जो जीतेगा वही सिकंदर
कोई
गगनभेदी धमाके नहीं। चीखते-चिल्लाते लाउडस्पीकर से कान के परदे फट जाए ऐसी
आवाजें भी नहीं। छोटा-मोटा बैंड-बाजा और समर्थकों की छोटी-मोटी बारात,
गली-मोहल्लों में रेंगती सी। लेकिन प्रचार धुआंधार। घर-घर जनसंपर्क। चुनाव
प्रचार के आखिरी दौर में ऐसे दृश्य छत्तीसगढ़ के हर शहर और गांव में देखने
मिल जाएंगे क्योंकि मतदान की तिथि एकदम करीब आ गई है। 19 नवंबर को दूसरे
एवं अंतिम चरण में राज्य की शेष 72 सीटें के लिए मत डाले जाएंगे। कांग्रेस
और भाजपा के बीच मुकाबला कड़ा है। मुद्दे गौण हो चुके हैं। मतदाताओं ने
अपना मानस बना लिया है। उन्होंने भाजपा शासन के 10 साल देखे हैं। उसके
सकारात्मक, नकारात्मक पहलुओं को अपने हिसाब से तौल लिया है। यही स्थिति
कांग्रेस के साथ में भी है। बीते दशक में नेताओं के क्रियाकलापों को,
नीतियों और कार्यक्रमों को भी देख-परख लिया है। लिहाजा अब दोनों प्रमुख
प्रतिद्वंद्वी दलों का प्रचार अभियान उनके लिए एक तरह से बेमानी है। वोट
उसी पार्टी को देंगे, उसी प्रत्याशी को देंगे जिन्होंने उनका विश्वास जीता
है, दिल जीता है। बहुमत किसे? कांग्रेस या भाजपा के पक्ष में? जल्द तय हो
जाएगा। 19 नवंबर को अब चंद दिन ही शेष हैं। मतगणना 8 दिसंबर को है, समूची
स्थिति इस दिन स्पष्ट हो जाएगी।
सन् 2008 के चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में बड़ा फर्क
है। इनमें सबसे प्रमुख है चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली। आयोग इस बार कुछ
ज्यादा ही सतर्क और सख्त है। इस सख्ती का ही परिणाम है कि समूचा चुनाव
परिदृश्य नियंत्रित एवं संयमित है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है इस बार मतदाता
मौन जरूर हैं पर आपसी बातचीत में वे अपनी राय जाहिर करने में संकोच नहीं कर
रहे हैं। तीसरी बात है- इस चुनाव में स्थानीय समस्याएं मुद्दों पर भारी
हैं। यद्यपि अलग-अलग जगहों की अलग-अलग समस्याएं हैं लेकिन प्राय: सभी एक
जैसी है यानी सड़क, बिजली, सफाई, प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य एवं शुद्घ
पेयजल। ये समस्याएं मतदाताओं को विचार करने बाध्य कर रही हैं। इस बार भी
प्रमुख मुद्दे वही हैं जो पिछले चुनावों में भी थे। अर्थात विकास,
भ्रष्टाचार और कुशासन। दरअसल द्वंद्व इन्हीं तीनों प्रमुख मुद्दों के बीच
में है। सत्तारूढ़ भाजपा, पिछले चुनाव की तरह विकास के मुद्दे को भुनाने की
कोशिश कर रही है तो कांग्रेस ने कुशासन एवं भ्रष्टाचार को अपना हथियार बना
रखा है।
पिछले चुनाव और इस चुनाव में समानता की बात करें तो
मतदान की स्थिति सबसे पहले आती है। 2008 के चुनाव में भी भारी मतदान हुआ था
और इस बार भी अच्छी संभावना है क्योंकि बस्तर एवं राजनांदगांव में औसतन 72
प्रतिशत मत पड़े हैं। उम्मीद की जा रही है 72 सीटों पर भी यह ट्रेंड कायम
रहेगा। मतदान के अलावा एक और समानता, लहर की है। सन् 2008 में अंडरकरंट था,
इस दफे भी है। पिछले चुनाव में अदृश्य लहर भाजपा के पक्ष में बह रही थी,
इस बार यद्यपि अंदाज लगाना मुश्किल है पर आमचर्चा कांग्रेस के पक्ष में है।
यदि दूसरे चरण में भी भारी-भरकम मतदान हुआ तो यह माना जाएगा कि अन्य
मुद्दों के साथ-साथ एंटी इनकम्बेसी फैक्टर भी प्रबल है जो नतीजों को
प्रभावित करेगा।
चुनाव प्रचार की बात करें तो दोनों पार्टियों के शीर्ष
नेतृत्व ने छत्तीसगढ़ में पूरी ताकत झोंक रखी है। कांग्रेस की ओर से स्टार
केम्पेनर सोनिया गांधी, राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह तथा अन्य तो भाजपा की
ओर से नरेन्द्र मोदी, आडवाणी, राजनाथ सिंह तथा कई और। राज्य में नरेन्द्र
मोदी की 11 सभाएं, हैरत करने वाली है। उनकी इतनी ज्यादा सभाओं का क्या अर्थ
है? क्या यह घबराहट की निशानी है या फिर जंग एकतरफा जीतने का संकल्प? यह
सोचने वाली बात है। दूसरी ओर कांग्रेस के लिए यह चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न
है। अपनी जिंदगी के लिए डॉ.रमन सिंह को हैट्रिक से रोकना उसके लिए बेहद
जरूरी है क्योंकि दस साल से पार्टी सन्नाटे में हैं, बिखरी हुई है, मनोदशा
पतली है और मनोबल टूटा हुआ है। इस चुनाव के कुछ समय पूर्व सांसें लौटी हैं
लिहाजा वह पूरी एकजुटता से मुकाबला करने की कोशिश कर रही है। मुकाबला
बराबरी का चल रहा है किंतु यह काफी नहीं है। मौजूदा चुनावी माहौल से दोनों
पार्टियां आशंकित हैं हालांकि निश्चिंतता दिखाने का प्रयास जरूर कर रही
हैं।
पिछले चुनाव के मुकाबले इस चुनाव की एक और खासियत है-
कुछ राष्ट्रीय के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों की उपस्थिति। यद्यपि बसपा सहित
कुछ दल पिछले चुनावों में भी जोर-आजमाइश करते रहे हैं पर सफलता केवल बसपा
एवं एनसीपी के खाते में आई। 2008 में बसपा के दो एवं एनसीपी का एक विधायक
चुना गया। ल्ेकिन इस बार क्षेत्रीय दल के रूप में छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच
मौजूद है जिसने राज्य में अपने 55 प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। उसने
दुर्ग जिले में अपनी खासी पकड़ बना रखी है। यह लगभग तय है इस दफे उसका भी
खाता खुलेगा। यदि भाजपा या कांग्रेस सामान्य बहुमत के लायक सीटें नहीं
निकाल पाईं तो विधानसभा में इन दलों की संभावित उपस्थित निर्णायक हो जाएगी।
इसलिए इस चुनाव के बाद नए राजनीतिक समीकरणों की भी संभावना बनी हुई है।
कुल मिलाकर इस बार का चुनाव आशाओं और आशंकाओं के बीच झूल रहा है। ऐसी
स्थिति पहले कभी नजर नहीं आई थी। इसलिए अब इस चुनाव को लेकर यही कहा जा
सकता है- 'जो जीतेगा वही सिकंदर।'
Comments
Post a Comment