कुछ यादें, कुछ बातें - 25

- दिवाकर मुक्तिबोध

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रायपुर में पोस्टिंग के पूर्व विजय शंकर मेहता जी कौन है, मैं नहीं जानता था। बाद में मैंने जाना कि वे स्टेट बैंक आफ इंडिया उज्जैन में अधिकारी हैं तथा वहाँ दैनिक भास्कर ब्यूरो का अप्रत्यक्ष रूप से कामकाज देखते है। यह भी सुना कि दैनिक भास्कर के मालिकों से उनके अच्छे संबंध है तथा समूह संपादक श्रवण गर्ग को वे अपना गुरू मानते हैं। शायद उन्होंने बैंक की नौकरी छोडऩे का मन बना लिया था और अब पूर्णकालिक पत्रकारिता करना चाहते थे। लिहाजा इसकी शुरूआत रायपुर से की जा रही थी। वे रायपुर आए व संपादक का पदभार ग्रहण किया। दुर्योग से इस अवसर पर मैं उपस्थित नहीं था। दरअसल मैं बीमार था। घुटने में बार-बार पानी भरने की वजह से चलने-फिरने से लाचार था फलत: लंबी छुट्टी पर था। लेकिन मेरी अनुपस्थिति का गलत अर्थ निकाला गया व मेहता को कुछ विघ्नसंतोषियों द्वारा यह बताने की कोशिश की गई कि मैं बीमारी का बहाना बना रहा हूँ क्योंकि मैं अपना तबादला भिलाई नहीं चाहता। संभवत: यह बात उपर तक पहुँचाई गई। बहरहाल जब मेरी स्थिति कुछ ठीक हुई तो मैं दफ़्तर पहुँचा व मेहता जी के सामने हाजिर हो गया। मेरी उनसे यह पहली मुलाक़ात थी। वे तिलकधारी थे, मुझे तेज़ आदमी लगे। किसी अखबार के दफ़्तर में आम तौर पर संपादक के कक्ष में दीवारों पर देवी-देवताओं की तस्वीरें शायद ही नजऱ आए। पर दैनिक भास्कर के नये संपादक के कक्ष में हनुमान जी पहुँच गए थे। दीवार पर उनकी तस्वीर बता रही थी कि संपादक महोदय रामभक्त हनुमान के परम भक्त हैं। औपचारिक बातचीत के बाद उन्होंने फऱमान सुना दिया कि कल भिलाई चले जाएँ और एक हफ़्ते में सारी व्यवस्थाएँ ठीक कर लें। मैंने हामी भरी व अगले दिन सुपेला, भिलाई स्थित दफ़्तर पहुँच गया। नई व्यवस्थाएँ बनाने में समय लगना ही था सो वह लग रहा था। तकनीकी रूप से पेज मेकिंग का काम शुरू नहीं हो पा रहा था जबकि मेहता जी ने बिना हक़ीक़त जाने दबाव बनाना शुरू कर दिया था। जिस तरह बातें चल रही थी, मुझे संचालक गिरीश अग्रवालजी का कथन याद आने लग गया था। बहरहाल मेहता जी ने एक रात बडी तल्ख़ भाषा में अल्टीमेटम दे दिया- ' कल से पेज भेजना शुरू करें।' मुझे उनका रवैया पसंद नहीं आया। मैंने भी साफ़ शब्दों में मना कर दिया- ' नही हो सकता। समय लगेगा। जब हमारी व्यवस्था ठीक हो जाएंगी तब हम यहां पेज मेकिंग कर पाएंगे।' आगे कुछ बाता-बातें हुई और मैंने तैश में आकर कह दिया कि आप नई व्यवस्था देख लें। मैं यहाँ से जा रहा हूँ, कल इस्तीफ़ा भेज दूँगा। इस पूरे घटनाक्रम से हाईकमान को किस तरह अवगत कराया गया, मैं नहीं जानता लेकिन गिरीशजी की आशंका सही साबित हुई कि मेहता जी के साथ आपकी पटरी नहीं बैठेगी। हालाँकि मेहता जी को ठीक से जानने-समझने का मुझे पर्याप्त समय ही नहीं मिला था। दरअसल ऐसा लगा कि उनके रायपुर पहुंचते ही कान फूंक दिए गए थे। इसलिए बहुत संभव है उनकी मेरे प्रति कोई धारणा बन गई हो। बहरहाल मेहता जी अधिक समय तक रायपुर में नहीं रहे। उन्होंने बाद में पत्रकारिता से ही किनारा कर लिया। हनुमान भक्त तो थे ही लिहाजा प्रवचनकर्ता बन गए। वे ओजस्वी वक्ता थे। हनुमान चालीसा को व्यक्ति की जीवन पद्धति से जोडकर वे अपने प्रवचनों से धर्मप्राण जनता को मंत्रमुग्ध कर देते थे। अतः बहुत जल्दी उन्होंने इस क्षेत्र में राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर ली। उनके प्रवचनों की गूँज देश-विदेश में होने लगी। प्रवचन देने जब वे पहली बार रायपुर आए, मै पुन: दैनिक भास्कर में स्थानीय संपादक के रूप में मौजूद था। उनसे होटल में मुलाक़ात हुई। सहज व स्नेहिल मुलाक़ात। इसके पूर्व दैनिक भास्कर के दफ़्तर में वे गए तथा संपादकीय सहकर्मियों की मीटिंग में मेरा जिक्र करते हुए उन्होंने भिलाई की घटना पर अफ़सोस जाहिर किया था। जब साथियों ने मुझे इससे अवगत कराया , तो मन के किसी कोने में मुझे अपार संतुष्टि मिली।
पंडित विजय शंकर मेहता भले आदमी हैं। मैं उन्हें इस बात का श्रेय देना चाहूँगा कि उन्होंने मेरी होम सिकनेस एक हद तक कम कर दी। भिलाई में टेलीफोन पर उनसे विवाद न हुआ होता तो मैं आनन-फानन में भास्कर न छोड़ता। दरअसल मेरे हाथ में एक नौकरी पहले से ही मौजूद थी। बिलासपुर नवभारत में संयुक्त संपादक की। नियुक्ति पत्र मेरी जेब में पडा हुआ था। केवल हामी भरनी थी। चूंकि परिवार से दूर नहीं रह सकता था। इस वजह से नवभारत उच्च प्रबंधन का प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर रहा था। लेकिन परिस्थितिवश उसे अंततः स्वीकार करना पडा। आलम यह था कि मैं बिलासपुर में रहने की दृष्टि से रोज सूटकेस लेकर जाता लेकिन देर रात ट्रेन से रायपुर लौट आता। यह क्रम एक सप्ताह तक चला। इस अवधि में मन की अस्थिरता कुछ कम हुई और एक दिन मैंने एक होटल को अपना ठिकाना बना लिया अलबत्ता शनिवार देर रात रायपुर लौट आना व सोमवार को सुबह बिलासपुर पहुँचने का क्रम जारी रहा। धीरे-धीरे मैं अकेले रहने का आदी हो गया बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि बिलासपुर ने मेरा अकेलापन ख़त्म कर दिया। यह चमत्कार हुआ कुछ करीबी दोस्तों व इस शहर की तासीर की वजह से। छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में विख्यात शहर की आबोहवा में अपनत्व इस कदर घुला हुआ है कि बहुत जल्दी बाहरी लोग भी आत्मीय जुड़ाव महसूस करने लग जाते है। मेरे साथ भी यही हुआ। मैं तो यहाँ तक सोचने लग गया था कि काश मैंने अपना कर्म क्षेत्र रायपुर के बजाए बिलासपुर को बनाया होता।
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(अगली कड़ी शनिवार 30 अक्टूबर को)

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