कांग्रेस के पास पुन: मौका

- दिवाकर मुक्तिबोध
दो राज्यों महाराष्ट्र व हरियाणा में विधान सभा चुनाव की तिथि का एलान हो गया है। इनके साथ ही विभिन्न प्रांतों की 64 विधान सभा सीटों के लिए भी उपचुनाव होंगे। इनमें छ्त्तीसगढ़ की चित्रकोट भी शामिल है।मई में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव में भीषण पराजय के झटके से कांग्रेस कितनी उबर पाई है और उसने कितनी ताकत बटोरी है , उसे परखने का यह एक मौका है। चूँकि महाराष्ट्र व हरियाणा में भाजपा की सरकार है इसलिए कांग्रेस के बनिस्बत उसकी साख ज्यादा दाँव पर है और उसे यह भी जताना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सम्मोहन ज़रा भी खंडित नहीं हुआ है। महाराष्ट्र में भाजपा ने पिछले चुनाव में कुल 288 में से 122 जीती थी जबकि कांग्रेस ने 42। हरियाणा में दोनों के बीच 32 सीटों का फ़ासला था। वहाँ विधान सभा की 90 सीटें है। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस अपनी स्थिति कितनी सुधार पाएगी या और नीचे गिरेगी , यह तो स्पष्ट होगा ही पर इस संदर्भ में यह तथ्य भी ध्यान रखने योग्य है कि राज्य व केन्द्र के मुद्दे अलग अलग होते है जो चुनाव परिणामों को प्रभावित करते हैं। इसलिए विधान सभा चुनावों में स्थानीय मुद्दों पर भारी पड़ेगा मोदी का जादू , ऐसा भाजपा का सोचना स्वाभाविक ही है। किंतु दस माह पूर्व तीन राज्यों छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश व राजस्थान के विधान संभा चुनाव के नतीजों के संदर्भ में देंखें तो उसकी यह सोच ध्वस्त हो सकती है। इन तीन राज्यों में भाजपा के राजकाज के ख़िलाफ़ जनआक्रोश इतना ज़बरदस्त था कि मोदी लहर भी इच्छित नतीजे नहीं दे पाई जबकि देशभर में वह फर्राटे से बह रही थी। वह लहर अभी भी कथित राष्ट्रवाद के रूप में लोगों के दिलोदिमाग़ पर सवार है। इसलिए संभव है कि दोनों राज्यों में विशेषकर हरियाणा में सरकार के ख़िलाफ़ गहरे असंतोष के बावजूद मतदाता मोदी को देखकर वोट करे। इस स्थिति में यदि भाजपा वापसी करती है तो उसकी एक बडी वजह होगी कमज़ोर विपक्ष और उसका निरंतर हाशिए पर बने रहना।
बात कांग्रेस की । उसकी राजनीति जिस दिशा की ओर बढ़ती दिख रही है , उससे प्रतीत होता है कि वह गिर-गिर कर उठने की मुद्रा में आ गई है। वोटों की राजनीति में हुई तमाम ग़लतियों से सबक़ लेते हुए पार्टी ने बिदके हुए दलितों व पिछड़े वर्ग के वोट बैंक को साधने का अभियान शुरू कर दिया है। ताज़ा उदाहरण राजस्थान का है जहाँ बसपा के सभी 6 विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष बनने के बाद यह पहिला बडा घटनाक्रम है। वे राज्यों की वास्तविक राजनीतिक स्थितियों को भाँपकर वरिष्ठ व कनिष्ठों के बीच संतुलन बनाते हुए क्षत्रपों का महत्व पुनर्स्थापित कर रही है। यह प्रतीत होता है कि पार्टी दरअसल महासचिव प्रियंका गांधी की राजनीतिक वैचारिकता पर काम कर रही है और जिनकी आक्रामक रणनीति के परिणाम नज़र आने लगे हैं। इसे उत्तरप्रदेश के ताक़तवर बसपा नेता नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी के कांग्रेस में शामिल होने की घटना से भी समझा जा सकता है। प्रियंका के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि पार्टी दोहरे नेतृत्व से संचालित है पर जहाँ न तो अहंम का कोई टकराव है और न ही समानांतर सत्ता के दो केन्द्र है। लेकिन यह लगभग तय लगता है कि सोनिया गांधी के बाद बडा सवाल यह रहेगा कि पूर्णकालिक अध्यक्ष कौन बनेगा। बागडोर प्रियंका के हाथों में होगी या फिर राहुल लौटेंगे क्योंकि पार्टी को एकजुट रखने व आगे बढ़ाने की ताकत गांधी परिवार के अलावा किसी में नहीं है। राहुल गांधी के इस्तीफ़े के बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी के पास गांधी परिवार से बाहर किसी को अध्यक्ष चुनने का पूरा मौका था और ऐसी राहुल गांधी की भी इच्छा थी लेकिन विचार -विमर्श के लिए बहुत समय लेने के बावजूद कमेटी किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाई और अंतत: उसकी दृष्टि सोनिया गांधी पर आकर टिक गई। जाहिर है , कांग्रेस गांधी परिवार के बिना चल नहीं सकती। और यह ठीक भी है क्योंकि आंतरिक संकटों से उबरने के लिए पार्टी को इस समय अविवादित व सबल नेतृत्व की ज़रूरत है।
मई में लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद कांग्रेस में जो कुछ घटित हुआ, वह उसके 134 वर्षों के इतिहास का सबसे खराब अध्याय है। राहुल गाँधी के नेतृत्व की असफलता के बाद सोनिया गांधी पर इस बात की भारी ज़िम्मेदारी है कि वे कांग्रेसजनों के बीच पुनर्विश्वास की स्थापना करे , उनमें ऊर्जा भरे , उन्हें ज़मीनी स्तर पर भाजपा से मुक़ाबले के लिए तैयार करें तथा उन्हें मोदी के प्रभामंडल के आतंक से मुक्त रहने की हिदायत दें। और यह समझाइश भी कि मोदी हर बार इतनी बडी मार्जिन से चुनाव नहीं जीत सकते और न बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक , राष्ट्रवाद और कश्मीर में धारा 370 के मुद्दे को लंबे समय तक भुना सकते हैं। लिहाजा उनकी अपील है कि नेता व कार्यकर्ता चुनावी वायदों व सरकार की असफलताओं को ज़ोर-शोर से उठाएँ व जनता के साथ घुल-मिल जाएँ। कांग्रेस के पास नीचे से उपर उठने का एकमात्र यहीं रास्ता है। और इस रास्ते को बनाने का काम सोनिया गाँधी कर रही है जो असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पतन के बाद एक के बाद एक नेताओं के पाला बदलने के सिलसिले को देखते हुए यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या कांग्रेस अपने सुनहरे दिनों की ओर लौट पाएगी ? यदि यह सवाल राजनीति में तनिक भी दिलचस्पी रखने वाले किसी से भी पूछा जाए तो करीब-करीब एक जैसा ही जवाब होगा - मुश्किल है, बहुत मुश्किल । लेकिन इसके साथ यह भी चिपका होगा कि असंभव नहीं। क्योंकि राजनीति का चरित्र ही ऐसा है जहाँ कुछ भी नामुमकिन नहीं। इसके दर्जनों उदाहरण हैं। कौन सोच सकता था कि कभी राबड़ी देवी बिहार में और अरविंद केजरीवाल दिल्ली या योगी आदित्य नाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन जाएँगे। लेकिन बन गए। कौन सोच सकता था कि कांग्रेस की इतनी बुरी गत होगी कि वह बिखरने के कगार पर पहुँच जाएगी। राजनीति में बनने-बिगड़ने के अनेक उदाहरण हैं जो व्यक्तिश: भी है और संगठन के स्तर पर भी। कांग्रेस अनेक बार खंड -खंड हुई है लेकिन इसके बावजूद जन-समर्थन के बल पर वह खड़ी हो गई। दरअसल पार्टी में विश्वास का संकट बाहर से नहीं , भीतर से है। खुद का ओढ़ा हुआ है। लोकसभा का 2014 का इलेक्शन हारना व नरेन्द्र मोदी का तिलिस्म एक ऐसी अप्रत्याशित घटना थी जिससे आइंदा के लिए सबक़ लेने की ज़रूरत थी किंतु कांग्रेस अतिआत्मविश्वास का शिकार रही इसलिए 2019 के लोकसभा चुनाव में वह हवा के रूख को भाँप नहीं सकी। चुनाव के अंतिम महीनों में भाजपा के प्रायोजित राष्ट्रवाद का उसके पास कोई तोड़ नहीं था और न ही उसने जनमानस पर इसके असर का ठीक-ठीक आकलन किया। नतीजा वैसा ही निकला जिसका हिसाब भाजपा ने पहले ही लगा रखा था। जाहिर था , कांग्रेस को खुद का घर संभालना मुश्किल हो गया। इसका दुष्परिणाम अनुशासन पर पड़ा जो लोकसभा चुनाव के चार महीने बीत जाने के बावजूद पटरी पर नहीं है और कांग्रेस शासित राज्यों विशेषकर मध्यप्रदेश व राजस्थान में वहाँ के सूरमाओं के बीच जारी सत्ता -संघर्ष सुर्ख़ियों में रहा है । कर्नाटक वैसे ही कांग्रेस के हाथ से निकल चुका है।
सोनिया गांधी को कमान संभाले अभी दो महीने भी पूरे नहीं हुए हैं। उन्होंने दस अगस्त को पार्टी की बागडोर हाथ में ली और 12 सितंबर को संगठन पदाधिकारियों की अहम बैठक में कुछ सूत्र दिए जिनमें महत्वपूर्ण है 5 करोड नए सदस्य बनाने का राष्ट्रव्यापी अभियान। इसके साथ ही आर्थिक मोर्चे पर केन्द्र सरकार की विफलता, बेरोज़गारी व महँगाई के ख़िलाफ़ देशभर में वातावरण बनाने का लक्ष्य। काश्मीर में धारा 370 व असम में एनसीआर जैसे मुद्दे पर विरोधाभासी बयानबाज़ी से बाज़ आने की नसीहत। इस बैठक के बाद राज्यों के वरिष्ठ नेताओं के बीच तनाव कुछ ढीला पड़ा है हालाँकि केन्द्रीय नेतृत्व की आलोचना का दौर थमा नहीं है। ताज़ा उदाहरण दिग्विजय सिंह के भाई व मध्यप्रदेश के विधायक लक्ष्मण सिंह का है जिन्होंने किसानों की क़र्ज़ माफ़ी के मामले में राहुल गांधी को जनता से माफ़ी माँगने कहा है तथा बड़े नेताओं व कार्यकर्ताओं के बीच पड़ी खाई को रेखांकित किया है। उनका आरोप है कि बड़े नेताओं तक आम कार्यकर्ता का पहुँच पाना मुश्किल है।
यह तय है कि कांग्रेस को झटके से उबरने में काफी वक़्त लगेगा लेकिन मरम्मत की शुरूआत बेहतर ढंग से हुई है। लक्ष्य 2024 का लोकसभा चुनाव है। वक़्त पर्याप्त है बशर्ते आक्रामक नीति व स्वअनुशासन पर फ़ोकस रहे। भाजपा चूँकि कश्मीर में धारा 370 के बहाने पुन: राष्ट्रवाद के तूफ़ान पर सवार है लिहाजा महाराष्ट्र , हरियाणा विधानसभा चुनावों में बहुत उम्मीद भले ही न रखी जाए पर कोशिश होनी चाहिए कि प्रदर्शन सुधरे। ये चुनाव कांग्रेस के भविष्य का संकेत ज़रूर देंगे। महाराष्ट्र में एनसीपी के साथ पार्टी का गठबंधन हो चुका है।हरियाणा में भूपिन्दर सिंह हुड्डा के बाग़ी तेवर ढीले पड़ चुके हैं तथा प्रदेश कांग्रेस की बागडोर अब कुमारी शैलजा के हाथ में है हालाँकि झारखंड में पूर्व आईएएस व पार्टी अध्यक्ष अजय कुमार के आम आदमी पार्टी में शामिल होने से कांग्रेस को झटका लगा है। पर राजस्थान में बसपा के सभी 6 विधायकों के कांग्रेस में आने से उस विश्वास की पुनर्स्थापना हुई कि वह कभी जड़ों से समाप्त नहीं हो सकती।
चूँकि सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष है इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि भविष्य में राहुल गाँधी की भूमिका क्या रहेगी। अभी वे किसी पद पर नहीं है और सामान्य कार्यकर्ता की हैसियत से पार्टी का काम कर रहे हैं। वे उस बैठक से भी दूर रहे जो सोनिया गांधी ने बुलाई थी और जिसमें राज्यों के अध्यक्ष भी मौजूद थे। रणनीतिक मामलों में भी फिलहाल उनका कोई रोल नहीं है। ऐसे में यह सहज जिज्ञासा है कि राहुल कब तक कोई पद नहीं लेंगे ? अगले लोकसभा चुनाव तक जो 2024 में होंगे ? और क्या आगे चलकर उन्हें अपनी छोटी बहन की लीडरशिप मंज़ूर होगी? या वे उनके लिए त्याग करेगी अथवा क्या परिवार में सत्ता संघर्ष शुरू हो जाएगा जो पहले कभी नहीं हुआ। इन सवालों का इस समय कोई जवाब नहीं है क्यों कि ये बहुत गौण है, महत्वहीन है। अगले आम चुनाव तक यदि पार्टी की स्थिति देशभर में सुधरी और उसने केन्द्र की सत्ता में वापस की तो फिर ये प्रश्न बड़े हो जाएँगे और जवाब माँगेंगे।

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