मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-19)


साहित्य में सामूहिकता की भावना-1

आज गांधीवादी नीति वर्तमान स्थिति में और छायावादी साहित्य विद्यमान क्षण में इसी पूँजीवादी कमज़ोरी के शिकार हैं। व्यक्ति की अपनी व्यावहारिक नीति की रक्षा और सामाजिक कर्तव्य के भान की रक्षा तब तक संभव नहीं जब तक वह इस वैचारिक सडाव से पूर्णतया परिचित नहीं हो लेता। हमारी संस्कृति का बहता पानी इतना कम हो गया है कि बाँध बाँधना पड़ा , परंतु चुपचाप पानी न बहने के कारण सड़ा जा रहा है। इसलिए पहले बाँध को तोडऩा बहुत जरूरी है , दूसरे नये झरने के नये पानी लाने लाने की कोशिश बहुत आवश्यक है।
(संभावित रचनाकाल 1945- 47, रचनावली खंड 5 में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

साहित्य में सामूहिकता की भावना-2

हमारे साहित्य , दर्शन और कला में हमें इसी सामूहिक भावना  का विकास करना है। यह कहना ग़लत है कि यह सामूहिक भावना व्यक्ति की क़ीमत पर हुई है। सच्चा आत्म-स्वातंत्र्र्य प्राप्त करने के लिए सामूहिकता आवश्यक है। सामूहिकता की विशाल उर्वर भूमि में ही व्यक्ति के वृक्ष और लताएँ फूलती और फलती हैं। यह स्वस्थ सामूहिकता तभी होगी जब कि हम आर्थिक समानता उत्पन्न करें, और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उन्नति के पूरे साधन और मौक़े दें। यह सामूहिकता की भावना आत्म-स्वातंत्र्र्य  और व्यक्ति स्वातंत्र्र्य के अत्यंत अनुकूल है।
(संभावित रचनाकाल 1945- 47, रचनावली खंड 5 में संस्करण)
************************************************************************************************************************************************************************************************

जनता का साहित्य किसे कहते हैं-1

गलतियों के पीछे एक मनोविज्ञान होता है। या, यूँ कहिए कि ग़लतियों का स्वयं एक अपना मनोविज्ञान है। तजुर्बे से नसीहतें लेते वक्त, अपने ग़लतियों वाले मनोविज्ञान के कुहरे को भेदना पड़ता है। जो जितना भेदेगा, उतना पायेगा। लेकिन पाने की यह जो प्रकिया है वह हमें कुछ सिद्धांतों के किनारे तक ले जाती है, कुछ सामान्यीकरणों को जन्म देती है। यानी, तजुर्बे की कोख से सिद्धांतों का जन्म होता है।
(नया ख़ून, फऱवरी, 1953 में प्रकाशित। रचनावली खंड 5 में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

जनता का साहित्य किसे कहते हैं-2

जनता का साहित्य का अर्थ जनता को तुरंत समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं। अगर ऐसा होता तो कि़स्सा तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। साहित्य के अंदर  सांस्कृतिक भाव होते हैं। सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए, बुलंदी बारीकी और खूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए, जिसका नक्शा साहित्य में रहना है, सुनने या पढऩे वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है। वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन का सांस्कृतिक परिष्कार। साहित्य का उद्देश्य सांस्कृतिक परिष्कार है, मानसिक परिष्कार है। किन्तु यह परिष्कार साहित्य के माध्यम द्वारा तभी संभव है जब स्वयं सुननेवाले, पढऩे वाले की अवस्था शिक्षित (की) हो।  यहीं कारण है कि मार्क्स का दास केपिटल, लेनिन के ग्रंथ, रोम्यॉ रोला के, तॉलसतॉय और गोर्की के उपन्यास एकदम अशिक्षित  और असंस्कृतों के न समझ में आ सकते हैं  और न उनके पढऩे के लिये होते ही है। 'जनता का साहित्य का अर्थ' जनता के लिए साहित्य से है और वह जनता ऐसी हो जो शिक्षा और संस्कृति द्वारा कुछ स्टैंडर्ड प्राप्त कर चुकी हो।
(नया खून, फऱवरी, 1953 में प्रकाशित। रचनावली खंड 5 में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

जनता साहित्य किसे कहते हैं-3

जो लोग 'जनता का साहित्य' से यह मतलब लेते हैं कि वह साहित्य जनता के तुरंत समझ में आये , जनता उसका मर्म पा सके यही उसकी पहली कसौटी है - वे लोग भूल जाते हैं कि जनता को पहले सुशिक्षित और सुसंस्कृत करना है। वह फि़लहाल अंधकार में हैं। जनता को अज्ञान से उठाने के लिए हमें पहले उसको शिक्षा देनी होगी। शिक्षित करने के लिए जैसे ग्रंथों की आवश्यकता होगी, वैसे ग्रंथ निकाले जायेंगे और निकाले जाने चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसकी प्रारंभिक शिक्षा देने  वाले ग्रंथ तो श्रेष्ठ हैं , और सर्वोच्च शिक्षा देने वाले ग्रंथ श्रेष्ठ नहीं हैं। ठीक यहीं भेद साहित्य में भी है। कुछ साहित्य तो निश्चय ही प्रारंभिक शिक्षा के अनुकूल होगा, तो कुछ सर्वोच्च शिक्षा के लिए। प्रारंभिक श्रेणी के लिए उपयुक्त साहित्य तो  साहित्य है, और सर्वोच्च श्रेणी के लिए उपयुक्त साहित्य  जनता का साहित्य नहीं है, यह कहना जनता से ग़द्दारी करना है।
(नया ख़ून , फऱवरी 1953 में प्रकाशित, रचनावली खंड 5 में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

जनता का साहित्य किसे कहते हैं-4

 तो फिर 'जनता का साहित्य'  का अर्थ क्या है? जनता के साहित्य से अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन - मूल्यों को, जनता के जीवनादर्शों को, प्रतिष्ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से  मुक्ति तक है। अत: इसमें प्रत्येक प्रकार का साहित्य सम्मिलित है, बशर्ते कि वह वह सचमुच उसे मुक्तिपथ पर अगरसर करें।
(नया ख़ून फऱवरी 1953 में प्रकाशित। रचनावली खंड 5 मे संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

मार्क्सवादी साहित्य का सौन्दर्यपक्ष

यह सही है कि साहित्य - रचना में प्रतिभा का बहुत बड़ा स्थान होता है। किंतु वास्तविक प्रतिभावान कौन कहाँ तक है, इसका निर्णय महान उपलब्धियों के पूर्व नहीं, पश्चात होता है। पूर्वतर स्थिति में तो सभी लेखक गुणवान होते हैं। सच तो यह है कि समय की कसौटी पर जिस लेखक का साहित्य खरा उतरेगा, वही प्रतिभावान कहलायेगा। लेकिन, क्या इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम सभी को लिखने दें, ऐसों को भी कि जो पेशेवर साहित्यकार नहीं हैं।
(वसुधा, 1960 में प्रकाशित, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, रचनावली खंड 5 संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

वस्तु और रूप - चार

मेरा अनुभव है कि नये कवियों में- विशेषकर नवागत तरूण  कवियों में - एक ऐसी छटपटाहट है, जो उन्हें जीवन -जगत के प्रति जागरूक होकर सोचने और जहाँ जो कुछ समृद्ध और सम्पन्न है उसे आत्मसात करने के लिए प्रवृत्त करती है। वह बहुत बार उन्हें आगे भी ले जाती है , और संघर्ष का रास्ता भी बताती है।
(नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, रचनावली खंड 5 संकलित )
************************************************************************************************************************************************************************************************

समीक्षा की समस्याएँ-1

कोई भी भावना न अपने आप में प्रतिक्रियावादी होती है, न प्रगतिशील। वह वास्तविक जीवन -संबंधों से युक्त होकर ही उचित या अनुचित, संगत या असंगत, सिद्ध हो सकती है। किसी भी भावना के जीवन - संबंधों  को देखना आवश्यक है। घृणा यदि उचित के प्रति है तो वह स्वयं घृण्य है, यदि वह अनुचित के प्रति है तो वह प्रशंसनीय है। उसी प्रकार, वैफल्य और निराशा किन जीवन-संबंधों के आधार पर है? उस निराशा की जन्मभूमि जो मानव-जीवन है, उसको ध्यान मे रखकर ही , उसका विश्लेषण और मूल्याँकन किया जा सकता है।
(रचनाकाल 1963, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा रचनावली खंड 5 में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

समीक्षा की समस्याएँ-2

माक्र्सवादी दर्शन एक यथार्थ दर्शन है, यथार्थ - विकास का, मानव संज्ञा के विकास का, दर्शन है। अतएव उसके लिए सर्वाधिक मूलभूत और महत्वपूर्ण है जीवन - तथ्यों की वास्तविकता, जो राजनीति, समाजनीति, कला आदि को उपस्थित करती है।
(रचनाकाल 1963, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा  रचनावली खंड 5 में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

समीक्षा की समस्याएँ-3

साहित्यिक पत्रकारिता और समीक्षा में अंतर न समझना भूल होगी। पत्रकारिता कलात्मक नहीं हो सकती,  यह मैं नहीं कह रहा हूँ। मैं यह कहना चाहता हूँ कि लेख में किसी विशेष पक्ष या किसी ख़ास बात को ज़ोरदार ढंग से खड़ा करने के लिए , (जिससे कि दूसरों का ध्यान उस ओर खिंच सके), हमें एकपक्षीय बल और एकांगी अतिरेक प्रस्तुत करना पड़ता है। वैसा करना कभी कभी आवश्यक हो जाता है। वैसा न करना ग़लत है। प्रतिमास प्रतिवर्ष बनते हुए साहित्य की गतिविधि को ठीक - ठिकाने रखने के लिए यह बहुत  आवश्यक  भी है। किन्तु  हमेशा यह ध्यान में रखना  होगा कि  उसमें  एकपक्षीय अतिरेक और बल है। दूसरे शब्दों में, साहित्यिक पत्रकारिता समीक्षा का स्थान नहीं ले सकती। दोनों एकदूसरे से भिन्न है। हाँ, इन दोनों के बीच सहयोग हो सकता है, जो कि आवश्यक भी है। किन्तु साहित्यिक पत्रकारिता साहित्यिक पत्रकारिता है, और समीक्षा समीक्षा।
(रचनाकाल 1963, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा  रचनावली खंड 5 में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

समीक्षा की समस्याएँ-4

शीतयुद्ध के प्रचार और प्रभाव के परिणामस्वरूप हिंदी में ऐसे समीक्षक -विचारक भी सामने आये, जिन्होंने न केवल प्रगतिवादी समीक्षकों की भूलों का फ़ायदा उठाया, वरन वे साहित्य में ऐसी विचारधारा का विकास करने लगे, जिसका उद्देश्य लेखक को उस वास्तविक जीवन -संघर्ष में प्राप्त जीवन - मूल्यों से हटाकर सम्पूर्ण व्यक्तिकेन्द्री बना देना था। नि:संदेह मेरे इस वक्तव्य से बहुतों को आपत्ति होगी।
(रचनाकाल 1963, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा  रचनावली खंड 5 में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

समीक्षा की समस्याएँ-5

किन्तु, व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो समाज में ऐसी आर्थिक स्थिति और सामाजिक परिस्थियाँ पैदा हो गयी हैं कि जिसके कारण व्यक्ति स्वातंत्र्र्य केवल व्यक्ति-केन्द्रिता का दूसरा नाम बन गया है। यह विषय बहुत गहरा है , और इसके बहुत से पहलू हैं। यहाँ उन सबमें जाया नहीं जा सकता। केवल इतना ही कह दूँ कि भारत में जनतंत्र है, और आपेक्षिक रूप से तथा विशेष स्तर पर यहाँ व्यक्ति-स्वातंत्र्र्य अवश्य ही है। और उसकी रक्षा करना तथा उसे दृढ़ करते जाना हमारे लिए जरूरी है। लेकिन उपेक्षा द्वारा यह स्वातंत्र्र्य छिन भी सकता है।
(रचनाकाल 1963, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा  रचनावली खंड 5 में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

काव्य-एक सांस्कृतिक प्रक्रिया

संक्षेप में, नयी कविता, वैविध्यमय जीवन के प्रति आत्म-चेतन व्यक्ति की संवेदनातमक प्रतिक्रिया है। चूँकि आज का वैविध्यमय जीवन विषम है, आज की सभ्यता ह्रासग्रस्त है, इसलिए आज की कविता में तनाव होना स्वाभाविक ही है। किसी भी युग का काव्य अपने परिवेश से या तो द्वंद्व रूप में उपस्थित होता है, या सामंजस्य के रूप में। नयी कविता अधिकतर द्वंद्व रूप में स्थित है। इसका अर्थ यह नहीं है कि नयी कविता में ह्रदय का सहज रस या रमणीयता नहीं है। नयी कविता के निकृष्ट उदाहरणों को चुनकर उस पर दोषारोपण करना व्यर्थ है। उसके श्रेष्ठ उदाहरणों को लेकर ही उसके विषय में कुछ कहा जा सकता है।
सच तो यह है कि नयी कविता के भीतर कई स्वर हैं, कई शैलियाँ हैं, कई शिल्प हैं, और कई भाव पद्धतियाँ। नयी कविता एक काव्य -प्रकार का नाम है। उस काव्य -प्रकार के भीतर अनेकानेक व्यक्तिगत शैलियाँ, शिल्प, रचना-विधान और जीवन दृष्टियाँ हैं। नयी कविता की प्रतिभा किस लेखक में कहाँ हैं, और कहाँ तक है, यह विवाद का विषय है।
(कृति मई 1960 में प्रकाशित , नयी कविता का आत्म संघर्ष व रचनावली में संकलित )
************************************************************************************************************************************************************************************************

अंतरात्मा और पक्षधरता-1

क्या इतिहास में हमें ऐसे प्रसंग नहीं मिलते हैं ? ख़ूब मिलते हैं। औरंगज़ेब ने पहले दारा, मुराद और शुजा को ख़त्म किया और घर को निष्कंटक करके बाहर चढ़ दौड़ा। दारा और औरंगज़ेब की यह जोड़ी आपको हर जगह मिलेगी। अमरीका में भी, रूस में भी, साम्यवादी जगत में भी, पूँजीवादी-साम्राज्यवादी दुनिया में भी। भारत में भी मिलती है।
- दारा की हत्या की संभावना हमेशा रही है। हमेशा रहेगी। द्वंद्वात्मक स्थिति की गत्यात्मकता व्यक्ति -रक्षा नहीं करती, प्रवृत्ति-रक्षा सम्पन्न करती है। इसलिए दारा का जन्म बार-बार होगा और वह अपना प्रभाव फैलाने के बाद बार-बार मारा जायेगा।
- दारा प्रभावशील विद्वान और भीगा हुआ राजकुमार था। मैं वह नहीं हूँ, बहुत बहुत छोटा हूँ , जनसाधारण हूँ, अत्यन्त अल्प हूँ। इसलिए मैं बार -बार नहीं मरूँगा, एक बार मर जाऊँगा हमेशा के लिए, किसी के किये से नहीं, अपने किये।
- फिर भी एक प्रश्न है, और वह यह कि मेरी अंतरात्मा कहाँ तक विकसित है। स्वयं के अनन्यीकरण, इतरीकरण के साथ मैं कहाँ तक जगत के साथ, अनन्यीकरण और उसका स्वकीयीकरण कर सका हूँ? दूसरे शब्दों में, अपनी अंतरात्मा के प्रयोजन को मैं कहाँ तक दृढ़ कर सका हूँ।


अंतरात्मा और पक्षधरता-2

अहंकार अपना एक इन्द्रजाल खड़ा करता है। तर्क और युक्ति, सही और आधी-सही, बातों का एक अस्त्रागार उसके पास है। लेखक अपनी लेखनी से भी अपने अहंकार की तुष्टि करता है। वह खुद ही अपनी आँखों के सामने कैसा - कैसा अभिनय करता है, तन्मय होकर!

मैं इससे बचना चाहता हूँ, और पराजित हो जाने में ही अपना कल्याण समझता हूँ, क्योंकि पराजित हो जाने से ही तो कोई विजित हो नहीं हो सकता।

मनुष्य की बुद्धि इतनी कम है, यथार्थ का प्रसार इतना विस्तृत और उलझाव भरा है, कि केवल मेरी ज्ञान-प्रक्रिया ही से - केवल मेरी ही अपनी ज्ञान-प्रकिया में सीमित रहने से - मैं उसका सर्वाश्लेषी आकलन नहीं कर सकता। इसीलिए मैं चाहता हूँ ज्ञान-परम्परा, भाव-परम्परा और उसको धारण करने वाला यह जो जगत है, वह। मै उसे चाहने लगता हूँ ।
(रचनाकाल अनिश्चित, नयी कविता का आत्मसंघर्ष व रचनावली में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

बहुत शरम आती है

बहुत शरम आती है मैंने 
ख़ून बहाया नहीं तुम्हारे साथ
बहुत तड़पकर उठे वज्र-से
गलियों के जब खेतों -खलिहानों के हाथ

बहुत ख़ून था छोटी -छोटी पंखुडिय़ों में
जो शहीद हो गयी किसी अनजाने कोने
कोई भी न बचे ,
केवल पत्थर रह गये तुम्हारे लिए अकेले रोने

(रचनाकाल 1949-50/ अप्रकाशित, रचनावली खंड 1 में संकलित)
************************************************************************************************************************************************************************************************

सहर्ष स्वीकारा है

जि़ंदगी में जो कुछ है , जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है ,
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।
गऱबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब 
दृढ़ता  यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है , मौलिक है 
इसलिए कि पल -पल में
 जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है -
संवेदन तुम्हारा है !!

( रचनाकाल 1953 साहित्यकार व नया ख़ून में प्रकाशित, रचनावली खंड 1 में संकलित )
************************************************************************************************************************************************************************************************

मैं तुम लोगों से दूर हूँ 

मैं तुम लोगों से इतना दूर हूं
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है
असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ 
इसलिए कि वह चक्करदार जीनों पर मिलती है
छल -छद्म धन के 
किन्तु मैं सीधी-सादी पटरी -पटरी दौड़ा हूँ 
जीवन की।
फिर भी, मैं अपनी सार्थकता में खिन्न हूँ
निज से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर, रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मै उस ओर अपने को ढो नहीं पाता
शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
शेष सब अवास्तव  अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है
सत्य केवल एक जो कि
दु:खों का क्रम है।
मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ 
शेवरलेट -डॉज के नीचे मैं लेटा हूँ 
तेलिया लिबास में पुरजे सुधारता हूँ
तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।

(संभावित रचनाकाल 1960-61, चाँद का मुँह टेढ़ा व रचनावली खंड 2 में संकलित)



Comments

Popular posts from this blog

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-14)

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-7)

मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-1)