मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-4)


सिंहासनों पर वृद्धों के मनोरंजक योगासन-1

इस बुढ़ापे में, महात्मा गांधी सरीखे बहुत कम लोग हैं जिन्होंने अपने जीवन और मरण में इतनी  महान और व्यापक ख्याति प्राप्त की हो। लेकिन इसका कारण एक यह भी था वे किसी पद पर नहीं थे, यहाँ तक कि कांग्रेस से भी उन्होंने पद-वद के मामले में कोई ताल्लुक़ नहीं रखा। लेकिन ऐसे भाग्यवान और बुद्धिमान बूढ़े बहुत कम होते हैं। आज के अणु-युग में  गांधीवाद अपरिहार्य हो गया है।
(नया ख़ून, 12 जुलाई 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित)
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सिंहासनों पर वृद्धों के मनोरंजक योगासन-2

 ऐसे बूढ़े बहुत कम है जिन्हें बुढ़ापे में पद की लालसा न हो। वे अपनी मौत की खाई पर प्रभाव के पुल से काम लेना चाहते हैं। स्टालिन इसका ज्वलंत उदाहरण है। किंतु मौत होते ही उसकी कीर्ति की हत्या कर दी गई। लेकिन रूस की मौजूदा प्रवृत्ति को देखते हुए कहा जा सकता है कि उसकी जि़ंदगी में ही वह स्वयं अपनी पार्टी में लोकप्रिय नहीं रहा था। यह बुढ़ापे की ख़ास कमज़ोरी है कि उसमें पद की लालसा तो भयंकर हो उठती है, लेकिन वह नयी पीढिय़ों की नयी तमन्नाओं को पहचान नहीं सकता।
(नया ख़ून, 12 जुलाई 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित)
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सिंहासनों पर वृद्धों के मनोरंजक योगासन-3

बुढ़ापे में पद की लालसा का एक कारण तो यह है कि मनुष्य अमर बनना चाहता है, चाहे वह बाल-बच्चों के ह्रदय में क्यों न सही। इसलिए भारतीय उस बूढ़े को बड़ा मानते हैं जिसके लिए रोने वाले बहुत हो। उनके हृदय में तो उसने अपना पद बना ही लिया है, उनके हृदय में पद बनाने के लिए अगर सरकारी पद का उपयोग हो सकता है तो क्या कहना? फिर तो पद बिलकुल ही न छोड़ा जाए। 
(नया ख़ून, 12 जुलाई 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित)
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सिंहासनों पर वृद्धों के मनोरंजक योगासन-4

आज की दुनिया में बूढ़ों का राज है। पहले बूढ़े घर की हुकूमत करते थे, अब वे सरकार में हैं। पश्चिमी जर्मनी का चांसलर एडिनॉवर बहुत बूढ़ा है। उसकी तुलना में नेहरूजी जवान है। फ्रांस और ब्रिटेन की जल- थल- नभ सेनाओं में बूढ़े मार्शलों का बड़ा रोब है।
(नया ख़ून, 12 जुलाई 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित)
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सिंहासनों पर वृद्धों के मनोरंजक योगासन-5

हम तो दुनिया से सिफऱ् एक विश्व-प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ की दाद देंगे, जिसने बीच बुढ़ापे में पद छोड़ दिया। उसका नाम, मानो या मत मानो, चर्चिल है!! उसने तो पहले ही कह रखा था कि नष्ट-भ्रष्ट होते हुए ब्रिटिश साम्राज्य की अध्यक्षता करने के लिए पैदा नहीं हुआ है। ध्यान में रखने की बात है कि कितने ही बादशाह बुढ़ापे में भी सल्तनत पर जमें रहे तो उनके बेटों ने विद्रोह किया। शाहजहाँ का बुरा हाल आप जानते हैं। चर्चिल शाहजहाँ से ज़्यादा सयाना था।
(नया ख़ून, 12 जुलाई 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित)
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सिंहासनों पर वृद्धों के मनोरंजक योगासन-6

बुढ़ापे की यह कमज़ोरी बड़ी व्यापक है। वह अपने लिए अधिक-से- अधिक सम्मान चाहती है। यही वजह है कि बुढ़ापे में  वड्र्सवर्थ ने 'दरबारी शायर ' बनना स्वीकार किया। वड्र्सवर्थ की जि़ंदगी में ही कवियों की कम-से-कम तीन निचली पीढिय़ां काम कर रही थी-यहां तक कि शैली, कीट्स और बायरन समाप्त होकर, टेनिसन और उनसे छोटे ब्राउनिंग भी आगे आ गये। आखिऱकार, विक्षुब्ध होकर वड्र्सवर्थ के विरूद्ध ब्राउनिंग ने अपनी प्रख्यात कविता भी लिख डाली।
(नया ख़ून, 12 जुलाई 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित)
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सिंहासनों पर वृद्धों के मनोरंजक योगासन-7

और आज नयी दिल्ली मे बूढ़े पके-बाल साहित्यिकों का जमघट इक_ा हो गया। उनको स्वर्गवास नहीं वरन दिल्लीवास हुआ। अर्थात उनकी प्रतिभा की मृत्यु  हो गयी और उन्होंने लिखना पढऩा छोड़ दिया। अब वे प्रतिष्ठा और सम्मान के स्वर्ग में हैं और उस स्वर्ग मे वे अधिक से अधिक आदर-श्रद्धा और पद के लिए राजनीति करते हैं, सूत्र हिलाते हैं, किंतु सूत्रधार होने के बदले, वस्तुत:, वे विदूषक हो जाते हैं।
(नया ख़ून, 12 जुलाई 1957 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित)
क्रमश:

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