कुछ यादें कुछ बातें-15

-दिवाकर मुक्तिबोध

अपने से शुरू करता हूं, दो चार छोटी मोटी बातें। वैसे बचपन की अनेक घटनाएं स्मृतियों में दर्ज हैं , पर एक रह रहकर याद आती रहती है। घटना नागपुर की। मैं प्राइमरी कक्षा का छात्र था। हम मोहल्ला गणेश पेठ में रहते थे। एक दिन एक फेरीवाले ज्योतिषी महाराज घर के दरवाजे पर आकर खड़े हो गए और आवाज लगाई। मां बाहर आई। आमतौर पर ऐसा कोई व्यक्ति अनायास प्रकट हो जाए व भविष्य जानने का प्रलोभन दें तो न चाहते हुए भी खुद के बारे में कुछ जानने की इच्छा हो जाती है। इस ज्योतिषी ने अपनी लच्छेदार बातों से ऐसा भरमाया कि मां अपना भविष्य जानने उतावली हो गई। जाने क्या-क्या बातें उसने मां को बताई अलबत्ता एक अजीब सी सम्मोहन की हालत में मां ने मेरी भी हथेली उसके सामने फैला दी। उसने लकीरें पढकर मां को क्या बताया, वह याद नहीं किंतु एक बात जरूर याद है कि मां के पूछने पर उसने मेरी आयु 60 वर्ष बताई। यह सुनकर मां ने क्या सोचा होगा, उसकी कल्पना की जा सकती है। यकीनन उसके माथे पर चिंता की लकीरें फैल गई होंगी। प्रत्येक मां अपने बच्चों के शतायु होने की कामना करती है। जुग-जुग जीने की कामना, लंबी उम्र की कामना हालांकि सोचें तो जीने के साठ बरस भी कम नहीं होते। बहरहाल इस ज्योतिषी की 60 वर्षों तक जिंदा रहने की बात मेरे दिमाग में कायम रही। खासकर प्रत्येक वर्ष जन्म तारीख के दिन वह भविष्यवक्ता याद आता रहा। खैर समय गुजरता गया। जीवन के 60 बरस भी पूरे हो गए व आगे निकल गए। आराम से एक और दशक पूरा कर लिया। अच्छा भला स्वस्थ हूं। यद्यपि यह देखने के लिए मां जीवित नहीं रही कि उसका लाडला सही सलामत है। उसे कुछ नहीं हुआ। और जैसा कि वे चाहती थीं, वह और बडी उम्र की ओर बढ़ रहा है।
बहरहाल बाल दिनों की इस एक घटना के उल्लेख के बाद मैं उम्र के 18 बरस के बाद के सफर को सिलसिलेवार याद करने की कोशिश करता हूं विशेषकर कॉलेज व नौकरी के उन दिनों को जो बेहद खूबसूरत थे। वर्ष 1967 में भिलाई नगर से 11 वीं बोर्ड की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैंने शासकीय विज्ञान महाविद्यालय रायपुर में बीएससी प्रथम वर्ष में एडमिशन लिया। शुरुआत के तीन चार महीने बमुश्किल हॉस्टल में रह पाया। दरअसल मैं मां से अलग कभी नहीं रहा। होमसिकनेस इतनी भयानक थी कि बिना मां के एक-एक दिन गुजारना मुझे भारी पड़ रहा था। दिन तो घर कॉलेज में निकल जाता था पर रात ? होस्टल में रात चैन से नहीं कटती थी। घर याद आता रहता था। मां मेरी बेचैनी तब महसूस करती थी जब मैं प्रत्येक शनिवार की रात भिलाई अपने घर पहुंचने के बाद सोमवार की सुबह रायपुर के निकलता था। तब मेरी रोनी शक्ल देखने लायक रहती थी। हर बार मुझे इस तरह विचलित देख एक दिन उन्होंने तय किया कि वे रायपुर में मेरे साथ एक अलग मकान लेकर रहेंगी। मां के इस निर्णय से मुझे अपार खुशी मिली क्योंकि इससे बढ़कर आनंद और हो नहीं सकता था। मैंने साइंस कॉलेज का हॉस्टल नंबर तीन छोड़ दिया। हमने शहर की पुरानी बस्ती में एक मकान किराए पर ले लिया। मां आई तो साथ में छोटे भाई बहन भी आ गए यानी लगभग पूरा परिवार रायपुर शिफ्ट हो गया। इस बात को 54 साल हो गए हैं। पांच दशक से हम रायपुर में ही हैं। किराए के मकान से अब खुद के घर में हैं पर अफसोस साथ में मां नहीं है। केवल उसकी यादें हैं।
शासकीय विज्ञान महाविद्यालय में मैं 1967 से 1970 तक रहा। इस अवधि में दो ऐसे प्राचार्यों से रूबरू हुआ जो नामी साहित्यकार भी थे - श्री रामेश्वर शुक्ल अंचल व श्री राजेश्वर गुरु। उस दौर में भी प्रिंसिपल व छात्रों के बीच सीधा व प्रदीर्घ संवाद नहीं के बराबर था। आमतौर पर वे कक्षाएं भी नहीं लेते थे। लेते भी होंगे तो स्तानोकोत्तर कक्षाओं की। यह मुझे ज्ञात नहीं। अतः उनके कक्ष में एक दो मुलाकातें हुई। सरनेम से वे पिताजी के बारे में जान गए थे। गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम सुनकर वे प्रसन्न हुए भी होंगे तो इसे उन्होंने जाहिर नहीं किया। यह अच्छा ही था। मैं बोझ मुक्त था। हालांकि उनके नाम का जुडाव गर्व की बात थी, है और हमेशा रहेगी।
मैं बीएससी प्रथम वर्ष में ही था कि दो प्राध्यापकों की पदस्थापना साइंस कालेज में हुई। दोनों परिचित और पारिवारिक। एक थे प्रोफेसर प्रमोद वर्मा, दूसरे कनक तिवारी। कनक तिवारीजी से राजनांदगांव से परिचय था। विशेषकर रमेश भैया की वजह से। जबकि प्रमोद वर्मा पिताजी के बहुत निकट के मित्रों में से थे । प्रमोद जी ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने पिताजी की बीमारी के दिनों में हमें सम्हाला। जब वे साइंस कॉलेज में हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष बनकर आए तो मेरे एकाकी मन को बहुत राहत मिली हालांकि वे मेरे हिंदी के प्राध्यापक नहीं थे। मेरा अंग्रेज़ी भी एक विषय था। कनक तिवारी कक्षा लेते थे। यह संयोग ही था कि वे हमारे एकदम पडोस में रहते थे। पुरानी बस्ती में सत्येन्द्र ठाकुर के वे भी किराएदार थे, हम भी।
प्रमोद जी साइंस कॉलेज के सरकारी निवास में रहते थे। कालेज के फ्री पीरियड में और बाद में मैं उनके घर चला जाया करता था। उनके परिवार के सभी सदस्य हमें अपने ही परिवार का समझते थे और वैसा ही स्नेह देते थे। 1964 में भोपाल के हमीदिया अस्पताल में पिताजी के स्वास्थ्य का हाल जानने के लिए आने वाले मित्रों में प्रमोद जी भी थे। जब पिताजी को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नयी दिल्ली ले जाया गया तब हमें सम्हालने का जिम्मा प्रमोद जी ने लिया। वे हम भाई बहन को लेकर भिलाई आ गए। उन दिनों वे शासकीय महाविद्यालय दुर्ग में पदस्थ थे जो भिलाई से लगा हुआ है। भिलाई में वे सपरिवार अपने छोटे भाई के आफिसर्स बंगले में रहते थे। उस समय उनकी शादी नहीं हुई थी। सभी भाई बहनें व उनके माता-पिता साथ ही रहते थे। उनका भरा पूरा घर था हम लोगों के आने से वह और भर गया।
प्रमोद जी के साथ हम लोग बहुत घुलेमिले हुए थे। चूंकि हम बेहद सामान्य घर से थे लिहाजा भिलाई की बंगले की विशालता , सर्वेंट क्वार्टर व स्कूटर , मोटरसाइकिल देखकर मैं चकरा गया। ऐसा लगा कि प्रमोद जी का वर्ग हमसे अलग है। यद्यपि यह भाव अधिक समय तक कायम नहीं रहा। जैसे जैसे समय बितता गया , वर्गांतर की भावना कम होती गई क्योंकि प्रमोद जी व परिवार के सभी सदस्यों ने अपने व्यवहार से किसी प्रकार का दुराव महसूस ही नहीं दिया। हम उनके यहाँ कुछ महीने रहे और इस बीच बडे भैया को भिलाई इस्पात संयंत्र में नौकरी मिल गई और क्वार्टर भी।
रायपुर साइंस कॉलेज में प्रमोद वर्मा जी जब तक रहे , नियमित रूप से हमारी खोजखबर लेने घर आते रहे। उनके सिवाय इस शहर में हमारा कोई आत्मीय नहीं था इसलिए उनकी उपस्थिति हमें प्रफुल्लित करती थी। रायपुर के बाद वे जहां भी रहे, हमारे बारे में जागरूक अभिभावक की तरह पूछताछ करते रहे। भिलाई में एक कार्यक्रम के दौरान उनकी तबियत का बिगडना व बाद में अस्पताल में उनके न रहने की खबर हम लोगों के लिए वज्राघात से कम नहीं थी। अब उनकी सदेह उपस्थिति नहीं है लेकिन मेरे मन में एक सह्रदय अभिभावक के रूप में उनकी स्मृतियाँ अक्षुण्ण हैं।
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(अगली कड़ी शनिवार 25 सितंबर को)

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