जनविरोध की तीव्रतम अभिव्यक्ति

-दिवाकर मुक्तिबोध

     देश की साहित्यिक बिरादरी में इन दिनों ऐसा वैचारिक द्वंद चल रहा है जो स्वतंत्र भारत में इसके पूर्व कभी नहीं देखा गया था। शुरुआत इसी वर्ष अगस्त माह में कन्नड़ के प्रतिष्ठित लेखक एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित एम.एम. कलबुर्गी की दिनदहाड़े हत्या की घटना से हुई। इस घटना से समूचे कर्नाटक के लेखक, विचारक, रंगकर्मी एवं बुद्धिजीवी बुरी तरह आहत हुए और उन्होंने तथा अनेक लोकतांत्रिक संस्थाओं ने अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने के षड़यंत्र के खिलाफ विरोध दर्ज किया। कन्नड़ लेखक की हत्या की घटना की अनुगूंज यद्यपि पूरे देश में सुनी गई किंतु छिटपुट आंदोलनों एवं वक्तव्यबाजी से ज्यादा कुछ नही हुआ। यह शायद इसलिए क्योंकि कलबुर्गी को क्षेत्रीयता की नजरों से देखा जा रहा था। हालांकि इसके पूर्व महाराष्ट्र में नरेंद्र दाभोलकर एवं गोंविद पानसरे की हत्या की घटना से देश का प्रबुद्ध वर्ग ज्यादा आंदोलित था तथा उसने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी।
   बहरहाल नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे एवं कलबुर्गी की हत्या की घटनाओं ने चिंता की जो चिंगारी पैदा की, वह दादरी हत्याकांड से लपटों के रुप में तब्दील होकर देश के साहित्य एवं कला जगत को झुलसा रही है जिसकी व्यापक प्रतिक्रिया साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने के रुप में सामने आ रही है। अब तक दो दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित लेखकों, कलाकारों ने अपने पुरस्कार एवं पुरस्कार स्वरुप नगद राशि लौटाने की घोषणा की है और यह क्रम अभी भी जारी है। देश की मौजूदा हालत से संतप्त जिन लेखकों ने पुरस्कार लौटाए हैं उनमें प्रमुख हैं सर्वश्री उदय प्रकाश, अशोक वाजपेयी, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, कृष्णा सोबती, नयनतारा सहगल, काशीनाथ सिंह, शशि देशपांडे आदि। साहित्य सम्मान वापसी की इस सूची में हिन्दी के अलावा अन्य भाषाओं के लेखक, कवि एवं कलाकार भी शामिल हैं। ये सभी बुद्धिजीवी पिछले कुछ समय से देश में घटी विभिन्न हिंसात्मक घटनाओं, धर्मान्ध ताकतों के अनियंत्रित उभार एवं धर्मनिरपेक्षता को खुरचने की कोशिशों से व्यथित हैं तथा उन्हें लगता है कि देश में असहिष्णुता तेजी से बढ़ रही है व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला जा रहा है। प्रख्यात कवि राजेश जोशी का मानना है कि देश में आपातकाल जैसे हालात है जबकि मंगलेश डबराल कहते हैं कि ऐसी शक्तियां खुलकर मैदान में आ गई है जो देश में साम्प्रदायिक सौहाद्र्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्यों एवं नागरिकों की आजादी पर हमले करने में लगी हुई है। अकादमी सम्मान लौटाने के पीछे तमाम लेखकों का यही तर्क है कि चूंकि अकादमी के सत्ताधीशों ने चुप्पी साध रखी है अत: उनके पास प्रतिरोध का यही औजार है और वे अब इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।
     साहित्य अकादमी स्वायत्यशासी संस्था है, सरकार द्वारा वित्त पोषित। देश की ऐसी संस्थाएँ कितनी स्वतंत्र होती हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। शायद कोई भी स्वायत्यशासी निकाय सरकारी हस्तक्षेप एवं अप्रत्यक्ष नियंत्रण से परे नहीं है। लेखक बिरादरी भी इसे बेहतर जानती है। इसके बावजूद कवि - लेखक सम्मान स्वीकार करते रहे है। यह सिलसिला 1955 इसे जारी है। इसका मतलब है पुरस्कार स्वीकार करते वक्त पूरा भरोसा रहा है कि संस्था विशुद्ध रुप से स्वायत्यशासी है। और देश में आपसी सद्भाव व साम्प्रादायिक सौहार्द्र बना हुआ है। अब यदि देश की मौजूदा राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों को देखें तो हर व्यक्ति इसका आकलन अपने-अपने ढंग से करने में स्वतंत्र है। इसमें शक नहीं कि पिछले दो दशकों में सामाजिक सद्भाव, समदर्शिता एवं सहनशीलता में कमी आई तथा समय-समय पर इसका विस्फोट दंगों के रुप में सामने आया है जिनमें व्यापक हिंसा हुई। गोधरा एवं मुजफ्फरपुर कांड सबसे बड़े उदाहरण है हालांकि साम्प्रदायिक दंगे वर्ष 2000 के पूर्व के दशकों में भी होते रहे हंै। लेकिन नई सदी के शुरुआत में ही नफरत की ऐसी निर्मम अभिव्यक्ति कम देखने में आई। विशेषकर इस दशक में व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं विचारों की आजादी को धिक्कारने और कुचलने का सुनियोजित षड़यंत्र चला हुआ है तथा वह बाज दफे हिंसक की घटनाओं के रुप में सामने आता रहा है। हेमंत दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एम.एम. कलबुर्गी इसके नवीनतम उदाहरण है। चूंकि अब शब्दकार इसके शिकार हो रहे हंै इसलिए देश का लेखक समाज ज्यादा चिंतित, व्यथित एवं आक्रोषित है। इसीलिए विरोध स्वरुप चिंतनशील लेखकों ने अकादमी पुरस्कार लौटाने शुरु किए हैं। किसी गंभीर सवाल पर राष्ट्रीय स्तर पर लेखकों की ऐसी सामूहिकता कम ही देखने को आई है।
     बहरहाल पुरस्कार लौटाना या नहीं लौटाना यह विशुद्ध रुप से निजता का प्रश्न है। इस प्रश्न पर सहमति-असहमति स्वाभाविक है। जिन्होंने पुरस्कार लौटाए उन्हें धिक्कारने या जिन्होंने नहीं लौटाएँ या जिन्हें नहीं लौटाना है अथवा जो इस मुद्दे पर तटस्थतावादी हैं, उन्हें भी धिक्कारने की जरुरत नहीं है। लेखक समाज में असहमति इस बात पर नहीं है सामाजिक सद्भाव बिगड़ रहा है तथा सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहा हैं बल्कि असहमति विरोध के स्वरुप को लेकर है। यानी लेखकों का एक वर्ग मानता है कि पुरस्कार लौटाने की क्या आवश्यकता? विरोध दर्ज करने के और भी तरीके हो सकते हंै। यह तर्क बिल्कुल ठीक हैं किंतु इस सवाल पर लेखकों का खेमों में बंटना भी स्वाभाविक है। प्रति-प्रतिक्रिया में जो विचार व्यक्त किए जा रहे हंै वह लेखक समुदाय की एकजुटता एवं आपसी समझ को खुरचती है। इस्तीफे के विरोध में सबसे बड़ा नाम है नामवर सिंह का, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। हिन्दी के प्रख्यात माक्र्सवादी आलोचक, नामवर सिंह की राय में लेखक अखबारों की सुर्खियाँ बटोरने के लिए पुरस्कार लौटा रहे हैं। अगर उन्हें कलबुर्गी की हत्या की घटना का विरोध करना है तो उन्हें राष्ट्रपति, संस्कृति मंत्री या मानव संसाधन मंत्री से मिलकर सरकार पर दबाव बनाया चाहिए तथा उनके परिवार की मदद के लिए आगे आना चाहिए। वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु खरे की टिप्पणी तो और भी तीखी है। बीबीसी से की गई एक बातचीत में उन्होंने साहित्य अकादमी को उधेड़ते हुए लेखकों को भी नहीं बख्शा। उन्होंने कहा - 'ईनाम लौटाकर क्या भाड़ फोड़ लेंगे?'
      विरोध की मशाल थामने में हिन्दी की तुलना में अन्य भाषाई लेखकों का प्रतिरोध ज्यादा मजबूत नजर आ रहा है। विशेषकर प. बंगाल और कर्नाटक। गोवा के 14 साहित्य अकादमी विजेताओं ने देशव्यापी अभियान छेड़ने का निश्चय किया है। कोंकणी लेखक एन. शिवदास ने कहा कि हम लगातार विरोध जारी रखेंगे। गोवा के लेखकों ने यह भी तय किया है कि इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी उठाएंगे। उनके सुर में सुर मिलाते हुए हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, काशीनाथ सिंह, अरुण कमल एवं डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने देश में बढ़ती साम्प्रदायिकता, असहनशीलता तथा अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ते खतरे के विरोध में लेखकों से आगे आने की अपील की है। इस अपील से विरोध को और बल मिलना स्वाभाविक है।
      पुरस्कार लौटाने के सिलसिले के बाद जैसा कि स्वाभाविक था, केंद्र में सत्तारूढ़ दल के मंत्रियों ने लेखकों के फैसले पर सवाल खड़े किए। वित्त मंत्री अरुण जेटली, संस्कृति मंत्री महेश शर्मा, संचार एवं प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद की प्रतिक्रिया का लब्बोलुआब यह था कि देश में सहिष्णुता का माहौल है। लेखकों का अवार्ड लौटाना वैचारिक असहिष्णुता है। लेखक, राजनीति कर रहे हंै। विरोध कागजी है। पुरस्कार लौटाने वाले ज्यादातर लेखक वामपंथी या नेहरु विचारधारा के समर्थक हंै तथा ऐसा करने वाले लेखकों की नीयत पर संदेह है। कुल मिलाकर मंत्रियों की प्रतिक्रिया केंद्र सरकार की तिलमिलाहट को दर्शाती है जो थोक में अकादमी अवार्ड लौटाने से उपजी है।
      हमेशा की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुप है। दादरी के बिसाहड़ा गाँव में गौमांस के संदेह में इकलाख की हत्या की घटना पर देशव्यापी प्रतिक्रिया के बावजूद उनकी चुप्पी देर से टूटी। संभव है यदि साहित्यकारों के विरोध के तेवर और तीव्र हुए व पुरस्कार लौटाने का क्रम जारी रहा तो वे चुप्पी तोड़ेंगे, कुछ बोलेंगे। हालांकि वे यदि इस मुद्दे को संवेदनशील मानते हैं तो उन्हें प्रतीक्षा की जरुरत नहीं है।
      बहरहाल विरोध के स्वर कितने तेज होंगे, यह आगे की बात है। वैसे देश भर की अनेक संस्थाएं एवं सरकारी पुरस्कारों से नवाजे गए विजेता सामने आ रहे हंै। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव अली जावेद ने भी देशभर के अपने सदस्यों से पुरस्कार लौटाने की अपील की है। आंदोलन, धरना-प्रदर्शन, रैलियां, ज्ञापन इत्यादि तो अपनी जगह पर है पर भविष्य की रणनीति के लिए ज्यादा मुफीद होगा सरकारी एवं सरकार द्वारा वित्त पोषित संस्थाओं के पुरस्कारों का बहिष्कार। केंद्र के साथ सभी राज्यों की सरकारें प्रतिवर्ष या समय - समय पर विभिन्न क्षेत्रों में अप्रतिम उपलब्धियों के लिए पुरस्कार स्वरुप अलंकरण एवं नगद राशि प्रदान करती है। इसमें साहित्य, कला एवं संस्कृति भी शामिल है। सरकार किसी भी पार्टी की हो, पुरस्कारों का बहिष्कार सबसे ताकतवर हथियार होगा, लौटाने से कहीं ज्यादा। यह सिलसिला तब तक जारी रहना चाहिए जब तक कि इस बात का यकीन न हो जाए कि देश में सामाजिकता, साहिष्णुता, धार्मिक समभाव और विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने पूरे शबाब पर लौट आई है।

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