मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-6)

गजानन माधव मुक्तिबोध


रथ के दो पहिये- साहित्य और राजनीति 

साहित्य पर राजनीति का प्रभाव हमेशा बुरा नहीं होता। जो राजनीतिक विचारधारा देश में चलती है, उसका एक सांस्कृतिक पक्ष भी होता है जो साहित्य में निखरता है। हिंदी में गांधीवाद व मार्क्सवाद के प्रभाव रहे हैं। उससे हमारा साहित्य सम्पन्न भी हुआ है। उनके अभाव में साहित्य गरीब हो जाता। रहा  सवाल यह कि साहित्य राजनीति का नेतृत्व क्यों नहीं करता, तो इसका मूल कारण यह है कि हमारे हिन्दी साहित्य ने अपने युग तथा देश की प्रगट विवेक-चेतना के महाप्रभावशाली चित्र प्रस्तुत ही नहीं किये। तो, इसमें साहित्य के नाम पर रोने की ज़रूरत है, राजनीति के नाम पर नहीं। राजनीति ने तो हिन्दुस्तान को आज़ादी दिलवाई और आज भी वह देश को आगे बढ़ा रही है।
(सारथी, 20 मई , 1956 में प्रकाशित, रचनावली खंड 5 द्वितीय संस्करण में संकलित)
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संयुक्त महाराष्ट्र का निर्माण एकदम जरूरी

यह नि:संकोच स्वीकार कर लेना चाहिए कि जनता का विश्वास केन्द्र से और केन्द्र का विश्वास जनता से इतना उठ गया कि बम्बई में पंडित नेहरू मोटर से नहीं , हेलीकाप्टर से घूमा करते थे। इतना दर्दनाक दृश्य किसी ऊँचे कांग्रेसी नेता को नसीब नहीं था। महाराष्ट्र के बारे में ग़लतफ़हमियों के आंदोलन द्वारा , तथा बम्बई के उद्योगपतियों के मोरारजी देसाई जैसे उलटी खोपडी के सलाहकारों द्वारा, अजीबोगऱीब प्रस्ताव रखे गये, जिनमें एक प्रस्ताव जनमत संग्रह का था। जब कश्मीर में जनमत संग्रह नहीं हो सकता, तब बम्बई में क्यों? और जब बम्बई भौगोलिक दृष्टि से महाराष्ट्र का एक भाग है, तो सिर्फ सम्पत्ति-शक्तिशाली अल्पसंख्यकों के हित के लिए, महाराष्ट्र अपनी क़ुरबानी क्यों करें?
(नया ख़ून,  7 जुलाई 1957, रचनावली खंड 6, द्वितीय संस्करण में संकलित )
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कम्यूनिज्म का संक्रमण-काल
कम्यूनिज्म मतभेदों की बुनियाद पर नहीं चलता, एकमत के आधार पर चलता है, क्योंकि उन सिद्धांतों के अनुसार क़दम-से-क़दम मिलाकर करोड़ों आदमियों को एक साथ चलना पड़ता है कम्यूनिज्म के अंदर मतभेदों की सक्रियता का उद्देश्य एक राय पर  आना है। यदि इस दृष्टि (से) देखा जाय तो इस समय कम्यूनिस्ट विचारधारा एक संक्रमण - काल से गुजऱ रही है । पहले भी ऐसा हुआ था। 
   मार्क्सवादी सिद्धांतों के अनुसार, कम्यूनिस्ट पार्टी  के भीतर तानाशाही नहीं चल सकती। पार्टी की तानाशाही की संगीन का मुंह उन तत्वों की तरफ़ होगा जो कम्यूनिस्ट क्रांन्ति को उलटने की कोशिश करेंगे, न कि साधारण जनता की तरफ़।
(सारथी, 1 जुलाई 1956, रचनावली खंड 6, द्वितीय संस्करण में संकलित)
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जनमत बदलता है तो तानाशाही गिरती है

आज हालत यह है कि राजनैतिक घटनाएँ-चाहे वे हमसे सैकड़ों या हज़ारों मील दूर ही क्यों न घटी हों, हमारे मन पर दबाव और हमारे मन में तनाव उत्पन्न करती ही है। पत्रकार जगत में एक लंबे अरसे तक रहने  के कारण, इन घटनाओं के दबावों और तनावों में रहने और उनमें साँस लेते रहने की मुझे आदत भी पड़ गयी है। प्रश्न यह है कि फ़लाँ देश में ऐसी घटना घटी तो क्यों घटी? वे कौन सी प्रवृतियाँ हैं जिन्होंने उस देश में जनमत का रूप धारण कर लिया? अगर हिटलर को जर्मन जनता समर्थन प्राप्त था तो क्यों प्राप्त था? तो कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक राजनीति में जनमत का प्रश्न उठता ही है, जनमत के मूलाधार के बिना किसी देश में एक लंबे अरसे तक न तानाशाही क़ायम रह सकती है न जनतंत्र।
   प्रत्येक राजनैतिक विद्यार्थी को यह ज्ञात है कि  इजिप्ट और सीरिया में वहाँ की एकीभूत तानाशाही के पीछे प्रबल जनमत है। इसी जनमत के मूलाधार पर खड़े होकर जनरल फ्रैंको पिछले 22 वर्ष से स्पेन में अपना अधिनायक तंत्र चला रहा है। तो कहने का तात्पर्य यह कि यह आरग्यूमेंट/तर्क कि तानाशाह सरकार, जनमत के बिना और उसके संदर्भ से विहीन होकर, अपना काम करती है, ग़लत है।
 किंतु, जब जनमत बदलने लगता है तो तानाशाहियां गिरने लगती हैं। उसी प्रकार, जब जनतंत्र आगे नहीं बढ़ पाता तो तानाशाहियां क़ायम  हो जाती हैं। आपके सामने, हाल ही में, फ्रांस और पाकिस्तान के उदाहरण है।
(दिग्विजय कालेज, राजनांदगाव मे दिए गए भाषण का एक अंश, संभवत : 1960-61 रचनावली खंड-6 में संकलित)
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शिक्षक वर्ग का प्रभाव बढ़ना आवश्यक

आज समाज में शिक्षक वर्ग का प्रभाव बढऩा अत्यंत आवश्यक है, न केवल उनके वर्गीय हितों की दृष्टि से, वरन समाज के अपने हितों की सुरक्षा के लिए भी यह आवश्यक है।
    आज समाज में एक शिक्षक-वर्ग ही ऐसा है, जिसमें चरित्र संबंधी गौरव का भान अधिक विकसित है। ऐसी स्थिति में, यदि शिक्षक-वर्ग अधिक क्रियाशील हो उठे, और यदि वह अपनी क्रियाशीलता के फलस्वरूप देश में एक नवीन सांस्कृतिक-नैतिक वातावरण उत्पन्न कर सके, तो इससे अधिक सुखकर कोई चीज़ नहीं होगी।
    मेरा अपना मत यह भी है कि शिक्षक-संगठन के अंतर्गत, विभिन्न विषयों पर शिक्षकों की विचार गोष्ठियाँ भी हों और उनमें बाहर के लोगों को भी आमंत्रित किया जाय। विचारों के आदान-प्रदान द्वारा नवीन बौद्धिक और आत्मिक जागृति अवश्य ही उत्पन्न की जा सकती है।
(शिक्षकों की सभा में दिये गये भाषण का एक अंश, राष्ट्रवाणी, जनवरी-फऱवरी 1965 में प्रकाशित, रचनावली खंड-6 में संकलित)   


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