कुछ यादें कुछ बातें-24

- दिवाकर मुक्तिबोध

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कमल ठाकुर

कमल ठाकुर जी से पहली मुलाकात कब और कहां हुई याद नहीं। मैं अखबारी दुनिया में नया नया था लिहाजा इतना जरुर जानता था कि वे नवभारत के संपादकीय विभाग में हैं और काफी सीनियर है। पता चला था कि सरकारी नौकरी मेंं थे पर वहां मन रमा नहीं इसलिए इस्तीफा देकर रायपुर लौट आए। पर मेरी उनसे पहली मुलाकात नवभारत नहीं, महाकोशल में हुई। श्यामाचरण शुक्ल के स्वामित्व वाले छत्तीसगढ़ के इस सबसे पुराने समाचार पत्र का प्रबंधन श्यामाचरण जी ने नवभारत के संपादक गोविंद लाल वोरा जी को सौंप दिया था। कमल ठाकुर महाकोशल मेंं भेज दिए गए थे। ऐसे ही किसी दिन महाकोशल में उनसे औपचारिक बातचीत हुई पर बात आगे नहीं बढ़ी। परिचय व आत्मीयता का दायरा तब बढा जब हम अमृत संदेश में साथ साथ काम करने लगे। 1983 के प्रारंभ में गोविंद लाल वोरा जी ने अपने अखबार अमृत संदेश के प्रकाशन की तैयारी शुरू की। नवभारत की नौकरी छोड़कर हम तीन सहयोगी नरेंद्र पारख, रत्ना वर्मा व मैं वोरा जी के साथ हो लिए थे। अमृत संदेश की लान्चिग के लिए कम से कम तीन महीने का वक्त था। इस बीच तैयारियां पूरी करनी थी। बाद में वरिष्ठ सहयोगी के रूप में कमल ठाकुर महाकोशल से आ गए थे। चूंकि अमृत संदेश की खुद की इमारत नहीं बनी थी लिहाजा हमारे बैठने की व्यवस्था वोरा जी के बूढापारा स्थित प्रिंटिंग प्रेस के कार्यालय में की गई थी। वोरा जी भी यही बैठने लगे थे। अभी संपादकीय टीम पूरी बनी भी नहीं थी एकाएक कमल ठाकुर जी ने नई राह पकड़ ली। दरअसल उसी दौरान एक और नया अखबार नवभास्कर मार्केट में आने वाला था। पत्रकारों के लिए नये अवसर पैदा हो गए थे। और ठीक ऐसे समय जब अमृत संदेश की तैयारियां जोरों पर थी, यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि कमल ठाकुर जैसे सीनियर ऐन मौके पर साथ छोड़ देंगे। पर यही हुआ। नवभास्कर के प्रकाशन के एक दिन पहले वे भास्कर पहुंच गए। दूसरे दिन यानी नवभास्कर के पहले अंक में वरिष्ठ संपादकीय साथियों के साथ उनकी भी फोटो छपी। हम लोग के लिए उनका इस तरह जाना किसी झटके से कम नहीं था । खैर अमृत संदेश का प्रकाशन यथासमय शुरू हुआ और इस बीच इधर-उधर भटकने के बाद कमल ठाकुर पुन: अमृत संदेश लौट आए। वोरा जी ने उन्हें साप्ताहिक पत्रिका आमंत्रण का काम सौंपा।

कमल ठाकुर हिंदी व अंग्रेजी के विद्वान थे। सहज, सरल व सभी से दोस्ताना व्यवहार। उम्र का कोई बंधन नहीं था। कनिष्ठ से कनिष्ठ सहकर्मी भी उनका मित्र बन जाता था। इसलिए पत्रकारों की जमात में वे बहुत लोकप्रिय थे। मेरे लिए तब बहुत असहज स्थिति निर्मित हो गई जब मेरी नियुक्ति मई वर्ष 2000 में नवभारत बिलासपुर में संयुक्त संपादक के पद पर हुई। और कमल ठाकुर वहां पहले से ही कार्यरत थे। जैसा कि आमतौर पर उन दिनों होता था , संपादक के लिए एक अलग कक्ष की व्यवस्था रहती थी जबकि कमल ठाकुर सहित अन्य सभी संपादकीय साथी एक बड़े से हॉल में एक साथ बैठते थे। चूँकि वे सीनियर थे लिहाजा उनका वहां बैठना मुझे ठीक नहीं लगता था। एक दिन मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे मेरे साथ मेरे चेम्बर में ही बैंठे। लेकिन उन्होंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। उन्होंने कहा - आप अखबार के संपादक हैं , मैं आपका कक्ष कैसे शेयर कर सकता हूँ। मैं बाहर ही ठीक हूं। आप अपने मन में कोई दुविधा न रखें। यह आपका बडप्पन है कि आप ऐसा सोचते हैं जबकि पद को लेकर मेरे दिल में कोई बात नहीं है बल्कि मुझे खुशी है कि आप मेरे संपादक हैं।' कमल ठाकुर की सहज प्रतिक्रिया के बावजूद मैंने नवभारत के नागपुर मुख्यालय में संचालक प्रकाश माहेश्वरी जी को पत्र भेजा व अपनी दुविधा बताई। जवाब में उनका पत्र आया कि आपको प्रोटोकॉल के अनुसार अपने पद की गरिमा व मर्यादा को ध्यान में हुए निर्णय लेना चाहिए। इशारा स्पष्ट था। प्रोटोकॉल का पालन किया जाए। व्यवस्था जैसी है, वैसी ही चलने दी जाए। उनके पत्र से मन हल्का हुआ, दुविधा खत्म हुई। कमल ठाकुर वरिष्ठ सहयोगी के रूप में मेरे साथ बने रहे।
कमल ठाकुर रायपुर से बिलासपुर रोज लोकल ट्रेन से आना जाना करते थे। एक शहर से दूसरे शहर रोजाना अप-डाउन करनेवाले दैनिक यात्रियों की संख्या सैकड़ों में थीं। इनमें अखबारों के भी कुछ लोग थे। प्रेस बिरादरी के सहयात्री ठीक समय पर रेलवे स्टेशन पर मिलते और लोकल के आते ही किसी एक डिब्बे में घुस जाते। भीड़ की वजह से कई बार बैठने के लिए नीचे की बर्थ नहीं मिल पाती तो उपर की बर्थ पर टांगें सिकोड़कर बैठना पडता था। अनेक दफे यह बंदा भी इसी तरह टंगा रहता था। दरअसल जैसा कि मैंने पूर्व में उल्लेख किया, होम सिकनेस के कारण अपने घर से बाहर दूसरे शहर मेंं अकेले रहने का मतलब फांसी पर चढने जैसा था। चूंकि नवभारत बिलासपुर में नौकरी ज्वाइन करने की विवशता थी, इसलिए किसी तरह अपनेआप को समझाया व ज्वाइनिंग के बाद अपना डेरा सर्किट हाउस में डाल दिया। तिथि थी एक मई 2000। मन में विचलन इस कदर था कि रात किसी तरह काटी व अगले दिन दफ्तर का कार्य निपटाकर देर रात रायपुर पहुंच गया। मुम्बई-हावड़ा रेल मार्ग पर होने के कारण वाया रायपुर-बिलासपुर इतनी ट्रेन चलती हैं कि चौबीस घंटों में किसी भी समय यात्रा की जा सकती है। बहरहाल अगले चार-पाँच दिनों तक यह क्रम चलते रहा। एक दिन जी ऐसा घबराया कि मैंने सोच लिया कि नौकरी छोड़ दी जाए। सो अपना सूटकेस लेकर दफ्तर आ गया। ठाकुर साहब माजरा समझ गए। मैंने समस्या बताई। उन्होंने समझाते हुए कहा कि आपके मन की हलचल मैं समझ सकता हूँ। क्योंकि मैं भी ऐसा ही हूं। मेरी ड्यूटी का समय सुबह दस से पांच का है अत: मेरे लिए अप--डाउन संभव है पर आप रोज ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि अखबार की पूरी जिम्मेदारी आप पर है लिहाजा आप ऐसा करें शनिवार की शाम मेरे साथ चला करें व सोमवार की सुबह साथ-साथ लौंटे। मुझे लगता है इससे आपके मन में स्थिरता आ जाएगी। कमल ठाकुर जी की बातों पर मैंने गौर किया और मैंने फैसला किया किया कि नौकरी छोडना मन की समस्या से निपटने का विकल्प नहीं है। कमल जी मुझे आत्मबल मिला । मैंने तय किया कि मुझे छह दिन बिलासपुर में रहना चाहिए व एक दिन रायपुर। मैंने एक होटल में मासिक किराए पर रूम ले रखा था। उस दिन मेरा सूटकेस फिर होटल में पहुंच गया। अब मुझे शनिवार की प्रतीक्षा होने लगी। लेकिन जब कमल ठाकुर व प्रबंधन के एक दो साथी जो रायपुर के ही थे, रोज शाम को कामकाज समेटकर रेलवे स्टेशन के लिए निकलते तो मन उदास हो जाता। फडफडाने लगता। पर शनिवार आते ही यही मन उल्लास से भर उठता था। कभी मैं उनके साथ हो लेता तो कभी देर रात की ट्रेन पकडता। लौटते समय सोमवार की सुबह सात बजे रायपुर रेलवे स्टेशन पर हम मिला करते। इस साप्ताहिक सफर में मजा आने लगा था। कुछ कुछ एडवेंचर जैसा। ठाकुर जी तो थे ही , इस दौरान अनेक सहयात्री भी मित्र बन गए। करीब पांच वर्ष मैं बिलासपुर में रहा। और यही क्रम चलता रहा। मेरी होम सिकनेस लगभग समाप्त हो गई थी। कमल ठाकुर न होते, उन्होंने हौसला न दिया होता तो यकीनन यह न हो पाता। इस मायने में , एक बडे भाई के रूप में मेरे मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा है। अब घर से बाहर रहने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी। हालांकि जब रात मेंं अकेले हुआ करता था, परिवार खासकर बच्चों की बहुत याद आती थी। लेकिन रहते-रहते बिलासपुर मुझे बेहद अच्छा लगने लगा था। रायपुर से कही ज्यादा। यहां के लोग अच्छे थे, शहर अच्छा था, पत्रकारों की जमात भी अच्छी थी, नई मित्र-मंडली बन ही गई थी और दिल भी यह कहने लग गया था कि कितना अच्छा होता यदि परिवार सहित अपना बसेरा यहां बना लिया होता।
मैं करीब पांच वर्ष नवभारत व दैनिक भास्कर बिलासपुर में रहा। इस बीच कमल ठाकुर कभी रायपुर कभी बिलासपुर रहे। वे कर्मठ ,मेहनती , ईमानदार व अध्ययनशील पत्रकार थे।पर वे किसी भी एक जगह दीर्घ अवधि तक टिके नहीं। दरअसल वे भी घर व परिवार से अधिक दिनों तक दूर नहीं रह सकते थे।इसलिए जब मन करता वे घर बैठ जाते और बाद में छुट्टी की दरखास्त भेज देते। नौकरी छोडऩे व दूसरी पकडऩे में उन्हें समय नही लगता था क्योंकि उनके जैसे क़ाबिल पत्रकार के लिए अखबारों के दरवाज़े खुले हुए थे, भले ही वे आना-जाना करते रहे हों। जब रायपुर में रहते ,टिकरापारा चौक जहाँ उनका घर था, टपरीनुमा चाय की दुकानें उनका अड्डा हुआ करती थीं। हम अनेक बार उनके घर गए पर मुलाक़ात अड्डे पर हुई। इन अड्डों पर उनके आसपास मामूली हैसियत के सर्वहारा वर्ग के लोग हुआ करते थे जिनके लिए कमल ठाकुर किसी मसीहा से कम नहीं थे। ये अड्डे क्या थे, उन्हें वैचारिक मंच कहना ज्यादा ठीक रहेगा क्यों कि जब कभी किसी अड्डे पर मेरी उनसे मुलाक़ात हुई , सभी बहस में उलझे नजऱ आते थे।
कमल ठाकुर ऊंचे-पूरे तंदुरूस्त व्यक्ति थे। स्वस्थ। यह सोचना भी कठिन था कि एकाएक उनकी मृत्यु हो जाएगी। पर ऐसा ही हुआ। एक सुबह खबर मिली कि कमल ठाकुर का निधन हो गया। हम स्तब्ध। कुछ समझ में नहीं आया ऐसा कैसे हो गया। पता चला सुबह सुबह उन्हें हार्ट अटैक आया जिसे वे झेल नहीं सके। यह दुखद था कि उनकी अंतिम यात्रा में इने-गिने पत्रकार शामिल हुए जबकि लगभग पूरा मोहल्ला अंत्येष्टि स्थल पर मौजूद था।
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(अगली कड़ी बुधवार 27 अक्टूबर को)

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