स्मार्ट विलेज, पता नहीं कब स्मार्ट बनेंगे

- दिवाकर मुक्तिबोध
      प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हाल ही में अमेरिका यात्रा के दौरान भारत के डिजिटल भविष्य पर लंबी चौड़ी बातें हुईं। कुछ वायदे हुए, कतिपय घोषणाएँ हुईं। मसलन गूगल भारत में 500 रेलवे स्टेशनों को वाईफाई से लैस करने में मदद करेगा, एपल की सबसे बड़ी निर्माण कंपनी फॉक्सकान भारत में प्लांट लगाएगा, आईफोन 6 एस व 6 एस प्लस भारत में जल्द लॉच होंगे। एक ओर महत्वपूर्ण घोषणा हुई, माइक्रोसाफ्ट भारत के 5 लाख गांवों में कम कीमत पर ब्रांडबैंड कनेक्टिविटी उपलब्ध कराएगा।
      डिजिटल इंडिया के स्वप्नद्रष्टा नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा इस मामले में सफल कहीं जाएगी कि विश्व आईटी सेक्टर के दिग्गजों यथा सुंदर पिचई सीईओ गूगूल, जॉन चैम्बर्स सीईओ सिस्को, सत्य नड़ेला सीईओ माइक्रोसाफ्ट तथा पॉल जैकब्स प्रेसीडेंट क्वॉलकॉन ने डिजिटल क्षेत्र में भारत की प्रगति को शानदार बताते हुए मुक्तकंठ से मोदी की प्रशंसा की। इन आईटी प्रशासकों के विचारों का लब्बोलुआब यह था कि पीएम मोदी दुनिया बदल देंगे, उनके पास ग्लोबल विजन है और भारत इनोवेशन की धरती है। मोदी की प्रशंसा में काढ़े गए इन कसीदों की हकीकत कब सामने आएगी, यह समय बताएगा।
     किन्तु यह स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री देश की जनता को सुहाने सपने दिखा रहे हैं। 16 माह में 27 देशों की यात्रा करने वाले मोदी दूरसंचार के क्षेत्र में देश को विकसित देशों के समकक्ष ला खड़ा करेंगे? बड़ा सवाल है। लेकिन क्या इससे देश एवं जनता की बुनियादी जरुरतें पूरी हो सकेंगी? माइक्रोसाफ्ट ने कम कीमत पर 5 लाख गाँवों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी उपलब्ध कराने की बात मोदी से कही हैं पर क्या भूख, बेकारी एवं गरीबी से कलप रहे गाँवों की पहली जरुरत ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी है? प्रधानमंत्री ने न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की 70वीं वर्षगांठ पर कहा कि हमारे निर्धारित लक्ष्यों में गरीबी उन्मूलन सबसे ऊपर है। उन्होंने कहा कि सबके लिए आवास, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता हमारी प्राथमिकता है। हमारी सरकार ने नेटवर्क की जरुरत और मोबाइल फोन के इस्तेमाल से गरीबी पर जोरदार प्रहार किया है? क्या सचमुच? क्या गरीब इसे जानते हैं? दरअसल प्रधानमंत्री के इन दावों के बावजूद जमीनी हकीकत क्या है, किसी से छिपा नहीं हैं। यह ठीक है कि देश में मोबाइल क्रांति की वजह से बहुत सी चीजें आसान हुई हैं, सुविधाएं बढ़ी हैं लेकिन क्या देश के बहुसंख्य नागरिकों विशेषकर करोड़ों गरीबों के जीवन स्तर में कोई क्रांतिकारी बदलाव आया हैं? देश में गाँवों की संख्या 6 लाख से अधिक हैं। गरीबी पर ऑकड़ों की बात करें तो बीते दशक में गरीबी का स्तर कुछ घटा जरुर है। आंकड़े बताते है कि वर्ष 2004 - 2005 में देश की कुल आबादी के 37.21 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे थे। तत्कालीन केंद्र सरकार की योजनाओं की बदौलत वर्ष 2009-10 में गरीबी घटकर 29.8 प्रतिशत रह गई। योजना आयोग द्वारा जारी वर्ष 2013 के आंकड़े देखें तो 25.7 प्रतिशत ग्रामीण तथा 13.7 प्रतिशत शहरी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। वर्ष जून 2014 में जारी रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार 36 करोड़ 30 लाख यानी 29.5 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। इन आंकड़ों से जाहिर हैं गरीबी का प्रतिशत घट अवश्य रहा है लेकिन इसकी गति बहुत धीमी हैं। अब जरा गरीबी के संदर्भ में मोदी सरकार की प्राथमिकताओं पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि 6 लाख गाँवों में बुनियादी नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराने के संकल्प को पूरा करने के लिए कई दशक लग जाएंगे बशर्ते योजनाएँ भ्रष्टाचार के दंश से बची रहें। और जाहिर है मौजूदा व्यवस्था में यह नामुमकिन हैं। व्यवस्था पूरी तरह भ्रष्ट हैं।
      यकीनन बातें बड़ी-बड़ी हो रही हैं। डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत, स्किल भारत जैसे  राष्ट्रीय अभियानों से जनता की उम्मीदों को पंख दिए जा रहे हैं। वैश्विक मंदी के बावजूद आर्थिक मोर्चे पर देश की सुदृढ़ता की दुहाई दी जा रही हैं, लेकिन यह स्थापित सत्य है कि अमीरी- गरीबी के बीच खाई बढ़ती ही जा रही हैं। अमीरों का भारत बहुत छोटा सा हैं, गरीबों का भारत बहुत विशाल। पूंजी के केंद्रीयकरण की स्थिति यह है कि आज सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और तो और सांस्कृतिक क्षेत्रों में कारर्पोरेट हावी है। ऐसी स्थिति में बुनियादी समस्या यानी देश की गरीबी पर बतर्ज मोदी, मोबाइल अटैक कितना कारगर साबित होगा? क्या मोबाइल या दूरसंचार क्षेत्र में अत्याधुनिक तकनीकी से गरीबों की गरीबी मिट जाएगी? क्या उनका जीवन स्तर सुधरेगा? क्या उन्हें दो जून की रोटी आसानी से मयस्सर होगी? क्या हर हाथ को काम मिलेगा? क्या दूरस्थ आदिम क्षेत्रों में स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, सड़क, बिजली, पानी जैसी बुनियादी आवश्यकताएँ संभव हो सकेंगी? आजादी के 68 वर्षों के बाद भी हजारों की संख्या में ऐसे गाँव हैं जहाँ न बिजली हैं, न पानी, न सड़क, न स्कूल और न ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र। बरसात में टापू बनने वाले इन गाँवों में यदि मनुष्य जिंदा हैं तो केवल प्रकृति की मेहरबानी से। जीवन के अंधेरे से लड़ रहें इन गाँवों में बदलाव की बयार क्या मोबाइल क्रांति से आएगी? यकीनन दिल्ली बहुत दूर है।
      दरअसल आजादी के बाद ग्रामीण विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के बावजूद, पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत अरबों-खरबों रुपये खर्च करने के बावजूद अधिसंख्य गाँवों की सूरत नहीं बदली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यदि विदेशी बैंकों में जमा काला धन देश में वापस आएगा तो प्रत्येक नागरिक के खाते में 15-15 लाख रुपये जमा हो जाएंगे। अब तक एक भी पैसा भारत नहीं आया और बयान की लीपापोती कर दी गई। यह राजनीतिक हवाबाजी थी। जबकि बीते 68 वर्षों में गाँवों के उत्थान के नाम पर केंद्र व राज्य सरकारों के खजाने से निकले सफेद धन का अधिकांश हिस्सा काली कमाई के रुप में नेताओं, व्यापारियों, कारखानेदारों, पूंजी के दलालों, अधिकारियों व ठेकेदारों के बेनामी खातों में, बेनामी संपत्तियों के रुप में जमा हुआ और अभी भी होता जा रहा है। इस पर कोई नियंत्रण नहीं हैं इसलिए गाँवों का विकास अवरुद्ध है तथा वे अभी भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। ऋणग्रस्त किसानों, खेतिहर मजदूरों का जीवन कितना कष्टमय है इसका कारुणिक उदाहरण निरंतर बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं से मिलता है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की एक गणना के अनुसार सन् 1995 से अब तक 3 लाख से अधिक किसानों ने अपनी जान दी। सन् 2014 में 5650 किसान ऋण ग्रस्तता की वजह से अपनी जान गंवा बैठे। छत्तीसगढ़ में यह आंकड़ा 1510 है जिसमें खेतिहर मजदूर भी शामिल है। इसी वर्ष हाल ही में ऋण के बोझ एवं फसल चौपट होने की वजह से राज्य में करीब एक दर्जन आत्महत्या के मामले सामने आए हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की राज्यों की सूची के अनुसार किसानों की आत्महत्या के सर्वाधिक प्रकरण आंध्रप्रदेश में दर्ज हुए जबकि इस सूची में छत्तीसगढ़ पांचवें स्थान पर है। इन आंकड़ों की विश्वसनीयता को भले ही चुनौती दी जाए पर यह स्पष्ट हैं, कि किसानों, खेती पर आश्रित परिवारों, मजदूरों की जीना दुभर हो गया है। भौतिक-संसाधनों के विस्तार से शहर धीरे-धीरे भले ही अमीर होते जा रहे हो पर गाँवों का कायाकल्प नहीं हो रहा है। देश के हजारों गाँव अभी भी आदिम अवस्था में है।
अब केंद्र सरकार ने स्मार्ट सिटी की तर्ज पर स्मार्ट विलेज की परिकल्पना की है। केंद्रीय बजट में 100 स्मार्ट सिटी के लिए 7016 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया है। वर्ष 2015-16 में इस परियोजना पर 143 करोड़ रुपये खर्च होंगे। शहरों को हाईटेक सुविधाओं से लैस करने के संकल्प के बाद केंद्र को गाँवों का ख्याल आया है और उसने अगले तीन वर्षों में 300 स्मार्ट विलेज कलस्टर बनाने की घोषणा की है। केंद्रीय केबिनेट ने 16 सितंबर 2015 को इस अभियान को मंजूरी दी। इसके लिए 5,14.08 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इस मिशन का लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक, सामाजिक और अधोसंरचना संबंधी गतिविधियों में तेजी लाना है। गाँवों को ऐसे समूह के रुप में विकसित करना है जहां लोगों में कार्यकुशलता आए और स्थानीय उद्यम को बढ़ावा मिले। कोशिश गाँवों को शहरों जैसा रुप देने की है। कहा गया है कि इस मिशन में राज्यों की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी क्योंकि गाँवों का चयन उन्हें करना होगा और पैसों का इंतजाम भी।
     केंद्र सरकार के स्मार्ट विलेज मिशन को श्यामाप्रसाद मुखर्जी रर्बन का नाम दिया है। दरअसल यह कोई नई परिकल्पना नही है। पूर्व राष्ट्रपति स्व. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने सबसे पहले यह विचार दिया था कि गाँवों का संकुल बनाकर, उन्हें सड़क संपर्क के जरिए एक-दूसरे से जोड़कर वहां शहरों जैसी सुविधाएँ मसलन सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाएँ प्रायवेट पब्लिक पार्टनरशिप (पीपीपी) के जरिए उपलब्ध कराई जाए। उन्होंने अपनी किताब 'टारगेट - 3 बिलियन' में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। इस योजना को प्रॉविजन ऑफ अर्बन एमिनेटिस टू रुलर एरिया ('पुरा') का नाम दिया। इस किताब में उनके सहलेखक थे सृजनपाल सिंह। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के राष्ट्रपति रहते हुए यूपीए सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 'पुराÓ को 11वीं पंचवर्षीय योजना के शेष कार्यकाल में इसे भारत सरकार की योजना के रुप में शामिल किया। और इसके लिए अलग फंड की व्यवस्था की। पर जल्द ही योजना राजनीति के भंवरजाल में उलझ कर रह गई। नतीजतन तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की 'पुरा' योजना को असफल बताते हुए 24 फरवरी 2012 को संशोधित 'पुरा' योजना को लॉच किया जिसमें आर्थिक स्त्रोतों के विकास एवं सुदृढ़ीकरण के साथ ही ग्रामीण अधोसंरचना के विकास पर जोर दिया गया। उनका दावा था कि हमारी नई पुरा योजना सफल होगी। नई 'पुरा' योजना में जल आपूर्ति, स्वच्छता व भौतिक संरचना पर ज्यादा जोर दिया गया है। जाहिर है कलाम साहब की 'पुरा' योजना राजनीति की शिकार हुई तथा बाद में नई योजना पर भी विशेष कुछ काम नहीं हुआ। वर्ष 2014 में तो यूपीए सरकार विदा हो गई और भाजपा राज आया। अब मोदी सरकार ने यूपीए की उसी संशोधित 'पुरा' योजना को नया जामा पहनाते हुए श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नाम दिया है। यानी श्यामाप्रसाद मुखर्जी रर्बन मिशन (एस.पी.एम.आर.एम.)। बेहतर होता यदि नई दिल्ली की औरंगजेब से नामांकित कुछ किलोमीटर सड़क तक ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की स्मृति को सीमित रखने के बजाए राष्ट्रीय 'पुरा' योजना को उनका नाम दिया जाता। जबकि मोदी सरकार ने 27 जुलाई 2015 को पूर्व राष्ट्रपति के निधन के बाद उनका खूब गुणगान किया था लेकिन जब राष्ट्रीय स्तर पर ग्रामीण विकास योजना के नामकरण की बात सामने आई तो पार्टी के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी को याद किया गया। जबकि देश जानता है कि 'पुरा' की मूल कल्पना कलाम जी की है।
       बहरहाल अगले तीन वर्षों में पता चल जाएगा कि तथाकथित स्मार्ट विलेज कितने स्मार्ट हुए। योजना के गतिशील होने के बाद 300 रर्बन समूह सुविधाओं के मामले में शहर की शक्ल ले लेंगे। पर योजना की सफलता राज्य सरकारों के कामकाज पर निर्भर है। यहाँ फिर वहीं सवाल खड़े हो जाता है कि छत्तीसगढ़ सहित लगभग सभी राज्य सरकारों के मुख्यमंत्री साल में एक बार कुछ दिनों के लिए गाँवों का दौरा करते हैं, वर्षों से कर रहे हैं, जनदर्शन देते हैं, लोगों की समस्याएँ सुनते हैं, उन्हें नजदीक से देखते हैं, आदेश पारित करते हैं, फंड की व्यवस्था करते हैं पर गाँवों और गाँववालों की हालत नहीं बदलती। ज्यादा दूर क्यों जाएँ छत्तीसगढ़ में बस्तर को ले लें, अबूझमाड़ को ले लें, सरगुजा के आदिवासी वन ग्रामों को देखें, विलुप्त होती पहाड़ी कोरवा जैसी जनजातियों को देखें, जो स्थिति आजादी के पूर्व थी तकरीबन वही स्थिति अभी भी कायम है बल्कि अंधेरा कुछ और गहरा हुआ है। स्मार्ट विलेज इस अंधेरे में कब और कैसे उजाला फैलाएगा, भ्रष्ट व्यवस्था के चलते कहना मुश्किल है। पर यह स्पष्ट इन गाँवों को फिलहाल मोबाइल कनेक्टिविटी की नहीं, जीवन के लिए जरुरी प्राथमिक सुविधाओं की कनेक्टिविटी चाहिए।

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