कुछ यादें, कुछ बातें - 26

- दिवाकर मुक्तिबोध

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मेरे समकालीन व बाद की पीढी के छत्तीसगढ़ के अनेक ऐसे पत्रकार हैं जिन्होंने पत्रकारिता इस प्रदेश में रहते हुए प्रारंभ की लेकिन बाद में राज्य से बाहर चले गए व ख्यातनाम हुए। जो नाम मुझे याद आते हैं और जिनके साथ मेरा अनियमित सम्पर्क रहा है, उनमें प्रमुख हैं दीपक पाचपोर, निधीश त्यागी, सुदीप ठाकुर ,विनोद वर्मा, विजय कांत दीक्षित , शुभ्रांशु चौधरी ,महेश परिमल आदि आदि। संयोगवश ये सभी अलग-अलग समय में ललित सुरजन जी की पत्रकारिता पाठशाला यानी देशबंधु से निकले छात्र हैं। देशबंधु में कुछ महीने या कुछ वर्ष काम करने के बाद वे नये आकाश की तलाश में राज्य से बाहर निकले तथा जिन-जिन राष्ट्रीय अखबारों व मीडिया संस्थानों में रहे ,उन्होंने पत्रकारिता में अपना व छत्तीसगढ़ का मान बढाया। एक नाम और है, मेरे समकालीन जगदीश उपासने का। जहां तक मैं जानता हूं, उन्होंने रायपुर से प्रकाशित हिंदुत्ववादी विचारधारा के अखबार दैनिक युगधर्म से पत्रकारिता की शुरुआत की। बतौर पत्रकार मैं उन्हें जानता था पर कोई खास मुलाकात नहीं थी। आत्मिक परिचय का दायरा इसलिए भी आगे नहीं बढ पाया क्योंकि जगदीश नयी दिल्ली से प्रकाशित होने वाले इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के नये हिंदी अखबार जनसत्ता की संपादकीय टीम में चुन लिए गए जिसके संपादक प्रभाष जोशी थे। जनसत्ता के बाद वे समाचार विचार की प्रसिद्ध पत्रिका इंडिया टूडे में पहुंच गए और संपादक के रूप में वहां से निवृत्त हुए। चूंकि वे दिल्ली में बस गए थे अतः उनसे भेंट तब ही होती थी, जब वे अपने घर रायपुर आते थे। पर वह भी हर दफे नहीं। जगदीश उपासने समर्थ पत्रकार व कुशल संपादक व ओजस्वी वक्ता हैं। छत्तीसगढ़ को भले ही उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र न बनाया हो किंतु राष्ट्रीय पत्रकारिता में जो पहिचान बनाई है, उसमें छत्तीसगढ़ का अक्स साफ-साफ नजर आता है।
जिन दिनों मैं देशबन्धु था, विजयकांत दीक्षित बलौदाबाजार के संवाददाता थे। बलौदाबाजार जैसे छोटे स्थान से पत्रकारिता प्रारंभ करनेवाले विजयकांत ने जल्दी ही नया रास्ता चुन लिया। जब तक वे बलौदाबाजार में रहे, उनसे संवाद होता रहा। यह सिलसिला तब खत्म हुआ जब वे छत्तीसगढ़ से बाहर निकल गए। कहाँ कहाँ रहे, किन अखबारों में काम किया, ज्ञात नहीं, अलबत्ता यह खबर लगी कि वे नवभारत टाइम्स लखनऊ में हैं। एक दिन एकाएक फोन आया। सचिवालय में किसी आईएएस अधिकारी के पास बैठे हुए थे। चर्चा चली होगी , पिताजी का जिक्र आया होगा। सो दीक्षित ने उनसे मेरी बात कराई। फिर कुछ महीने बाद जब वे बलौदाबाजार आए तो रायपुर भी आए। घर आए। काफी समय तक इधर उधर की बातचीत होती रही। पता चला कि नवभारत टाइम्स से वे रिटायर हो गए थे। छत्तीसगढ़ मीडिया में नये काम की तलाश में थे। पता नहीं उन्हें काम मिला या नहीं पर उनका स्थायी निवास लखनऊ ही है।
निधीश त्यागी एक ऐसे पत्रकार हैं जिनका हिंदी के साथ अंग्रेजी पर भी समान अधिकार है। हिन्दी पत्रकारिता में बडा नाम। पत्रकारिता रायपुर से शुरू की । संभवतः पहला अखबार देशबन्धु ही था। देशबन्धु में वे बहुत बाद में आए। तब तक मैं वहां से निकल चुका था पर उनका नाम मैंने सुन रखा था । देशबन्धु वे कितने महीने या वर्ष रहे ज्ञात नहीं। एक दिन खबर मिली कि रायपुर उन्होंने छोड़ दिया है। संवाद नहीं था, इसलिए पता नहीं चल पाया कि वे कहाँ और किस समाचारपत्र में है। मेरी उनसे भेंट तभी हुई जब वे दैनिक भास्कर से जुड़े। जब वे दैनिक भास्कर चंडीगढ़ में थे तब मैं भी भास्कर उच्च प्रबंधन के निर्देश पर विशेष प्रयोजन से कुछ दिन वहां रहा। बाद में दैनिक भास्कर समूह के भोपाल गोवा संपादकों के सम्मेलनों में भी मुलाकातें हुई पर वे औपचारिक बातचीत तक ही सीमित थीं। अलग से मिलने या वार्तालाप करने की न तो उन्होंने इच्छा प्रकट की न मैने। अलबत्ता बीबीसी हिंदी के लिए कार्य करने के दौरान एक दो बार जरूर उनका फोन आया। विनोद वर्मा व अन्य के साथ भी कुछ ऐसा ही रहा। यदा-कदा फोन पर बातचीत या कभी कभार मुलाकात।
छत्तीसगढ़ में वर्ष 2018 में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद विनोद वर्मा व रूचिर गर्ग मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सलाहकार मंडली में हैं। विनोद राजनीतिक सलाहकार हैं और रूचिर मीडिया देखते हैं। विनोद देशबंधु दिल्ली में सेवाएं देने के बाद बीबीसी लंदन में रहे। रूचिर रायपुर में ही रहकर पत्रकारिता करते रहे। वे भी देशबन्धु से दीक्षित हैं। नयी दुनिया व नवभारत का संपादन करने के पूर्व वे राष्ट्रीय न्यूज चैनल सहारा समय के छत्तीसगढ़ ब्यूरो प्रमुख थे। इस चैनल में वे अनेक वर्षों तक रहे। प्रिंट मीडिया में रहते हुए वैसे तो उनकी अनेक रिपोर्ट्स चर्चा में रहीं किंतु उन्हें बस्तर में नक्सल समस्या की रिपोर्टिंग के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है। देशबन्धु के सीनियर रिपोर्टर के रूप में उन्होंने बस्तर संभाग के नक्सल प्रभावित इलाकों का सघन दौरा किया। नक्सलियों की मांद में गए, उनके कैम्प में रहे, उनसे बातचीत की व उनके विचार जानने के बाद रायपुर लौटकर श्रृंखलाबद्ध रिपोर्ट्स प्रकाशित की। यह शायद पहली बार था जब किसी युवा रिपोर्टर ने बस्तर में आतंक के पर्याय माओवादियों की कार्यशैली को नजदीक से देखने-परखने एवं सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक कारणों की वजह से उपजी इस राष्ट्रीय समस्या की तह तक जाने की कोशिश की।
दैनिक भास्कर में रहते हुए मेरा प्रयास था कि रूचिर हमारी संपादकीय टीम में शामिल हो जाए। उच्च प्रबंधन भी यही चाहता था। लेकिन रूचिर इच्छुक नहीं थे। ठीक से पता नहीं क्यों। लेकिन मुझे लगता है वे जहां थे, खुश थे। संस्था बदलने का उनका इरादा नहीं था। लिहाजा वे भास्कर में नहीं आए हालांकि अस्सी के दशक में जब इस नव भास्कर नाम से अखबार की लांचिंग हुई थी, वे नयी संपादकीय टीम के सदस्य थे।
रूचिर को मैं उस समय से जानता हूँ जब वे स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया में सक्रिय थे , कालेज छात्र थे तथा फेडरेशन के समाचारों के सिलसिले में प्रेस नोट देने अखबारों के दफ्तरों में आते थे। पत्रकारिता के बाद अब वे कांग्रेस की सरकार में नयी भूमिका में हैं। इस भूमिका को स्वीकार करने का निर्णय उनका अपना निर्णय है जिस पर मतांतर हो सकता है लेकिन यह बात तय है मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार के रूप में काम करने के बावजूद हर दिन , हर सुबह उनके भीतर का पत्रकार जागता होगा और फिर स्थिति का अहसास होते ही मन मसोसकर रह जाता होगा। इस तरह की मन:स्थिति से गुजरना उनके जैसे प्रखर, संवेदनशील व स्वाभिमानी पत्रकार के लिए स्वाभाविक है। कह नहीं सकते कि वे मीडिया में लौटेंगे या नहीं या फिर राजनीति में कदम आगे बढाएंगे। फिलहाल यह कहा जा सकता है कि जब तक छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार है, रूचिर भी वहां हैं।
विनोद वर्मा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के संघर्ष के दिनों के साथी हैं। प्रखर पत्रकार और अब बघेल के राजनीतिक सलाहकार। विनोद देशबन्धु में काफी दिनों तक रहे। बाद में ललित जी ने उन्हें दिल्ली में देशबन्धु का दायित्व सौंपा। दिल्ली में देशबन्धु के लिए रिपोर्टिंग करने के पश्चात उन्होंने लंदन की ओर रूख किया व बीबीसी हिंदी की सेवा में आ गये। रायपुर में वे जब तक रहे , कभी कभार उनसे मुलाकात हो जाया करती थी। पत्रकारिता की गहरी समझ के साथ उनके पास बढिया सौंदर्य बोध है, भाषा का। सरल, सुबोध व सुगम्य साहित्यिक भाषा। उतनी ही अच्छी शैली भी। उन्होंने घर आकर मां का किसी पत्रिका के लिए इंटरव्यू लिया था। घर, परिवार व पिताजी के संंबंध में लंबी बातचीत की थी। बहुत अच्छा था वह इंटरव्यू ।
रूचिर की तरह विनोद वर्मा की भी पारी किस तरह आगे बढेगी, फिलहाल कहना मुश्किल है पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे राजनीति में ही अपना स्थान बनाने की कोशिश करेंगे। और यह ठीक भी है क्योंकि राजनीति में अच्छे लोगों की वाकई बहुत जरूरत है।
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वर्ष 2000 , मई के महीने में बिलासपुर नवभारत में संयुक्त संपादक के पद पर जब मेरी नियुक्ति हुई तब वहां संपादक बजरंग केडिया थे। व्यावसायिक वृत्ति के बजरंग केडिया के बारे में मैं केवल इतना ही जानता था कि बिलासपुर से प्रकाशित किसी अखबार में वाणिज्य रिपोर्टर के रूप में उन्होंने पत्रकारिता प्रारंभ की थी और एक दिन वे नवभारत के प्रबंधक व संपादक बन गए जहां वे वर्षों बने रहे। नवभारत में नीतिगत व्यवस्था के तहत संपादक ही प्रबंधन की भी जिम्मेदारी संभालते थे। लेकिन मेरी नियुक्ति के बाद केडिया जी को संपादकीय दायित्व से मुक्त कर दिया गया। नवभारत का आंतरिक ढांचा कुछ ऐसा है कि व्यवस्थागत परिवर्तन नहीं के बराबर होता है। यानी संपादक या इतर पद पर एक बार जो नियुक्त हुआ वह रिटायरमेंट तक उसी पद बना रहता है। इसीलिए छत्तीसगढ़ की अखबारी दुनिया में नवभारत की नौकरी को सरकारी नौकरी माना जाता था जहाँ कर्मचारियों की सेवाएं सुरक्षित रहती थीं। केडिया जी के साथ भी यही हुआ, मुझे लाया गया पर उन्हें हटाया नहीं गया। केडियाजी समझदार व सुलझे हुए व्यक्ति थे। व्यवस्था में परिवर्तन बाबत वे नवभारत के संचालक का इशारा समझ गए थे लिहाजा उन्होंने संपादकीय कामकाज में दखल देना बंद कर दिया था अलबत्ता पत्रकार साथियों के साथ दरबार सजाना उन्होंने बदस्तूर जारी रखा। मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं थी। सालों तक एक अखबार की पूरी व्यवस्था देखने वाले व्यक्ति के लिए ऐसा करना स्वाभाविक बात थी।
बिलासपुर नवभारत में अधिकांश पत्रकार अधेड़ उम्र के थे। 20-22 साल का कोई नौजवान नहीं था। सभी को कामकाज का दीर्घ अनुभव था लेकिन इसके बावजूद भाषा के मामले में अधिकांश साथी गरीब थे। उनकी कापियों को सीधे कंपोजिंग के लिए नहीं भेजा जा सकता था। रूद्र अवस्थी, किशोर दिवसे, शशिकांत कोन्हेर, गणेश तिवारी व पीयूष पांडे सरीखे चंद ही ऐसे थे जिनके पास अच्छी भाषा, अच्छी समझ व अच्छी शैली थी। खबरों के प्रस्तुतीकरण में उनकी मास्टरी थी। लेकिन मेरी दृष्टि में इन सब में रूद्र अवस्थी विशिष्ट थे। बहुत काबिल रिपोर्टर जिनकी राजनीतिक टिप्पणियां घटनाओं के पीछे छिपे सत्य को बेपर्दा कर देती थीं। बिलासपुर का कोई ऐसा अखबार न था जो इतनी बारीकियों के साथ राजनीतिक घटनाओं की तथ्यों के आधार पर चीरफाड करता हो। दूसरे सहयोगी किशोर दिवसे का हिंदी ,अंग्रेजी पर समान अधिकार था। उनके लेख व साप्ताहिक कालमों में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की गहरी पडताल रहती थी लिहाजा नये-नये दृष्टिकोण सामने आते थे जो अखबार के विचार पृष्ठ को पठनीय बनाते थे। वे माहिर अनुवादक भी थे। उन्होंने कुछ किताबों का अनुवाद किया जो समय के अंतराल में प्रकाशित हुई हैं। नवभारत के एक और साथी शशिकांत कोन्हेर काफी सीनियर व बेहद प्रतिभाशाली पत्रकार थे किंतु उनमें कुछ कमियां थीं इस वजह से वे पत्रकारिता के क्षेत्र में उस उंचाई को छू नहीं पाए जिसके लिए वे डिजर्व करते थे। उनकी कमजोरियों व ड्यूटी पर महीनों अनुपस्थिति के बावजूद नवभारत ने उनकी नौकरी नहीं छिनी। जाहिर है संपादक व प्रबंधक बजरंग केडिया मानवीय दृष्टिकोण अपनाते रहे। जब मैंने कार्यभार संभाला, शशिकांत अनुपस्थित थे और काफी समय से थे। मेरे कार्यकाल के दौरान भी उनका यही रवैया रहा। वे अपनी मर्जी से दफ्तर आते -जाते रहे और मैं भी उनकी पारिवारिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए नवभारत की नीति का अनुसरण करता रहा। शशि नौकरी में बने रहे। इसमें कोई शक नहीं कि वे अच्छे रिपोर्टर व कलमकार हैं, यह अलग बात है कि उन्होंने खुद होकर अपनी संभावनाएं धूमिल की। इन कुछ नामों के अलावा संपादकीय विभाग के अन्य सहयोगी भाषाई सौंदर्य को भले ही ठीक से शब्द न दे पाते हों , लेखन में कमजोर हो, लेकिन वैचारिकता तथा पत्रकारिता की समझ की दृष्टि से वे किसी भी मायने में कमतर नहीं थे। रायपुर नवभारत की तरह नवभारत बिलासपुर भी प्रसार के मामले में अपने प्रतिद्वंद्वियों से काफी आगे बना रहा तो इसका श्रेय संपादकीय टीम को ही था जिसने अखबार के कंटेंट पर ध्यान रखा और विश्वसनीयता के मूल तत्व को नष्ट नहीं होने दिया।
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(अगली कड़ी शनिवार 6 नवंबर को)

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