झुलस गया लोकतंत्र

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का दु:ख और बढ़ गया होगा। 12 फरवरी को लोकसभा में अंतरिम रेल बजट पेश होने के दौरान जिस तरह के दृश्य उपस्थित हुए उन्हें देख प्रधानमंत्री का मन अवसाद से भर गया था। रेलवे मंत्री मल्लिकार्जुन खड़गे को तेलंगाना विरोधी सांसदों ने बजट भाषण नहीं पढ़ने दिया, खूब हंगामा बरपा किया, सरकार के मंत्री के.एस.राव, चिरंजीवी, डी.पुरंदेश्वरी और सूर्यप्रकाश रेड्डी जोर-शोर से चिल्लाते रहे। और तो और चिरंजीवी और सूर्यप्रकाश रेड्डी तो लोकसभा स्पीकर के सामने वेल में कूद गए। भारी हंगामे और विरोध की वजह से रेलवे मंत्री केवल 20 मिनट भाषण पढ़ पाए। ऐसा पहली बार है जब हंगामे की वजह से किसी मंत्री को अपना बजटीय भाषण आधा-अधूरा छोड़ना पड़ा हो। प्रधानमंत्री का दु:खी होना स्वाभाविक था क्योंकि उनकी अपील का भी कोई असर नहीं हुआ। प्रधानमंत्री ने कहा- मंत्रियों की करतूत से लोकतंत्र शर्मसार हुआ है।

लेकिन संसदीय गरिमा की अगले ही दिन यानी 13 फरवरी को और धज्जियां उड़ गई। कल से कहीं ज्यादा। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार लोकसभा में केंद्र सरकार ने तेलंगाना विधेयक पेश किया। आंध्रप्रदेश को विभाजित कर अलग से तेलंगाना राज्य बनाने के सरकार के फैसले के पक्ष और विपक्ष में देश की राजनीति उसी दिन से गर्म है जिस दिन केन्द्र ने आंध्र के विभाजन की मांग आधिकारिक रूप से स्वीकार की। दरअसल इस मुद्दे पर वर्षों से आंध्र झुलस रहा है। इसकी चिंगारी आज लोकसभा में शोले के रूप में उस समय तब्दील हुई जब कांग्रेस से निष्कासित सांसद एल.राजगोपाल ने सदन में मिर्च पावडर का स्प्रे किया। टीडीपी सांसद वेणुगोपाल ने चाकू लहराया और शीशों को तोड़ने की कोशिश की। कुछ सांसद आपस में गुत्थम-गुत्था हुए और सदन बेइंतिहा शोर-शराबे और हंगामे में डूब गया। स्प्रे की वजह से भगदड़ की स्थिति पैदा हो गई तथा  भारी अफरा-तफरी मची। चीखते, चिल्लाते और आंखों से आंसू पोछते सांसद सदन से बाहर निकल गए। कुछ को अस्पताल में पहुंचाया गया है। कुल मिलाकर सदन में अजीबो-गरीब स्थिति पैदा हो गई जो बेहद दु:खद थी। लोकसभा में संसदीय मर्यादाओं का उल्लंघन यद्यपि पहले भी कई बार हुआ है, माइक तोड़े गए हैं, आस्तीने चढ़ाई गई हैं और अपशब्द कहे गए हैं लेकिन आज जैसा दृश्य अभूतपूर्व है। ऐसी घटना संसदीय इतिहास में पहले कभी घटित नहीं हुई। ऐसा आक्रोश जो लोकतंत्र को तार-तार कर दे, पहले कभी अभिव्यक्त नहीं हुआ। लोकसभा अध्यक्ष ने फौरी कार्रवाई के रूप में 18 सांसदों को निलंबित कर दिया है। तेलंगाना विधेयक अब शायद इस सत्र में पारित नहीं हो सकेगा।

राज्यों के पुनर्गठन को लेकर जनआंदोलन पहले भी होते रहे हैं। आंदोलनों के दौरान छिटपुट हिंसा भी हुई लेकिन संसद में या प्रभावित राज्यों की विधानसभाओं में पृथक राज्य विधेयक को लेकर ऐसी अभद्रता की नौबत कभी नहीं आई। 12 वर्ष पूर्व सन् 2000 में बिहार, उ.प्र. और म.प्र. के हिस्सों को काटकर तीन नए राज्य उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ बने जिनके पीछे आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है लेकिन बिना किसी खून-खराबे के राज्यों की जनता ने तहेदिल से विभाजन को स्वीकार किया। आंध्रप्रदेश के विभाजन का मुद्दा भी काफी पुराना है। प्रदेश के गठन के 12 वर्ष बाद ही तेलंगाना के लिए चिंगारियां फूट पड़ी थी। सन् 1969 के दौरान तो आंदोलन इतना उग्र हुआ कि उसे कुचलने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी जिसमें करीब 350 लोग मारे गए जिसमें अधिकांश छात्र थे। पृथक राज्य के लिए इतनी जानें किसी और आंदोलन में नहीं गई। बहरहाल तब से लेकर अब तक यानी 44 वर्षों में आग कभी बुझी नहीं। बीच-बीच में अंगारों पर राख जरूर पड़ती रही लेकिन वे भीतर ही भीतर धधकते रहे और आज अंतत: उसकी आंच से लोकतंत्र झुलस गया। आंध्र के विभाजन की यह आग कैसे बुझेगी, कहना मुश्किल है। फिलहाल तो यह मामला टल गया, लगता है। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस की दिक्कतें कम नहीं होंगी। सामने लोकसभा चुनाव है और आंध्र की 42 लोकसभा सीटें दांव पर लगी हुई हैं। प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता है लेकिन इस मुद्दे पर वह स्वयं विभाजित है। राज्य में किरण रेड्डी की सरकार विभाजन के खिलाफ है यानी केन्द्रीय नेतृत्व का फैसला उसे मंजूर नहीं है। दरअसल तेलंगाना मामले पर 30 जुलाई 2013 को कांग्रेस कार्यपरिषद के तेलंगाना बनाने के निर्णय के बाद पार्टी आंतरिक संकटों से जूझ रही है। यद्यपि उसने फैसला लिया है लेकिन उसकी हालत इधर खाई और उधर कुएं जैसी है। पार्टी को उम्मीद नहीं थी कि तेलंगाना के विरोध में इतना जबर्दस्त माहौल बनेगा और खुद उसके मुख्यमंत्री, मंत्री, केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक किसी भी हद तक जाने तैयार रहेंगे। देश में कई तरह की राजनीतिक चुनौतियों से जूझ रही कांग्रेस के लिए इस मुद्दे को सुलझाना आसान नहीं है। वह मुख्यत: अपनों के ही निशाने पर है। अब उसकी बेहतरी तो इसी में है कि वह कम से कम लोकसभा चुनाव तक इस मुद्दे को लटकाए रखे। चूंकि विधेयक लोकसभा में पेश हो चुका है और मौजूदा संसद का यह अंतिम सत्र भी है लिहाजा विधेयक को लंबित रखना सहज है। जाहिर है लोकसभा चुनाव के बाद नई सरकार बनने तक इस मसले पर अगली कार्रवाई की संभावना नहीं है।

जहां तक लोकसभा में सांसदों के आचरण का प्रश्न है, उस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। लोकसभा में एक सदस्य चाकू तथा दूसरा मिर्ची पावडर लेकर पहुंच सकता है, तो और भी हथियार लेकर आने में क्या दिक्कत है? सुरक्षा के मौजूदा उपायों पर गौर करने एवं आवश्यकतानुसार नई व्यवस्था बनाने की जरूरत है। यद्यपि हंगामा करने वालों के खिलाफ निलंबन जैसी कार्रवाई की गई है लेकिन क्या वह काफी है? चूंकि लोकतंत्र कलंकित हुआ है अत: दोषियों की संसद सदस्यता खत्म करने एवं आपराधिक प्रकरण दर्ज करने से कम कोई बात नहीं होनी चाहिए ताकि औरों के लिए वह नज़ीर बने। यह भी उम्मीद की जाती है कि संबंधित पार्टियां अपने ऐसे लोगों के खिलाफ बर्खास्तगी की कार्रवाई करे। दो दिन पूर्व कांग्रेस ने अपने 6 सांसदों को पार्टी से निष्कासित किया था। आंध्र प्रदेश के ये सांसद पृथक तेलंगाना राज्य के विरोध में लगातार संसद की कार्रवाई में बाधा डाल रहे थे तथा उन्होंने संप्रग सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया था। कांग्रेस को ऐसे ही सख्त कदम उठाने की जरूरत है क्योंकि तेलंगाना का मुद्दा उसकी प्रतिष्ठा का प्रश्न है। लोकसभा में हुए हंगामे से उसकी भी किरकिरी हुई है।

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