायपुर व बिलासपुर से छपने वाले दैनिक अखबारों में काम किया। रायपुर में देशबंधु, नवभारत, युगधर्म, अमृत संंदेश, दैनिक भास्कर, आज की जनधारा,अमन पथ व पायनियर। बिलासपुर में नवभारत व दैनिक भास्कर। रायपुर में प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी काम करने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश को कव्हर करने वाले वाच न्यूज चैनल में बतौर प्रधान संपादक। शुरूआत देशबन्धु में प्रूफ रीडिंग से की थी, धीरे धीरे अखबारों का संपादन करने लगा। चूंकि वर्षों संपादकीय दायित्व निभाता रहा लिहाजा लगभग पूरे प्रदेश में सहयोगी संवाददाताओं की टीम तैयार हो गई जिनसे आत्मीय संंबंध बने। इस दौरान उनसे व अपने वरिष्ठजनों से खूब सीखने का अवसर मिला। आज यदि पत्रकारिता में थोड़ी सी पहचान बन गई है तो इसका श्रेय सहकर्मियों व पत्रकारिता के मेरे गुरुजनों, संपादकों को है। सर्वश्री ललित सुरजन , राजनारायण मिश्र, रामाश्रय उपाध्याय, रम्मू श्रीवास्तव, सत्येन्द्र गुमाश्ता, बबन प्रसाद मिश्र, गोविंद लाल वोरा आज हमारे बीच नहीं है लेकिन छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता व पत्रकारों को संवारने व उसे समृद्ध बनाने इन सभी का अतुलनीय योगदान है। मैंने अलग अलग अखबारों में इनके मातहत काम किया। इनकी स्मृतियाँ अक्षुण्ण हैं।
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(अगली कड़ी बुधवार 29 सितंबर को)

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