कुछ यादें कुछ बातें - 22

-दिवाकर मुक्तिबोध


अमृत संदेश के दो और साथियों का जिक्र करना चाहूंगा एक परितोष चक्रवर्ती और दूसरे कमल ठाकुर। परितोष को देशबंधु के जमाने से जानता था जब वे इस पत्र के पर्यटक संवादाता थे और छत्तीसगढ़ के गांवों का दौरा करके रिपोर्ट तैयार करते थे। शायद छत्तीसगढ़ के किसी भी अखबार के वे एकमात्र पर्यटक रिपोर्टर थे। बीच-बीच में वे जरूरत के हिसाब से रायपुर दफ्तर आते। देशबंधु में उनसे परिचय मात्र हुआ, आत्मीयता नहीं बनी। मैं नहीं जानता था कि वे कवि व कहानीकार भी हैं। उन्हें जानने की तब ललक सवार हुई जब देशबन्धु में उनकी एक श्रृंखला का सिलसिलेवार प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह सीरीज थी रिपोर्टर सुनील की। प्रख्यात जासूसी उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक के काल्पनिक पात्र सुनील को केंद्र में रखकर एक नई शैली में लिखी गई कहानियां। मैं रहस्य कथाओं का बचपन से पाठक रहा हूं। प्रेमी रहा हूं। मेरठ व  इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले तमाम जासूसी उपन्यासों को मैंने खूब पढ़ा है। सुरेंद्र मोहन पाठक भी उनमें से एक हैं। परितोष का यह लेखन मुझे बहुत अच्छा लगा हालांकि इनका कथानक अब मुझे याद नहीं है पर उसका एहसास दिल में अभी भी बना हुआ है। परितोष देशबंधु छोड़ने के बाद नौकरियों के चक्कर में छत्तीसगढ़ से बाहर इधर-उधर काफी भटकते रहे। अखबारों के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में भी उन्होंने काम किया। उनके बारे में सूचनाएं मिलती रहीं। इस दौरान कभी कभार टेलीफोन पर उनसे बातचीत हो जाया करती थी। एक दिन मालूम पड़ा कि वह रायपुर शिफ्ट हो रहे हैं। पुन: पत्रकारिता शुरू करेंगे। गोविंद लाल वोरा जी से उनकी बातचीत हुई। उन्होंने रायपुर आने का फैसला किया, अमृत संदेश में। मेरे पास उनका फोन आया -रायपुर आ रहा हूं किराए का मकान देख ले। मैंने खोजबीन शुरू की। देवेंद्र नगर में ही , जहां मैं रहता था, करीब पांच सौ मीटर दूर एक एलआईजी मकान किराए पर मिल गया। वे वहां सपरिवार शिफ्ट हो गए। मेरे थोड़े से प्रयास से नजदीक के ही स्कूल में भाभीजी को भी नौकरी मिल गई। वोरा जी ने परितोष को अमृत संदेश की साप्ताहिक पत्रिका 'आमंत्रण' का कामकाज सौंपा। कमल ठाकुर सहित तीन पत्रकारों की टीम आमंत्रण को देखने लगी। परितोष को आत्मीयता के स्तर पर ठीक से जानने-समझने का अवसर एक ही मोहल्ले में रहने व साथ में काम करने की वजह से मिला।

परितोष न केवल अच्छे पत्रकार, कवि व लेखक हैं , वरन संवेदना से भरपूर अच्छे इंसान भी हैं जो मित्रता निभाना जानते हैं। लेकिन पता नहीं वे ऐसा क्यों सोचते हैं कि वे ही अपनों के काम आते हैं ,अपने उनके नहीं। शायद किसी खास वजह से उनकी यह धारणा बनी हो जो मेरी दृष्टि में सच नहीं हैं। लोगों ने, मित्रों ने उनकी जरूरत पड़ने पर मदद की है। हर मित्र करता है। मित्रता मेंं यह बहुत सामान्य चीज है। यह ठीक है कि रायपुर में उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी। इसलिए आमंत्रण में नौकरी बजाते हुए उन्होंने नौकरी के लिए इधर उधर हाथ पैर मारने शुरू कर दिये थे। वे इस कोशिश में थे कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स  जहां कभी भी वे जनसंपर्क अधिकारी थे, नौकरी वापस मिल जाए। पुरानी कंपनी में लौटने की उनकी कोशिश कामयाब हुई और उनकी पोस्टिंग एसईसीएल बिलासपुर में जनसंपर्क अधिकारी के पद पर हो गई। मैं आश्चर्यचकित था क्योंकि यह काम आसान बिल्कुल नहीं था। मुझे कुछ समझ में नहीं आया लेकिन खुशी भी हुई कि परितोष की मुफलिसी अब दूर हो जाएगी। मैंने नयी नौकरी के बाबत उनसे पूछताछ नहीं की और न ही उन्होंने कुछ बताया। पर एक दिन अकस्मात इसी प्रश्न पर चर्चा के दौरान कमल ठाकुर ने बताया कि उन्होंने अर्जुन सिंह को चिट्‌ठी लिखी थी जो उन दिनों केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्री थे। संभव है इस पत्र का भी प्रभाव पड़ा हो। बहरहाल परितोष 'अमृत संदेश' की नौकरी छोड़कर एसईसीएल बिलासपुर पहुंच गए। वर्ष 2000 में जब बिलासपुर मेरी पोस्टिंग दैनिक नवभारत में बतौर संयुक्त संपादक हुई, उनसे रोजाना मुलाकात का दौर शुरू हो गया। दरअसल मैं पहली बार नौकरी के सिलसिले में रायपुर से बाहर निकला था। एक तरह से बिलासपुर मेरे लिए अजनबी ही था। वहां मित्रों की संख्या सीमित ही थी। करीबी दोस्त दो-चार। ऐसे में परितोष का वहां रहना मेरे जैसे एकाकी के लिए सुखद था। बिलासपुर में मैं कोई साडे चार साल रहा।दो वर्ष नवभारत में व करीब ढाई वर्ष दैनिक भास्कर में। यह नगर मुझे इस कदर भाया कि अफसोस करता रहा कि मैं यहां पहले क्यों नहीं आया। शनिवार को देर रात पहुंचता व सोमवार की सुबह बिलासपुर पहुंचने की इच्छा बलवती हो जाती। नवभारत में भी मैंने सप्ताह में दो कॉलम लिखने शुरू किए थे। 'हस्तक्षेप'  व 'देख भाई देखÓ। इसके अलावा राजनीतिक एवं एवं गैर राजनीतिक घटनाक्रमों पर आधारित विशेष टिप्पणियां एडिट पेज पर छपती ही थी। कुल मिलाकर लेखन धड़ल्ले से चला और सराहा भी गया।

परितोष चूंकि अकलतरा व बिलासपुर के ही थे इसलिए उनकी पत्रकार, लेखक के रूप में अच्छी प्रतिष्ठा व पहचान थी। इसका फायदा उन्हें एससीसीएल में कार्य करते हुए भी मिला। कंपनी के खिलाफ निगेटिव खबरें कम ही छपती थीं। संपादकों व रिपोर्टरों के साथ उनका सीधा सम्पर्क था। लेकिन नवभारत में मेरे आने के बाद बंदिशें समाप्त हुई। मैंने संवाददाताओं को निर्देश दे रखा था कि खबरों को खबरों जैसे ही पेश किया जाए , निजी संबंधों में लपेटकर नहीं। इसका नतीजा यह निकला कि कंपनी के भी पॉजिटिव के साथ - साथ निगेटिव, हर तरह के समाचार अखबार में छपने लगे। ऐसी ही किसी खबर पर परितोष ने मुझे सूचित किया कि खबर सही नहीं है। कंपनी का पक्ष ठीक से नहीं छपा है अत: एक पत्र नवभारत के नागपुर कारपोरेट आफिस को भेजा जा रहा है , जिसकी काफी तुम्हें भेज दी गई है। उन्होंने टेलीफोन पर भी मुझसे बात की। इस पर मैंने कुछ नहीं कहा क्योंकि यह उनकी ड्यूटी का हिस्सा था। हालांकि इस संदर्भ में नागपुर से कोई पूछताछ नहीं हुई। और न ही इस वजह से हमारी दोस्ती में कोई दरार आई।

लेकिन परितोष की एक बात मुझे समझ में नहीं आई। उन्होंने कहा कि मुझे लेखन कम करना चाहिए। उनका इशारा साप्ताहिक स्तम्भ की ओर था जिसमें घटनाओं का पोस्टमार्टम हुआ करता था। मैंने जवाब देने की आवश्यकता नहीं समझी और न ही लिखना कम किया क्योंकि पाठकों से जो फीडबैक मिल रहा था वह उत्साहवर्धक था। संभव था परितोष की नजर में लेखन हमेशा स्तरीय न रहता हो। और ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं लेकिन वे खुद भी बड़े लिख्खाड रहे हैं।

बहरहाल यह उनकी प्रकृति में था कि वे नौकरियों में अधिक समय तक टिकते नहीं थे। उनका मन उचट जाता था, कहीं और ठिकाना खोजने वे छटपटाने लगते थे। एस ई सी एल में चंद वर्ष बिताने के बाद वे नये रोजगार की तलाश में लग गए। आत्मीय संबंधों का लाभ यह हुआ कि कोयले का धंधा करने वाले एक कांट्रेक्टर ने उनके सामने नयी दिल्ली से एक पाक्षिक समाचार विचार पत्रिका निकालने का प्रस्ताव रखा और एस ई सी एल की बची हुई नौकरी छोड़ने से होने वाले आर्थिक नुकसान की भरपाई करने का भी वायदा किया। अंधा क्या मांगे दो आंखें ? परितोष को ऑफर अच्छा लगा। आर्थिक क्षति होने की नहीं थी व उडने के लिए नया आकाश मिल रहा था लिहाजा उन्होंने पेशकश स्वीकार कर ली। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी को अलविदा कहा और पत्रिका के प्रकाशन की तैयारी करने दिल्ली उड गए। प्रकाशक महोदय ने जो कहा वह किया। वायदे के अनुसार उन्होंने रकम भेट कर दी।

अब देश की राजधानी में एक भव्य समारोह में अच्छी खासी तैयारी के साथ ' लोकायत ' का आगाज हो गया। परितोष की चूंकि साहित्यिक व पत्रकार बिरादरी के बीच अच्छी पहचान व प्रतिष्ठा थी अत: देशभर में पत्रिका का नेटवर्क बनाने में अधिक समय नहीं लगा। राष्ट्रीय पत्रिकाओं के बीच अल्प समय में 'लोकायत ' ने अपना स्थान बना लिया। इसमें परितोष का भी लेखन धड़ल्ले से  चला।
लेकिन फिर वही बात। मन की छटपटाहट। हालांकि उन्होंने रायपुर में मकान खरीदकर परिवार के रहने की व्यवस्था कर दी थी। लेकिन  व्यापारी प्रकाशक से तनातनी के चलते उन्हें यह भी नौकरी छोडने का बहाना मिल गया। रायपुर से जनसत्ता का प्रकाशन प्रारंभ हो गया था। परितोष संपादक के बतौर विराजमान हो गए। इसके बाद उनका अगला पड़ाव था सत्ता प्रतिष्ठान से पोषित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय की माधव राव सप्रे शोधपीठ। वे नियुक्ति पा गए। इस शोध पीठ के वे छह वर्षों तक अध्यक्ष रहे। नौकरियों के सिलसिले में उनका भटकाव यहीं आकर समाप्त हुआ।

परितोष ने काफी लिखा है। उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं। पत्रकारिता के अनुभवों पर उनका एक उपन्यास भी हैं। अब उनका साहित्य व पत्रकारिता में हस्तक्षेप नहीं के बराबर है। कारण है स्वास्थ्य व इस वजह से उपजी बेचैनी। वे कहते हैं कि अब कुछ भी लिखने या करने की इच्छा नहीं होती। इसमें दो राय नहीं कि वे प्रदेश के अग्रिम पंक्ति के लेखक व पत्रकार हैं। पर विपुल लेखन के बाद भी हिंदी साहित्य जगत में उनकी रचनात्मकता व साहित्य की चर्चा अपेक्षाकृत कम है। यह दुर्भाग्यजनक है कि छत्तीसगढ़ ने कई अन्य लेखकों के साथ ही उन्हें भी लगभग विस्मृत कर दिया है। कभी कभार टेलीफोन पर उनसे बातचीत होती है और तब हम दोनों की दुनिया एक हो जाती है, यादों की दुनिया।
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(अगली कड़ी बुधवार 20 अक्टूबर को)

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