मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-5)

साहित्य के काठमांडू का नया राजा

कहने दीजिए कि हिंदी साहित्य सम्मेलन का जनता से कोई ताल्लुक़ नहीं। भारतीय संस्कृति और हिंदी साहित्य के नाम पर चलनेवाली वह एक नक़ली साहित्य संस्था है। हम दुर्ग, रायगढ़, मुंगेली, अकलतरा, राजनांदगांव, रायपुर, नरसिंहपुर,छिंदवाडा, खंडवा, बुरहानपुर, आदि-आदि छोटी जगहों के अन्याय पीडि़त जीवन बिताने वाले वर्गों के साहित्यिक नौजवानों को यह आह्वान करते हैं कि़ वे 'जनता के साहित्य' का आंदोलन उठायें और म्यूनिसिपल कंदील के नीचे, बरगद के तले, और जहाँ जहाँ उन्हे जगह मिल सके, वे आपस में मिले और यह तय करें कि उन्हे जनता का जीवन-चित्रण करना है। कहानी, नाटक, उपन्यास, लोकगीत, मुक्तक-गीत, खंड काव्य, लेख, निबंध, रिपोर्ताज, स्केच आदि आदि लिखें, और सुनायें, और इस प्रक्रिया के दौरान में जनता के लिए अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को सुधारें, संवारे और निखारें तथा नेमाडी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, आदि मध्यप्रदेशीय लोकभाषा के पुनरूत्थान के लिए दिन-रात कोशिश करते रहें।
(नया ख़ून में प्रकाशित संपादकीय, रचनावली खंड-6 में संकलित)
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भारत का राष्ट्रीय संग्राम

ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने सबसे पहले हमारी ग्रामीण, सामुदायिक, पंचायती अर्थ व्यवस्था पर हमला बोला। उस अर्थ व्यवस्था में बड़ी बड़ी दरारें पड़ गयीं। कारीगरों को नष्ट-भ्रष्ट किया गया। हाथ की कारीगरी ज़बर्दस्ती ख़त्म की गयी। चूँकि भारत में ज़मीन पर स्वामित्व व्यक्तिगत नहीं था, पंचायती था, इसलिए अंग्रेज़ी ढंग का व्यक्तिगत भूमि स्वामित्ववाला विलायती सामंतवाद स्थापित किया गया।
* भारत की पंचायती  अर्थ व्यवस्था को एक और विलायती तरीक़े ने खंडित कर दिया। वह था व्यापार। हमारे पंचायती गांव आत्मनिर्भर थे, उनके छोटे क्षेत्र में वे वे तमाम चीज़ें पैदा होती थी जिनकी उन्हे ज़रूरत रहती थी। गाँवों की आत्मनिर्भरता तोड़ दी, क्योंकि यदि उन्हें  आत्म निर्भर रखा जाता तो देश में विलायती माल कैसे बिकता। इस प्रकार भारत सिफऱ् कच्चे माल की खऱीद की मंडी ही नहीं बनाया गया वरन तैयार विलायती माल के बाज़ार का भी उसे रूप दिया गया।

(नया खून 1957 में प्रकाशित संपादकीय, रचनावली खंड-6 में संकलित)
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स्वामी कृष्णानंद सोख्ता

अगर कोई मुझसे पूछे कि स्वामी कृष्णानंद सोख्ता की कौन सी सबसे बड़ी विशेषता थी, तो मै कहूँगा कि ऊष्मा, व्यक्तित्व की चतुर्दिक संक्रमणशील ऊष्मा। भावनाओं का ऐसा ऊष्ण किंतु मधुर आवेश उनमें  भरा था कि उसमें सामने बैठे व्यक्ति को डूब जाना ही पड़ता था। जैसे कोई वेगायित विशाल समुद्र-तरंग सूखे कगार पर पड़े हुए कठोर टीले को ज़बरदस्ती भिगो जाय, भिगोये ही नहीं, वरन अपनी लहर-भुजाओं में लपेटकर उसको अपने साथ बहा ले जाय, उसी प्रकार स्वामीजी अपने साथ बहा ले जाते थे।
* नागपुर के मेरे जीवन के स्वामीजी एक आयाम है। उनके बिना मैं उस जीवन की कल्पना नहीं कर सकता। उनका मुझ पर अकृत्रिम प्रेम था। बीच-बीच में हमारी उनकी ठन जाती। ऐसा कई बार हुआ कि हम दोनों  तन गये, एक दूसरे से। फिर भी कुछ समय तने तने रहने के उपरांत हम फिर एक हो जाते। किंतु, मुझे पता नहीं था  कि अब जीवन में उनके कभी दर्शन हो न सकेंगे। मेरे स्वयं के भीतरी विकास में उन्होंने बहुत योग किया। सच पूछा जाये तो अखबारनवीसी और साहित्यिकता को संयुक्त कर क़लम चलाने का अभ्यास उन्होंने करवाया। मुझ पर उनका अविरल स्नेह और कृपा रही। सच पूछा जाय तो वे मेरे जीवन के अंग हो गये। उन्हे भूल जाना बहुत मुश्किल है।

(नया ख़ून, श्रद्धांजलि अंक, 1960, नया खून साप्ताहिक के संचालक, मई 1960 में एक सड़क दुर्घटना में निधन)
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दादाओं की नहीं भाइयों की जरूरत

जागृत नेतृत्व से हमारा मतलब दादागिरी से नहीं हैं। राजनैतिक क्षेत्र की अवसरवादी प्रवृत्तियों के फलस्वरूप हमारे यहाँ एक नयी जाति पैदा हुई जिसे हम दादाओं की जाति कह सकते हैं। हमें दादाओं की आवश्यकता नहीं, भाइयों की ज़रूरत है। दादागिरी से हमारा मतलब ऐसे लोगों से हैं जो अपने नेतृत्व के लिए जीते हैं।
(नया खून, 26 दिसंबर 1952 में प्रकाशित, रचनावली में संकलित)

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