मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-2)


जि़ंदगी के तक़ाज़े और सामाजिक त्योहार-1

जो मुहल्ला बहुत पुराना पड़ जाता है गऱीबों के पल्ले पड़ता है और नया धनियों के जि़म्मे आता है। यह प्रक्रिया स्पष्ट होती है ठीक पचास सालों के दरमियान, लेकिन वह चलती रहती है, सदा सर्वदा। यह नये और पुराने का भेद असल में गऱीब और अमीर का भेद है। एक ही शहर की दो संस्कृतियाँ हैं -एक गऱीब की  संस्कृति और दूसरी अमीर की संस्कृति । एक ही शहर में दो राष्ट्र है। एक राष्ट्र गऱीब है, काम  करता है, कुलीगीरी करता है, मज़दूरी करता है, रिक्शा चलाता है, क्लर्की करता है, टाइमकीपरी करता है, दजऱ्ीगीरी करता है  और एक दूसरा राष्ट्र है जो मैंगनीज़ की खदानें  लेता है, अंग्रेज़ी, हिंदी, मराठी अख़बार निकालता है, चुनाव लड़ता है, और सरकार  चलाता है और उद्योगों में पैसा लगाता है।

( नया खून,18 सितंबर 1953 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित)
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जि़ंदगी के तक़ाज़े और सामाजिक त्योहार-2

गणेश उत्सव के वर्तमान स्वरूप से अब यह स्पष्ट पत चलता है कि नये युग के अनुसार इसमें नये परिवर्तन आवश्यक है। एक तो यह उत्सव दस दिनोंं तक चलता है। यह काफ़ी लंबा समय है। इस अवधि को अल्प कर, इसके द्वारा हम नवीन सांस्कृतिक-सामाजिक आंदोलन का सूत्रपात कर सकते हैं। अगर हमारे मध्यवर्गीय इस कार्य में सफल हुए तो निश्चय ही हमारे भिन्न वर्ग इस उदाहरण का अनुसरण करेंगे। आज तक हमारे पास सांस्कृतिक नेतृत्व रहा। अब उसमें ह्रास के चिन्ह दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि हम नयी सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार जनता के हित की दृष्टि से अपने में और अपने सांस्कृतिक कार्यक्रमों में परिवर्तन करें।

( नया खून,18 सितंबर 1953 में प्रकाशित, रचनावली खंड - 6 में संकलित)

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जेनेवा परिषद टूटते-टूटते कैसे बची?

राजनीति में कुछ  ऐसी भी बातें होती हैं जिन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। जेनेवा परिषद के मैदान में फ्रांस का फिर से कूद पडऩा इस बात का साक्षी है कि फ्रांसीसी जनमत एंग्लो-अमरीकी स्वार्थों के लिए अपना हित बेच नहीं सकता।
दक्षिण कोरिया के नेताओं के विस्फोटक भाषण इस बात का सबूत है कि सुदूर दक्षिण पूर्व एशियाई मोर्चे में सिंगमन री और च्यांग काई शेक का क्या स्थान है। हमें युद्ध के इन देवताओं से बचना होगा। जेनेवा परिषद की सफलता हमें शांति के राजपथ पर खड़ा कर देती है, इसमें संदेह नहीं।
( सारथी, 27 जून 1954 में प्रकाशित, रचनावली खंड -  6 में संकलित)
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अंग्रेज़ गये, परंतु इतनी अंग्रेज़ी पूँजी क्यों?_1

चले गये वे दिन जब हम और आप अख़बारों  से, राजनीतिक प्लेटफार्मों  से तथा संगठनों के द्वारा विदेशी माल के खिलाफ, विदेशी पूँजी के विरूद्ध, स्वदेशी उद्योग और व्यवसाय की हिमायत में कार्य करते थे। वे दिन गये। आज विदेशी पूँजी के आमन्त्रण को राष्ट्रीय आवश्यकता बतलाया जाता है। यह सहज ही भुला दिया जाता है कि पिछड़े हुए मध्य-पूर्वी राष्ट्रों में स्वदेश में लगी हुई विदेशी पूँजी के राष्ट्रीयकरण का सुविस्तृत आन्दोलन चला हुआ है। वह सम्पूर्णतया सफल हुआ है या असफल, यह अलग बात है। वह आंदोलन केवल इसलिए है कि राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से सार्वभौम प्रभुत्व सम्पन्न हो, ताकि स्वदेशी जनता का शोषण विदेशी पूँजी न कर पाये, स्वदेश का पैसा विदेश न पहुँचे।

(सारथी 3 अक्टूबर 1954, रचनावली खण्ड 6 में संकलित)
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अंग्रेज गये, परंतु इतनी अंग्रेजी पूंजी क्यों?_2

किसी भी देश का औद्योगीकरण मशीनों को बनाने वाली मशीनी की स्थापना से ही शुरू होता है। किंतु इस ओर न भारतीय सरकार ही काम कर रही है और न कोई प्रभावशाली राजनैतिक पार्टी ही आवाज़ लगा रही है। जिस साम्राज्यवादी पूँजी से हमारे उद्योगपति सम्बद्ध हो रहे हैं, वे साम्राज्यवादी देश हमें बुनियादी कारख़ाने खोलने नहीं देते। इस प्रकार भारत की औपनिवेशिक स्थिति को बनाये रखते हैं। जब तक हमारे यहाँ विदेशी पूँजी का राष्ट्रीयकरण नहीं होता, और बुनियादी कारख़ाने नहीं खुलते, तब तक यह कहना कि हम देश की पुनर्रचना कर रहे हैं, बिलकुल असंगत है। कहना न होगा कि भारतीय आर्थिक स्थिति, सच्ची आर्थिक स्वाधीनता और साम्राज्यवाद से मुक्ति हमें तभी प्राप्त हो सकती है जब हम भारतीय बाज़ार का विदेशी शोषण बंद कर दें।

(सारथी 3 अक्टूबर 1954 में प्रकाशित, रचनावली खंड -  6 में संकलित)
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अरब नीति में लचीलेपन की ज़रूरत

इतिहास में यह कई बार देखा गया है कि संकटों  को दूर करने का माद्दा उस दृष्टि पर काफ़ी अवलंबित है जिसे हम ऐतिहासिक विकास की दृष्टि कहते हैं। भारत को पूरी स्वाधीनता देकर ब्रिटेन ने अपना ऐतिहासिक कर्तव्य पूरा किया। नुक़सान तो उसका ऐसे भी होने वाला था और वैसे भी। किन्तु भारत को ख़ुशी-खुशी आज़ादी दे देने से ब्रिटेन के राजनैतिक हितों को भले ही हानि हुई हो, उसके आर्थिक हितों में लगातार वृद्धि हुई है। रिज़र्व बैक के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि ब्रिटिश पूँजी स्वतंत्र भारत में ख़ूब आती रही और ख़ूब आ रही है। इस प्रकार ब्रिटेन ने भारतीय औद्योगिक विकास में कुछ-न-कुछ योग दिया है। 

 ( सारथी, 20 जनवरी 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड -  6 में संकलित)
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इतिहास का अननुमानित

इतिहास हर क्षण बदलता है। कहीं वह इस ढंग से न बदल जाए कि हमें हानि हो। हम सोचते हैं इस तरह का क़दम उठाने से बात हो जाएगी, किंतु हमारे सारे चालाक व चतुर अनुमानों के बावजूद, विश्व प्रवृत्तियों के अध्ययन के सारे हमारे आत्मविश्वास के बावजूद, जिस परिणाम के लिए हमने अपना क़दम बढ़ाया, वह नहीं निकलता। और हमारे उद्देश्य के सर्वथा विपरीत, कोई ऐसा अकल्पनीय फल एक नयी परिस्थिति बनकर हमें घूरने लगता है, कि जिससे लडऩे की हमारी तैयारी अधूरी और मनोबलहीन हो सकती है। आज दुनिया की प्रधान ताक़तें इसी उलझन में पड़ी हुई है। अमरीका, रूस और ब्रिटेन आज इस पेंच में हैं।

 ( सारथी, 27 जनवरी 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड - 6 में संकलित)

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इंतजार
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हम उस दिन का
करते हैं इंतजार
जब हिमालय का शिखर मजदूर के
डाकिये के, किसान के बेटों के
चरणों को चूमेगा।
हमारे चपरासी के बेटी के
चेहरे को
सूरज की, चांद की, कमल की
उपमाएं दी जायेगी!!
जब आज के गरीब से गरीब का पुत्र भी
गगन में सूर्य-मुख मण्डल सा दमककर
पृथ्वी को प्रकाश देगा
समाज को विकास देगा
जब मेहतर का पुत्र भी
आधुनिक वेदों को पढ़ेगा और
व्याख्याकार सायन-सा होगा श्रद्धेय वह
नूतन ज्ञानेश्वर नवीन कबीर-सा
जब शिक्षा की बुद्धि की खदानें
ठेकेदारों की मुठ्ठी में
बंद नहीं रहेंगेी और
मस्तिष्क का दमकीला रेडियम
घर-घर में चमकेगा।
स्वाभाविक प्रतिभा जब
ह्दय में मस्तिष्क में हरेक के
जीवन का संवर्धन सम्पोषण करेंगेी और
ह्दय के मस्तक के
तहखानों-भरे हुए तेजस्वी भण्डार
दिव्योज्जवल रत्नों के
भेदभाव-हीन हो, सब के लिए
खुल ही तो जायेंगे।
आत्मा की मनोहारी सुंदरी शकुंतला को
कमरे बंद कर
अपने व्यभिचार के लिए गिरफ्तार
कोई भी बाहर की शक्ति जब
कभी न कर पायेगी।
जब यही कभी भी न होगा कि जिंदगी
में अकेले ही मित्रहीन किसी को चलना पड़े !!
किसी के आँसुओं में हजारों के आँसू जब
मिलेंगे
एक के ह्दय की धड़कने जब

(अपूर्ण, संभावित रचनाकाल 1952-53)

क्रमश:

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