उम्मीदों के पहाड़ पर तीसरी पारी

राज्य विधानसभा चुनाव में सत्ता की हैट्रिक जमाने वाले मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह क्या अगले पांच साल तक निर्द्वंद्व होकर शासन कर सकते हैं? क्या जनता की अपेक्षाओं का बोझ वे बखूबी झेल पाएंगे? क्या वे फिर विपक्ष की धार को उसी तरह बोथरा बना देंगे जैसा कि सन् 2003 एवं 2008 के अपने शासनकाल में उन्होंने कर दिखाया था? क्या अगले पांच सालों में अपनी पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र पर शत-प्रतिशत अमल कर पाएंगे? क्या सरकार की चाल-ढाल एवं चेहरे में कोई रद्दोबदल होगा? सरकार पूर्वापेक्षा ज्यादा जनोन्मुखी तथा संवेदनशील होगी या तीसरा कार्यकाल उसे निरंकुशता की ओर ले जाएगा? क्या वे सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार को न्यूनतम स्तर पर ले जा सकेंगे? इस तरह के और भी कुछ सवाल हैं जो अब प्रबुद्घ जन-मानस में उमड़-घुमड़ रहे हैं। इसका बेहतर जवाब मुख्यमंत्री स्वयं तथा उनकी सरकार ही दे सकेगी पर इसमें जरा भी संशय नहीं कि उनके सामने अनेक चुनौतियां हैं जिनका सामना उन्हें तथा उनकी सरकार को करना है। विशेषकर जनअपेक्षाओं का दबाव पूर्व की तुलना में अधिक इसलिए होगा क्योंकि राज्य के मतदाताओं ने बड़ी उम्मीदों के साथ उन्हें तीसरी बार सत्ता सौंपी है।

जहां तक चुनौतियों का सवाल है, मुख्यमंत्री के सामने बड़ी समस्या है, भ्रष्टाचार से निपटने एवं शासन के कामकाज में पारदर्शिता की। भ्रष्टाचार ने सरकार की छवि को बहुत मलिन किया है। यह अलग बात है कि भाजपा चुनाव जीत गई लेकिन आमचर्चाओं में भ्रष्टाचार एवं उससे निपटने में सरकार की उदासीनता की जमकर आलोचना होती रही है। भ्रष्टाचार के आरोपों की गिरफ्त में आए उच्च प्रशासनिक अधिकारियों को कथित अभयदान भी चर्चाओं के केन्द्र में रहा है। लोकप्रियता का दावा करने वाली किसी भी सरकार के लिए ऐसी चर्चाएं असहनीय होनी चाहिए लेकिन दुर्भाग्य यही है कि ये चर्चाएं पिछले दस सालों में सरकार के साथ-साथ चलती रही हैं। अब उम्मीद की जानी चाहिए सरकार ऐसी चर्चाओं पर विराम लगाने के लिए अपने कामकाज में सुधार के जरिए सकारात्मक संदेश देने की कोशिश करेगी। जाहिर है इसके लिए उसे प्रशासन से जुड़े प्रत्येक कार्य में पारदर्शिता लानी पड़ेगी।

सरकार को यह भी सोचना होगा कि बस्तर और सरगुजा में भरपूर ध्यान देने के बावजूद सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस से क्यों कमतर रही? चाहे मुख्यमंत्री रमन सिंह की विकास यात्रा हो या ग्राम सुराज अभियान, उसका श्रीगणेश दंतेवाड़ा से किया गया, बस्तर और सरगुजा में मुख्यमंत्री ने पिछले पांच सालों में अरबों के विकास कार्यों की सौगातें दीं लेकिन ऐसा क्या हुआ कि बस्तर में उसके हाथ से 7 सीटें निकल गई जबकि 2008 के चुनाव में उसे 12 में से 11 सीटें मिली थीं। क्या जीरम घाटी नक्सली हमले में दिग्गज कांग्रेसियों की मौत पार्टी पर कहर बनकर टूटा? क्या विकास कार्यों में हुआ भारी भ्रष्टाचार उसे ले डूबा अथवा नक्सली आतंक से उसके खिलाफ मतदान हुआ या फिर स्थानीय समस्याओं यथा सड़क, नाली, बिजली, पानी तथा खस्ताहाल लोक स्वास्थ्य ने उसका मार्ग रोका? दरअसल आजादी के 66 वर्षों के बावजूद बस्तर के घने जंगलों में बसे आदिवासियों तक प्रशासन की कोई पहुंच नहीं है तथा उनका जीवन भगवान भरोसे है। मतलब स्पष्ट है कि बस्तर में अरबों रुपए मुख्यत: ग्रामीण स्वास्थ्य, पेयजल, शिक्षा तथा सड़क और बिजली की व्यवस्था के नाम पर जो खर्च किए गए, वे बेमानी हैं, कागजों पर हैं। अन्यथा स्थानीय समस्याओं पर हुआ मतदान भाजपा के खिलाफ नहीं जाना चाहिए था। मुख्यमंत्री को अब अपने अगले पांच सालों में बस्तर में वास्तविक विकास पर ध्यान देना होगा। यदि वास्तविक विकास हुआ होता तो जाहिर है, नक्सली समस्या पर भी कुछ हद तक काबू पाया जा सकेगा।
अपने चुनावी घोषणापत्र में पार्टी ने जनता से जो वायदे किए हैं, उन पर अमल की शुरुआत मुख्यमंत्री ने अपनी तीसरी पारी के पहले दिन से ही कर दी है। इनमें प्रमुख हैं आगामी 1 जनवरी से 47 लाख परिवारों को एक रुपए किलो चावल तथा किसानों को धान पर प्रतिवर्ष 300 रु. प्रति क्विंटल बोनस। धान का समर्थन मूल्य 2100 रु. निर्धारित करने के लिए मुख्यमंत्री ने गेंद केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है। घोषणा पत्र के अन्य वायदों पर अमल इसलिए भी कठिन नहीं है क्योंकि सभी सामान्य है, भारी-भरकम  नहीं, लिहाजा उन पर अमल करने में सरकार को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।

मुख्यमंत्री के 2003 एवं 2008 के शासनकाल में जो सबसे बड़ी कमी महसूस की गई थी, वह थी प्रशासन पर उनकी कमजोर पकड़। मुख्यमंत्री ने अपनी छवि को साफ-सुथरी बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी किंतु प्रशासन को उन्होंने इतना ढीला छोड़ दिया कि वह स्वेच्छाधारी हो गया। इसलिए प्रशासनिक कसावट पहली जरूरत है। चूंकि डॉ.रमन सिंह को तीसरा कार्यकाल मिला है लिहाजा यह उम्मीद की जाती है कि वे अब प्रशासनिक ढिलाई बर्दाश्त नहीं करेंगे तथा उसमें भरपूर पारदर्शिता लाएंगे। शासन-प्रशासन के स्तर पर एक और बड़ी जरूरत है कामकाज पर सतत निगरानी की। जनहित की योजनाएं तो बहुतेरी हैं किंतु उन पर अमल का पक्ष उतना ही कमजोर। भ्रष्टाचार के फलने-फूलने की यह एक बड़ी वजह है। राज्य में विकास के अरबों रुपए के काम हो रहे हैं, और यह स्थापित सत्य है कि मंत्रियों, राजनेताओं, अफसरों से लेकर शासकीय सेवा के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति तक कमीशनखोरी रोजाना के व्यवहार में शामिल है। कल्पना की जा सकती है कि राज्य में भ्रष्टाचार किस कदर भयानक है। इसे खत्म करना तो नामुमकिन है अलबत्ता इसे सीमित जरूर किया जा सकता है। शासन के सामने यह एक बड़ी चुनौती है।

मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह को यह भी ध्यान में रखना होगा कि प्रदेश में गरीबी बढ़ी है, कुपोषण के मामले में भी छत्तीसगढ़ देश के आंकड़ों में आगे है। यह ठीक है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की सुगठित व्यवस्था को तारीफ मिली है किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि दूरदराज के आदिवासियों को सस्ते राशन के लिए अभी भी मीलों पैदल चलना पड़ता है, नदी-नाले लांघने पड़ते हैं। एक रुपए किलो चावल या 4 रु. किलो चने से उनकी गरीबी दूर नहीं होगी, इसके लिए स्थायी रोजगार का सृजन करना होगा। भाजपा के घोषणापत्र में रोजगार की कोई गारंटी नहीं की गई है। कोई जिक्र नहीं है। यह अजीब सी बात है। राज्य में आईटी हब बनाने तथा नई औद्योगिक क्रांति लाने की पूर्व घोषणाएं भी थोथी साबित हुई हैं। राज्य को देश की ऊर्जा राजधानी बनाने का संकल्प तो वर्षों पुराना है? लेकिन हुआ क्या? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं, चुनौतियां हैं, जिन्हें पूरा करने का दायित्व सरकार का है। राज्य की कायापलट करने के लिए 15 साल काफी होते हैं। 10 साल निकल चुके हैं, शेष पांच सालों मेंं उम्मीदों के पहाड़ को लांघना है। क्या डॉ.रमन सिंह ऐसा कर पाएंगे?

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