कुछ यादें कुछ बातें - 21

-दिवाकर मुक्तिबोध

छत्तीसगढ़ के स्थापित अखबार नवभारत व देशबन्धु इस मुगालते में थे कोई भी नया अखबार प्रचार प्रसार के मामले में उन्हें चुनौती नहीं दे सकता इसलिये वे निश्चिंत थे अतः उन्होंने दैनिक भास्कर को गंभीरता से नहीं लिया जिसने राजधानी व राज्य में अपने पैर जमाने तरह-तरह के उपाय आजमाने शुरू कर दिये थे जिनमें घरेलू उपयोग में आने वाले वस्तुओं की पुरस्कार योजना महत्वपूर्ण थी। अनेक दफे चली ये योजनाएं कारगर रहीं। अब स्थिति यह हैं कि दैनिक भास्कर वर्षों से राज्य का सबसे बडा अखबार बना हुआ है तथा नवभारत व देशबंधु अपने अस्तित्व की रक्षा करने संघर्ष कर रहे हैं। दैनिक भास्कर की यात्रा कमाल की है। अचंभित करने वाली। पाठकों को प्रलोभन देकर कोई अखबार जबर्दस्ती पढाया नहीं जा सकता। इसके लिए जरूरी है कंटेंट। और इसके लिए आवश्यक है ऐसी संपादकीय टीम जो पाठकों की जरूरत व मनोभाव को समझें और इसके अनुसार कार्य करें, अखबार बनाए। ग्राहकों को आकर्षित करने पुरस्कार योजनाएं शुरू करने के साथ ही दैनिक भास्कर ने अखबार में परोसी जाने वाली सामग्री की ओर सर्वाधिक ध्यान दिया। इसके लिए उसने संपादकों व प्रबंधकों की ऐसी टीम खडी की जो अपने काम में निष्णात थी। भास्कर प्रबंधन ने अधिक वेतन देकर नवभारत, देशबन्धु व अन्य अखबारों में कार्यरत युवा व वरिष्ठ पत्रकारों को जोड लिया जिन्होंने नये नये प्रयोग किए व पाठकों को अखबार पढने विवश कर दिया। प्रसार बढाने पुरस्कार योजनाओं का सपोर्ट था ही पर कंटेंट ने कमाल किया। और धीरे-धीरे एक नशे के मानिंद दैनिक भास्कर को हर सुबह की जरूरत बना दी गई। नवभारत व देशबन्धु जैसे स्थापित अखबारों के बीच अपने लिए जगह बनाना व रिकॉर्ड समय में उनसे आगे निकलना आसान नहीं था। पर यह कीर्तिमान बना। जाहिर है इसका बहुत कुछ श्रेय यह उस दौर के विलक्षण संपादकों व उनकी ऊर्जावान युवा टीम को है।
धनंजय वर्मा वर्ष 1992 में मै जब दैनिक भास्कर में दाखिल हुआ तो संपादकीय विभाग में अनेक चेहरे परिचित थे व कई नये भी। धनंजय वर्मा का नाम मैंने न सुना था और न ही उनसे परिचित था। धनंजय प्रांतीय डेस्क के सहयोगी थे। संकोची व शालीन। ऊंचे-पूरे इस युवक में मुझे स्पार्क नजर आया। मुझे लगा कि उनकी प्रतिभा को आकाश मिलना चाहिए। मैंने उन्हें प्राविंशियल डेस्क से हटाकर सिटी रिपोर्टिंग टीम में स्थानांतरित कर दिया। समय बितते-बितते धनंजय इस डेस्क के इंचार्ज बन गये। धनंजय वर्मा के पास बहुत अच्छी भाषा है, शैली में मिठास है और प्रस्तुतिकरण शानदार। इसकी झलक रायपुर सिटी डायरी से मिलती थी जो उनका साप्ताहिक कालम था जो मेरे लगातार पीछे पडने के फलस्वरूप उन्होंने शुरू किया था। घटनाओं की रिपोर्टिंग में खैर वे बेजोड़ थे ही। उनके समाचार विश्लेषण तार्किक होते थे। उन्होंने तथा नवाब फाजिल ने रिपोर्टिंग डेस्क को बहुत अच्छी तरह संभाला था। सिटी खबरों का नम्बर वन अखबार बन गया था दैनिक भास्कर। वर्ष 2000 में मैं भास्कर से बिदा हुआ। कुछ साल बाद धनंजय ने भी दूसरा अखबार पकड़ लिया। लेकिन अफसोस की बात थी कि उन्होंने लिखना बंद कर दिया था। जब कभी उनसे मुलाकात होती थी, मैं जोर देकर कहता था कि उन्हें लेखन बंद नहीं करना चाहिए। डेस्क की पत्रकारिता, खबरों का ठीक से संपादन व उनका प्रस्तुतिकरण तो खैर महत्वपूर्ण है ही लेकिन अपनी खुद की पहचान बनाए रखने के लिए लेखन भी आवश्यक है चाहे वह किसी भी रूप में हो। या तो साप्ताहिक कालम या महत्वपूर्ण राजनीतिक- सामाजिक घटनाओं का त्वरित विश्लेषण। अच्छी कलम को कतई रोकना नहीं चाहिए क्योंकि यह प्रतिभा के साथ न्याय नहीं होगा। इस पर धनंजय गोलमोल सा जवाब देते थे। मैं उनकी विवशताएं समझ सकता था। उन दिनों दैनिक भास्कर में जैसी लेखकीय स्वतन्त्रता थी वैसी अब अखबारों में नहीं रही। पत्रकारों के हाथ बंधे हुए हैं। व्यवस्था के खिलाफ लिखने का अर्थ है प्रताड़ित होना तथा नौकरी गंवाना। धनंजय कहते हैं - ' अब मै केवल नौकरी कर रहा हूं । क्योंकि यह मेरी पहली आवश्यकता है।' उनकी पीडा दरअसल बहुतेरे पत्रकारों की पीडा है जिन्हें अपनी प्रतिभा का दमन करते हुए इस तरह नौकरी बजानी पड रही है। धनंजय यद्यपि संपादक के पद पर पहुंच गए हैं लेकिन उनकी लेखकीय सामर्थ्य को बंद किताब की तरह देखना दुखद है।
नवाब फाजिल कुछ ऐसी ही स्थिति युवा व बेहद प्रतिभावान नवाब फाजिल की है। वे अभी दैनिक भास्कर में महत्वपूर्ण पद पर हैं पर मेरे विचार में उन्हें संपादक होना चाहिये था। नवाब काम के मामले में तेज हैं। भाषा व शैली भी अच्छी है। बिलाशक बेहतरीन रिपोर्टर हैं पर उनकी सारी ऊर्जा डेस्क के कार्यों के साथ दम तोड़ देती है। दरअसल नवाब और उन जैसे समर्थ पत्रकार कोई जोखिम उठाना नहीं चाहते जबकि कम से कम दैनिक भास्कर में अभी भी इतना तो खुलापन है कि व्यवस्था पर संयमित तरीक़े से प्रहार किया जा सकता है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। मेहनत से जी चुराने तथा लिखकर कौन बला मोल ले की तर्ज पर पत्रकार काम कर रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि स्थानीय अखबार केवल घटनाओं की खबरें परोस रहे हैं। वैचारिक पक्ष लगभग विलुप्त हो गया है। घटनाओं की तह तक जाने, उसके पीछे का सत्य उदघाटित करने तथा उनका आखिरी तक पीछा करने यानी फालोअप जो कि आदर्श पत्रकारिता का महत्वपूर्ण तत्व है, पर अमल अब नहीं के बराबर है। खोजी खबरों का तो अकाल जैसा पड गया है। किसी भी अखबार के पन्ने पलटिए , सभी में आपको लगभग एक जैसी खबरें मिलेंगी। सुरेश महापात्र / विनोद सिंह दैनिक भास्कर में यों प्रतिभाओं की कमी नहीं रही। जिलों के संवाददाता तराशे हुए थे। अपने काम में, खोजखबर के मामले में उस्ताद थे। ऐसे अनेक नामों में एक नाम हमेशा स्मृति में रहा है - दंतेवाड़ा के सुरेश महापात्र का। बस्तर के पत्रकार सुरेश महापात्र जुझारू व निर्भीक संवाददाता हैं । पत्रकारिता की उनकी गहरी समझ व खबरों के पीछे दौडते रहने की उनकी प्रवृत्ति ने उन्हें विशिष्ट बना दिया है। दैनिक भास्कर जगदलपुर ब्यूरो प्रभारी रहने के बाद उन्होंने अपने शहर दंतेवाड़ा लौटना मुनासिब समझा। और तदाशय की पेशकश की। उनकी पारिवारिक स्थिति को समझते हुए मैंने उनका अनुरोध स्वीकार किया लिहाजा वे इस जिले के ब्यूरो प्रभारी के रूप में काम करने लगे। नक्सल प्रभावित बस्तर में पत्रकारिता करना तलवार की धार पर चलने जैसा है। जरा भी डगमगाए तो खैर नहीं। एक तरफ राज्य की पुलिस तो दूसरी तरफ नक्सलियों की बंदूकें। ऐसे में जान का खतरा हमेशा। लेकिन इसके बावजूद बस्तर की पत्रकारिता बहुत समृद्ध हैं। राष्ट्रीय अखबारों के संवाददाताओं को जब कभी बस्तर को कव्हर करना रहता था तो सहयोग लेने उनकी दृष्टि जिन चंद पत्रकारों पर नजर पडती थी , उनमें एक नाम सुरेश महापात्र का था। और यह स्थिति अभी भी कायम है। यह उनकी विश्वसनीयता की वजह से है जो उन्होंने खबरों में निष्पक्षता बरत कर अर्जित की है। घटना का फटाफट ब्यौरा इकट्ठा करके , स्टोरी बनाकर तुरंत रायपुर कार्यालय भेजने के बाद अपडेट्स लेने पुन: फील्ड में पहुंच जाना उनकी फितरत रही है ताकि ओव्हर आल कव्हरेज के मामले में अन्य से आगे रहे। भास्कर में उनके रहते खबरों के मामले में निश्चिन्तता रहती थी। उन्होंने यह विश्वास कभी टूटने नहीं दिया। सुरेश महापात्र व उनके घनिष्ठ मित्र विनोद सिंह को इस बात का श्रेय है कि दंतेवाड़ा जिले से प्रथम दैनिक अखबार का प्रकाशन उन्होंने शुरू किया। उनके बस्तर इंपैक्ट को पांच वर्ष हो चुके हैं। संसाधनों की कमी के बावजूद एक पिछड़े व नक्सल प्रभावित जिले से दैनिक समाचार पत्र का अनवरत प्रकाशन मामूली बात नहीं है। सुरेश महापात्र व विनोद सिंह बिना झुके व बिना डरे अपने पत्र के जरिए ऐसा इंपैक्ट डाल रहे हैं जो पाठकों को तो सुहाता है पर सत्ता प्रतिष्ठानों को चुभता है, चिकोटी काटने जैसा दर्द देता है। उनकी पत्रकारिता की यही बडी सफलता है। सुरेश अब राजधानी से भी बस्तर इंपैक्ट निकाल रहे हैं। अनिल पुसदकर एक दिन रायपुर प्रेस क्लब में टेबल टेनिस खेलते हुए एक श्याम वर्ण तेजस्वी युवक हाथ में टीटी बैट लेकर मेरे सामने, टेबल के उस पार आ खडा हुआ। गहरे रंग की पीली शर्ट पहने इस तरुण को मैं पहचानता नहीं था। हमने खेलना शुरू किया। वह बहुत अच्छा खेल रहा था। विशेषकर उसके शाट्स व रिटर्न अच्छे थे। गेम खत्म होने के बाद एक साथी ने परिचय कराया । यह युवा पत्रकारिता में नया-नया दाखिल हुआ था । एक नये दैनिक संदेह बंधु टाइम्स का रिपोर्टर था। नाम अनिल पुसदकर। दैनिक भास्कर में उसका प्रवेश किसके माध्यम से हुआ, नहीं जानता लेकिन उस खेल के दौरान मुझे महसूस हुआ था यदि यह लडका हमारी सिटी रिपोर्टिंग टीम में शामिल हो जाए तो टीम और बेहतर हो जाएगी। और ऐसा ही हुआ। मैं उन दिनों टीम इंचार्ज था। चीफ सिटी रिपोर्टर। अनिल दैनिक भास्कर के करीब डेढ दर्जन सिटी रिपोर्टर्स में सर्वाधिक तेज तर्रार रिपोर्टर साबित हुए। उनकी हिंदी सामान्य थी किंतु खबरों को ढूंढ निकालने में उनकी महारत व उन्हें प्रस्तुत करने का ढंग ऐसा था कि पाठक बिना पढे रह नहीं सकता था। यों भी क्राइम की खबरों का पाठक वर्ग काफी बडा है। अनिल क्राइम बीट देखते थे। पुलिस महकमे में उनकी तगड़ी घुसपैठ थी फलतःअंदरूनी खाने की गोपनीय खबरें , पर्दे के पीछे की हलचलों की भनक अपने विश्वसनीय सूत्रों से उन्हें आसानी से मिल जाया करती थी। लिहाजा क्राइम खबरों के मामले में , खोजपरक खबरों के संदर्भ में दैनिक भास्कर का कोई मुकाबला नहीं था। और इसका श्रेय जाहिर है अनिल के खाते में था। दैनिक भास्कर के संचालक सुधीर अग्रवाल इस बात पर जोर देते थे कि सिटी पेज पर विश्वसनीय व तथ्यात्मक समाचारों के अलावा कुछ और अलग होना चाहिए ताकि अखबार की पठनीयता बढे। उनका जोर साप्ताहिक कालम पर था। बीट के महत्व की दृष्टि से साप्ताहिक कालम शुरू होने चाहिए। मैं खुद कालम लिखता था- हफ्तावार व हस्तक्षेप। हफ्तावार प्रदीप पंडित ने प्रारंभ करवाया था जो उस समय हमारे संपादक थे। जब मै भोपाल से बुलावा आने पर सुधीर जी सै मिलने उनके घर गया तो अखबार के संबंध में चर्चा के बाद उन्होंने मुझे 'हस्तक्षेप' शीर्षक से स्तम्भ लिखने का निर्देश दिया। उनका निर्देश था अन्य साथियों से भी लिखवाया जाए। चूंकि अनिल क्राइम देखते थे अतः उनसे ' पुलिस परिक्रम ' कालम शुरू करवाया गया। यह कालम अपनी धार की वजह से बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गया। लेकिन जब इसकी आंच बडे अफसरों तक पहुंचने लगी , वे कालम के दायरे में आने लगे और एक्सपोज हुए तो उनकी ओर से भोपाल शिकायतें पहुंचाई गईं। वहां से कहा गया कि लेखन में संयम बरता जाए। विशेषकर वरिष्ठ आइपीएस अफसरों पर अवांछित टिप्पणी न की जाए। इस निर्देश के बाद ,जैसा कि तय प्रतीत हो रहा था, अनिल ने कालम लिखना ही बंद कर दिया। स्वाभिमानी पत्रकार से यह अपेक्षित ही था। मैंने भी अधिक जोर नहीं दिया था क्योंकि मेरी दृष्टि से भी एक दो एपीसोड में कुछ बातें आपत्तिजनक थीं। अफसरों का नाम लेकर सीधे प्रहार से बचा जाना चाहिए था। यहां भाषाई संयम की दरकार थी। संभवतः शिकायतों का आधार भी यही था। अनिल फिर दैनिक भास्कर में ज्यादा दिन नहीं टिके लेकिन जैसा कि उनका मिजाज था वे कहीं भी लंबे समय तक नहीं रह पाए। अखबार बदलते रहे, न्यूज चैनलों में आना-जाना करते रहे। लेखन से रिश्ता लगभग टूट सा गया। व्यवसाय में भी हाथ आजमाया किंतु अच्छी बात यह रही कि उन्होंने पत्रकारिता नहीं छोडी। अनिल के लिए भी यह कहना पड रहा है कि उन्होंने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के साथ न्याय नहीं किया। अन्यथा वे भी किसी बडे अखबार के जाने-माने संपादक रहते। ------------------------------ (अगली कड़ी शनिवार 16 अक्टूबर को)

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