यादों में बबनजी

- दिवाकर मुक्तिबोध
       पहले सर्वश्री मायाराम सुरजन फिर रामाश्रय उपाध्याय, मधुकर खेर, सत्येंद्र गुमाश्ता, रम्मू श्रीवास्तव, राजनारायण मिश्र, कमल ठाकुर और अब श्री बबन प्रसाद मिश्र। छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के ये शीर्ष पुरुष एक - एक करके दुनिया से विदा हो गए और अपने पीछे ऐसा शून्य छोड़ गए जिसकी भरपाई मुश्किल नजर आ रही है। यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे इनका सानिंध्य प्राप्त हुआ। अलग - अलग समय में मैंने इनके साथ काम किया, मुझे इनका आर्शीवाद मिला, पत्रकारिता की समझ विकसित हुई, विशेषकर मूल्यपरक एवं ईमानदार पत्रकारिता को आत्मसात करने की प्रेरणा मिली। इन श्रेष्ठ संपादकों में से बबन प्रसाद मिश्र ही ऐसे थे जिनके साथ मैंने सबसे कम अवधि एवं सबसे आखिर में काम किया। वर्ष था सन् 2010 एवं अवधि 8-10 महीने। हालांकि इसके पूर्व सन् 2000 से 2003 तक मेरा उनका साथ रहा लेकिन संस्करण अलग थे, भूमिकाएं अलग थीं और शहर भी अलग। बहरहाल वर्ष 2010 पत्रकारिता में उनका उत्तरार्ध था और कुछ-कुछ मेरा भी। लेकिन इसके बावजूद उनके साथ मेरा संपर्क लगभग 40 वर्षों तक बना रहा। यानी ''युगधर्म'' के दिनों से, जब वे इस अखबार के संपादक थे और मैं दैनिक देशबंधु में नवजात उपसंपादक। वर्ष शायद 1976-77। चंूकि उनके साथ बिताई गई अवधि बहुत कम थी लिहाजा यादगार लम्हों का कोई लंबा चौड़ा इंद्रधनुष मेरे पास नहीं है अलबत्ता उनका व्यक्तित्व, उनकी कार्यशैली, उनका लेखन, उनकी दृष्टि और सबको साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति पर जरुर कुछ बातें, निजी प्रसंगों के तौर पर की जा सकती है।
      श्री बबन प्रसाद मिश्र उदार हिन्दुत्ववादी विचारधारा के थे। जाहिर सी बात है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) से उनका रिश्ता था जिसे उन्होंने कभी छिपाया नहीं और वैचारिक स्तर पर इसका प्रकटीकरण उनके लेखन में भी होता रहा। विशेषकर राजनीतिक टिप्पणियों में। लेकिन खास विचारधारा से बंधे रहने के बावजूद खबरों के मामले में उन्होंने निष्पक्षता की हदें नहीं लांघी और समय-समय पर संघ और भाजपा के कामकाज पर भी कटाक्ष करते रहे। वे दरअसल मार्गदर्शक की भूमिका में थे जिन्हें राज्य में पार्टी के सत्तारुढ़ होने के बावजूद पर्याप्त महत्व नहीं मिला अलबत्ता श्री मिश्र निष्पक्ष भाव से पत्रकारिता में अपनी भूमिका के साथ न्याय करते रहे।
      मैं सन् 1976 में अपने एक पत्रकार मित्र से मिलने पंडरी स्थित दैनिक 'युगधर्म' कार्यालय गया था वहां उनसे पहली मुलाकात हुई, पहला परिचय हुआ। उन्हें इस बात का इल्म नहीं था कि मैं किसी अखबार की नौकरी में हूं। उन्होंने अंग्रेजी दैनिक हिन्दुतान टाइम्स की दो खबरें मुझे अनुवाद करने के लिए दे दी। मैं अचकचा गया। उन्हें बताया मैं देशबन्धु में हूँ। ओह कहते हुए उन्होंने अखबार वापस ले लिया। मैं समझ गया कि वे 'युगधर्म' के लिए ऑफर दे रहे थे। मेरी कोई इच्छा नहीं थी। यह अलग बात है 10 साल बाद जब सन् 1986 में 'युगधर्म' का प्रबंधन बदला तो मैं इसी अखबार का संपादक नियुक्त हुआ। तब तक बबनजी यहां से विदा हो चुके थे। इस छोटी सी घटना में खास कुछ नहीं है किन्तु इससे बबनजी की एक सद्य परिचित के प्रति स्नेह की अभिव्यक्ति होती है। ऐसे निर्मल स्वभाव के थे वे। बाद में पत्रकारवार्ताओं में या कभी-कभी कार्यक्रमों में उनसे मुलाकात हुआ करती थी लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनसे लंबी बातचीत हुई हो अलबत्ता 'युगधर्म' जहां वे सन् 1972 से 1986 तक रहे, उनके लेखन से रुबरु होता रहा। खास विचारशैली की वजह से कई बार मुद्दों पर मेरी असहमति भी रही लेकिन मैंने जाहिर नहीं किया केवल यह सोचकर कि ऐसा करना वरिष्ठ के प्रति अशिष्टता होती वैसे भी विचारधारा से बंधे हुए लेखन में ऐसा होना स्वाभाविक था।
      बबनजी बहुत अच्छे वक्ता थे। समां बांध देते थे। विषयों का गहरा ज्ञान था जो उनकी अध्ययनशीलता को दर्शाता था। गजब के मिलनसार थे। उनके सम्पर्कों का भी दायरा बहुत विशाल था। पेशेवराना ईमानदार के कायल थे, उसे जीते भी थे किन्तु कभी-कभी इसे हल्के से खुरचते भी थे। यहां मेरी उनसे असहमति थी। मुझे यह कभी समझने में नहीं आया कि किसी मंत्री या विधायक के जन्मदिन के अवसर पर ''नवभारतÓÓ जैसे बड़े अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर प्रशस्तिपूर्ण लेख छापने का क्या तुक है। विशेषकर विचारों और टिप्पणियों के लिए सुरक्षित पृष्ठ पर। छत्तीसगढ़ के तत्कालीन कांग्रेसी मंत्री और विधायक सत्यनारायण शर्मा के जन्मदिन पर ऐसा चित्र देखने में आता था। बबनजी इसके संपादक थे। जाहिर है कि यह संबंधों के निर्वाह की बात थी या प्रबंधकीय विवशता थी। पत्रकार और व्यक्ति के रुप में उनके संबंधों की झलक 7 नवंबर 2015 को उनकी अंतिम यात्रा में देखने मिली जिसमें भारी संख्या में विभिन्न वर्गों के लोग शामिल हुए। रायपुर शहर एवं दूरदराज के लोगों की उपस्थिति एक पत्रकार के रुप में उनकी लोकप्रियता एवं स्वीकार्यता को दर्शाती है।
      नौकरी की दृष्टि से बबनजी मेरा अधिकाधिक संवाद वर्ष 2000 में स्थापित हुआ। 'नवभारत' के बिलासपुर संस्करण के लिए संपादक की जरुरत थी और मुझे नौकरी बदलनी थी। बबनजी ने मेरा नाम आगे बढ़ाया और नागपुर से 'नवभारत' समूहके संचालक श्री प्रकाश माहेश्वरीजी से सहमति मिल गई। संयुक्त संपादक के रुप में माहेश्वरीजी के हस्ताक्षर का नियुक्ति पत्र मुझे बाद में मिला। बबनजी ने औपचारिक पत्र जारी करते हुए बिलासपुर से 1 मई 2000 को मेरी ज्वाईनिंग कराई और फिर रायपुर-बिलासपुर संस्करण के बीच बेहतर तालमेल की शुरुआत हुई। आमतौर पर देखा गया है कि किसी अखबार समूह के संपादकों के बीच तालमेल में कई बार अहम् आड़े आता है। अखबारी दुनिया के लिए यह सामान्य बात है। बबनजी चूंकि वरिष्ठ थे, अनुभव और पद में बड़े थे, इसलिए हमारे बीच कोई समस्या नहीं थी। फिर बबनजी का स्वभाव ऐसा था कि वह सबको भाता था, विश्वास जगाता था। यह अहसास रहता था कि यदि अखबार में कुछ गलत हो जाए तो प्रबंधन का कोप झेलने के लिए सरपरस्त के रुप में बबनजी मौजूद है। इसलिए मैं भी कुछ निश्चिंतता का अनुभव करता था।
       'नवभारत' बिलासपुर में मैं महज डेढ़-दो साल रहा। इस दौरान बबनजी का आना-जाना लगा रहा। इस दौर की कोई विशेष घटना नहीं है अलबत्ता एक बात मुझे हमेशा याद रहेगी बल्कि सालती रहेगी कि बिना किसी वजह के केवल न्यायिक प्रक्रिया से खौफ खाते हुए एक मामले में मुझे खेद प्रकट के लिए विवश होना पड़ा था। दरअसल मेरे अपने नियमित साप्ताहिक कॉलम में जिसकी प्रकृति व्यंग्यात्मक थी, मैंने एक टिप्पणी लिखी थी जिसके केंद्र में बिलासपुर उच्च न्यायालय के तत्कालीन कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश श्री रमेश चंद्र गर्ग थे। इसे लेकर भारी बवाल मचा और बात नागपुर तक गई। बबनजी परेशान थे और इस संदर्भ में संचालक प्रकाश माहेश्वरी से उनकी बातचीत होती थी। हाईकोर्ट प्रबंधन ने अप्रत्यक्ष रुप से संकेत दे दिया था कि अवमानना का केस होगा और कोर्ट में हाजिरी देनी पड़ेगी। हालांकि अखबारों के साथ यह सामान्य सी बात थी। मानहानि के मुदकमें तो चलते रहते हैं लेकिन इस मामले में न जाने क्यों खौफ कुछ ज्यादा गहराया हुआ था। नागपुर में श्री प्रकाश माहेश्वरी ने वकीलों से विचार-विमर्श किया और इस नतीजे पर पहुंचा गया कि मैटर में आपित्तजनक और अवमानना जैसा कुछ नहीं है किन्तु शीर्षक गड़बड़ है। यह तय हुआ कि अखबार में खेद प्रकट किया जाए। मुझे इसकी उम्मीद नही थी। बबनजी के रहते तो बिल्कुल नहीं। लेकिन रायपुर से मैटर बनकर आया और हमें उसे अपने नाम के साथ छापना पड़ा। यह बेहद दु:खद था। दुख इस बात का भी था कि सारे फैसले नागपुर और रायपुर में लिए गए।
       बहरहाल इस दौर की एक और बात खटकती थी कि बिलासपुर संस्करण में व्यवस्था के खिलाफ विचारों को रायपुर में पसंद नहीं किया जाता था। विशेषकर मेरे साप्ताहिक कॉलम एवं एडिट पेज पर प्रकाशित टिप्पणियों को। ऐसा हमेशा नहीं होता था किन्तु गाहे-बगाहे मिश्राजी का फोन आ जाया करता था। वे कहते थे नाहक क्यों मोर्चा खोल रहे हो, अखाड़े में कुश्ती लड़ना छोड़ दो। मैं समझ रहा था कि चूंकि वे राजधानी में रहते हैं अत: प्रतिरोध का सामना उन्हें करना पड़ता है। अत: यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी हालांकि नागपुर से इसे लेकर कभी कोई चिट्ठी पत्र नहीं आई। 'नवभारत' में विचारों का खुलापन था। यह इस बात से भी जाहिर है कि बबनजी की वैचारिक प्रतिबद्धताओं से भिज्ञ होने के बावजूद राष्ट्रवादी विचारों के लिए ख्यात 'नवभारत' के प्रबंधन ने उनके हाथों में अखबार की कमान दे रखी थी।
      'नवभारत' के बाद बबनजी दैनिक भास्कर रायपुर-बिलासपुर में प्रबंधकीय सलाहकार की भूमिका में आ गए। प्रबंधकीय कार्यों से बिलासपुर में भी उनका आना-जाना बना रहा। मैं उन दिनों दैनिक भास्कर बिलासपुर में संपादक था। सो उनसे मुलाकात और बातचीत होती रही। मुझे याद है, 2003 के विधानसभा चुनाव के दौरान दैनिक भास्कर बिलासपुर ही एकमात्र ऐसा प्रमुख अखबार था जो श्री विद्याचरण शुक्ल के प्रादेशिक नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की चुनाव संबंधी गतिविधियों को भी यथोचित स्थान देता था जबकि राजधानी रायपुर सहित प्रदेश के प्राय: सभी अखबारों में एनसीपी की खबरों को ब्लेकआउट करने या दबाकर देने के निर्देश थे। अजीत जोगी कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे तथा उनका दबाव अखबारों के प्रबंधकों पर था। किन्तु बिलासपुर भास्कर ने अलग राह पकड़ रखी थी जो पार्टी और सरकार के स्तर पर बर्दाश्त नहीं की जा सकती थी। लिहाजा भोपाल भास्कर प्रबंधन की ओर से मुझसे संबंधित एक कड़ी चिट्ठी बबनजी के पास आई। भोपाल से फोन पर मुझे फटकारा गया। बबनजी बिलासपुर आए और काफी देर तक मुझे प्रबंधन के व्यावसायिक हितों को समझाते रहे। उन्होंने चिट्ठी मुझे नहीं दिखाई, यह सोचकर कि मैं आहत न हो जाऊँ। यहां भी वे ढाल बनकर खड़े रहे। इलेक्शन खत्म हुआ और बात आई-गई, हो गई। पर यादों में एक और घटना जुड़ गई जो बबनजी के व्यवहार की विशिष्टता को दर्शाती है।
      फिर आया वर्ष 2010। मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के एक न्यूज चैनल की नौकरी से मैं ताजा-ताजा मुक्त हुआ था। बबनजी का फोन आया - 'आज की जनधारा में काम करना है। संसाधन सीमित है इसलिए पैसा कम मिलेगा। मैं साथ में हूं। मैंने हामी भरी। 1 मई 2010 को मैंने बतौर संपादक ज्वाइनिंग दी। बबनजी थे प्रधान संपादक। वे इस अखबार में 8-10 महीने ही रहे किन्तु इस बीच कभी ऐसा मौका नहीं आया कि उन्होंने अखबार में खबरों से लेकर विचारों की अभिव्यक्ति तक कोई टोका-टाकी की हो। काम करने की पूरी आजादी दी और कभी अपने विचारों को थोपने की कोशिश नहीं की। उनका अपना लेखन था, मेरा अपना। वैचारिक सहिष्णुता के वे कायल थे और इसे जीते भी थे। कुछ समय बाद 'आज की जनधारा' से मैं भी मुक्त हुआ। इसके बाद बीते 4 वर्षों में उनसे यदा-कदा ही मुलाकातें हुईं। अकस्मात एक दिन (7 नवंबर 2015) उनके निधन की खबर मिली। मैं कुछ क्षण के लिए स्तब्ध रह गया। एक शून्य सा महसूस हुआ फिर ऑखों के सामने उनकी यादों के सितारे झिलमिलाने लग गए।
      बबनजी मूलत: पत्रकार थे, सात्यिकार नहीं। यह अलग बात है कि छत्तीसगढ़ सरकार का राज्य स्तरीय सुंदरलाल शर्मा साहित्य पुरस्कार उन्हें उनके साहित्यिक योगदान के लिए मिला। यह शायद इसलिए कि हिन्दी साहित्य में उनकी गहरी दिलचस्पी थी और वे अनेक साहित्यिक संस्थाओं के अध्यक्ष थे। बहरहाल छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में बबनजी का स्थान निश्चित रुप से विशिष्ट रहेगा। इसलिए क्योंकि वैचारिक असहमति का भी वे सम्मान करते थे और उसे अखबार में यथोचित स्थान देते थे। अर्थात उनकी पत्रकारीय दृष्टि निष्पक्ष थी जो वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरुरत है।

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