कुछ यादें, कुछ बातें - 27

- दिवाकर मुक्तिबोध
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देशबंधु में राजनारायण मिश्र ,रम्मू श्रीवास्तव व सत्येन्द्र गुमाश्ताजी की एक पहचान सिटी रिपोर्टर की भी रही है। दरअसल यह वह समय था जब 10-12 पृष्ठों के अखबार में सीनियर पत्रकार डेस्क के काम के साथ ही इक्कादुक्का सिटी की खबरें भी कर दिया करते थे। लेकिन बाद के समय में नगर की खबरों के लिए अलग डेस्क व रिपोर्टरों की टीम बनी। इस डेस्क के प्रमुख थे गिरिजाशंकर। क्वालिटी रिपोर्टिंग में नंबर वन। सबसे आगे, अव्वल। 70 के दशक में मेरी उनसे मुलाकात नयी दुनिया ( बाद में देशबन्धु ) में हुई। मैं उन्हें रंग कर्मी के बतौर जानता था जो उन दिनों जीवन बीमा निगम में कार्यरत थे तथा नहर पारा स्थित अखबार के दफ्तर में अक्सर आया जाया करते थे। प्रायः उनकी बैठक ललित जी तथा राजनारायण जी के साथ हुआ करती थी। हालांकि उनका औपचारिक परिचय तो संपादकीय विभाग के सभी साथियों से हो गया था जिसमें मैं भी था। मुलाकात व बातचीत का सिलसिला तब चल निकला जब उन्होंने एलआइसी की नौकरी छोड़ दी व पूर्णतः देशबंधु में आ गए।
गिरिजा बहुमुखी प्रतिभा के धनी है। उनकी सबसे बड़ी खूबी है उनकी वाचालता। खूब बातें करना। बेपर की हांकना नहीं, तार्किक व प्रभावशाली बातें। तर्कशक्ति के आधार पर वह विभिन्न विषयों पर दमखम के साथ अपनी बात इस तरह रखते हैं कि सामने वाले के पास उन्हें स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। उनके प्रति लोगों के आकर्षण की खास वजह में यह प्रमुख है। खूब पढते हैं, अच्छा लिखते हैं। नाटकों में, रंग कर्म में विशेष रूचि है। जीवन बीमा निगम की नौकरी के दौरान और बाद में भी उन्होंने अनेक नाटकों का मंचन किया, चर्चाएं आयोजित कीं। और तो और उन्होंने प्रकाशन के व्यवसाय में भी हाथ आजमाया। रविन्द्र कालिया, तेजिंदर गगन जैसे ख्यातिप्राप्त साहित्यकारों की किताबें छापीं हालांकि यह व्यवसाय अधिक नहीं चल सका। बंद करना पडा। इसमें वह जरूर असफल रहे पर राष्ट्रीय व प्रादेशिक पत्रकारिता में उन्होंने अच्छा नाम कमाया। ख्याति अर्जित की।
देशबंधु के रिपोर्टर के रूप में गिरिजाशंकर अपने समय में अपने तमाम हमपेशेवरों , प्रतिद्वंद्वियों पर भारी थे। देशबंधु चूंकि प्रयोगधर्मी अखबार था इसलिए सामान्य घटना प्रधान समाचारों के विस्तृत कव्हरेज के अलावा खबरों को खंगालने तथा विश्लेषण करने का कार्य प्राथमिकता से किया जाता था। फिर वह नगर निगम के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के कामकाज का श्रृंखलाबद्ध लेखा जोखा हो या सत्ता व मौकापरस्त राजनीति व राजनेताओं को आईना दिखाना हो अथवा अपार संकटों का सामना करने वाले दीनहीन ग्रामीणों के जीवन संघर्ष का मामला हो। विशेष रिपोर्टिंग में गिरिजा आगे रहे। औरों से काफी आगे। उन्होंने नगर के समाचारों को बेहतर ढंग से कव्हर करने के साथ ही सामाजिक सरोकारों व सांस्कृतिक परिदृश्य पर भी खूब लिखा। अपनी ग्रामीण रिपोर्टिंग के लिए देशबन्धु के जिन पत्रकारों को स्टेट्समैन का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला , उनमें एक गिरिजाशंकर भी हैं।
गिरिजा की एक और खासियत है कि वह बहुत आसानी से नितांत अपरिचितों को भी बहुत जल्दी अपना करीबी दोस्त बना लेते हैं। उन दिनों छत्तीसगढ़ की राजनीति व नौकरशाही को उन्होंने कुछ इस तरह साध रखा था कि हर बडा नेता, हर बडा अधिकारी व छोटे से छोटा कर्मचारी भी उनसे आत्मीयता महसूस करता था। किसी पत्रकार के लिए विश्वास का ऐसा वातावरण बनाना हरगिज आसान नहीं है। पर जो ऐसा कर लेता है , वह यकीनन बडा पत्रकार कहलाता है। इस अर्थ में गिरिजा हमारी पीढी के बडे पत्रकार हैं। साथी पत्रकार जानते हैं, अनेक चश्मदीद गवाह भी हैं कि तब शहर के खास नेताओं व अफसरों के घरों में, उनके अंदरखाने तक जैसी गिरिजाशंकर की पहुंच थी, वैसी और किसी की नहीं थी। मुझे याद है जब आइपीएस विजय रमन रायपुर एसपी थे तब गिरिजा उनकी खुली जीप में उनके बेटे को गोद में लेकर शहर घुमाते देखे जाते थे। यह पुलिस अफसर के साथ उनके संबंधों की गर्माहट का एक उदाहरण है।यद्यपि रायपुर की पत्रकार बिरादरी में इस बात को लेकर खूब चर्चा होती थी जिसमें आलोचना का पुट अधिक रहता था। इसी तरह अनेक राजनेताओं व आईएएस अफसरों से भी उनका घरोबा था, मधुर संबंध थे। इसका लाभ उन्हें रिपोर्टिंग में मिलता था। मजबूत दीवारों के भीतर कैद अनेक ऐसी खबरें जिनकी हवा अन्य अखबारों को नहीं लगती थीं, वे देशबंधु में फ्लैश होती थीं। कहना न होगा शहर की खबरों व विचारों के लिए देशबन्धु सर्वप्रिय अखबार था। इसके पीछे रिपोर्टिंग की टीम तो थी ही, पर इसके मूल आर्किटेक्ट गिरिजाशंकर थे।
रायपुर की पत्रकारिता में गिरिजाशंकर का ग्राफ काफी उपर चढा हुआ था, खासकर रायपुर सेंट्रल जेल में एक कैदी को फांसी पर चढाने की घटना का आंखों देखा हाल जब देशबंधु में फ्लैश हुआ तो खबरों की दुनिया में तहलका मच गया। यह उनकी व सुनील कुमार की संयुक्त रिपोर्टिंग थी। इस तरह की किसी रिपोर्ट का किसी भी अखबार में छपना लगभग नामुमकिन था। दरअसल जेल में रिपोर्टिंग के लिए सरकार की मंजूरी का प्रश्न था जो मिल नहीं सकती थी और न ही इसके लिए कोई प्रयास इसके पूर्व किसी अखबार या उसके किसी रिपोर्टर ने किया था। लेकिन देशबंधु व इसके इन दोनों रिपोर्टरों ने यह कमाल कर दिखाया। उन दिनों संत कवि पवन दीवान अविभाजित मध्यप्रदेश के जेल मंत्री थे और छत्तीसगढ़ से थे। लिहाजा थोड़े से प्रयास से उनके आदेश पर गिरिजाशंकर व सुनील कुमार को कैदी को फांसी देते समय जेल में मौजूद रहने व रिपोर्टिंग की इजाजत मिल गई। ये दोनों रात भर अखबार के दफ्तर में जागरण करते रहे और तडके रायपुर सेंट्रल जेल पहुंच गए। फांसी के समय कैदी की मन:स्थिति तथा फांसी घर के माहौल का लाजवाब चित्र सुनील कुमार ने खींचा। देशबंधु में रिपोर्ट दोनों के नाम से छपी। कहना न होगा उनकी रिपोर्टिंग मील का पत्थर साबित हुई और लंबे समय तक चर्चा में रही।
रायपुर में अच्छी खासी पत्रकारिता कर रहे गिरिजा को भोपाल क्यों भेजा गया, किस मकसद से भेजा गया, प्रबंधन की नीति क्या थी, मुझे नहीं मालूम पर इतना अवश्य है कि गिरिजाशंकर बडे आकाश के हकदार थे जो उन्हें भोपाल में मिला। उन दिनों प्रधान संपादक मायाराम सुरजन जी का अधिकतम समय भोपाल में ही बीतता था। वर्षों से राज भारद्वाज संपादकीय कार्यों को देखते थे लेकिन ऐसा लगता है कि विशेष रिपोर्टिंग के लिए गिरिजा की जरूरत महसूस की गई। अत: उनका भोपाल तबादला कर दिया गया। हालांकि उनके लिए शहर भोपाल नया था और राजधानी होने के नाते खबरों की दृष्टि से वहां की आबोहवा भी उनके लिए एकदम नई थी। नया शहर, नये लोग। किंतु अपने वाक चातुर्य तथा व्यवहार से उन्होंने वहां भी बहुत जल्दी राजनीतिक व प्रशासनिक क्षेत्र में अपनी पैठ बना ली। चूंकि उन दिनों छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा था अतः आईएएस व अन्य वरिष्ठ अफसरों की पदस्थापना कभी न कभी रायपुर में होती ही थी। उनमें से अनेक गिरिजा के मुरीद थे ही लिहाजा उनके जरिए भोपाल में सम्पर्क बढाने में गिरिजा को कोई दिक्कत नहीं हुई। उनके विस्तारित सम्पर्कों का लाभ एक्सक्लुसिव खबरों के रूप में अखबार को मिलने लगा। बहुत जल्दी राजनीति व सत्ता के इन गलियारों में उनकी वैसी ही तूती बोलने लगी जैसी रायपुर में बोलती थी। फिर गिरिजा भोपाल में रम गये सो रम गए। रायपुर नहीं लौटे। हालांकि छत्तीसगढ़ से उनका संबंध अटूट है। वर्षों पहले देशबंधु से अलग होने के बाद अब वे स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं तथा राजनीतिक विश्लेषक के रूप में इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया में नजर आते रहते हैं।
गिरिजा के बारे में कुछ बातें और। एक नवंबर वर्ष 2000 को मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ नया राज्य बना और अजीत जोगी के नेतृत्व में पहली सरकार कांग्रेस की बनी। फिर 2003 से 2018 तक भाजपा का शासन रहा। इस दौरान गिरिजाशंकर दोनों सरकारों के चहेते रहे। उनका छत्तीसगढ़ प्रवास काफी बढ गया। वे मुख्यमंत्री रमन सिंह के शासकीय आवास में नजर आते थे। एक तरह से वे उनके तथा राज्य के लोकप्रिय मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के अघोषित सलाहकार थे। उच्च अधिकारियों से खैर उनकी अच्छी छनती ही थी। लेकिन उनके जीवन वृत्त (बायोपिक) का फिल्मांकन घोर आश्चर्य की बात है। गिरिजाशंकर छत्तीसगढ़ के ऐसे पहले पत्रकार हैं जिनकी बायोपिक बनी है जबकि राज्य की पत्रकारिता में अनेक दिग्गज हुए जिन पर फिल्म तो कौन कहे, उनकी छोटी-मोटी जीवनियाँ तक नहीं छपीं। ऐसे में गिरिजा पर बायोपिक का बनना विशुध्द रूप से आपसी संबंधों के निर्वहन का मामला दिखता है।
इस बायोपिक का प्रदर्शन भाजपा शासन के अंतिम दौर यानी 2018 में राजधानी के एक बडे होटल में हुआ। गिरिजा की ओर से मैं भी आमंत्रित था। उन पर यह फिल्म मुम्बई की किसी कंपनी ने बनाई थी। फिल्म के प्रदर्शन समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह, उनके खासमखास अधिकारी अमन सिंह, कुछ मंत्री व अधिकारी गण उपस्थित थे। फिल्म की लागत कितनी थी? पैसों का भुगतान किसने किया व इसके निर्माण की वजह क्या थी? यह अज्ञात है। पर यह बात मानी जा सकती है कि राज्य सरकार के इशारे पर इसकी निर्मिति हुई होगी तथा सरकारी या अन्य अघोषित स्त्रोतों से कंपनी को इसका भुगतान हुआ होगा वर्ना गिरिजा को क्या जरूरत पडी थी कि अपना पैसा लगाकर खुद पर फिल्म बनाए ? यकीनन नहीं।
गिरिजा से मेरीअच्छी दोस्ती है। जब तक हम देशबंधु में रहे, हम दोस्तों, सोहन अग्रवाल, भरत अग्रवाल, दीपक पाचपोर, लियाकत अली , निर्भीक वर्मा व प्रदीप जैन के बीच खूब छनती थी। बाद में सभी के रास्ते अलग अलग हो गए। गिरिजा भोपाल गए तो भोपाल के ही होकर रह गए। आमतौर फर रायपुर आने पर उनका पता तब चलता था जब वे भोपाल वापसी के लिए ट्रेन पकड चुके होते। धीरे धीरे बातें व मुलाकातें भी कम होते चली गई। लेकिन हमारे बीच संबंधों की ऊर्जा वैसी ही है जैसी देशबंधु के दिनों में थी। अफसोस सिर्फ इस बात का है कि एक बेहद प्रतिभाशाली मित्र जो पत्रकारिता में उच्च शिखर को स्पर्श कर सकता था, बीच रास्ते में ठहर गया, और आगे नहीं बढा। सत्ता केन्द्रित राजनीति व सुविधाभोगी पत्रकारिता के गठजोड़ से प्रतिभाशाली पत्रकार किस तरह रास्ता भटक जाते हैं, उसके ढेरों उदाहरण हैं और मेरी दृष्टि में गिरिजाशंकर भी ऐसे ही एक उदाहरण बन गए हैं।
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भरत अग्रवाल मेरे अभिन्न मित्र हैं। हमारी चौकडी थी। मैं, कृष्ण कुमार विश्वकर्मा, विमल चंद बेगानी व भरत अग्रवाल। इनमें से भरत पत्रकार थे। मेरी उनसे पहली मुलाकात वर्ष 1969 में नयी दुनिया ( देशबंधु ) में हुई। बातचीत के बाद पता चला हम दोनों लगभग पडोसी हैं। मैं अमीन पारा, महामाया मंदिर परिसर स्थित मकान में रहता था व भरत दानी पारा में। मोहल्ले अलग थे पर हम दोनों के मकानों के बीच का फासला पांच सौ मीटर से भी कम था। चूंकि दोनों के घर आसपास ही थे लिहाजा प्रायः रोज एक दूसरे के यहां आनाजाना था। पर नयी दुनिया के संपादकीय विभाग में मेरा व उनका लंबा साथ नहीं रहा। एक दिन भरत ने बताया कि ललित जी उन्हें जगदलपुर भेजना चाहते हैं। समूचे बस्तर की खबरें वे करेंगे। उन्होंने वहां जाने हामी भर दी है। यह सुनकर मुझे थोड़ा अफसोस हुआ। भरत के साथ आत्मीय संबंध बन गए थे। लेकिन तसल्ली इस बात से हुई कि भले ही वे जगदलपुर में रहे, उनसे समाचार के सिलसिले में प्रायः हर दिन टेलीफोन पर संवाद का सिलसिला बना रहेगा।
भरत जगदलपुर चले गए। कुछ दिन अकेले रहे। फिर परिवार को ले गए। एक अजनबी शहर को जानना, पहचानना, लोगों से परिचय बढाना व खबरों के लिए भागदौड़ करना आसान नहीं था पर भरत चंद दिनों में ही व्यवस्थित हो गए। डाक से उनकी खबरों के लिफाफे आने लग गए तथा महत्वपूर्ण घटनाक्रमों का ब्योरा देने रात, देर रात टेलीफोन। टेलीफोन पर उनके समाचार प्रायः मैं ही नोट करता था। वे पहले पूछते थे कि ड्यूटी पर कौन है। जब मेरा नाम बताया जाता तब उन्हें संतोष रहता कि खबरें ठीक नोट होंगी व ठीक से छपेंगी। खबर नोट करने के अलावा हम थोड़ी बहुत इधर -उधर की बातें कर लेते थे।
उन दिनों माओवादी बस्तर में पैर जमाने व अपने प्रभाव क्षेत्र का दायरा बढाने की कोशिश कर रहे थे। उनका प्रारंभिक लक्ष्य ग्रामीणों का विश्वास अर्जित करना व उन्हें सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों व व्यापारियों के अत्याचार व शोषण से मुक्त करना था। उन दिनों हिंसा का वैसा तांडव नहीं था जैसा बाद के वर्षों में नजर आया अलबत्ता आतंक बरपाने की शुरुआत हो चुकी थी। ऐसे माहौल में पत्रकारिता जोखिम भरी थी जो अब और अधिक खतरनाक हो गई है। लेकिन तब चूंकि नक्सली प्रचार चाहते थे अतः वे संवाददाताओं को जंगल में अपने ठिकाने आमंत्रित करते थे। बस्तर व बस्तर के बाहर के अनेक संवाददाता उनके शिविरों में ले जाए गये जहां से लौटकर उन्होंने माओवादियों की गतिविधियों व उनके लक्षित इरादों का चित्र खींचा। बस्तर को छानने वाले, उसकी एक एक इंच जमीन को नापने वाले यों बहुत से पत्रकार हैं , राज्य के और राज्य के बाहर के भी लेकिन जिन दो लोगों को मैं जानता हूँ , उनमें एक भरत अग्रवाल थे व दूसरे कांकेर के बंशीलाल शर्मा। उन्होंने प्रदीर्घ यात्राएं की, वन ग्रामों में रहे, आदिवासियों के जीवन को नजदीक से देखा-परखा, उनके शोषण को महसूस किया व रिपोर्टिंग की। तब के बस्तर को जानना हो तो देशबंधु में छपी उनकी रिपोर्ट्स महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता से फुर्सत पाने के बाद वे चाहते तो अपने अनुभव लिख सकते थे। लेकिन वे टालते रहे। उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया जबकि उनके पास यादों का भंडार हैं।
भरत दीर्घ अवधि तक जगदलपुर में रहे। पन्द्रह-बीस वर्ष। बाद में उनका तबादला भोपाल कर दिया गया। कुछ ही महीनों बाद उन्हें इन्दौर भेज दिया गया। इंदौर से जब वे रायपुर लौटे तो बोरिया-बिस्तर को साथ में ले आए। उन्होंने इस्तीफा दे दिया व पत्रकारिता से ही तौबा कर ली।

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(अगली कड़ी शनिवार 13 नवंबर को)

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