सवालों के घेरे में चुनाव आयोग
छत्तीसगढ़
में राज्य विधानसभा के चुनाव अमूमन शांतिपूर्ण ढंग से निपटने के बावजूद
निर्वाचन आयोग सवालों के घेरे में है। प्रदेश सरकार के मंत्री एवं रायपुर
दक्षिण से भाजपा प्रत्याशी बृजमोहन अग्रवाल आयोग की कार्यप्रणाली से बेहद
खफा हैं। उन्होने आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग ने अम्पायर नहीं, खिलाड़ी की
भूमिका निभाई। उन क्षेत्रों से बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम सूची से
गायब कर दिए गए जहां से उन्होने पिछले चुनाव में लीड ली थी। बृजमोहन ने यह
संख्या लगभग 15 हजार बताई है। उनका यह भी कहना है कि केवल उनके क्षेत्र से
नहीं पूरे प्रदेश में नाम गायब होने की वजह से हजारों मतदाता मतदान से
वंचित हो गए। बृजमोहन इस पूरे मामले को कोर्ट में ले जाने की तैयारी में
है।
क्या चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर इस तरह के प्रश्र चिन्ह
खड़े किए जा सकते हैं? लेकिन बृजमोहन एक जिम्मेदार जनप्रतिनिधि हंै इसलिए
उनकी बातों को अनदेखा कैसे किया जा सकता है? यह सच है कि वे इसलिए ज्यादा
नाराज हैं क्योंकि उनके निर्वाचन क्षेत्र के सैकड़ों मतदाताओं के नाम आयोग
की सूची में नही आ पाए, वरना वे शायद ऐसी बात नहीं कहते। लेकिन यह भी सच है
कि इस बार की मतदाता सूचियों में काफी गड़बडिय़ां थीं। हजारों की संख्या
में नाम छूट गए जबकि अनेकों के पास पूर्व में जारी किए गए मतदाता परिचय
पत्र भी उपलब्ध थे। चूंकि राज्य निर्वाचन आयोग की मतदाता सूची में उनका नाम
नहीं था, इसलिए उन्हे वोट नहीं डालने दिया गया। इसलिए बृजमोहन की शिकायत
वाजिब है। दरअसल प्रदेश के सभी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की मतदाता
सूचियों के पुनरीक्षण एवं संशोधन की जरूरत है। जबकि होता यह है कि इस कार्य
में पर्याप्त सावधानियां नहीं बरती जाती और गड़बड़ी का खुलासा तभी होता है
जब चुनाव एकदम सिर पर आ जाता है। खासकर मतदान के दिन शिकायतें गरजने-बरसने
लगती हैं।
बृजमोहन अग्रवाल की शिकायतों को राज्य चुनाव आयोग कितनी
गंभीरता से लेगा और सुधार की दिशा में कैसे प्रयत्न करेगा, आगे की बात है
लेकिन आयोग की समूची कार्यशैली को आरोपित करके यह कहना कि उसने अम्पायर
नहीं, खिलाड़ी की भूमिका निभायी, अतिशयोक्तिपूर्ण और दु:खद है। इसमें क्या
संदेह है कि निर्वाचन आयोग की सख्ती एवं कार्यकुशलता की वजह से इस घोर
नक्सल प्रभावित राज्य में चुनाव शांतिपूर्ण सम्पन्न कराए जा सके और वह भी
75 प्रतिशत रिकार्ड मतदान के साथ। इस बात के लिए यकीनन आयोग की तारीफ की
जानी चाहिए। पर यह तथ्य अभी भी अपनी जगह पर कायम है कि आयोग के निर्देशन
में चुनाव सम्पन्न कराने वाली एजेंसियां अपनी भूमिका के साथ पूर्णत: न्याय
नहीं कर पा रही है। विशेषकर सुरक्षा व्यवस्था पर और ध्यान देने की जरूरत
है। साजा निर्वाचन क्षेत्र में गोली चालन की घटना और एक व्यक्ति की मौत
व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाती है।
सवालिया निशान मतदान की तिथि यानी 18-19 नवम्बर की रात की
गतिविधियों पर भी है । इस रात शहर की दर्जनों झुग्गी बस्तियों में सरेआम
पांच-पांच सौ रूपए के नोट बांटे गए और शराब की बोतलें उपहार में दी गई।
यद्यपि श्रमिक बस्तियों में मतदाताओं से प्रलोभित करने के लिए पैसे, शराब,
या साडिय़ां-कंबल बांटना कोई नई बात नहीं है। प्रत्येक विधानसभा एवं नगरीय
संस्थाओं के चुनावों में राजनीतिक पार्टियां इन हथकंड़ों का इस्तेमाल करती
रहीं हैं। लेकिन जब देश में चुनाव सुधार की प्रक्रिया तेजी से चल रही हो
तथा व्यापक सुधार परिलक्षित भी हो रहा हो, तब पैसे बांटने जैसी बीमारियों
पर भी काबू पाया जा सकता है। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है? क्या कारण
है कि आचार संहिता लागू होने के बाद तथा मतदान के एक दिन पूर्व तक तो
सुरक्षा व्यवस्था जबरदस्त रहती है किन्तु मतदान की पूर्व संध्या इतनी ढ़ीली
पड़ जाती है कि बहुत आसानी से वोटों की खरीद-फरोख्त होने लगती है। ऐसा
क्यों? विशेषकर झुग्गी बस्तियों में जहां के वोटर चुनाव को सबसे ज्यादा
प्रभावित करते हैं।
यकीनन यही कहानी सभी शहरों-गांवों एवं कस्बों की है।
राजधानी रायपुर की बात करें तो शहर की चार विधानसभा सीटों के अन्तर्गत आने
वाली दर्जनों बस्तियां चुनाव की रात गुलजार रहीं। कारें आराम से बस्तियों
तक पहुंच रही थीं। कहीं कोई चेकिंग नहीं। कोई पूछताछ नहीं। रविशंकर शुक्ल
वि.वि. के पीछे स्थित कुकुरबेड़ा बस्ती, राजातालाब, श्याम नगर, पी एडं टी
कालोनी, हनुमान नगर, बैरन बाजार, सुभाष नगर, नेहरू नगर, टिकरापारा, जैसी कई
झुग्गी बस्तियों में कांग्रेस एवं भाजपा कार्यकर्ता दमखम के साथ आवाजाही
करते रहे। उन्होने रूपए बांटें, शराब की बोतलें दी और सबसे वोट देने का कौल
ले लिया। सवाल है जब आयोग इस तथ्य से परिचित है कि मतदान के पूर्व की रात
इस तरह की गतिविधियां बेखौफ चलती है, तो उसे रोकने व्यापक बंदोबस्त क्यों
नहीं किए गए? झुग्गी बस्तियों में पुलिस क्यों नहीं तैनात की गई? क्यों नही
उन्हे निगरानी में रखा गया? सुरक्षा बल को ढ़ील क्यों दी गई? क्या इसके
पीछे कोई राजनीतिक कारण थे? या किसी राजनीतिक दबाव में आकर आंखें फेर ली
गई? चुनाव प्रक्रिया के शुरू होने के बाद पुलिस ने जैसी स्फूर्ति दिखाई थी,
वह आखिरी और निर्णायक वक्त पर हवा क्यों हो गई? निश्चय ही जागरूक जनता
इसका जवाब चाहेगी।
दरअसल राज्य निर्वाचन आयोग को दो मुद्दों पर ज्यादा ध्यान देने की
जरूरत है। एक मतदाता सूचियों का दुरूस्तीकरण और दूसरा प्रलोभनों की रोकथाम।
पहला काम थोड़ा जटिल जरूर है लेकिन इसे फुलप्रूफ बनाने की जरूरत है। दूसरा
काम तनिक आसान है बशर्ते आयोग इसे अभियान के तौर पर लें। मतदान के पूर्व
क्या झुग्गी बस्तियों की पहरेदारी नहीं की जा सकती? पुलिस यदि चौकस रहे तो
वोट खरीदने का सिलसिला थम सकता है। 6 माह बाद लोकसभा चुनाव है। उम्मीद की
जानी चाहिए उस समय ऐसे दृश्य देखने नही मिलेंगे। हालांकि लेन-देन को रोक
पाना काफी मुश्किल है फिर भी कुछ तो अंकुश लग ही सकता है।
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