कुछ यादें कुछ बातें - 23

श्रवण गर्ग

__________

मेरे एक और संपादक श्रवण गर्ग का जिक्र करना चाहूंगा। वे पहले दैनिक भास्कर इन्दौर के स्थानीय संपादक थे। बाद में दैनिक भास्कर समाचार पत्र समूह संपादक बने तथा काफी समय तक इस पद पर रहे। वे बहुत सुलझे हुए, ईमानदार व कलम के धनी पत्रकार हैं। लेकिन उनका सामना करने मेंं प्राय: हर पत्रकार घबराता था जिनमें मैं भी शामिल था। दरअसल श्रवण जी स्वभाव से कड़े व रूखे हैं। पर जिनसे उनका मन मिलता था वह व्यक्ति उनका मुरीद हो जाता था। उनकी नाराजगी आमतौर पर काम को लेकर रहती थी। वे परफेक्शनिस्ट हैं और ऐसी ही उम्मीद अपने मातहत पत्रकारों से रखते थे। उनका इस बात पर बहुत जोर था कि पत्रकारों को हमेशा अपडेट रहना चाहिए। जहां कहीं कुछ भी घटित हो रहा हो , उसकी जानकारी तुरंत उसे होनी चाहिए। वे खुद भी अपडेट रहते थे और जो ऐसा नहीं कर पाता था, उसकी शामत तय थी। हालांकि जब गुस्सा शांत हो जाता, वे पुचकारने में देर नहीं करते थे। मैं उनसे घबराता था। घबराहट इसलिए रहती थी कि पता नहीं क्या पूछेंगे और मैं ठीक जवाब दे पाऊंगा कि नहीं। जब कभी किसी घटना के बारे में पूछताछ करने उनका भोपाल से फोन आता तो मैं कोशिश करता था , उन्हें नाराजगी जाहिर करने का अवसर न मिलें। पर ऐसा हमेशा नहीं हो पाता था। वे समझ जाते थे कि अपने आसपास घटित घटनाओं की जानकारियां हासिल करने में मैं कितना कमजोर हूं। वे कहते कुछ नहीं थे पर उनकी बातचीत से समझ मेंं आ जाता था कि वे नाराज हैं। फिर भी पता नहीं उन्होंने मुझमें क्या खासियत देखी थी कि पदोन्नति से लेकर तनख्वाह बढ़ाने तक वे मेरा साथ देते रहे। बिलासपुर से गृह नगर वापसी भी उनकी वजह से संभव हो सकी।

एक विद्वान पत्रकार व संपादक के रूप में श्रवण जी की राष्ट्रीय ख्याति है। कठोर स्वभाव की वजह से उनसे नाराज रहने वाले भी काफी रहे हैं और इस सत्य से वे खुद भी परिचित हैं। वे यह भी कहने से नहीं चूकते कि जो पत्रकार योग्यता की उनकी कसौटी पर खरा नहीं उतरा, उसे बाहर का रास्ता दिखाने में उन्होंने देर नहीं की। इसलिए ऐसे लोग जाहिर है एक व्यक्ति के रूप में उनके बारे में अच्छी राय नहीं रखते। किंतु उन्हें एक तटस्थ, निर्भीक, ईमानदार व तेज कलमकार के रूप में सभी सलाम करते हैं तथा स्वीकार करते हैं कि श्रवण जी ने अपनी पत्रकारिता में पेशेगत ईमानदारी व नैतिक मूल्यों को कायम रखा व परिस्थितियों के साथ कभी समझौता नहीं किया। राजनीतिक व सामाजिक विषयों पर वे लगातार लिख रहे हैं और खूब पढे जाते हैं।
दैनिक भास्कर समूह संपादक के रूप में पत्रकारों के हितों की रक्षा में उनकी भूमिका भी उल्लेखनीय रही। उच्च प्रबंधन को विश्वास में लेकर उन्होंने जो काम किया, वह इसके पूर्व कोई संपादक नहीं कर पाया था। भास्कर के अन्य संस्करणों की बात मैं नहीं करता पर रायपुर संस्करण वेतनमान के मामले में सर्वाधिक पिछड़ा हुआ था। शुरू से ही संपादकीय विभाग के साथियों का वेतन बहुत कम था। और तो और संपादक की तनख्वाह भी अन्य संपादकों के मुकाबले काफी कम थी। जब भास्कर ने कारपोरेशन कल्चर में प्रवेश किया, तब श्रवण जी ने परफॉर्मेंस के आधार पर स्थानीय संपादकों को वेतन वृद्धि व पदोन्नति का अधिकार दिया तथा उनकी सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए तनख्वाहें बढाई व योग्य साथियों को पदोन्नत किया। आज दैनिक भास्कर में कई ऐसे संपादक हैं जो इसी अखबार में किसी समय रिपोर्टर, सह संपादक, सहायक संपादक थे। यह बंदा भी 1992 मेंं विशेष संवाददाता फिर मुख्य संवाददाता,1996 में समाचार संपादक , 2003 मेंं स्थानीय संपादक 2013 में स्टेट कोआर्डिनेटर के पद पर रहा। कहने का आशय यह कि दैनिक भास्कर मेंं योग्यता व क्षमता की कदर होती थी विशेषकर श्रवण जी के जमाने हालांकि अब अब परिस्थितियां बदली गई हैं। अब संपादकों को प्रतिदिन के अखबार के अलावा जरूरत के अनुसार कंपनी के हित मेंं कुछ और कार्य भी करने पड़ते हैं।
श्रवण जी के साथ यादों का कोई भंडार मेरे पास नहीं है। चंद मुलाकातें व टेलीफोनिक बातचीत तक सीमित रहे संबंध। लेकिन मुझे इस बात का अहसास था कि श्रवण जी मेरे काम से संतुष्ट हैं तथा मुझसे स्नेह रखते हैं। भोपाल कारपोरेट आफिस की घटना है। मुझे भोपाल तलब किया गया। कुछ खबर नहीं थी, मीटिंग का ऐजेंडा क्या था। मन मेंं इसे लेकर हलचल जरूर थी लेकिन नौकरी जाने की आशंका नहीं। इसलिए जब श्रवण जी के कक्ष में दाखिल हुआ तो उत्सुकता यह जानने की थी कि माजरा क्या है। औपचारिक बातचीत के बाद यकबयक श्रवण जी ने बम फोड दिया। उन्होंने कहा- 'प्रबंधन चाहता है आप दफ्तर में न आए , घर से काम करें। सप्ताह मेंं एक दिन आप आर्टिकल लिखेंगे। आपको 35 हजार रूपये मासिक भुगतान किया जाएगा। 'यह अश्रु गैस वाला बम था सो आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। मैंने मर्माहत स्वर में उनसे कहा-'मेरी अभी पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरी नहीं हुई है। कुछ तो सोचिए।' दरअसल मुझे इस बात का जरा भी भान नहीं था कि मैं 60 का हो गया हूं अत: कंपनी की सेवा नियमानुसार रिटायर कर दिया जाऊंगा। कंपनी ने अपनी पालिसी के तहत रिटायर कर दिया पर साथ ही संविदा नियुक्ति भी दे दी। यह बड़ी बात थी। उससे भी बड़ी बात यह थी कि श्रवण जी ने भरोसा दिया था कि कंपनी आपके साथ है और वक्त पर आपकी हर संभव मदद की जाएगी। जाहिर है श्रवण जी व प्रबंध संचालक सुधीर अग्रवाल ने मेरा ख्याल रखा। मुझे बेरोजगार नहीं होने दिया। यह उनका भरोसा ही था कि वर्ष 2013 में मैं कान्ट्रेक्ट बेसिस पर पुन: दैनिक भास्कर में था।

श्रवण जी के दिलासा देने व मोहब्बत से पेश आने के बावजूद मैं इतने जल्दी हथियार डालने वाला नहीं था। साठ का होने के बावजूद ऊर्जा से भरपूर था। ईश्वर की कृपा से कद काठी भी ऐसी थी कि वास्तविक उम्र का अंदाज नहीं लगाया जा सकता था। इसलिए नये रास्ते की तलाश मन में घर कर गई थी। फिर भी भोपाल से रायपुर लौटते वक्त मन चिंता से भरा हुआ था। रायपुर लौटा तो खबर आम हो गई थी कि कोई नया संपादक आने वाला है। पर अवनीश जैन का रायपुर आगमन किसी न किसी कारण से टल रहा था। दो-तीन महीने यों ही गुजर गए। मुझे वक्त मिलता गया। मुझ पर ईश्वर की ऐसी कृपा रही है कि नौकरी में एक दरवाजा बंद हुआ नहीं कि दूसरा जल्दी खुल जाता है। एक भी दिन खाली बैठने की नौबत नहीं आई। इस बार भी ऐसा ही हुआ। 'वाच' के नाम से रायपुर से एक न्यूज चैनल की शुरुआत होनी थी। राजधानी में एसपी व डीआईजी रहे रूस्तम सिंह के युवा पुत्र राकेश सिंह व भिलाई-दुर्ग के युवा उद्योगपति अखिल बहादुर के स्वामित्व में छत्तीसगढ़ के प्रथम रीजनल न्यूज चैनल को चीफ एडीटर की तलाश थी। संचालकों ने मुझसे संपर्क किया और मध्यप्रदेश -छत्तीसगढ़ को कव्हर करनेवाले इस चैनल में बहुत अच्छी सैलेरी पर मेरी एंट्री बतौर प्रधान संपादक के रूप में हो गई। भास्कर से रिटायर होने की जरूरत नहीं पड़ी। नया काम हाथ में आ गया। प्रिन्ट मीडिया से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। एक नया अनुभव। हालांकि यह सिलसिला लंबा नहीं चला।
--------------
(अगली कड़ी शनिवार 23 अक्टूबर को)

Comments

Popular posts from this blog

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-14)

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-7)

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-1)