मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-12)

समीक्षा की समस्याएं

मेरा अपना ख्याल है (बहुत - से लोग इसे नहीं मानेंगे) प्रत्येक आत्म चेतस व्यक्ति को अपनी मुक्ति की खोज होती हैं, और वह किसी व्यापकतर सत्ता में विलीन होने से ही अपनी सार्थकता समझता है। किन्तु आज की दुनिया में, यह व्यापकतर सत्ता विश्व-मानवता तथा तत्सम्बन्धी मूर्तिमान समस्याएं और प्रश्न ही हो सकते हैं। अतएव प्रत्येक लेखक, एक विशेष अर्थ में, इसी उच्चतर सत्ता में केवल विलीन ही नहीं होता, वरन् वहां विलीन होकर क्रियाशील हो उठता हैं - तत्स्थानीय तत्क्षेत्रीय सारे भूगोल- इतिहास का आकलन करके। संक्षेप में मुक्ति व्यापक तथा व्यापकतर क्रियाशीलता का दूसरा नाम है। और कलाकार को ऐसी मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती, जब तक वह कला-कर्म से भिन्न, ये जो अपने आंतरिक कार्य हैं, उनको सम्पन्न करने का निरंतर प्रयत्न नहीं करता। मेरा अपना विचार यह है कि कलाकार के इन आंतरिक कार्यों को यदि हम अपने ध्यान में रखें, तो हमें यही समझ में आयेगा कि लेखक की ईमानदारी के प्रश्न को केवल उस लेखक की निजगत भावाभिव्यक्ति की निजगत सच्चाई ही में सीमित करके नहीं देखा जा सकता, वरन् अपने-आपको अधिकाधिक अन्त: समृद्धिसम्पन्न, अधिकाधिक प्रसारशील, बनाने के उसके अपने जो यत्न है, उससे संबद्ध करके देखा जाना चाहिए। अर्थात वस्तुपरक सत्यपरायणता की संवेदनात्मक प्रवृत्तियों और उन्मुखताओं का समावेश भी ईमानदारी की कल्पना में आवश्यक है। आत्म-परक ईमानदारी तथा वस्तुपरक सत्यपरायणता, इन दोनों का अन्त: करण में जो संवेदनात्मक योग होता है, वह जीवन-विवेक का प्राण है। जीवन-विवेक के इन दोनों पक्षों में से किसीएक को भी नहीं छोड़ा जा सकता।

(संभावित रचनाकाल 1963, नई कविता का आत्म संघर्ष तथा रचनावली खंड 5 में संकलित)


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हो सकता है

हो सकता है,
सत्य आज का
कल केवल गुत्थी औ' परसों
सिर्फ निरर्थक भ्रम कहलाये
पर उसके पीछे का वह इतिहास
कहां जायेगा
मात्र एक मानव - विवेक - वेदना
कहाँ जायेगी !!
हो सकता है
युगांधकार-क्षणों में मन में
वह बिजली बुझ जाये, लेकिन
फिर वह तड़प - तड़प उठेगी लहरायेगी
ज्वलंत एक मानव-विवेक-वेदना
पुन:- पुन:
जन्म ग्रहण करती है !!

(अपूर्ण, संभावित रचनाकाल 1952-54)

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गूंज सुनाई देती है

गूंज सुनाई देती है याँगटीज-क्याँग की
जलते घर के टूटे जीने पर से
सब-बरबाद गिरस्ती का आसबाब
अरे ! ढोनेवाले दिल की बेकल गहराई में यों
दोड़ गई है श्वेत छलछलातीं लहरें
याँग-टीज-क्यांग की!
दूर हिमालय-पार चीन के मैदानों पर
चलती हुई बयार
ह्दय में एक गहन रफ्तार बन गई
जिंदगी के जिंदा पहियों की!!
दूर उधर है मुक्ति-घोष का हर्ष-नाद
पर इधर कंटीले चाबुक के नीचे
मरता था बचा खुचा परिवार

(अपूर्ण, संभावित रचनाकाल 1952-53)

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