कुछ यादें कुछ बातें - 20

-दिवाकर मुक्तिबोध

पत्रकारिता के मेरे प्रारंभिक दिनों के साथी थे दीपक पाचपोर। देशबन्धु में हम साथ साथ थे। सामान्य कदकाठी के दीपक चुलबुले थे। मजेदार बातें करते थे। खूब बातें। बात बात में हंसी। हंसें तो चेहरा फैलना स्वाभाविक। पता नहीं दिन के बारह घंटों में किस वक्त उनका चेहरा सामान्य यानी गंभीर नजर आता होगा। लेकिन यह बडी बात थी कि अपनी इसी प्रकृति से वे संपादकीय विभाग के माहौल को जिंदा व खुशनुमा रखते थे।
दीपक रिपोर्टर थे। अच्छे रिपोर्टर। हिंदी के साथ अंग्रेजी में भी उनकी अच्छी पकड़ थी। शहर के लोगों के साथ उनका खासा मेलजोल था। वे देशबन्धु में कुछ ही वर्ष रहे। फिर पत्रकारिता छोड दी व रायपुर से निकल गए। इसके बाद मेरा उनसे खास सम्पर्क नहीं हुआ हालांकि खबरें मिलती रहीं कि वे दूसरे राज्य में सरकारी नौकरियां पकडते-छोडते रहे हैं। सालों गुजरने के बाद पता चला कि वे अखबारी दुनिया में लौट आएं हैं और जनसत्ता मुम्बई में हैं।
फिर एक दिन सूचना मिली कि दीपक पाचपोर भारत एल्युमिनियम कंपनी लिमिटेड (बाल्को ) कोरबा पहुंच गये हैं तथा जनसम्पर्क विभाग में वरिष्ठ पद पर हैं। मैं दैनिक भास्कर में था। जाहिर था मुझे प्रसन्नता हुई लेकिन मैं सोच रहा था यह आदमी है कि घनचक्कर। इसे नौकरियां मिल कैसे जाती है ? कभी किसी अखबार में, कभी किसी कंपनी में। वाह ! भाई , वाह ! । यकीनन पत्रकारिता व जनसंपर्क का प्रदीर्घ अनुभव काम तो आता ही होगा पर अधिक महत्वपूर्ण है योग्यता, कार्यकुशलता व खुद को प्रस्तुत करने की क्षमता। दीपक इनमें माहिर। मेरे सामने दूसरा उदाहरण परितोष चक्रवर्ती का है। उन्होंने भी दोनों नावों पर पैर रखें व कश्ती को आराम से चलाते रहे। कभी इस नाव पर तो कभी उस पर। यह मन का सवाल था। जो दिल बोले। काम करते करते एक से ऊब महसूस हुई तो दूसरा काम पकड़ लिया। न डगमगाए न गिरे, बस चलते रहे।
यह तो जाहिर ही था कि ऐसे मनमौजी प्रकृति के लोगों के साथ पुनः वहीं कहानी सामने आएगी।वह आ ही गई। दीपक बाल्को कंपनी में भी अधिक समय तक नहीं टिके। इस्तीफा दे दिया और फिर रायपुर लौटकर देशबंधु की सेवा में लग गए। इस बीच एक साक्षात्कार पत्रिका भी निकाली पर वह नहीं चली। नामी साहित्यकारों, कलाकारों ,लेखकों के खूब इंटरव्यू किए । पत्रिका बेहतर थी। अन्य से अलग थी। पर अकेले पड गए। अकेले गाड़ी कहां तक खिंचते? अर्थाभाव ने थका दिया। साक्षात्कार पर पूर्ण विराम लग गया। रायपुर से बोरिया बिस्तर संभाला व गृह नगर मुंगेली पहुंच गए । वहां एक प्रायवेट हायर सेकेंडरी स्कूल की नौकरी पकड़ ली। लेकिन प्रशासक के दायित्व से जल्दी ही ऊब गए। मुक्त हो गए। चूंकि यायावरी पीछा नहीं छोडती लिहाजा देश-विदेश भी घूम आए। अब सिर्फ लिखते-पढते व भ्रमण करते रहते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि इस बुढापे में हालांकि हर वृद्ध व्यक्ति स्वयं को जवान ही समझता है, उन पर पीएचडी का भूत सवार हुआ सो पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से अच्छी थीसिस के आधार पर डाक्टरेट की डिग्री हासिल कर ली। पता नहीं उन्हें पीएचडी किसलिए चाहिए थी। केवल शैक्षणिक दृष्टिकोण से अथवा किसी और पडाव के लिए। या शायद यह सोचकर कि नाम के आगे डाक्टर जोडने से कद बढता है, अलग तरह का दर्प भी महसूस होता है व आत्मसंतुष्टि भी मिलती है। बहरहाल कारण जो भी हो लेकिन यार-दोस्तों के लिए उनका पीएचडी करना अचरज , खुशी व गर्व की बात है। दीपक धुनी पत्रकार हैं। वे जो भी काम करते हैं , मन से करते हैं, सफलतापूर्वक करते हैं इसलिए प्रसन्न रहते हैं। उनके व्यक्तित्व की यह बडी विशेषता है। फिलहाल वे देशबंधु के लिए नियमित लेखन कर रहे हैं। और राजधानी में टिके हुए हैं।
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सनत चतुर्वेदी छत्तीसगढ़ के उन बिरले पत्रकारों में हैं जिन्होंने मूल्यानुगत पत्रकारिता करते हुए पूरी ईमानदारी व नैतिकता बरती। किसी भी प्रकार के समझौते नहीं किए। नौकरियां छोड़ दीं पर स्वाभिमान पर आंच नहीं आने दी। मेरा उनका साथ दो अखबारों व एक न्यूज चैनल में रहा।
दैनिक भास्कर , अमृत संंदेश व छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश न्यूज चैनल वाच में। हमने अमृत संंदेश में काफी समय बिताया जबकि बाकी में चंद महीनों का साथ। लगभग 45 वर्षों की पत्रकारिता में संभवतः यह पहली बार है जब वे एक सांध्य दैनिक में अब तक टिके हुए हैं।
सनत से मेरा परिचय करीब चार दशक से है। 1970-71 से। तब मैं मोहल्ला महामाया पारा स्थित महामाया मंदिर के प्रांगण एक कोने में बने हुए किराए के मकान में रहता था। पत्रकार भरत अग्रवाल भी पास ही में रहते थे। एक दिन मंदिर प्रांगण में सनत से भेंट हुई। वे मुझे जानते थे। बातचीत से मालूम पडा कि वे दैनिक युगधर्म के जगदलपुर ब्यूरो के प्रभारी हैं। उनसे मिलकर मुझे प्रसन्नता हुई। मुझे वे जहीन , विनम्र व गंभीर स्वभाव के लगे। चूंकि वे जगदलपुर में रहते थे इसलिए मुलाकातें बहुत सीमित रहीं। कुछ वर्षों बाद वे रायपुर शिफ्ट हो गए। हमारा साथ अमृत संदेश में हुआ। वे प्राविंशियल डेस्क के इंचार्ज थे, मैं सिटी देखता था।
सनत चतुर्वेदी के पास अच्छी भाषा व समझ है। अपने आसपास घटित घटनाओं को पत्रकार की पारखी नजर से देखने, परखने व विचारपूर्वक प्रस्तुत करने की काबिलियत उनमें हैं। उन्होंने हर तरह की रिपोर्टिंग की। क्या राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक। कोई भी विषय या घटनाएं हों, सनत जी भाषाई कौशल व तथ्यों के आधार पर उन्हें इतना पठनीय बना देते थे कि उसकी छाप कई दिनों तक मन में बनी रहती थी।
सनतजी नपी-तुली बातें करते हैं। चुप्पे नहीं हैं लेकिन फालतू बातें करना तथा अपनी ही हांकने का उनका मिजाज नहीं हैं। पर इसका मतलब यह नहीं कि मुद्दों पर बहस चली तो वे खामोश बने रहते हैं। उनके पास विषय की जानकारी रहती है, अध्ययन रहता है लिहाजा ऐसे मौकों पर अपनी तर्कशक्ति से वे दृढतापूर्वक अपनी बात रखते हैं। वे बेहद संवेदनशील व स्वाभिमानी हैं। दैनिक हरिभूमि जहां वे जिम्मेदार पद पर थे, इस बिना पर छोड दी क्योंकि प्रबंधन ने उनके उपर उनसे काफी जूनियर पत्रकार को बैठा दिया। सनतजी ने विरोध दर्ज किया व नौकरी छोड दी। दैनिक भास्कर में कार्य करने के दौरान तत्कालीन संपादक प्रदीप कुमार जी ने उन्हें कुछ कह दिया। सनत को स्वाभिमान पर चोट बर्दाश्त नहीं हुई, उन्होंने इस्तीफा दै दिया हालांकि प्रदीप जी की पहल पर उन्हें मनाने की कोशिश की गई लेकिन वे नहीं माने। जबकि उनकी पारिवारिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि एक दिन भी बिना नौकरी के रहा जा सके। उन पर यह बात लागू होती है कि फाके करने की नौबत आई तो फाके कर लेंगे पर समझौता नहीं करेंगे। पर चूंकि वे योग्य व अनुभवी पत्रकार हैं इसलिए उन्हें फटाफट काम मिल जाता था। काम के लिए उन्होंने यह नहीं देखा कि अखबार छोटा है या बडा। लेकिन अखबार में पद की गरिमा का व अपने स्वाभिमान का अवश्य ध्यान रखा। जिस दोपहर के अखबार में वे इन दिनों हैं, उसके संचालक का, जिनके बारे में बहुतों की राय अच्छी नहीं है, उनके कामकाज में दखल नहीं है और न ही वे अपनी इच्छाएं उन पर लादते हैं। यह बडी बात है।
सनत मेरे साथ जब तक सिटी रिपोर्टिंग में रहे, मुझे इस डेस्क की चिंता नहीं हुई। खबरें, उनका चयन, प्लेसमेंट, लेआउट व कंटेंट सभी परफेक्ट। सनत हरफनमौला है। किसी भी डेस्क पर उन्हें बैठा दें, वे सौ प्रतिशत देते हैं, देते रहे हैं, आज भी दे रहे हैं। यकीनन उन्हें किसी बडे अखबार का संपादक होना चाहिये था किंतु अब मीडिया की जो स्थिति है, वहां सनतजी जैसे पत्रकार फिट नहीं बैठते। अखबारों तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ऐसे संपादक चाहिए जो अपनी पोजीशन के बल पर अखबार के अन्य हित भी साध सके। नैतिक मूल्यों को जीते हुए विशुद्ध रूप से, ईमानदारी से पत्रकारिता करने वाले अधिकांश पत्रकार मुख्य धारा से बाहर हैं और यकीनन बाहर ही रहेंगे।
(अगली कड़ी बुधवार 13 अक्टूबर को)

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